जब रविवार सचमुच होता था एक ख़ास दिन – 2

दरअसल जो पोस्ट मैंने पहले लिखी थी उसकी पृष्ठभूमि बता दूँ। उस रविवार की सुबह याद रह गया तो सुबह से रंगोली कार्यक्रम देखा। वैसे तो मुझे इसकी ज़रूरत नहीं लगती क्योंकि मुझे लगता है मेरी पीढ़ी वाले और उसके बाद वाले भी जानते ही होंगे मैं किस रंगोली की बात कर रहा हूँ। फिर भी, ये एक कार्यक्रम है जो दूरदर्शन पर हर रविवार सुबह आता है और कुछ बहुत ही अच्छे गाने देखने और सुनने को मिलते हैं।

चाय की प्याली, अखबार, रंगोली और परिवार के सभी सदस्य – कभी ऐसी भी रविवार की सुबह हुआ करती थीं। आँख मलते हुए टीवी के सामने जा बैठते। पुरानी, नई फिल्मों के गाने देखते सुनते चाय भी हो जाती और आलस भी। उसके बाद का कार्यक्रम ठीक वैसे ही जैसा मैंने पिछली बार बताया था। जब पानी की किल्लत शुरू हुई तो रंगोली शुरू होने के पहले गाडी धुलाई का कार्यक्रम सम्पन्न हो जाता था। क्योंकि उनदिनों आज की तरह न तो म्यूजिक चैनल होते थे और न ही यूट्यूब की जब मन चाहा तो देख लिया। लेकिन उस सस्पेंस का अपना मज़ा है।

ठीक वैसा जैसा इस हफ़्ते मैंने और श्रीमती जी ने लिया। उनके पसन्दीदा एक्टर या गायक का गाना आया तो साथ में गुनगुना लेतीं और मुझे चिढ़ातीं। लेकिन अगले गाने पर मेरी बारी होती ये सब करने की। बचपन में हम भाई बहन के बीच भी कुछ ऐसा ही था। अपने पसन्दीदा गाने के आने पर मानो पर लग जाते। लेकिन बाकी गाने भी सुनते। शायद इसका ये फायदा हुआ कि पुराने गाने भी पसंद आने लगे। 90s के गाने तो हैं ही अच्छे लेकिन 60-70 के दशक के गाने भी उतने नहीं तो भी ठीक ठाक पसंद थे। अब चूंकि जो टीवी पर दिखाया जायेगा वही देखने को मिलेगा तो कोई विकल्प भी नहीं था। इंतज़ार रहता था रंगोली का, रविवार के ख़ास कार्यक्रम का। महाभारत, रामायण और भारत एक खोज जैसे कार्यक्रम सचमुच पूरे देश का रविवार ख़ास बनाते थे।

आजकल बहुत से घरों में दो या इससे अधिक टीवी रखने का चलन है। सब अपने अपने कमरे में बैठ क्या देखते हैं तो पता नहीं चलता किसको क्या पसंद है। अपनी पसंद का कुछ देखना सुनना हो तो अपने कमरे के टीवी में देख लेते हैं। रही सही कसर इस मोबाइल ने पूरी करदी। अब रविवार को टीवी देखना एक पारिवारिक कार्यक्रम नहीं रह गया है। लेकिन कार्यक्रम वैसे ज़रूर हैं (सिर्फ दूरदर्शन पर)।

ये अलग अलग पसन्द को लेकर अब हमारे घर में भी बहस होने लगी है। बच्चे बड़े हो रहे हैं और अब उन्हें इस समय के गाने पसंद हैं और मैं और श्रीमती जी पुराने हो चले हैं। कार से कोई यात्रा करो तो ये एक बड़ा मुद्दा बन जाता है। बादशाह और हनी सिंह के बेतुके बोल के आगे कहाँ साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी चलेंगे। इसलिए पहले से ही सबके टाइम स्लॉट दे दिये जाते हैं। वो हमारी पसंद सुनें और हम उनकी। ये अलग बात है की अपने गाने वो पुरे जोश के साथ सुनते हैं और हमारे टाइम पर वो सोना पसंद करते हैं।

