हमारे व्यक्तिगत जीवन में कई उतार चढ़ाव आते हैं जिनसे हम कुछ न कुछ सीखते ही हैं या कहें की हमें कुछ न कुछ सीखा ही जाता है। जबसे हमारी लड़ाई कोरोना से शुरू हुई है तो ये किसी एक व्यक्ति की न होकर पूरे समाज की लड़ाई बन गयी है। इसमें तो सीखने को और ज़्यादा मिल रहा है।
जब हम ऐसा कुछ अपने परिवार के स्तर पर कर रहे होते हैं तो ये एक छोटा समूह रहता है। उसमें से आप ज़्यादातर लोगों को जानते हैं, उनके मिज़ाज़ से वाकिफ़ होते हैं। लेकिन इस समय कोरोना के ख़िलाफ़ जिस सोसाइटी में आप रहते हैं वो सब, उस गली, मुहल्ले, शहर में रहने वाले, सब इसमें साथ हैं। मेरे जैसे अति असामाजिक व्यक्ति के लिये तो ये एक बड़ा सीखने वाला समय है। साल में एक दो बार दिख गये तो कुशल क्षेम पूछने वाले व्यक्तियों के स्वभाव के बारे में कुछ पता चलता है। कुछ अपने बारे में भी की आप कैसे इसका सामना करते हैं और क्या आपका देखने का तरीका सिर्फ़ बोलने तक सीमित है या वाक़ई में कुछ करने का साहस भी रखते हैं। अपने लिये तो सब कुछ न कुछ कर लेते हैं लेक़िन उस समाज के लिये आप क्या करने को तैयार हैं इसका भी पता चल जाता है।
विपत्ति के समय हमें कुछ अच्छे तो कुछ थोड़े कम अच्छे अनुभव होते हैं। मैं उन्हें बुरा इसलिये नहीं मानता क्योंकि उसमें भी कुछ तो अच्छा होता ही है। बस आप उस अच्छे को ले लीजिये और बुरे को छोड़ दीजिये। समाज के स्तर पर ऐसे मौके कम ही आते हैं जब सब मिलकर किसी एक मोर्चे पर लड़ाई लड़ रहे हों। इस समय सब एक ही मोर्चे पर तो हैं लेकिन साथ साथ नहीं हैं। सब मजबूरी में साथ हैं और कहीं न कहीं ये दिख जाता है।
ये भी पढ़ें: सुन खनखनाती है ज़िन्दगी, देख हमें बुलाती है ज़िन्दगी
एक और जहाँ समाज में ऐसे कई उदाहरण मिल जायेंगे जो लोगों की सिर्फ़ मदद करना जानते हैं, वहीं दूसरी और ऐसी भी कई घटनायें हुई हैं जिन्हें जानने के बाद मेरी आँखों मैं आँसूं आ गये। जैसे आंध्र प्रदेश की वो महिला जिसने गर्मी में काम कर रहे पुलिसकर्मियों के लिये कोल्डड्रिंक की दो बोतल ख़रीद कर दी। उन्होंने चार बोतल के पैसे होने का इंतजार नहीं किया। दो ख़रीद सकती थीं तो उसी समय दे दी।
या बेंगलुरू की वो सब्ज़ी विक्रेता जिन्होंने एक भले मानस से पूछा की वो इतनी सारी सब्ज़ियों का क्या करेंगे। ये जानने पर की वो करीब 200 लोगों के भोजन की व्यवस्था कर रहे हैं तो उन्होंने सारी सब्ज़ी मुफ़्त में दे दी।
दूसरी और आज चेन्नई के एक डॉक्टर का वीडियो देखा जिसमें वो हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर रहे हैं की लोग डॉक्टरों पर हमले करना बंद करें। उनके मित्र जो स्वयं डॉक्टर थे, उनकी कोरोना वायरस से मृत्यु हो गई लेकिन जब उनको चर्च में दफ़नाने की बात आई तो आसपास के लोगों ने उनकी अंतिम यात्रा में शामिल लोगों पर हमला कर दिया। अंत में उनको दफ़नाने का सारा काम उनके मित्रों के द्वारा ही किया गया।
क्या हमारे अंदर की मानवता ख़त्म हो चुकी है? एक व्यक्ति जो हमारे समाज का हिस्सा था, क्या उसको एक सम्मानजनक अंतिम संस्कार भी नहीं मिलने देंगे? आपको अगर ये चिंता है की ऐसा करने से वायरस फैलेगा, तो आप अधिकारियों से बात करिये। लेक़िन अपने किसी अज़ीज़ की मौत के ग़म में डूबे लोगों पर हमला किसी भी नज़रिये से उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
अमेरिका की एक घटना का वीडियो देखा जिसमें भारतीय मूल की एक महिला चिकित्सक ने भी कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ते हुये अपनी जान गवायीं। लेक़िन वहाँ डॉक्टरों से ऐसे सुलूक के बारे में नहीं पढ़ा। हमारे यहाँ तो ऐसी कई घटनायें हुई हैं।
ये भी पढें: ताज़ी ताज़ी लगे हमको रोज़ाना, तेरी मेरी बातें यूँ तो पुरानी है
दूसरी घटना जिसको पढ़कर मन व्यथित हो गया वो थी बारह साल की उस कन्या की जिसने अपने घर की ओर पैदल सफ़र ख़त्म होने के चंद घंटे पहले ही दम तोड़ दिया। जब वो घर के इतने करीब थी तो उसके मन में भी ये उत्साह रहा होगा की बस अब पहुँचने ही वाले हैं? क्यूँ हमारा सिस्टम इन लोगों की ख़ैर खबर नहीं रख पाया? क्या हम उसकी जान बचा नहीं सकते थे?
और फ़िर पढ़ने को मिलता है ऐसी महिला अधिकारी के बारे में जो जन्म देने के 22 दिन बाद ही काम पर वापस लौट आईं क्योंकि उस समय उनकी ज़रूरत समाज को थी।
अगर हम सब सिर्फ़ भगवत गीता के \”कर्म किये जाओ फ़ल की चिंता मत करो\” के सिद्धांत पर बस काम करते रहें तो क्या हम एक अच्छे समाज को बनाने में सहायक नहीं होंगे?