घर जाने की बात ही कुछ और

उस दिन जब शाम को एयरपोर्ट के लिए निकल रहा था तो टीम की एक मेम्बर बोलीं देखिए चेहरे की रौनक। लगता है घर जा रहे हैं। पता नहीं ऐसा क्या हो जाता है जब घर जाने का मौका आता है एक अलग ही उत्साह। जब PTI से दौड़ते भागते ट्रेन पकड़ता था 18 साल पहले तब भी और आज जब ट्रैफिक जाम से लड़ते हुए टैक्सी से एयरपोर्ट जाता हूँ तब भी।

दरअसल ये कहना ये खुशी घर जाने के कारण है सही नहीं है। घर तो यहाँ भी है दिल्ली में जिसमे मैं इन दिनों सोने जाता हूँ। ये असल में घरवाले हैं जो घर को रहने लायक बनाते हैं। फिर हम चाहे 2 कमरे के फ्लैट में हों या एक बड़े बंगले में।

वैसे बंगले में रहा नहीं हूँ तो इसलिए ज़्यादा नहीं जानता वहां रहना कैसा होता है। पला बढ़ा सरकारी घर में जो बहुत बड़े तो नहीं थे लेकिन उसमें रहते हुए ही परिवार की कई शादीयाँ हुई। मेहमानों से घर भरा हुआ है लेकिन सब मज़े में और आराम से। आज जब शादी में जाना होता है तो सबके अलग अलग कमरे हैं और सब किसी रस्म के दौरान या खाने पीने के समय मिल जाते हैं। खैर इस पर कभी और।

एक परिचित को किसी ने अपना नया घर देखने के लिए बुलाया। उन्हें बोला गया उस घर में अलग क्या होगा। ऐसी ही दीवारें होंगी, ऐसे ही खिड़की दरवाज़े होंगे। कोई ज़रूरत नहीं जाने की। अब ये बात भले ही मज़ाक कही हो लेकिन है तो सच। ईंट पत्थर की दीवारें होती हैं। घर तो घरवालों से बनता है। आप आलीशान घर में चले जाइये। सारी सुख सुविधाओं से लैस। लेकिन सुकून दूर दूर तक नहीं। और एक कमरे का घर आपको इतनी शांति देता है।

एक समय था जब ये गूगल देवी आपको अपने या किसी और के घर का रास्ता नहीं बता रही होतीं थी। तब घर ढूँढने के अलग मज़े थे। पता पूछते हुये कुछ ऐसे ही बातचीत हो जाती और चाय पीते पिलाते आप के नए दोस्त बन जाते। अब गूगल देवी तो आपको घर के बाहर तक छोड़ती हैं तो ऐसी चाय का मौका नहीं मिलता।

अगर मैं ये कहूँ की इस बहाने लड़की भी देख ली जाती थी तो? किसी का घर ढूँढने के बहाने लड़की देखी भी गयी और शादी पक्की भी हुई। परिवार में किसी की शादी की बात चल रही थी लेकिन लड़के ने ये ज़िम्मेदारी अपने परिजनों को दी। चूँकि बार बार लड़की के घर जाने पर ऐतराज़ था तो पता पूछने के तरीके को आज़माया गया। हाँ ये सुनिश्चित किया गया कि लड़की की फ़ोटो ध्यान से देखकर जाएँ जिससे कोई गड़बड़ न हो। आखिर ज़िन्दगी भर की बात है।

ऐसा कहते हैं मोबाइल ने दूरियों को मिटा दिया है। लेकिन जो मज़ा आमने सामने बैठ कर गप्प गोष्ठी करने में है वो वीडियो चैट में कहाँ। शायद उस दिन चेहरे की रौनक यहीं बयान कर रही थी।

बस एक घर की तलाश है

दिल्ली आए हुए जल्द ही एक महीना हो जाएगा और शुरुआत हो गयी है एक घर की तलाश। जब मैं पहली बार दिल्ली और उसके बाद मुम्बई गया तो दोनों जगह PTI के गेस्ट हाउस में रहने का इंतज़ाम था। मुम्बई में घर ढूंढ़ने की नौबत काफी समय बाद आई। अब यहाँ पर समय कम है और दिल्ली की ठंड में रहने का ठिकाना ढूंढना है। वैसे मोबाइल ने बहुत सारी चीज़ें आसान कर दी हैं। जैसे घर की आप अपनी जरूरत को किसी वेबसाइट पर पोस्ट कर दें उसके बाद फोन पर फोन का जवाब देने के लिये तैयार हो जायें।