जब हम भोपाल से कश्मीर गये तो गानों की खूब तैयारी करी थी। सीडी पर नये, पुराने, गाने, भजन, गज़ल सब लेकर रवाना हुये इस यात्रा पर। रविवार की रंगोली के जैसे ये यात्रा कई मायनों में ख़ास थी और वैसा ही सस्पेंस भी की आगे क्या है। मतलब एडवेंचर की हद कर दी थी पापा और मैंने। पूरा परिवार कार में भर कर निकले थे बिल्कुल ही अनजान रास्ते पर।

जब तक भोपाल और उसके आसपास चलते रहे तो लगता सब तो पता है। अनजानी राहों पर चलके ही आप जानते हैं अपने बारे में कुछ नया। अपने आसपास के बारे में और लोगों के बारे में। आपके व्यक्तित्व में आता है एक अलग ही निखार क्योंकि वो अनुभव आपको बहुत कुछ सीखा और बात जाता है। इस बार चलिए कुछ नया करते हैं श्रेणी में अपने आसपास (१०० किलोमीटर) के अन्दर जाएँ एक बिलकुल नए रस्ते पर, जहाँ आप पहले नहीं गए हों। शर्त ये की अपना गूगल मैप्स इस्तेमाल न करें बल्कि लोगों से पूछे रास्ता और उस इलाके में क्या ख़ास है।

जब रविवार सचमुच होता था एक ख़ास दिन

जब हम पढ़ रहे थे तब दूसरे और चौथे शनिवार स्कूल की छुट्टी रहती थी। पिताजी का साप्ताहिक अवकाश रविवार को ही होता था। मतलब रविवार का केवल एक दिन मिलता था जब सब घर पर साथ में रहते थे। लेकिन उन दिनों रविवार का मतलब हुआ करता था ढेर सारा काम। गाड़ियों – स्कूटर, सायकल और हमारी रामप्यारी अर्थात ऑस्टिन – की धुलाई एक ऐसा काम होता था जिसका हम सब इंतज़ार करते थे।

पिताजी ने हमेशा गाड़ी का खयाल रखना सिखाया। हमारे पास था भी एंटीक पीस जिसका रखरखाव प्यार से ही संभव था। गाड़ी चलाने से पहले गाड़ी से दोस्ती का कांसेप्ट। उसको जानिये, उसके मिज़ाज को पहचानिये। गाड़ी तो आप चला ही लेंगे एक दिन लेकिन गाड़ी को समझिये। इसकी शुरुआत होती है जब आप गाड़ी साफ करना शुरू करते हैं। एक रिश्ता सा बन जाता है। ये सब आज लिखने में बड़ा आसान लग रहा है। लेकिन उन दिनों तो लगता था बस गाड़ी चलाने को मिल जाये किसी तरह।

गाड़ी से ये रिश्ते का एहसास मुझे दीवाली पर भोपाल में हुआ। चूंकि कार से ये सफ़र तय किया था तो गाड़ी की सफ़ाई होनी थी। उस दिन जब गाड़ी धो रहा था तब मुझे ध्यान आया कि एक साल से आयी गाड़ी की मैंने ऐसे सफाई करी ही नहीं थी। मतलब करीब से जानने की कोशिश ही नहीं करी। कभी कभार ऐसे ही कपड़े से सफ़ाई कर दी। नहीं तो बस बैठो और निकल पड़ो। कभी कुछ ज़रूरत पड़ जाये तो फ़ोन करदो और काम हो जायेगा।

जब तक नैनो रही साथ में तो उसके साथ ऐसा बर्ताव नहीं किया। लेकिन नई गाड़ी आते ही दिल्ली निकल गये इसलिये गाड़ी चलाने का भी कम अवसर मिला। लेकिन दिल्ली में भी गाड़ी को बहुत याद ज़रूर करता और इसका दुख भी रहता कि नई गाड़ी खड़ी रहती है। यहां आकर उसको थोड़ा बहुत चला कर उस प्यार की खानापूर्ति हो जाती। बस उसको पार्किंग में देख कर खुश हो लेते। श्रीमती जी की लाख ज़िद के बाद भी अभी उन्हें इससे दूर रखने में सफल हूँ। लेकिन जब कार से लंबी यात्रा करनी हो तब लगता है उन्हें भी कार चलाना आ जाये तो कितना अच्छा हो। हम लोगों को कार से घुमने का शौक भी विरासत में मिला है। जिससे याद आया – मैंने आपसे मेरी अभी तक कि सबसे अनोखी कार यात्रा जो थी झीलों की नगरी भोपाल से धरती पर स्वर्ग कश्मीर के बीच – उसके बारे कुछ बताया नहीं है। फिलहाल उसकी सिर्फ एक झलक नीचे। दस साल पुरानी बात है लेकिन यादें ताज़ा हैं।

