ज़िन्दगी का आनंद लें बेशक, बेफिक्र, बिंदास

फ़िल्म इंगलिश-विंगलिश में श्रीदेवी पहली बार अकेले विदेश यात्रा पर अपनी बहन के पास अमेरिका जाने के लिये हवाई जहाज से सफ़र कर रही होती हैं। अमिताभ बच्चन, जो उनके सहयात्री होते हैं उनसे पूछते हैं कि क्या वो पहली बार जा रहीं हैं और बातों बातों में एक अच्छी समझाईश उन्हें और हम सबको दे देते हैं।

\”पहली बार एक ही बार आता है। उसका भरपूर आनद लें। बेशक, बेफिक्र, बिंदास\”।

हम भी अपनी बहुत सारी पहली बातें याद रह जाती हैं। क्योंकि पहली बार की बात ही कुछ और होती है। ज़्यादातर ये मोहब्बत तक ही सीमित नहीं होती हैं। हाँ उसको याद रखने के बहुत सारे कारण हो सकते हैं। जैसे मुझे अपनी पहली तनख्वाह याद है और मैंने उसे कैसे खर्च किया ये भी।

ठीक उसी तरह मुझे हमेशा याद रहेंगे अपने पहले बॉस नासिर क़माल साहब। पत्रकारिता से दूर दूर तक मेरा कोई लेना देना नहीं था। इसकी जो भी समझ आयी वो उन्ही की देन है। चूंकि ये मेरी पहली नौकरी थी और अनुभव बिल्कुल भी नहीं था तो उनके लिए और भी मुश्किल रहा होगा। लेकिन उन्होंने एक बार भी ऊँची आवाज़ में बात नहीं करी और न मेरी लिखी कॉपी को कचरे के डब्बे में डाला।

उन दिनों टाइपराइटर पर लिखना होता था। वो उसी पर एडिट कर कॉपी को पढ़ने लायक बनातेे। वो खुद भी कमाल के लेखक। भोपाल के बारे में ऐसी रोचक कहानियाँ थीं उनके पास जिसका कोई अंत नहीं। कब वो बॉस से दोस्त बन गए पता नहीं चला। उनके जैसे सादगी से जीवन जीने वाले बहुत कम लोग देखें हैं।

भोपाल छुटा लेकिन हम हमेशा संपर्क में रहे। वो कुछ दिनों के लिये बैंगलोर भी गए लेकिन पत्रों का सिलसिला जारी रहा। बीच में एक ऐसा भी दौर आया कि मैंने पत्रकारिता छोड़ने का मन बना लिया और नासिर भाई को बताया। उन्होंने एक अच्छा ख़ासा ईमेल मुझे लिख कर समझाया और अपने निर्णय के बारे में पुनः विचार करने के लिये कहा।

आज उनका जन्मदिन है लेकिन वो मेरी बधाई स्वीकार करने के लिए हमारे साथ नहीं हैं। वो अपने जन्मदिन को लेकर भी थोड़े परेशान रहते। कहते सब लोग गांधीजी की पुण्यतिथि मना रहे हैं तो मैं कैसे अपना बर्थडे मनाऊं।

मुझे इस बात का हमेशा मलाल रहेगा कि उनसे मुलाकात नहीं हो पाई। लेकिन साथ ही इसका फक्र भी रहेगा कि उन्होंने मुझ जैसे को भी लिखना सीखा ही दिया। मेरी खुशनसीबी की नासिर भाई मुझे मेरे पहले बॉस के रूप में मिले।

जिस तरह अच्छी टीम बनती नहीं बन जाती है उसी तरह अच्छे बॉस मिलते नहीं मिल जाते हैं।

पद्मावत भव्य लेकिन एक जिस्म जिसमें जान नहीं

पिछले साल इन्हीं दिनों करणी सेना और उनके सदस्यों ने पद्मावती को लेकर हंगामा शुरू किया था। इतिहास में या रानी पद्मावती के बारे में बहुत ज़्यादा तब।भी नहीं मालूम था। बस इतना जानते थे कि ख़िलजी उनको देखना चाहते थे और पद्मावती ने अपने आप को आग के हवाले कर दिया था।