महानगरों में घर मिलना कोई मुश्किल नहीं है। बस आपके आफिस के पास ही नहीं मिलता। खुशनसीब हैं वो जिन्हें इन दौड़ते भागते शहरों में ऑफिस के पास रहने का ठिकाना मिल जाता है। मेरी तालाश भी कुछ ऐसी ही है। जब तक आप को एक जगह से दूसरी जगह नहीं जाना हो तब तक इस पूरे मामले का सिरदर्द समझ में नहीं आता है।

घर अच्छा हो, सोसाइटी अच्छी हो, सभी चीजें आसपास हो, बिजली पानी की सुविधा हो। हमारे बहुत सारे मापदंड होते हैं जिनका की हमें अंदाज़ा भी नहीं होता जब तक हम या तो अपने रहने की या काम करने की जगह नहीं बदलते। मुम्बई में तो हालत ऐसी है कि अगर वर वधु अलग अलग ट्रैन लाइन्स पर रहते है तो रिश्ता ही नहीं करते। ये सब मैंने सुना तो था लेकिन ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले उसके बाद लगा कि सचमुच् ऐसा ही है।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मुम्बई के लड़के, लडक़ी दूसरे शहर में शादी ही नहीं करते? और कभी शादी के बाद वेस्टर्न लाइन से सेंट्रल लाइन शिफ्ट होना पड़े तो क्या वकीलों की सेवाएँ ली जाएंगी?

इतने दिन हो गए दिल्ली में लेकिन मुलाकात किसी से भी नहीं हो पाई है। हर हफ्ते हज़रत निज़ामुद्दीन पहुँच जाते हैं और फ़िर निकल पड़ते हैं एक और यात्रा पर। इन यात्राओं के अपने मज़े हैं और अपना एक सुररूर बिल्कुल वैसा जैसा मुझे महसूस हुआ जब मुम्बई में हमारी नज़रें पहली बार मिली थीं। भोपाल से दिल्ली फिर मुम्बई लगता है जैसे इस दिल का सफ़र अभी बहुत बाकी हैं।

भोपाल के प्रति मेरा प्यार

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मैंने सिर्फ शहर बदला था और मेरा भोपाल के प्रति मेरा प्यार और गहरा हो रहा था। परिवार और दोस्त सब वहीं थे इसलिये जब भी मौका मिलता भोपाल की तरफ़ दौड़ पड़ता। ऐसा अमूमन हर महीने ही होता था। आजकल की ईमेल जनता के लिए ये बड़े अचरज की बात होगी कि उन दिनों हम एक दूसरे को पत्र लिखा करते थे।

कुछ पत्र लंबे होते थे जो 3-4 पेज के होते थे और ज़्यादातर अंतर्देशीय पत्र हुआ करते थे। आज भी उन संभाल के रखे पत्रों के साथ कभी कभार एक यादों की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। कभी हंसी आती है उन बातों पर जो अब बचकानी लगती हैं तो कभी उन कागज़ पर उमड़े हुए जज़्बात आंखे नम कर जाते हैं।

ये पत्रों का सिलसिला जो दिल्ली से शुरू हुआ था वो मुम्बई में भी चलता रहा। हाँ मुम्बई में पत्रों को पहुंचने में समय लगता था। फ़ोन ज़्यादातर अभी भी लैंडलाइन ही हुआ करते थे। लेकिन पत्रों का मज़ा उन फ़ोन कॉल्स में कहां जब आपकी नजर सिर्फ डिस्प्ले स्क्रीन पर बढ़ते हुए पैसे की तरफ रहती थी।

PTI गेस्टहाउस में एक फ़ोन दे रखा था और बहुत तेज़ आँधी बारिश के बाद भी वो काम कर रहा था। नहीं मैं उसको हर घंटे चेक नहीं कर रहा था बल्कि सुबह सुबह फ़ोन आ गया। बारिश के चलते कोई नहीं आया है आप दोनों फौरन पहुँचे। यहाँ दूसरे शख्स हैं रणविजय सिंह यादव। इनके बारे में फ़िर कभी। इसके पहले की ये बताया जाए कि यही मजबूरी हमारी भी है, बताया गया बस चल रही है और उससे आप ऑफिस पहुंच सकते हैं।

