जब नवंबर में दिल्ली आया था तो यहाँ की सर्दी को लेकर थोड़ा सा चिंतित था। दिल्ली में पहले भी रह चुका था और उससे पहले भोपाल में था तो सर्दियों से परिचय काफी पुराना था और सच कहिए तो बारिश के बाद मुझे सर्दियां बहुत पसंद हैं। गर्मियों से ऐसी कोई नाराज़गी भी नहीं है लेकिन \’खाते पीते\’ घर से हैं तो शरीर गर्मी कम बर्दाश्त कर पाता है।
बहरहाल, सर्दियों की उस समय शुरुआत ही थी और एक दो दिन छोड़ दें तो पूरी सर्दी दिल्ली की सर्दी का इंतज़ार करते गुज़र गयी। जब मार्च खत्म होने को था तो मेरी सहयोगी प्रतीक्षा ने कहा आप गर्मी का इंतज़ार करिये। आपकी हालत खराब हो जायेगी। पंद्रह साल से मुंबई की उमस भरी गर्मी झेली थी और उससे पहले भोपाल की, तो लगा इसमे क्या है।
खैर जैसे जैसे गर्मी बढ़ती गयी प्रतीक्षा की बात सच होती गयी। उसपर सोने पर सुहागा वो घर जिसमें इन दिनों रह रहे हैं। वो है टॉप फ्लोर पर और पंखा चलाइये तो सही में आग बरसती है।
मुम्बई की उमसी गर्मी को छोड़ दें तो भोपाल की गर्मियों की यादें बड़ी ही मीठी हैं। सभी बुआओं का बच्चों समेत भोपाल आना होता और पूरी मंडली की धमाचौकड़ी चलती रहती। गर्मी उन दिनों भी रहती थी लेकिन पंखे से ही काम चलता था।
पहला कूलर जो गुलमर्ग नाम से था वाकई में बहुत ठंडक देता था। उस सेकंड हैंड कूलर की दो खास बातें और थीं। एक तो वो कभी कभार पानी भी फेंकने लगता लेकिन गर्मी थी तो कोई शिकायत नहीं करता। दूसरी बात थी उसकी बॉडी। आजकल तो सब फाइबर का है। गुलमर्ग की बॉडी खालिस लोहे की। चलते में हाथ लग जाये तो बस बदन नाच उठे। लेकिन तब भी एक कूलर में ही गर्मी कट जाती थी।
जो मीठी यादें कहा उसका एक और कारण है। कुल्फी। ठेले की कुल्फी जो भरी दोपहरी में खाई जाए। शुरू में फ्रिज तो था नहीं इसलिए खरीदो और खाओ। मस्ताना कुल्फी के नाम से वो ठेले वाला जब घंटी बजाता हुआ आता हम लोग दरवाज़े के बाहर। वैसी कुल्फी का स्वाद आज भी नहीं मिला। जब फ्रिज आया तो शाम के लिये कुल्फी रखी जाने लगीं। अब ये जगह आइस्क्रीम ने ले ली है।
प्रतीक्षा ने पहले से डरा रखा है कि जून और खराब होगा। लेकिन मुम्बई में तब तक बारिश शुरू हो चुकी होगी। इस बार मुम्बई की बारिश में भीगने का मौका कब मिलता है इसका इंतज़ार रहेगा।