दिसंबर 2017 से जनवरी 2018 के बीच पद्मावती पद्मावत हो गयी और दीपिका पादुकोण की कमर को स्पेशल इफ़ेक्ट के साथ ढांक दिया गया। मेरा इतिहास की इस घटना के बारे में ज्ञान में इतने दिनों में कोई ज़्यादा इज़ाफ़ा नहीं हुआ। यूं कहें कि किया नहीं। बहरहाल, ये पोस्ट फ़िल्म के बारे में हैं तो उस पर वापस आते हैं।

फ़िल्म ख़िलजी से शुरू होती है और पद्मावती और रतन सिंह बाद में आते हैं। संजय लीला भंसाली अपनी फिल्मों की भव्यता के लिए जाने जाते हैं और पद्मावत उसी श्रृंखला की एक और कड़ी है। शायद यही उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी भी है। कहीं न कहीं क़िरदार भव्यता के चक्कर में पीछे छूट जाते हैं। ये फ़िल्म के लेखन की सबसे बड़ी विफलता कही जा सकती है।

इस फ़िल्म में भंसाली संगीत में भी कहीं चूक ही गये। घूमर देखने में अच्छा होने के कारण याद रह जाता है लेकिन बाकी गाने याद भी नहीं रह पाते। ये वही भंसाली हैं जिनकी ख़ामोशी और हम दिल दे चुके सनम के गाने आज भी पसंद किये जाते हैं।

बात करें अदाकारी की तो रनबीर सिंह सबको याद रह जाते हैं। लेकिन सही कहें तो इस किरदार में जिस पागलपन की ज़रूरत थी वैसे वो असल ज़िंदगी में हैं। दीपिका को रानी पद्मावती के जैसा सुंदर होना था लेकिन वो वैसी अलौकिक सुंदरता की धनी नहीं दिखती हैं। शाहिद कपूर रतन सिंह के रूप में थोड़े से छोटे लगते हैं।
अगर कोई मुझसे इसके लिए नाम सुझाने के लिए कहता तो मेरे लिए हृतिक रोशन होते रतन सिंह, रणबीर कपूर होते ख़िलजी और ऐश्वर्या राय बच्चन होतीं पद्मावती।

कुशल नेतृत्व आपके जीवन की राह बदल सकता है

फ़िल्म कयामत से कयामत तक में जूही चावला गुंडों से पीछा छुड़ाते हुए जंगल में गुम जाती हैं और जैसा कि फिल्मों में होता है उसी जंगल में आमिर खान अपने दोस्तों से बिछड़ जाते हैं। बात करते हुए जूही चावला बड़ी मासूमियत से आमिर खान कहती हैं “हम पर आप का बहुत अच्छा इम्प्रेशन पड़ा है”।

अपने इस छोटे से जीवन में ऐसे कितने लोग हैं जिनके लिए हम ये कह सकते हैं? हम बहुत से लोगों से मिलते जुलते हैं लेकिन उनमें से बहुत कम लोग आप के ऊपर अपनी छाप छोड़ जाते हैं।

कार्य के क्षेत्र में आपको ऐसे लोग मिलें तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है। ऐसे बॉस कम ही मिलते हैं जिन्हें आप याद तो करते हों लेकिन इसलिये क्योंकि आपको उनके साथ काम करने में आनंद आया। इसलिये नहीं कि उन्होंने आपको बहुत परेशान किया और जीना मुश्किल कर दिया – जैसा कि अक्सर लोग याद किया करते हैं।

जब मैंने 2010 में डिजिटल जर्नलिज्म में वापस कदम रखा तो ये सफ़र और इसमें जुड़ने वाले साथीयों का कुछ अता पता नहीं था। लेकिन कुछ ही महीनों में जिस कम्पनी के लिए काम कर रहा था उसमें कुछ बदलाव होना शुरू हुए और फिर एक दिन सीनियर मैनेजमेंट में बड़े बदलाव के तहत एक नए शख्स ने हमारे COO के रूप में जॉइन किया।