एजेंसी में काम कभी रुकता नहीं है और आपको अपने उपभोक्ताओं को समाचार देना है। बस यही एकमात्र उद्देश्य रहता है। चेंबूर में घर के नीचे से ही बस मिलती थी तो तैयार होकर पहुँच गए बेस्ट के इंतज़ार में। बस आयी औऱ उसमे बैठ गए। ये पता था समय लगेगा लेकिन कितना ये नहीं पता था।

आगे जो नज़ारा देखा वो काफी डरावना ही था। प्रियदर्शिनी पार्क के कुछ पहले पानी जमा था और ड्राइवर काफी सावधानी पूर्वक चलाते हुए जा रहा था। थोड़ी देर में पानी बस की सीढ़ियों तक पहुँच गया था। ये सब पहले देखा नहीं था हाँ एक बार भोपाल में ऐसी ही बरसात में कार पानी में चलाई थी और वो बीच रोड पर बंद हो गयी थी। गनीमत है मुम्बई में दिन था लेकिन अगर ये बस भी बंद हो गयी तो?

खैर सही सलामत आफिस पहुँच गए जहां ढेर सारा काम हमारा इंतज़ार कर रहा था। कितने दिन तक ऑफिस में ही रहे इसकी कुछ याद नहीं लेकिन मुंबई की बारिश के बारे मे अब नज़रिया बदल गया था। लेकिन आज भी ये मानता हूँ कि दिल्ली की सर्द सुबह और मुम्बई की बारिश का कोई मुकाबला नहीं है।

इतने सालों से मुम्बई की बारिश का आनंद लिया है अब है समय दिल्ली की सर्दियों का लुत्फ उठाने का।

पत्रकारिता के सफर की शुरुआत

दिल्ली से जो मेरा पत्रकारिता का सफर शुरू हुआ था उसकी नींव भोपाल में पड़ी थी। कॉलेज करने के बाद PG करने का मन तो नहीं था लेकिन LLB नहीं कर पाने की वजह से MA में दाखिला ले लिया। लेकिन दो घंटे के कॉलेज के बाद समय ही समय होता था। संयोगवश वहीं से प्रकाशित दैनिक में आवयश्कता थी और मैंने अर्ज़ी भेज दी और चुन भी लिया गया।

जिस समय मैं इस फील्ड को समझ रहा था उस समय भी इसका आभास नहीं था कि एक दिन में इसे बतौर करियर अपनाऊंगा। उस समय इसका सिर्फ एक उद्देश्य था -समय का सदुपयोग। पता नहीं कैसे धीरे धीरे मुझे पत्रकारिता रास आने लगी और आज इतना लंबा सफर गुज़र गया जो लगता है जैसे कुछ दिन पुरानी बात ही हो।

डॉ सुरेश मेहरोत्रा मेरे संपादक थे और नासिर कमाल साहब सिटी चीफ। अगर आज मैं इस मुकाम पर हूँ तो इसका श्रेय इन दो महानुभाव को जाता है। मुझे अभी भी याद मेरी पहली बाइलाइन जो कि पहले पन्ने पर छपी थी। आज के जैसे उन दिनों बाइलाइन के लिए बड़े कठोर नियम हुआ करते थे। बाइलाइन का मतलब उस स्टोरी को किसने लिखा है।

पहली बाइलाइन स्टोरी वो भी फ्रंट पेज पर। खुशी का ठिकाना नहीं। स्टोरी थी मध्य रेल के अधिकारी के बारे में और उनके एक वक्तव्य को लेकर। स्टोरी छपी और दूसरे दिन मुझे ढूंढते हुए कुछ लोग पहुँचे। उनकी मंशा निश्चित रूप से मुझे अपने परिवार का दामाद बनाने की नहीं रही होगी और मैं खुश भी था और डरा हुआ भी। खैर उनसे आमना सामना तो नहीं हुआ लेकिन छपे हुए शब्दों का क्या असर होता है उसको देखा।