अगर हम गाड़ी की जगह इन्सान और अपने रिश्ते रखें तो? हम कितना उनको सहेज कर रखते है? क्या वैसे ही जैसे कभी कभार गाड़ी के ऊपर जमी धूल साफ करते हैं वैसे ही अपने रिश्तों के साथ करते हैं? या फिर हमने उनके रखरखाव की ज़िम्मेदारी एक कार साफ करने वाले के जैसे अपने लिये खास मौके छोड़ दिये हैं? समझें क्या कहा जा रहा है बिना कुछ बोले।

पिताजी और ऑस्टीन के बारे में अक्सर लोग कहते कि वो उनसे बात करती हैं। कई बार लगता कि ये सच भी है क्योंकि जब ऑस्टीन किसी से न चल पाती तब पिताजी की एंट्री होती जैसे फिल्मों में हीरो की होती है और कुछ मिनटों में ऑस्टीन भोपाल की सड़कों पर दौड़ रही होती। क्यों न हम भी अपने रिश्ते बनायें कुछ इसी तरह से।

चलिये नया कुछ करते हैं कि श्रेणी में आज अपना फ़ोन उठाइये और किन्ही तीन लोगों को फ़ोन लगायें। कोई पुराने मिलने वाले पारिवारिक मित्र, कोई पुराना दोस्त या रिश्तेदार। शर्त ये की आपका उनसे पिछले तीन महीनों में किसी भी तरह से कोई संपर्क नहीं हुआ हो। जैसा कि उस विज्ञापन में कहते हैं, बात करने से बात बनती है तो बस बात करिये और रिश्तों पर पड़ी धूल को साफ करिये। सिर्फ अपनी कार ही नहीं अपने रिश्तों को भी चमकाते रहिए। बस थोडा समय दीजिये।

चलिये शुरू करते हैं कुछ नया

दिल्ली का छूटना कई मायनों में बहुत दुखद रहा लेकिन मैं इस बात को लेकर ही खुश हो लेता हूँ कि मैंने लिखना शुरू किया। वो भी हिंदी में।

मेरा पूरा पत्रकारिता का करियर अंग्रेज़ी को समर्पित रहा है। जब भी कभी लिखने का प्रयास किया तो अंग्रेज़ी में ही किया। उसपर ये बहाना बनाना भी सीख लिया कि मेरे विचार भी अंग्रेज़ी में ही आते हैं और इसलिए उनको हिंदी में लिखना थोड़ा मुश्किल होता है।

अपने इस दकियानूसी तर्क पर कभी ज़्यादा सोचा नहीं क्यूंकि अंग्रेज़ी में ही लिखते रहे। लेकिन जब हिंदी में लिखना शुरू किया तब लगा कि मैं अपने को इस भाषा में ज़्यादा अच्छे से व्यक्त कर सकता हूँ। अटकता अभी भी हूँ और पहला शब्द दिमाग़ में अंग्रेज़ी का ही आता है। लेकिन शरीर के ऊपरी हिस्से में मौजूद चीज़ को कष्ट देते हैं तो कुछ हल मिल ही जाता है।

टीम के एक सदस्य जो भोपाल से ही आते थे, उनको अंग्रेज़ी का भूत सवार था। उनका ये मानना है कि अंग्रेज़ी जानने वालों को ही ज़्यादा तवज्जों मिलती है। हमारे देश के अधिकारीगण भी उन्हीं लोगों की सुनवाई करते हैं जो इस का ज्ञान रखते हों। मैं इससे बिल्कुल इत्तेफाक नहीं रखता लेकिन उनको इसका विश्वास दिला नहीं पाया।

अच्छा मेरी भी अंग्रेज़ी जिसका मुझे अच्छे होने का गुमान है, लेकिन असल में है नहीं, वो भी बहुत ख़राब थी। उसको सुधारने का और मुझे इस लायक बनाने का मैं ठीक ठाक लिख सकूँ, पूरा श्रेय जाता है तनवानी सर को। उन्होंने बहुत धैर्य के साथ मुझे इस भाषा के दावपेंच समझाये। बात फिर वहीं पर वापस। आपके शिक्षक कैसे हैं। अच्छा पढ़ाने वाले मिल जायें तो पढ़ने वाले अच्छे हो ही जाते हैं।

