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वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है

आज से ठीक एक महीने पहले दिल्ली से जब ट्रेन में बैठा था तो वो शाम भी कुछ अजीब थी और आज की ये शाम भी कुछ उस शाम जैसी ही है। 29 सितंबर को जब मैं हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन पर अपनी ट्रैन की ओर कदम बढ़ा रहा तो जो समान दिख नहीं रहा था उसका बोझ सबसे ज़्यादा था और वो थीं अनगिनत यादें। समेटना भी मुश्किल और सहेज कर रखना भी मुश्किल।

दिल्ली और 15 नवंबर से शुरू हुई नई पारी।का अंत होने जा रहा था। लेकिन ये बीता समय कमाल का था। कुछ नए प्रतिभावान टीम के सदस्यों के साथ काम करने का मौका मिला। हमारी नई शुरुआत को सराहा गया, गलतियों को बताया गया और जोश एवं उल्लास के साथ कुछ अच्छा और अलग करने का निरंतर प्रयास किया।

इस पूरे प्रवास की सबसे बड़ी उपलब्धि थी कलम में सुखी हुई स्याही को बदलने की और फिर से लिखने की। हालांकि ये प्रक्रिया की शुरुआत काफी अच्छी रही लेकिन जैसे जैसे काम तेजी पकड़ने लगा लिखना कम होता गया। प्रयास होगा कि इसे पुनर्जीवित कर निरंतरता कायम रहे।

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