डिजिटल जर्नलिज्म उन दिनों बढ़ना शुरू हुआ था और ये एक बहुत ही अच्छा समय था इससे जुड़े लोगों के लिये। लेकिन ये जो बदलाव हुए कंपनी में इससे थोड़ी अनिश्चितता का दौर रहा। लेकिन अगर कुशल नेतृत्व के हाथों में कमान हो तो नौका पार हो ही जाती है।

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कुछ ऐसा ही रहा Sandeep Amar का उस कंपनी और मेरे जीवन में आने का असर। ऐसे बहुत से मौके आते हैं जब आप को पता नहीं होता कि ये किया जा सकता है लेकिन आप के आस पास के लोगों का विश्वास आपका साथी बनता है और आप कुछ ऐसा कर गुज़रते हैं जिसकी मिसाल दी जाती है। ठीक वैसे ही जैसे दंगल के क्लाइमेक्स में आमिर खान अपनी बेटी को समझा रहे होतें हैं। गोल्ड मेडलिस्ट की मिसाल दी जाती है।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी संदीप से आप किसी भी विषय पर बात करलें आप को निराशा नहीं होगी। ओशो से लेकर सनी लियोन सभी पर कुछ कहने के लिये है। उनसे झगड़े भी बहुत हुए, कहा सुनी भी लेकिन फिर एक दोस्त की तरह बात फिर से शुरू। अगर आज मेरी डिजिटल जर्नलिज्म की समझ बढ़ी है तो इसका एक बहुत बड़ा श्रेय संदीप को ही जाता है। काम से अलग उनके साथ न्यूयॉर्क की यादगार ट्रिप आज भी यूँही एक मुस्कुराहट ले आती है।

संदीप मेरे फेसबुक पोस्ट लिखने से बहुत ज़्यादा खुश नहीं हैं लेकिन अगर आज मैं ये पोस्ट लिखकर उन्हें जन्मदिन की बधाई नहीं देता तो कुछ अधूरा सा लगता। जन्मदिन मुबारक संदीप सर।
और टैक्सी में ये गाना सुनते हुए क्या करें क्या न करें ये कैसी मुश्किल हाय, नमस्ते मुम्बई।

हमारी धारणाएं और सच

तुम्हारी सुलु देखने का मौका मुझे पिछले हफ्ते ही मिला। जब फ़िल्म रिलीज़ हुई थी तब देखने का प्रोग्राम किसी न किसी कारण से मुल्तवी होता रहा और फ़िल्म सिनेमा हॉल से उतर गई। फ़िल्म बहुत से कारणों से अच्छी लगी।

जो सबसे अच्छी बात लगी वो थी हम कैसे धारणाएँ बना लेते हैं। लोगों के बारे में, उनके काम के बारे में। अक्सर ये धारणाएँ गलत ही होती हैं क्योंकि हम अपनी धारणा सुनी सुनाई बातों के आधार पर बनाते हैं। किसी ने कह दिया कि फलां व्यक्ति तो बहुत बुरा है। बस हम ये मान बैठते हैं कि वो व्यक्ति वाकई में बुरा है। हमारा अपना व्यक्तिगत अनुभव कुछ नहीं है लेकिन हमने सुना और मान लिया।

फ़िल्म में विद्या बालन के किरदार को एक रेडियो जॉकी का काम मिल जाता है और वो देर रात का शो होता है। उनको सुनने वाले मर्द उनकी आवाज़ और अदा पर फ़िदा। चूँकि उनको सुनने वाले उटपटांग बाते करते हैं, सुलु के परिवार वालों को ये बात बिल्कुल नागवार गुज़रती है। उनका ये मानना है कि ये काम अच्छे घर की औरतें नहीं करतीं। लेकिन सुलु ने ऐसा कोई काम किया ही नहीं जिससे उनके परिवार को शर्मिंदा होना पड़े। लेकिन ये धारणा की ये काम बुरा है ये बात घर कर गयी है।