मैंने पहले भी इसका जिक्र किया है और आज फ़िर कर रहा हूँ। घर में पढ़ने लिखने की भरपूर सामग्री थी और इसका कैसा इस्तेमाल हो वो व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है। अख़बार पढ़ने की आदत धीरे धीरे बनी। शुरुआत में सब बक़वास लगता। फिर रुचि बढ़ने लगी। उनदिनों नईदुनिया के लिये मेहरुनिस्सा परवेज़ साहिबा लिखती थीं और मुझे उनके कॉलम पढ़ने में काफी आनन्द आता। उनसे तो नहीं लेकिन उनके आईएएस पति से कई बार मिलना हुआ। कई बार सोचा कि एक बार उनके बारे में भी पूछलूँ लेकिन संकोच कर गया।

इंटरव्यू के लिये कई बार ऐसे ऐसे नमूने मिले जो सपना पत्रकार बनने का रखते हैं लेकिन अख़बार पढ़ने से तौबा है। लेकिन दिल्ली में कई पढ़ने के शौक़ीन युवा साथी मिले। इनसे मिल के इसलिये अच्छा लगता है क्योंकि वो मुझसे कुछ ज़्यादा जानते हैं। जैसे आदित्य काफी शायरों को पढ़ चुके हैं और मैं उनसे पूछ लेता हूँ इनदिनों कौन अच्छा लिख रहा है। इतनी बडी इंटरनेट क्रांति के बावज़ूद बहुत से लेखकों से हमारा परिचय नहीं हो पाता। जो चल गया बस उसके पीछे सब चल देते हैं। इसके लिये हम सब को ये प्रयास करना चाहिये कि अगर कुछ अच्छा पढ़ने को मिले तो उसको अपने जान पहचान वालों के साथ साझा करें। तो अब आप कमेंट कर बतायें अपनी प्रिय तीन किताबें, उनके लेखक और क्या खास है उसमें।

इंतज़ार

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ये जो रात बैठ करता हूँ,
मैं कल का इंतज़ार,
क्या तुम भी अपना दिन,
ऐसे ही कर देती हो हवाले मेरे।

ये जो अपने गानों की प्लेलिस्ट में
तुम्हारा गीत सुनता हूँ बेसुध,
क्या कोई ग़ज़ल सुन
गुनगुना लिया करती हो तुम भी मुझे।

ये जो किताबों के पन्नो के बीच
मिल जाते हैं तुम्हारे अंश,
क्या तुम्हारी चादर की सिलवटों में
मिल जाता हूँ मैं भी तुम्हें।

ये जो शुरु हुए हैं सिलसिले,
कहीं न पहुंचने वाली मुलाक़ातों के,
क्या तुम भी इस सफ़र पर,
हमसफर बनी हो सिर्फ मेरे ही लिए।

सफ़र

Man relaxing in car, scenic road trip in summer. Feet out window, enjoying countryside.

चलो चलें आज एक ऐसे सफ़र पर 
जिसकी मंज़िल न हो हमें पता,
मील का पत्थर हो मैप हमारा,
और आँखें ही नापें रास्ता।

चलो चले आज उन गलियों में,
जहाँ सेल्फी खींचे आंखों से,
और रखें पलकों के फोल्डर में,
बस रहें सामने और छिपे भी हों।

चलो चलें आज उन गलियों में,
जहाँ फिल्मी हो लोकेशन,
दिल कहे पैकअप पर आँखें कहें एक्शन,
बस रहें सामने और खोये हुए भी हों।

चलो चलें आज उन गलियों में,
जहाँ याद नहीं मिले हों कभी,
लेकिन मिलते रहें हों हमेेशा,
बस रहे सामने और अनजाने भी।

चलो चलें आज उन गलियों में,
जहाँ तुम्हारा आँचल छुये तो मुझे,
लेकिन सिरहन हो दो जिस्मों में, 
बस रहें सामने और समेटते रहें दामन।

