चन्दर, सुधा और गुनाहों का देवता

मोहब्बत का खयाल ही अपने आप में बहुत रोमांचित महसूस कराता है। अपने आसपास बहुत से लोगों को इस एहसास से गुज़रते हुए देखा और आज भी देख ही रहा हूँ। पर वैसी मोहब्बत कम ही देखने को मिली जैसी सुधा और चन्दर की थी। ये दो नाम भले ही एक कहनी के पात्र हों लेकिन मैंने इन्हें देखा है बहुत करीब से। कई बार तो लगता है मैं ही चन्दर हूँ लेकिन मेरी सुधा बदलती रही।

बचपन से घर में किताबों से भरी अलमारी अपने आसपास देखी हैं और उन्हें पढ़ा भी। घर का माहौल ऐसा था कि कोई न कोई मैगज़ीन आती रहती थी। अच्छी आदत ये पड़ गयी कि पढ़ने पर कोई रोक टोक नहीं थी। सभी लोग इसमे शामिल थे। मेरी इस आदत का पूरा श्रेय पिताजी को जाता है। किताबों के लिए कभी मना नहीं किया। हाँ ये ज़रूर है कि मैंने इतने मनसे कभी अपनी पढ़ाई की किताबों को भी नहीं पढ़ा जितना घर में फैली हुई इन किताबों को।

लोग कितना पढ़ने में तल्लीन रहते थे इसका भी एक किस्सा है। घर की सदस्य एक नॉवेल पढ़ने में मगन थीं कि अचानक कोई मेहमान आ गया। अब जैसा उन दिनों का चलन था उनसे बोला कि आप अंदर बैठकर पढलें कोई आया हुआ है। उन्होंने कान से ये बात सुनी और किताब पढ़ते हुए ही चलना शुरू कर दिया और धम्म से मेहमान के बगल में जा बैठीं। वो तो थोड़ी ऊंची आवाज़ उनके कानों में पड़ी तब उन्हें एहसास हुआ कि कुछ गलती हो गयी है।

किताबें आपको अपनी एक अलग दुनिया में ले जाती हैं। ऐसी ही एक किताब मुझे पढ़ने को मिली याद नहीं कब लेकिन छोड़ गई एक अमिट छाप। धर्मवीर भारती की गुनाहों का देवता। बहुत ही अद्भुत किताब है बावजूद इसके की पढ़के आपके आंसू बहने लगते हैं और कुछ दिनों तक आप पर इसका प्रभाव रहता है। लेकिन साथ रह जातें हैं इसके किरदार।

इस किताब के प्रति मेरा इतना प्यार शायद फ़ोन वाली घटना से प्रेरित होगा। लेकिन इसकी संभावना बहुत कम है क्योंकि एक मुलाकात से इसका फैसला करना कि आप एक दूसरे के लिये बने हैं थोड़ा मुश्किल लगता है। कॉलेज के दौरान कई दोस्तों को इस पचड़े में पड़ते देखा। लेकिन थोड़े दिन बाद पता चलता कि अब दोनों की ज़िंदगी में कोई और है। कुछ इसका अपवाद रहे और वो शादी के बंधन में बंध भी गए।

ऐसी ही एक कहानी थी एक मित्र जो अपने सबसे करीबी दोस्त के परिवार की सदस्य को अपना दिल दे बैठे। मुश्किल ये थी कि इज़हारे मोहब्बत करते तो दोस्ती टूटने का खतरा और उससे भी बड़ी समस्या ये की सामने वाला आपके बारे में क्या खयाल रखता है इसका कोई अतापता नहीं। उन्होंने दोस्ती के लिये प्यार कुर्बान कर दिया। लेकिन उनके टूटे हुए दिल की दास्तां मैंने कई शाम सुनी। कई बार सुना कि कैसे किसकी मुस्कुराहट का जादू होता है और कैसे कोई आंखों से छलकते हुये प्यार को नहीं देख पाता। कई बार लगा कि मैं ही यह बात बता दूँ। लेकिन उन्होंने रोक लिया औऱ बात हम दोनों के बीच ही रह गयी।

जब काम करना शुरू किया तो आफिस में ये किस्से काफी आम हो चुके थे। और सभी एक उम्र के थे तो इसलिए कुछ अटपटा भी नहीं लगता था। सबके किस्से सुनते सुनते एक दिन कानों तक बात पहुँची कोई और सुधा तुम्हे पसंद करती है।
क्या इस कहानी का अंत भी दुखद होगा या चन्दर को सुधा सदा के लिए मिल जायेगी ?