जैसे फ़िल्म इंडस्ट्री को हमेशा से ही एक बुरी जगह बोला गया है। लेकिन क्या ये उन सभी बाकी काम करने की जगह से वाकई में बुरी है? क्या और काम करने की जगहों पर वो सब नहीं होता जिसके लिए फ़िल्म इंडस्ट्री बदनाम है? क्या बाकी जगहों पर औरतों के साथ कोई अनहोनी घटना नहीं होती हैं? लेकिन फ़िल्म इंडस्ट्री के बारे में ये धारणा बन गयी है।

इसका एक कारण ये भी है कि फ़िल्म इंडस्ट्री और उनसे जुड़े लोगों के बारे में लिखा बहुत जाता है। लेकिन ये बातें सभी इंडस्ट्री के लिए उतनी ही सच और सही हैं। अगर हम अपने अनुभव के आधार पर भी किसी के बारे में कोई धारणा बनाते हैं तो भी वो सिर्फ हमारे ही लिए होना चाहिए। लेकिन हमारे आस पास के लोग भी हमारे इन विचारों से प्रभावित हो कर अपनी धारणा बना लेते हैं।

जैसे आमिर खान के बारे में ये कहा जाता है कि वो बहुत ज़्यादा हस्तक्षेप करते हैं और अपनी फिल्मों को डायरेक्ट भी करते हैं। अगर ये सही है तो विद्धु विनोद चोपड़ा जैसे निर्देशक उनके साथ दो फिल्में करते? आपने अगर नहीं देखी है तो ज़रूर देखें तुम्हारी सुलु।

दुनिया समझ रही थी कि वो नाराज़ मुझ से है,
लेकिन वो जब मिला तो मुझे सोचना पड़ा

चाय पर चर्चा कोई जुमला नहीं है

दिल्ली में इन दिनों कड़ाके की ठंड पड़ रही है। चूंकि मेरा इस ठिठुरती ठंड से सामना पूरे 15 साल के लंबे अरसे बाद हो रहा है तो और भी ज़्यादा मज़ा आ रहा है। ऐसी ठंड में अगर कोई आग जलाकर बैठा हो तो उसके इर्दगिर्द बैठने का आनंद कुछ और ही होता है। उसमें अगर आप एक कप गरमागरम कप अदरक की चाय और जोड़ दें तो ठंड का मज़ा कई गुना बढ़ जाता है।

चाय पीने के सबने अपने अपने तरीके होते हैं। कुछ लोग बिलकुल गरमागरम पतीली से निकली हुई चाय पसंद करतेे हैं तो कुछ उसको ठंडा कर पीना। दिल्ली के जिस इलाके में मैं इन दिनों रहता हूँ वहाँ कुल्हड़ में चाय पिलाने वाले कई ठिकाने हैं। सबका अपना अपना स्वाद है। हाँ वैसे सौंधी सौंधी खुशबू वाले कुल्हड़ नही हैं।

आजकल तो अजीबोगरीब चाय पिलाने वाले ठिकाने भी खुले हुए हैं जो पता नहीं कितनी ही विचित्र तरह की चाय पिलाते हैं। लेकिन जो स्वाद टपरी चाय का होता है वैसा कहीं नहीं। जब मुम्बई PTI में नाईट शिफ्ट हुआ करती थी तो अक्सर रात की आखिरी लोकल छूट जाती थी और रात ऑफिस में ही गुज़ारनी पड़ती थी।

मुझे शुरू से आफिस में सोना पसंद नहीं था। बस दो कुर्सी जोड़कर आराम से सुबह 4 बजने का इंतज़ार करते और पहली लोकल से चेम्बूर वापस। जिस समय मेरी घर वापसी होती उस समय बहुत से लोगों के दिन की शुरुआत हो रही होती। चेम्बूर स्टेशन के बाहर एक चाय बनाने वाला सुबह सुबह कमाल की चाय पिलाता। जब भी नाईट शिफ्ट से वापस आता तो उसके पास कभी एक तो कभी दो कप चाय पीकर फ्लैट पर वापस आता।

दिल्ली की सर्दियों में उसकी वो अदरक की कड़क चाय की आज ऐसे ही याद आ गयी। आपकी आदतें कैसे बदलती हैं चाय इसका अच्छा उदाहरण है। जैसे मेरी चाय का स्वाद मेरी पत्नी अब बखूबी समझ गयी है और मुझे भी कुछ उनके हाथ की चाय की ऐसी आदत लग गयी है कि कहीं बाहर जाते हैं तो वो जुगाड़ कर किचन से मेरी पसंद की प्याली मुझ तक पहुंचा देती हैं।