काली कार की ढेर सारी रंगबिरंगी यादें

ऑफ़िस में एक नई कार आयी थी टेस्ट ड्राइव के लिए। टीम के सदस्य बता रहे थे कि कैसे उन्होंने कार चलाना सीखा। सुवासित ने बताया कि कैसे वो जब मारुती 800 सीख रहे थे तो चप्पल उतारकर गाड़ी चलाते थे की गलती से कहीं पैर ब्रेक के बजाए एक्सीलेटर पर स्लीप न हो जाये। प्रतीक्षा ने बताया कि उनको सीखने के दौरान डाँट पड़ी तो उन्होंने सीखना ही छोड़ दिया।

हमारे परिवार में एक विंटेज कार है। ऑस्टिन 10 जिसे मैं बचपन से देखता आ रहा हूँ। मेरा कार चलाना सीखना उसी पर हुआ। काले रंग की कार के चलते हमारा घर काली कार वाला घर के नाम से जाना जाता था। जब सीख रहा था तब सिर्फ ऑस्टिन में ही फ्लोर गियर थे। बाकी सभी गाड़ियों में स्टीयरिंग से लगे हुए गियर थे। तब लगता था इसी गाड़ी में गियर अलग क्यूँ हैं। आज सभी गाड़ियों में फ्लोर गियर देख कर लगता है ऑस्टिन ने अच्छी तैयारी करवा दी थी।

बहरहाल, गाड़ी सीखते समय पिताजी से काफी मार खाई। गियर और स्टेयरिंग का तालमेल बिठाना एक अलग ही काम लगता था। आजकल के पॉवर स्टेयरिंग के जैसे आराम से घूमने वाले स्टेयरिंग बहुत बाद में चलाने को मिले। ऑस्टिन का स्टेयरिंग बहुत ही मुश्किल से चलता था शुरुआत में। पूरी ताकत लग जाती गाड़ी घुमाने में।

जब पिताजी घर पर नहीं तो सामने जो छोटी सी जगह थी उसमें गाड़ी घुमाते। कई बार दीवार या गैरेज से कार टकराई। लेकिन ऑस्टिन की बॉडी मतलब लोहा। मजाल है एक ख़रोंच भी आये। जब कभी गाड़ी रोड पर निकलती तो नये ज़माने की नाज़ुक कारों के लिए डर लगता की कहीं ऑस्टिन से टकराकर वो चकनाचूर न हो जाएं।

एक बार देर रात परिवार के सदस्य और कुछ मेहमान कहीं से लौट रहे थे। सुनसान सड़क पर ज़ोर से आवाज़ हुई जैसे कुछ बड़ी सी चीज कहीं गिरी हो। पापा ने कार रोकी देखने के लिए। लेकिन रोड खाली। कहीं किसी जीव जंतु का नामोनिशान नहीं। ऑस्टिन स्टार्ट करी लेकिन कार आगे नहीं बढ़े। उतरकर देखा तो ड्राइवर साइड का जो बाहर निकला हुआ टायर का कवर था वो अंदर धंसा हुआ था। लोहे की बॉडी वाली ऑस्टिन के साथ क्या हुआ था ये एक सस्पेंस अभी भी बरकरार है। जब ये ठीक हो रही थी तो मेकैनिक भी परेशान की ये हुआ कैसे। उनका ये मानना था कि ज़रूर किसी खंबे से टकरा गई होगी।

आजकल की गाड़ियों के बॉंनेट खोलें तो समझ में नहीं आता कहाँ क्या है। अगर गाड़ी कहीं खड़ी हो जाये तो आपके पास हेल्पलाइन को फोन करने के अलावा और कोई चारा ही नहीं बचता। लेकिन ऑस्टिन के इंजन जैसा बिल्कुल सिंपल सा इंजन मैंने आजतक नहीं देखा। गाड़ी कहीं खड़ी हो जाये तो आप कोशिश कर सुधारकर आगे चल सकते हैं।

ऑस्टिन में अनुज की बिदाई

ऑस्टिन के साथ बहुत सारी यादें हैं। बहुत ही मज़ेदार भी। जैसे जब हम कहीं से लौट रहे थे तो स्टेयरिंग जाम हो गया। गाड़ी मोड़ रहे थे उल्टे हाथ की तरफ लेकिन गाड़ी सीधे चली जा रही थी। या जब हमारी गाड़ी के बगल से किसी गाड़ी का एक टायर निकला। सब बोले अरे देखो ये क्या है। वो तो जब ऑस्टिन का पिछला हिस्सा तिरछा हुआ तो समझ में आया कि ये तो अपनी कार का टायर निकल गया है।