दिल संभल जा ज़रा

कल जब शान-ए-भोपाल से दिल्ली वापसी का सफर शुरू किया तो एक बार फिर दिल मायूस हुआ। भोपाल छोड़े हुए इतने साल हो गए लेकिन तब भी हर बार शहर छोड़ने का दुख रहता है। ऐसा नहीं है की मुम्बई ने अपनाया नहीं। मुम्बई ने तो कभी पराया समझा ही नहीं और ऐसे गले लगाया जैसे पता नहीं कब से एक दूसरे को जानते हैं।

कब मुम्बई मेरी और मैं मुम्बई का हो गया ये पता ही नहीं चला। ठीक वैसे ही जब ऐश्वर्या राय अपनी माँ से हम दिल दे चुके सनम में सलमान खान से प्यार कब हुआ, कैसे हुआ पूछने पर कहती है – पता ही नहीं चला। शायद इसलिए इसे मायानगरी कहते हैं।

लेकिन फ़ोन किया गया था और शुभकामनाएं इत्यादि बातें हुई ये पता चल गया था। हिंदी की कहावत काटो तो खून नहीं वाली हालत थी। चोरी पकड़ी गई थी और अब सज़ा की तैयारी थी। लेकिन जवानी का जोश ऐसा की जो करना है करलो। अब बात शादी तक पहुंच गई थी तो कुछ ज़्यादा सीरियस मामला लग रहा था। मतलब ट्रेलर बन रहा था और पिक्चर सिनेमा हॉल में लगने को तैयार।

अल्ताफ ने पूछा कि दिलवाले दुल्हनिया ले गए या देवदास बन गए। हुआ कुछ भी नहीं। ना तो दुल्हनिया लाये न देवदास बने। क्योंकि ये सारी मंज़िलें थोड़ी ऊपर थीं। हम तो बस इस मोहब्बतनुमा इमारत के दरवाजे पर दस्तक ही दे पाए थे की ये सब हो गया।

एनकाउंटर होने वाला था दोनो पक्ष के परिवार वालों का एक अलग शहर में और समझ में ये नहीं आ रहा था कि इससे निकला कैसे जाए। खैर हमारे बड़े बहुत समझदार निकले और ऐसी कोई नोबत आयी नहीं और दोनों पक्ष बहुत ही सौहार्दपूर्ण वातावरण में मिले। घटना का ज़िक्र नहीं हुआ और न ज़िक्र हुआ उस फिल्मी डायलॉग का – क्यूं न हम अपनी दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल लें। वैसे परिवार में ऐसे विवाह हुए हैं लेकिन इस एपिसोड के काफी बाद।

इस पूरे समय दिमाग में सवाल यही था कि पता कैसे चला। उन दिनों लैंडलाईन हुआ करती थी और बड़े घरों में उसका एक्सटेंशन लगाया जाता था ताकि फ़ोन उठाने के लिए दौड़ भाग न करनी पड़े। उस रात दौड़ भाग तो नहीं हुई बस मेरा फ़ोन ठीक वैसे ही सुना गया जैसे गोगा कपूर फ़िल्म कयामत से कयामत तक में आमिर खान और जूही चावला की बातें सुन लेते हैं। यहां बात किसने सुनी ये रहने देते हैं।

क्या इसके बाद सुधार गए या फिर दिल संभल जा ज़रा फिर मोहब्बत करने चला है तू वाला मामला रहा ?

पहले पहले प्यार का किस्सा

उम्र के अलग अलग पड़ाव पर हम अलग अलग तरह के जोखिम उठाते हैं। बचपन में जब चलना सीख रहे होते हैं तो बार गिर कर तब तक कोशिश करते हैं जब तक ठीक से चलना नहीं सीख लेते। आपको अपना साईकल सीखने का समय याद है? जब कोई पीछे से अपना हाँथ खींच लेता है और आपका संतुलन बिगड़ जाता है। मगर कोशिश जारी रहती है। जोखिम उठाने के ये तरीक़े आगे बदलते रहते हैं।

जवानी के ऐसे बहुत से जोखिम आपका जीवन बदल देते हैं। मसलन दोस्तों के साथ कुछ नए तजुर्बे। ये वो समय भी रहता है जब आप नए दोस्त/सखी बनाते है जो आपके जीवन पर्यन्त मित्र रहते हैं। और कुछ दिलों के मामले होते हैं जिस पर किसी का जोर नहीं। ग़ालिब ने कहा भी खूब है ये इश्क़ नहीं आसान।