अगर आपने इंग्लिश विंग्लिश देखी हो तो उसमें श्रीदेवी अपनी चाय की प्याली और अखबार से सुबह की शुरुआत करती हैं। बहुत से घरों में ऐसा ही होता है। मैं ऐसे जोड़ों को जानता हूँ जो सुबह की पहली चाय का आनंद अखबार के पीछे नहीं बल्कि साथ में बैठ कर बातचीत कर लेते हैं। अगर चाय का प्याला हो और बातचीत न हो तो चाय का स्वाद कुछ कम हो जाता है। जैसे उस शनिवार की रात जनार्दन, आदित्य और मेरी बातचीत जो शुरू हुई चाय के प्याले पर और खत्म हुई गाजर के हलवे के साथ। चाय पर चर्चा कोई जुमला नहीं है!!!

समस्या हैं तो हल निश्चित रूप से होगा

पिछले दिनों जब सोनाक्षी सिन्हा और सिद्धार्थ मल्होत्रा की इत्तेफ़ाक़ रिलीज़ होने वाली थी तब शाहरुख खान और करन जौहर ने वीडियो पर ये अपील करी थी दर्शकों से की वो फ़िल्म का सस्पेंस नहीं बताएं। बात सही भी है। अगर सस्पेंस ही खत्म हो जाये तो फ़िल्म देखने का सारा मज़ा ही किरकिरा हो जाता है।

ठीक वैसे ही जैसे हमें अपने जीवन के सस्पेंस पता चल जाये तो क्या मज़ा आयेगा। कुछ भी हो अच्छा या बुरा, सही या गलत उसके होने का अपना एक अलग ही स्थान होता है अपने अनुभव की लिस्ट में।

खैर इत्तेफ़ाक़ की अपील से मुझे पिताजी द्वारा सुनाया गया एक किस्सा याद आया। वो भी उनके समय की बेहतरीन सस्पेंस फ़िल्म वो कौन थी से जुड़ा हुआ है। आज के व्हाट्सएप उस समय तो थे नहीं तो सस्पेंस कैसे बताया जाए? कॉलेज का नोटिस बोर्ड जो हम कभी कभार ही देखा करते हैं उसकी मदद ली गयी और किसी शख़्स ने वहां एक कागज लगा दिया जिसपर सिर्फ इतना लिखा था – भाईयों खूनी रमेश था। अब आप जाइये और वो कौन थी के गानों का आनंद लीजिये क्योंकि बाकी कहानी और उसके अंत में आपको अब कोई रुचि नहीं रहेगी।

कॉलेज के नोटिस बोर्ड से संबंधित एक घटना मेरे साथ भी हो गयी। MA प्रीवियस के इम्तिहान थे। साथ में नौकरी भी कर रहे थे। दूसरे पेपर के दिन तैयार होकर कॉलेज पहुँचे और अपना रूम तलाशने लगे जहां बैठकर पेपर लिखना था। लेकिन बोर्ड पर इस पेपर का कोई जिक्र ही नहीं। ऐसी कोई खबर भी नहीं थी कि पेपर आगे बढ़ गया हो।

किसी प्रोफेसर से पूछा तो पता चला पेपर तो दो दिन पहले ही हो चुका है। अब क्या करें? पिताजी की डाँट से बचने का कोई उपाय ही नहीं था। घर पहुँचे तो वहां पहले से ही किसी बात को लेकर हंगामा मचा हुआ था। मुझे एक घंटे में वापस देख सभी अचरज में थे। मेरे पुराने पढ़ाई के रिकॉर्ड से सभी वाकिफ भी थे। जैसे तैसे हिम्मत कर बता दिया कि आज होने वाला पेपर तो हो चुका है। उसके बाद अच्छा सा एक डोज़ मिला। समस्या का हल ढूंढा गया और मेरे अख़बार के सहयोगी की मदद से इसको सुलझाया गया।