आखरी बार ऑस्टिन चलाने की याद है जब छोटे भाई की शादी की बिदाई हुई। दोनों भाई अपनी पत्नी के साथ ऑस्टिन का आनद ले रहे थे कि पेट्रोल खत्म हो गए। शेरवानी पहने दूल्हे राजा गए थे पेट्रोल लाने। लोगों ने बहुत दिए लेकिन ऑस्टिन ने कभी धोका नहीं दिया।

आज भी जब कभी गाड़ी चलाते हैं तो काली कार की याद आ ही जाती है।

जीवन सिर्फ सीखना और सिखाना है

मैंने अपना पत्रकारिता में करियर अंग्रेज़ी में शुरू किया और उसी में आगे बढ़ा। हिंदी प्रदेश का होने के कारण हिंदी समझने में कोई परेशानी नही होती है और ख़बर हिंदी में हो तो उसको अंग्रेजी में बनाने में भी कोई दिक्कत नहीं। इन सभी बातों का फायदा मिला और वो भी कैसे।

नासिर भाई ने अगर लिखना सिखाया तो दैनिक भास्कर के मेरे सीनियर और अब अज़ीज दोस्त विनोद तिवारी ने सरकारी दफ्तरों, अफसरों से ख़बर कैसे निकाली जाये ये सिखाया। विनोद के साथ भोपाल में नगर निगम और सचिवालय दोनों कवर कर मैंने बहुत कुछ सीखा। उन दिनों मैं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था लेकिन विनोद ने एक दिन चाय पीते हुये एलान कर दिया था कि मुझे पत्रकारिता का कीड़ा लग चुका है और मैं अब यहीं रहूँगा।

हिंदी के पाठक उस समय भी अंग्रेजी से ज़्यादा हुआ करते थे लेकिन मुझे अंग्रेज़ी में लिखना ही आसान लगता। उस समय ये नहीं मालूम था कि पन्द्रह साल बाद मैं भी हिंदी में अपना सफ़र शुरू करूंगा। थोड़ा अजीब भी लगता क्योंकि मेरे नाना हिंदी के लेखक थे और पिताजी भी हिंदी में कवितायें लिखते थे।

इंडिया.कॉम को जब हमने हिंदी में शुरू करने की सोची तो मेरे बॉस संदीप अमर ने पूछा कौन करेगा। मैंने हामी भर दी जबकि इससे पहले सारा काम सिर्फ और सिर्फ अंग्रेज़ी में ही किया था। लेकिन \”एक बार मैंने कमिटमेंट कर दी तो उसके बाद मैं अपने आप की भी नहीं सुनता\” की तर्ज़ पर मुंबई में लिखने वालों को ढूंढना शुरू किया। इसमें मुझे मिले अब्दुल कादिर। वो आये तो थे अंग्रेज़ी के लिये लेकिन वहाँ कोई जगह नहीं थी और उन्हें जहाँ वो उस समय काम कर रहे थे वो छोड़नी था। समस्या सिर्फ इतनी सी थी कि उन्होंने हिंदी में कभी लिखा नहीं था। लेकिन उन्होंने इसको एक चुनौती की तरह लिया और बेहतरीन काम किया और आज वो हिंदी टीम के लीड हैं।

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आगे टीम में और लोगों की ज़रूरत थी तो कहीं से अल्ताफ़ शेख़ का नाम आया। अल्ताफ़ ने डिजिटल में काम नहीं किया था और हिंदी में लिखने में थोड़े कच्चे थे। शुरुआती दिनों में उनके साथ मेहनत करी और उसके बाद एक बार जब उन्हें इस पूरे खेल के नियम समझ में आ गए तो उन्होंने उसमें न केवल महारत हासिल कर की बल्कि उन्होंने अपना एक अलग स्थान बना लिया। हाँ शुरू के दिनों में अल्ताफ़ ने बहुत परेशान किया और शायद ही कोई ऐसा दिन जाता जब अल्ताफ़ पुराण न हो। लेकिन उनकी मेहनत में कोई कमी कभी नहीं आई और नतीजा सबके सामने है। इनके किस्सों की अलग पोस्ट बनती है!