जिस तूफान का ज़िक्र मैंने किया था वो दरअसल खुद का खड़ा किया हुआ था जिसकी नींव रखी गयी थी कुछ तीन महीने पहले। एक परिचित के घर के सदस्य का आगमन हुआ हमारे यहाँ और बस माहौल कुछ वैसा होगया जैसा शाहरुख खान के साथ होता है फ़िल्म मैं हूँ ना में जब भी वो सुष्मिता सेन को देखते हैं।

इसके बारे में बहुत आगे तक सोचा नहीं था। बस उस समय का आनंद ले रहे थे। सच माने तो ये आँख मिचौली का खेल किस राह पर चलेगा या खत्म होगा इसका कोई पता न था। बहरहाल इस खेल को विराम लग ही गया जब वो अपने घर वापस गये। अब इसमें तूफान जैसा तो कुछ दूर दूर तक दिखाई नहीं देता?

जवानी के जोश में अक्सर हम कुछ खून की गर्मी के चलते ऐसे काम कर बैठते हैं जो शांत बैठ कर सोचा जाए तो बहुत बचकाने लगते हैं। वैसे खून की गर्मी का उम्र से कोई लेना देना नहीं होता है। आप को कई अधेड़ भी मिल जायेंगे जो ऐसी हरकतें नियमित करते हैं। लेकिन जब आप जवान होते हैं तो सारा ज़माना आप का दुश्मन होता है और बस जो आपकी सुन ले और जो आप सुनना चाहते हैं वो कह दे वही दोस्त होता है। वो तो समय के साथ पता चलता है कौन दोस्त है और कौन दुश्मन।

जब यह आंखों की गुस्ताखियां चल रही थीं उस दौरान मैं भोपाल के अंग्रेज़ी दैनिक में बतौर रिपोर्टर काम कर रहा था। साथ में पढ़ाई भी कर रहा था। इन सबसे जो समय बचा था उसका कुछ बहुत अच्छा सदुपयोग हो रहा हो ऐसा नहीं था। लेकिन सब इससे बड़े प्रभावित थे। हाँ अगर वो पूछ लेते पिछले परीक्षा परिणाम के बारे में तो मेरी और अमोल पालेकर की हालत में ज़्यादा फर्क नहीं होता जब उत्पल दत्त के सामने पानी पीते हुए उनकी नकली मूँछ निकल जाती है। बेटा रामप्रसाद…

तो एक रात जाने क्या सूझी सोचा एक फ़ोन लगा लूँ। परीक्षा के लिए शुभकाननाएँ दी जाएं। एसटीडी पीसीओ ऑपरेट कर रहीं भाभीजी की मदद से फ़ोन तक तो बुला लिया और संदेश भी दे दिया। मिशन सफल ठीक वैसे ही जैसे अभय देओल और आएशा टाकिया सोचा न था में रहते हैं। हम और कुछ उम्मीद कर भी नहीं रहे थे। लेकिन सब आप के जैसी सोच वाले मिल जाएं तो पति-पत्नी के जोक्स का क्या होगा। और यही जोक मेरा इंतेज़ार कर रहा था भोपाल में।

मुंबई, पुणे के प्रवास से लौटते जैसे पैरों को पर लग गए थे। बर्ताव कुछ ऐसा जैसे कौन सा क़िला फतेह कर के आये हों। लेकिन गिरे भी उतनी ही ज़ोर से जब पता चला की फ़ोन की खबर घर तक पहुंच चुकी है और रिश्ते की बात भी छेड़ी जा चुकी है।
अब मुझे तैयारी करनी थी उस एनकाउंटर की जो कि कुछ दिनों बाद था लेकिन उसका होना तय था।

जीवन के सुखद हादसे

हम सभी के जीवन में जाने अनजाने ऐसे बहुत से सुखद हादसे होते हैं जो एक अमिट छाप छोड़ जाते हैं। अधिकतर जानने वाले इन दुखद घटना के ज़िम्मेदार होते हैं और अनजाने लोग सुखद यादों के पीछे। ऐसा मेरा अनुभव रहा है।

