परीक्षा की घड़ी और सालाना मिलने वाले दोस्त

कॉलेज में अटेंडेंस को लेकर ज़्यादा मुश्किल नहीं हुआ करती थी उन दिनों। इसलिये जब परीक्षा का समय आता तब पता चलता कि अरे क्लास में इतने सारे लोग हैं। नहीं तो नियमित रूप से कॉलेज की शक्ल देखने और दिखाने वाले कुछ गिने चुने ही रहते।

ऐसे ही सालाना मिलने वाले एक थे विजय नारायण। उनसे मुलाकात परीक्षा के समय ही होती थी। विजय कंप्यूटर का कोई कोर्स भी कर रहे थे और उनका घूमना फिरना भी काफी था। ग्रेजुएशन के समय विजय से इतनी ज्यादा बातचीत नहीं थी। हाँ उन्हें कुछ नोट्स वग़ैरह चाहिये होते तो मिल जाते थे।

जब पत्रकारिता का रुख किया तब लगा कि लिखने का काम किया जा सकता है। ऐसा इसलिये क्योंकि परीक्षा में जहां बाकी सब के लिए 22 पेज की कॉपी भरना मुश्किल होता था मैं उसके ऊपर 4-5 सप्लीमेंट्री शीट भी भर देता। बाहर निकल के सभी का एक ही सवाल रहता कि मैंने लिखा क्या है। खैर, जब रिजल्ट आता तो पता चलता कि मेरी मेहनत बेकार ही गयी। लेकिन मुझे किसीने बताया था कि कॉपी का वज़न मायने रखता है।

पाँच साल की कॉलेज की पढ़ाई में मैंने ये बात पूरी तरह फॉलो करी। हालांकि नंबर एक अलग ही कहानी कहते थे। बहरहाल विजय से घनिष्ठता फाइनल में आते आते हो गयी और परीक्षा की तैयारी साथ में करने लगे। हम सभी बाकी गतिविधियों में इतने व्यस्त रहते की साल कब निकलता पता ही नहीं चलता। और सिर पर जब परीक्षा आती तब सिलेबस की सुध ली जाती।

परीक्षा की तैयारी का रूटीन भी बिल्कुल फिक्स्ड। सोमवार की सुबह 7 बजे के पेपर की तैयारी रविवार शाम से होगी। सुबह 5.30 बजे तक पढ़ाई और उसके बाद जो होगा देखा जायेगा के इरादे के साथ कॉलेज पहुँच जाते। उसमे पहले पढ़ाई की कोई बात करना मानो घोर पाप था। लेकिन कॉलेज बिना अटके पास किया ऐसे ही पढ़ाई करके।

2007 ने सिखाया लड़ना ज़िन्दगी से और कैंसर से

साल 2007 ने सही मायनों में पूरी ज़िन्दगी बदल के रख दी। इसकी शुरुआत हुई थी अप्रैल के महीने में जब PTI से मुझे वापस मुम्बई के लिए बुलावा आया। सभी बातें मन के हिसाब से सही थीं तो एक बार फ़िर भोपाल को अलविदा कहने का समय आ चुका था। इस बार सीधे मुम्बई की ओर। जून में PTI जॉइन किया तब नहीं पता था कि एक महीने में क्या कुछ होने वाला है।

जब आपके सामने कोई विपत्ति आती है तो उस समय लगता है इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। लेकिन जब आप उससे बाहर निकलकर कोई दूसरी विपत्ति का सामना करते हैं तब फिर यही लगता है – इससे बडी/बुरी/दुखद बात कुछ नहीं हो सकती। ये एक प्रक्रिया है जो चलती रहती है।

कैंसर के बारे में सुना था। परिवार में मौसी को था लेकिन ज़्यादा मालूम नहीं था क्योंकि उनका निधन तभी हो गया था जब मैं छोटा था। बाकी जो इस बीमारी का डर था उसका पूरा श्रेय हिंदी फिल्मों को जाता है। कुल मिलाकर कैंसर का मतलब मौत ही समझ आया था।

छोटी बहन यशस्विता दोबारा माँ बनने जा रही थी। ये खुशखबरी मई में आई थी। जुलाई आते आते ये खुशी मायूसी में तब्दील हो गई। उनके शरीर में कैंसर पनप रहा था और इसकी पुष्टि टेस्ट के माध्यम से हो गई थी। दिल्ली के डॉक्टर्स ने तो अगले ही दिन एबॉर्शन करवा कर कैंसर के इलाज की समझाईश दी।

भोपाल से मुम्बई आने का कोई प्लान नहीं था। 2005 में जब मुम्बई छोड़ा था तो नही पता था 2007 में वापसी होगी। जो मैंने 2017 में दिल्ली आकर पहली पोस्ट लिखी थी उसमें कहा था ये जीवन एक चक्र है। आज फिर वही बात दोहराता हूँ। जो होता है उसके पीछे कोई न कोई कारण होता है। कई बार कारण जल्द पता चल जाते हैं कई बार समय लग जाता है।