अल्ताफ़ इन दिनों एक मनोरंजन वेबसाइट के कंटेंट हेड हैं और आये दिन फिल्मस्टार्स के साथ अपनी फोटो फेसबुक पर साझा करते रहते हैं। आज वो जिस मुकाम पर हैं उन्हें देख कर अच्छा लगता है। उनके चाहने वाले उन्हें लातूर का शाहरुख कहते हैं। लेकिन जिस तरह एक ही शाहरुख खान हैं वैसे ही एक ही अल्ताफ़ हैं। सबसे अलग, सबसे जुदा। जन्मदिन की ढेरों शुभकामनायें। हिंदी के टीम के बारे में विस्तार से फिर कभी।

दिवाली के बहाने कुछ अन्दर की, कुछ बाहर की सफाई

बीते दिनों दीवाली पर घर जाना हुआ। चूंकि इन दिनों समय ही समय है तो ज़्यादा आनन्द लिया भोपाल यात्रा का। अब चालीस पार हो गए हैं तो हमारे समय में लिखना अटपटा नहीं लगता। जब हम पिताजी को मिले सरकारी मकान में रहते थे तो हर साल दीवाली के पहले घर में सरकार की तरफ से रंगरोगन करवाया जाता था।

उस समय स्कूलों की दीवाली की छुट्टियां दशहरे से शुरू होती थीं और दीवाली तक चलती थीं। तो इस रंगरोगन या पुताई के कार्यक्रम के समय हम चारों भाई बहन घर पर रहते थे। जिस दिन ये काम होना होता था उस दिन सुबह से माँ रसोई में खाने की तैयारी करतीं और हम लोग सामान बाहर निकालने का काम। कुछ बडी अलमारियों को छोड़ कर बाकी पूरा सामान घर के बाहर। किताबों को धूप दिखाई जाती। चूंकि इसके ठीक बाद सर्दियों का आगमन होता तो गर्म कपड़े भी बाहर धूप में रखे जाते।

इस सालाना कार्यक्रम में बहुत सी सफाई हो जाती। रंगरोगन तो एक दिन में हो जाता लेकिन सामान जमाने का कार्यक्रम अगले कुछ दिनों तक चलता। कुछ सालों बाद सरकार जागी तो ये कार्यक्रम दो साल में एक बार होने लगा और जब हमने वो मकान छोड़ा तो सरकार ने इसका आधा पैसा रहवासियों से वसूलना शुरू कर दिया था।

अपने आसपास सरकारी घर ही थे और बहुत थोड़े से लोग थे जिनके खुद के मकान थे तो ये पता नहीं चलता था उनके यहाँ रंगरोगन का अंतराल क्या है। वो तो जब दिल्ली, मुम्बई में रहने आये तो पता चला कि ये पाँच साल में या उससे अधिक समय में होता है।

पिताजी की सेवानिवृत्त के बाद अपने मकान में रहने लगे तो सालाना रंगरोगन का कार्यक्रम पूरे घर का तो नहीं बस भगवान घर तक सीमित हो गया है। चूँकि पहुंचते ही एन दीवाली के पहले हैं तो माता-पिता सफ़ाई वगैरह करवा के रखते हैं। उसपर पिताजी की हिदायत उनके किसी समान को उसकी जगह से हिलाया न जाये। हाँ, दीवाली की सफाई ज़रूर होती है लेकिन उतनी व्यापक स्तर पर नहीं जब आप घर पेंट करवा रहे हों। सामान सब वहीं रखे रहते हैं और हम बस उसके आसपास सफाई कर आगे बढ़ जाते हैं।

सरकारी घर में कुछेक बार तो ऐसा भी हुआ कि हम लोग सुबह से सामान बाहर निकाल कर तैयार और पता चला काम करने वाले उस दिन छुट्टी पर हैं। इन दिनों भारत के क्रिकेट मैच भी चलते थे तो टीवी को उसकी जगह से हिलाया नहीं जाता। घर में पेंट हो रहा है और मैच का आनंद भी लिया जा रहा है। जितने भी बल्ब और ट्यूबलाइट लगे होते उन्हें अच्छे से धो कर लगाया जाता। नये रंगे कमरे की चमक साफ किये बल्ब की रोशनी में कुछ और ही होती। आजकल त्योहार मनाने का तरीका बदल गया है। होता सब कुछ वही है लेकिन लगता है कुछ कमी है।