PTI के मुम्बई तबादले से पहले भी मेरा एक बार मुम्बई जाना हुआ था। उस समय मैं ग्रेजुएट होने वाला था और MBA के लिए तैयारी कर रहा था। नर्सी मोनजी कॉलेज के MBA का फॉर्म भरा और हिंदुस्तान पेट्रोलियम में कार्यरत निखिल दादा के भरोसे मुम्बई चल पड़े। वहाँ से सिम्बायोसिस की परीक्षा के लिए पुणे भी जाना था और बीच में शिरडी का भी प्रोग्राम बना लिया था। मुम्बई से आगे की ज़िम्मेदारी दादा ने लेली थी और मैं निश्चिन्त मुम्बई के लिए निकल पड़ा।

भोपाल से मुम्बई का ये सफर हमेशा याद रहेगा क्योंकि टिकट कन्फर्म नहीं हुआ लिहाज़ा जनरल कोच में सफर करना पड़ा। मैं पहली बार इस तरह की कोई यात्रा कर रहा था और सबने जितने भी तरीके से डराया जा सकता था, डराया। ख़ैर मायानगरी को अब तक सिनेमा के पर्दे पर ही देख था और साक्षात देखने का रोमांच ही कुछ और था। मुम्बई पहुँचे और निखिल दादा ने खूब घुमाया।

उन्ही दिनों मणिरत्नम की फ़िल्म बॉम्बे भी रिलीज़ हुई थी और दादा ने मुझे वो दिखाने का प्रस्ताव रखा। आज भी मुझे इस बात की बड़ी खुशी है कि मैंने फ़िल्म बॉम्बे मुम्बई में ही देखी। जिस समय ये सब अनुभव हो रहे थे इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं था एक दिन मैं यहाँ वापस आऊंगा और अपने करियर का सबसे ज़्यादा समय यहां बिताऊँगा।
खैर मुम्बई से शिरडी और फिर वहां से पुणे पहुंच गए। शिर्डी में रुकना नहीं था और पुणे में रुकने का इंतज़ाम नहीं था। पुणे स्टेशन के आस पास के लॉज और धर्मशाला ने मुझे कमरा, जगह देने से मना कर दिया। ये बात है गुरुवार की और परीक्षा थी रविवार को। ये तीन दिन कहाँ बिताएं और कैसे बिताएं ये सोचते हुए मैं पुणे स्टेशन के बाहर बैठा हुआ था।

मायूसी तो बहुत थी। विचारों में खोया हुआ और आंखों मैं आँसू लिये हुए शायद किसी ने देखा। वो शख्स मेरे पास आया और पूछा क्या तकलीफ में हो? अब जैसा होता है घर वालों की सभी सीख याद आने लगीं। फिर भी पता नहीं क्या बात हुई मैं उनके साथ उनके स्कूटर पर बैठ गया और उनके घर पहुंच गया। भाई ने कहा मेरे रूम पर रुक जाओ। पता चला वो भी भोपाल से ही हैं और रूम पर और प्राणी मिले इस शहर के। बस फिर क्या था, जो शहर कुछ समय पहले कुछ अजीब से विचार जगा रहा था, वो अपना लगने लगा।

रविवार की पुणे से भोपाल वापसी भी कम यादगार नहीं रही। एक बार फ़िर टिकट कन्फर्म नहीं हुआ और झेलम एक्सप्रेस से भोपाल की यात्रा खड़े खड़े करी। चूंकि परीक्षा देके सीधे आ रहा था तो शर्ट की जेब में पेन रखा था। लेकिन मई की गर्मी में इंक लीक हो गयी और भोपाल पहुँचते पहुँचते पूरी शर्ट का रंग बदल गया था। लेकिन घर जा रहे थे करीब 10 दिन बाद तो इसके आगे सारे रंग फ़ीके।

इस बात को करीब बीस वर्ष हो चुके हैं। लेकिन उस शख्स का नाम याद नहीं। भोपाल में किस गली मुहल्ले में रहते हैं पता नहीं। बस याद है तो उनका मुझे अपने घर पर सिर्फ इंसानियत के नाते रखना। याद है कि किसी ने बिना कुछ सोचे मुझे तीन दिन का आश्रय दिया।

आज भी उनके प्रति सिर्फ कृतज्ञता है और कोशिश की अपने आसपास के माहौल से प्रभावित न होकर ऐसे ही किसी असीम की मदद किसी रूप में कर सकूं और वो किसी और कि और बस ये अच्छाइयों का चक्र चलता रहे।

भोपाल में एक तूफ़ान मेरा इंतज़ार कर रहा है इस बात से अनभिज्ञ मैं घर वापस जा रहा था।