दिल्ली के डॉक्टर्स के ऐसा कहने के बाद ये निर्णय लिया कि मुम्बई के टाटा हॉस्पिटल में भी एक बार दिखाया जाये और फिर कोई निर्णय लिया जाए। इस उम्मीद के साथ कि शायद पहले टेस्ट की रिपोर्ट गलत हो, यशस्विता, बहनोई विशाल और भांजी आरुषि मुम्बई आ गए। मेरी उस समय की PTI की सहकर्मी ललिता वैद्यनाथन ने टाटा हॉस्पिटल में बात कर जल्दी मिलने का समय दिलवाया। लेकिन टाटा के डॉक्टर्स ने भी शरीर में कैंसर की मौजूदगी कन्फर्म करी।

जो पूरा समय एक होने वाली माँ के लिए खुशी खुशी बीतना चाहिए था उसकी जगह चिंता और निराशा ने ले ली थी। सभी एक दूसरे को हिम्मत दे रहे थे। लेकिन चिंता सभी के लिये ये थी कि आगे क्या होगा। इस पूरे समय यशस्विता जो शायद हम सबसे कमज़ोर स्थिति में थीं दरअसल हम सबको हिम्मत दे रही थीं। एक या दो बार ही मेरे सामने मैंने उन्हें कमज़ोर पाया। नहीं तो उनके लड़ने के जज़्बे से हम सबको हिम्मत मिल रही थी।

आज विश्व कैंसर दिवस पर सलाम है टाटा हॉस्पिटल के डॉक्टर्स को जो मरीज़ो की इस लड़ाई में हर संभव सहायता देते है और सलाम है यशस्विता जिन्होंने कैंसर से लड़ते हुए एक पुत्र को जन्म दिया और आज इस बीमारी से लड़ने की प्रेरणा बन गयी हैं।

हमारा जीवन और इन्टरनेट की क्रांति

मुम्बई में अगर आपके रहने और खाने का बंदोबस्त है तो इस शहर में रहना बहुत आसान है। रहने का बंदोबस्त PTI ने कर दिया था और खाने का हमने खुद। इस वजह से कुछ पैसा बचा और जब थोड़ा बहुत पैसा इकट्ठा कर लिया तो सोचा मोबाईल लिया जाए।

आज के जैसे उन दिनों फ़्री काल जैसी कोई चीज़ नहीं हुआ करती थी। और आपको दोनो इनकमिंग और आउटगोइंग दोनो के लिए पैसा देना पड़ता था। लेकिन मुझे टेक्नोलॉजी में शुरू से ही बडी रुचि रही है। इसलिए ये खर्चा कम और निवेश ज़्यादा लगा।

उसके बाद से तो जैसे रिलायंस ने मोबाइल क्रांति ले आया अपने धीरूभाई अंबानी ऑफर से। परिवार में सबने ये फ़ोन लिया और दिलवाया भी ये सोच कर की पैसा कम खर्च होगा। लेकिन उन्ही दिनों मेरी सगाई हुई थी तो बातों का सिलसिला काफी लंबा चला करता था। नतीज़न पैसे बचने की कोई उम्मीद सबने छोड़ दी थी सिवाय रिलायंस के। उन्हें तो मेरे जैसों ने ही खूब बिज़नेस कराया।

वो जो उठा पटक वाली बात मैंने एक पोस्ट में कही थी वो आज के इंटरनेट के बारे में थी। कंप्यूटर से मेरा साक्षात्कार बड़ी जल्दी हो गया था। जहां बाकी लोगों की तरह में भी उसमे पहले खेल खेलता था मेरा प्रयास यह रहता था कि कुछ और सीखने को मिल जाये। उस समय फ्लॉपी हुआ करती थी तो कुछ तिकड़म कर एक संस्थान का मासिक तनख्वाह का प्रोग्राम बना दिया।

उसके बाद आगमन हुआ इंटरनेट का। ये तो तय था ये कुछ बड़ा बदलाव लाएगा लेकिन कितना बड़ा इसका अंदाज़ा नहीं था। हाँ अपने उस समय के दोस्तों से मैं भी ये ज़रूर कहता कि एकदिन देखना सब ऑनलाइन मिलेगा। न अमेजान और न ही फ्लिपकार्ट के बारे में कुछ मालूम था। ये भी नहीं मालूम था कि एक दिन इसमें मेरा करियर बनेगा।

एक बड़ा तबका आज व्हाट्सएप और वीडियो देखने की क्षमता को ही इंटरनेट की बड़ी सफलता मानता है। लेकिन सही मायने में इसे इंटरनेट की जीत तब माना जायेगा जब उन लोगों के जीवन में एक ऐसा परिवर्तन लाए जिसकी कल्पना भी करना मुश्किल हो।

मुझे समय समय पर इस दिशा में कुछ करने का फितूर चढ़ता है और फिर वापस वही ढ़र्रे वाली ज़िन्दगी पर। हमको इस इंतज़ार का कुछ तो सिला मिले…