एक गुरु मंत्र और मिल गया: समस्या हैं तो हल निश्चित रूप से होगा। बस थोड़े धैर्य के साथ ढूँढे। मिलेगा ज़रूर।

गुलज़ार से ग़ालिब तक

जो ये लंबे लंबे अंतराल के बाद लिखना हो रहा है उसका सबसे बड़ा कष्ट ये हो रहा है कि जब लिखने बैठो तो समझ नहीं आता कहाँ से शुरू करें। आज बात ग़ालिब और गुलज़ार साब की।

संगीत तो जैसे हमारे घर में एक सदस्य की तरह था। उन दिनों रेडियो ही एकमात्र ज़रिया था। और सारे घर ने अपना पूरा रूटीन भी उसके ही इर्दगिर्द बना लिया था। वैसे उस ज़माने में टेप भी हुआ करता था लेकिन बहुत से कारणों के चलते हमारे घर पर इसका आगमन हुआ बहुत समय के बाद। उन दिनों घर में किसी नई खरीदी का बड़ा शोर शराबा रहता था। तो जब वो फिलिप्स का two-in-one आया तो एक जश्न का माहौल था।

ग़ालिब से मुलाक़ात भी रेडियो के ज़रिए हुई। फ़िल्म थी मिर्ज़ा ग़ालिब और प्रोग्राम था भारत भूषण जी के बारे में। सिर्फ ये ना थी हमारी किस्मत याद रहा। लेकिन ग़ालिब से जो असल मुलाकात हुई वो गुलज़ार साब के बनाये मिर्ज़ा ग़ालिब, नसीरुद्दीन शाह द्वारा निभाया गया किरदार और जगजीत सिंह के संगीत के साथ। बस उसके बाद ग़ालिब के दीवाने हुए और होकर रह गए। सुने और भी कई शायर लेकिन ग़ालिब के आगे कोई और जँचा नहीं। या यूं कहें कि हमारी हालत का बयाँ ग़ालिब से अच्छा और कोई नहीं कर सका।

कई बार सोचता हूँ कि अगर गुलज़ार साब ये सीरियल नहीं बनाते तो क्या ग़ालिब से मिलना न हो पाता। ठीक वैसे ही जैसे कल जनार्दन और आदित्य से बात हो रही थी और हम तीनों अपने जीवन में अभी तक कि यात्रा को साझा कर रहे थे। आदित्य ने बताया कि उनके पास दो जगह से नौकरी के आफर थे और उनमें से एक PTI का था लेकिन उन्होंने दूसरा ऑफर लिया और इस तरह से उनसे मिलना हुआ।

जनार्दन से भी काफी समय पहले बात हुई थी लेकिन उस समय बात बनी नहीं। लेकिन अंततः वो साथ में जुड़ ही गये। शायद ग़ालिब से मुलाक़ात भी कुछ ऐसे ही होती। कोई और ज़रिया बनता और हमारी मुलाकात करवा ही देता। जैसे मैत्री ने करवाई थी मोहम्मद उज़ैर से। अगर गुलज़ार साब का शुक्रगुजार रहूंगा ग़ालिब से मिलवाने के लिये, मैत्री का रहूंगा मोहम्मद से मिलवाने के किये।

मोहम्मद बहुत ही कमाल के शख्स हैं और ये मैं इसलये नहीं कह रहा कि उन्होंने पिछली पोस्ट पढ़ कर मेरी तुलना प्रेमचंद और दिनकर से करी थी। फिल्मों को छोड़कर बाकी लगभग सभी विषयों की अच्छी समझ और पकड़। लेकिन जब प्रत्युषा बनर्जी ने अपने जीवन का अंत कर लिया तो मोहम्मद ही थे जिन्होंने फटाफट स्टोरीज़ लिखी थी। मुझे किसी मुद्दे के बारे में कुछ पता करना होता तो मोहम्मद ही मुझे बचाते। अब वो एक नई जगह अपने हुनर का जादू बिखेरेंगे।

ठीक वैसे ही जैसे रात के सन्नाटे में जगजीत सिंह अपनी आवाज़ में ग़ालिब का जादू बिखेर रहे हैं।

देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
इक ब्राह्मण ने कहा है कि ये साल अच्छा है।

हमें ऐसे ही गुलज़ार मिलते रहें और ज़िन्दगी ऐसे ही गुलज़ार करते रहें।

असीमित संभावनाओं से भरा हुआ हो २०१८

जब आप कोई काम रोज़ कर रहे हों और अचानक वो बंद करदें तो फिर से शुरुआत करने में थोड़ी मुश्किल ज़रूर होती है। मेरी हालत उस बहु जैसी है जो कुछ दिनों के लिए मायके होकर आयी है और ससुराल लौटने पर वही दिनचर्या उसका इंतज़ार कर रही है। लेकिन अच्छी बात ये है कि आज साल का लेखा जोखा लिया जा रहा है और इसी वजह से मेरे लिए यादों के इस काफ़िले को आगे बढ़ाना थोड़ा आसान हो गया है।

1 जनवरी 2017 के बाद इस साल जो बहुत कुछ घटित हुआ इसका न तो कोई अनुमान था न कोई भनक। कुछ बहुत अच्छी बातें हुईं इस साल। जो कुछ मन माफिक नहीं हुआ उसको मैं इसलिए बहुत ज़्यादा महत्व नहीं दे रहा क्योंकि इस साल बहुत लंबे अंतराल के बाद मैंने लिखना शुरू किया। मेरे लिए इससे बड़ी उपलब्धि कोई नहीं है। और ये इस साल की ही नहीं पिछले कई वर्षों की उपलब्धि कहूँगा।

ये की मैं ये पोस्ट मुंबई में नहीं बल्कि दिल्ली में बैठ कर लिखूंगा इसके बारे में दूर दूर तक कुछ नहीं मालूम था। आज जब ये लिख रहा था तो ये खयाल आया कि अगर ये मालूम होता तो क्या मैं कोई जोड़ तोड़ करके मुम्बई में ही बना रहता और दिल्ली के इस सफ़र पर निकलता ही नहीं। शायद कुछ नहीं करता क्योंकि अगर यहां नहीं आता तो कलम पर लगे बादल छंट नहीं पाते और विचारों का ये कारवाँ भटकता ही रहता। ये नहीं कि इसको मंज़िल मिल गयी है, लेकिन एक राह मिली जो भटकते मुसाफिर के लिये किसी मंज़िल से कम नहीं है।

पीछे मुड़ के देखता हूँ तो हर साल की तरह ये साल भी उतार चढ़ाव से भरा हुआ था। और सच मानिये तो अगर ये उतार चढ़ाव न हों तो जीवन कितना नीरस हो जाये। जो कुछ भी घटित हुआ मन माफ़िक या विपरीत, कुछ सीखा कर ही गया। हाँ इस साल बहुत नए लोगों से मिलना हुआ। कुछ बिल्कुल नए और कुछ पुराने ही थे जो नए लिबास में सामने आए। वैसे मुझे ये मिलने जुलने से थोड़ा परहेज़ ही है क्योंकि अक्सर मैं सच बोल कर सामने वाले को शर्मिंदा कर देता हूँ और बाद में खुद को कोसता हूँ कि क्यों अपनी ज़बान को लगाम नहीं दी।

वैसे ऐसी ही समझाईश मुझे फेसबुक पर लिखने के लिए भी मिली। क्यों मैं गड़े मुर्दे उखाड़ रहा हूँ। क्यों मैं चंद लोगों की लाइक के लिए ये सब कर रहा हूँ। हाँ ये सच है लिखने के बाद देखता हूँ कि प्रतिक्रिया क्या आयी लेकिन उसके लिए लिखता नहीं हूँ।

तो बस इसी एक प्रण के साथ कि इस वर्ष कलम को और ताक़त मिले और बहुत सी उन बातों के बारे में लिख सकूँ जो बताई जाना जरूरी हैं, आप सभी को नूतन वर्ष की ढेरों शुभकामनाएं। हम सभी के लिए है 2018 कें 365 दिन जो भरे हुए हैं असीमित संभावनाओं से।