जीवन एक चक्र है

जीवन एक चक्र है ऐसा सुना करते हैं लेकिन इसका एक साक्षात अनुभव पिछले दिनों हुआ। हालांकि इसका आभास तब हुआ जब मैं दिल्ली से भोपाल की ट्रेन यात्रा के लिए हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन पर शान-ए-भोपाल में बैठा।

यही वो स्टेशन है जिससे मैंने न जाने कितनी बार भोपाल की यात्रा करी जब मैंने अपना पत्रकारिता का करियर PTI से शुरू किया था। उन दिनों हज़रत निज़ामुद्दीन से ये ट्रेन नहीं थी और मुझे दिन के अलग अलग समय अलग अलग ट्रेन से सफर करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ऐसा इसलिए भी की PTI में शिफ्ट डयूटी हुआ करती है और समय अनुसार भोपाल की ट्रेन में चढ़ जाया करते थे। भोपाल के लिये ट्रेन की कोई कमी भी नहीं थी सो इतना कष्ट नहीं हुआ करता था। तनख्वाह इतनी ज्यादा नहीं हुआ करती थी सो सर्दी हो या गर्मी स्लीपर क्लास में ही सफर करते थे। कई बार ऐसे भी मौके आये की करंट टिकट लेकर जनरल कोच में दरवाज़े की सीढ़ियों पर बैठ कर भी सफर करना हुआ।

उन यात्राओं का बस एक ही आनंद होता था – घर जा रहें हैं तो सारे कष्ट माफ। और सच में सर्दी में ठिठुरते हुए या गर्मी में पसीना पोंछते हुए ये सफर बस यूं ही कट जाता था। मेरे उन दिनों के अभिन्न मित्र सलिल की ये डयूटी लगा रखी थी कि वो स्टेशन से मुझे घर पहुंचाए। और रात का कोई भी समय हो सलिल स्टेशन पर मौजूद l उन दिनों आज के जैसे मोबाइल फ़ोन तो हुआ करते थे लेकिन उनको रखना एक महँगा शौक हुआ करता था। तो सलिल तक संदेश पहुंचे कैसे? स्टेशन पहुँचकर टिकट खरीदने के बाद दूसरा काम हुआ करता था सलिल को एसटीडी पीसीओ से फ़ोन की साहब कब पधार रहे हैं।

एक बार कुछ ऐसा हुआ कि समय की कमी के चलते फ़ोन नहीं हो पाया। वो तो भला हो दूरसंचार विभाग का जिन्होंने प्लेटफार्म पर ये सुविधा उपलब्ध करा दी थी। बस फिर क्या जहां ट्रेन रुकी वहीं से फ़ोन और सवारी स्टेशन पर मौजूद। वैसे सलिल से ये सेवा मैंने मुम्बई से भी खूब कराई लेकिन उसके बारे में फिर कभी। फिलहाल चक्र पर वापस आते हैं।

PTI में रहते हुए ही तबादला मुम्बई हो गया और दिल्ली छूट गया। सच कहूँ तो दिल्ली छूटने का जितना ग़म नहीं था उससे कहीं ज़्यादा खुशी मायानगरी मुम्बई में काम करने की थी। फिल्मों का चस्का तो था ही उसपर मुम्बई में काम करने का मौका जैसे सोने पे सुहागा। दिल्ली बीच में कई बार काम के सिलसिले में आना हुआ लेकिन वो सभी प्रवास दौड़ते भागते ही निकल जाते।

जब नवंबर 15 को दिल्ली के हवाईअड्डे पर उतरा तो काफी मायूस था। मुम्बई छूटने का ग़म, परिवार से अलग रहने की तकलीफ और अपने खाने पीने का खुद इंतज़ाम करना बड़ा भारी लग रहा था। लेकिंन दिल्ली फिर से मेरी कर्मभूमि बनने वाली थी ऐसा मन बना लिया था।

वो तो जब आज रात ट्रेन में बैठा तो जैसे एक झटका लगा। इसी शहर से अपना सफर एक प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में शुरू करने के बाद आज में एक संपादक के रूप में वापस आया हूँ। जो सारे अनुभव दिल्ली से शुरू हो कर मुम्बई तक पहुंचे और जो मैंने मुम्बई की विभिन्न संस्थाओं से ग्रहण किया, उन सभी को आज फिर से दिल्ली में अपनी नई टीम के साथ न सिर्फ साझा करने का मौका मिलेगा बल्कि बहुत कुछ उनसे सीखने का मौका भी। और इस सफर की शुरुआत इसी दिल्ली से हुई थी जहां 17 वर्षों के बाद मैं वापस आया हूँ। आभार दिल्ली