डॉ मेहरोत्रा ने हमेशा हर चीज़ के लिये प्रोत्साहित ही किया। नहीं तो इतनी जल्दी से विधानसभा पर कवरेज, मंत्रालय बीट आदि मिलना बहुत ही मुश्किल था।

नासिर कमाल साहब कब बॉस से दोस्त बन गए पता नहीं चला। मामू, नासिर भाई के नाम से हम सब उन्हैं प्यार बुलाते थे। उनके काम करने अंदाज एकदम अलग। ओर बिना किसी शोर शराबे के सारा काम आराम से हो जाया करता था। और भोपाल के इतिहास के उनके पास जो किस्से थे वो कभी किताब की शक्ल ले ही नहीं पाये।
आज अगर कोई मुझे अच्छे बॉस होने के श्रेय देता है तो मैं कृतज्ञता प्रकट करता हूं डॉ मेहरोत्रा और नासिर क़माल साहब के प्रति। और धन्यवाद देता हूँ उन सबको जिनके चलते मुझे ऐसे सुलझे व्यक्तित्व के धनी दो व्यक्ति मिल गए अपने शुरुआती में। #असीमित #भोपाल #दिल्ली

बड़े होकर भी बनाये रखें बचपना

बचपन से मुझे हवाई जहाज देखने और उनके बारे में जानकारी इकट्ठा करने का बड़ा शौक़ था। जो छोटे छोटे मॉडल होते थे उनको भी में उतनी ही कौतूहलता से देखता जितना कि एक सामने खड़े हुए विमान को। परिवार में दो रिश्तेदार विमान सेवा का उपयोग करते और जब भी संभव हो में एयरपोर्ट जाने की भरपूर कोशिश करता। जितना करीब से देखने को मिल जाये उतना ही मन आनंदित हो उठता।

आसमान में उड़ते हुए छोटे से हवाई जहाज को खोज निकलना एक मजेदार खेल है जो में आज भी खेलता हूँ। कहीं न कहीं हम जब बड़े हो जाते (उम्र में) तो हमारे व्यवहार में भी वो उम्र छलकने लगती है। लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि हमें अपना बचपना बनाये रखना चाहिए।

आज जब मुम्बई से दिल्ली वापसी के लिए एयरपोर्ट पर बैठा फ्लाइट का इंतज़ार कर रहा था तो अपनी पहली फ्लाइट याद आ गयी जो मुम्बई के एयरपोर्ट से ही थी। मैं अपने जीवन में पहली बार प्लेन में चढ़ा 2003 के अक्टूबर महीने में। वो छोटी सी फ्लाइट एक समाज सेवी संस्था द्वारा आयोजित की गई थी ज़रूरतमंद बच्चों के लिए। मुम्बई से शुरू और मुम्बई पर खत्म।

पहली फ्लाइट होने के कारण तो याद है ही, लेकिन इसलिए भी याद है कि मुंबई की गर्मी में एयरपोर्ट के अंदर की ठंडक श्रीनगर का एहसास करा रही थी। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी ठंड में कर्मचारी काम कैसे करते हैं। असलियत पता चली की मैं बहुत तेज़ बुखार से पीड़ित था और अगले कुछ दिन घर पर आराम कर गुज़ारे।

जब तक प्लेन में बैठे नहीं थे तब तक बड़ा आश्चर्य होता कि ये उड़ते कैसे हैं। रही सही कसर फिल्मों ने पूरी करदी। फिल्मों ने हमारी सोचने की शक्ति को भ्रष्ट कर दिया है। लेकिन आप आज अगर एयरपोर्ट जाएँगे तो देखेंगे समाज के हर तबके के लोग हवाई यात्रा का आनद ले रहे हैं।

लेकिन बर्ताव में ट्रेन या प्लेन के यात्रियों में कोई फर्क नहीं है। आज जब फ्लाइट लेट हुई तो यात्री एयरलाइन स्टाफ़ से लड़ने पहुंच गए और थोड़ी दिन बाद थक हार कर वापस पहुँच गए अपनी सीट पर। हाँ अब बहस थोड़ी अच्छे स्तर की होती है।
लेकिन उस बहस का क्या जिसके कोई मायने तो नहीं हैं लेकिन उसको करने में मज़ा भो बहुत आता है?