सोचिये अगर हम हर साल कुछ दिन निकाल कर अपने अंदर की ईर्ष्या, द्वेष, भय, अभिमान और अहंकार की भी सफ़ाई कर लें तो न सिर्फ हमारे संबधों में बल्कि स्वयं हमारे व्यकितत्व में भी कितनी ख़ालिस चमक आ जायेगी।

क्या सोचते हैं लोग आपके बारे में

पिछले दिनों रिलीज़ हुई फ़िल्म ठग्स ऑफ हिन्दोस्तां बॉक्सऑफिस पर ढ़ेर हो गयी। और ऐसी ढ़ेर की अब उसकी मिसाल दी जायेगी। लेकिन इस फ़िल्म की विफलता दरअसल एक बहुत बड़ी सीख दे गई जो है तो बहुत पुरानी लेकिन आज भी उतनी सही।

कान के कच्चे कहावत आपने सुनी होगी। लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं। हम अपने जीवन का एक बहुत लंबा समय इसी सोच में लगा देते हैं। मसलन मैंने अगर अच्छे कपड़े पहने हैं और अगर मुझे एक भी वाह वाह नहीं मिली या मेरी किसी पोस्ट को किसी ने पसन्द नहीं किया तो मैं दुखी। दुखी इसलिए कि सामने वाले ने मेरे प्रयास को सराहा नहीं।

ऐसा इसलिये की हम शुरू से ही ऐसी सोच बना लेते हैं कि अगर कोई तारीफ़ करे, वो भले ही झूठी हो, तभी सब अच्छा है। हमारे आसपास ऐसा ही माहौल रहता है। इसका ये मतलब कतई न निकालें की किसी की झूठी तारीफ़ न करें। पतियों के लिए फ़िर तो जीना मुश्किल हो जायेगा।

हम चाहते हैं कि समाज या उसमे रहने वाले लोग हमें अपनाये लेकिन उनकी शर्तों पर। और हम हर बार ये शर्त मान लेते हैं बिना किसी सवाल के। इस पूरे प्रकरण से मुझे कोई परेशानी नहीं। लेकिन तब परेशान हो जाता हूँ जब हम अपने काम दूसरे लोगों के हिसाब से करने लगते हैं क्योंकि उसके करने से सब खुश होते हैं और हम भी उसमे ही अपनी खुशी तलाशते हैं।

आप में से कितने लोगों ने ठग्स ऑफ हिन्दोस्तां सिनेमाघरों में जाकर देखी और फ़िर अपनी राय बनाई? जितने लोगों से मुझे फ़िल्म के बारे में सुनने को मिला वो ठीक ठाक ही था। लेकिन जिस तरह का कैंपेन फ़िल्म के खिलाफ चलाया गया लगा उससे बुरी फ़िल्म तो बनी ही नहीं है। लेकिन लोग अपने मिशन में कामयाब रहे – फ़िल्म के ख़िलाफ़ धारणा बनाने में।

मतलब ये की फ़िल्म देखी हो या नहीं बस बोल दो खराब है। कुछ वैसा ही जैसा लोगों के साथ होता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है फ़िल्म मिली। अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी की फ़िल्म में पूरी सोसाइटी अमिताभ बच्चन की एक नेगेटिव इमेज बनाने की कोशिश करती है। इसमें सभी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं लेकिन असल में अमिताभ बच्चन कैसे हैं ये सिर्फ मिली को उनसे मिलने के बाद पता चलता है।

कुछ वैसा ही हमारे साथ होता है और हम भी बाकी लोगों के साथ इस कर्मकांड में जाने अनजाने इसका हिस्सा बन जाते हैं। लेकिन अगर हम यही सोचते रहे तो अपना काम कैसे कर पायेंगे? हम अक्सर सही करने के बजाये वो कर बैठते हैं जिसको लोगों की सहमति प्राप्त हो।

मुम्बई जैसी कोई दूसरी जगह नहीं

मुम्बई-पुणे की पहली यात्रा के बारे में पहले बता चुका हूँ। जब दूसरी बार इसको कार्यस्थल बनाने का मौका मिला तो बिना कोई मौका गवाएँ मैंने हामी भर दी। एक बार भोपाल छुटा तो फिर सब जगह बराबर ही थीं। जुलाई 2000 में PTI ने मुंबई तबादला कर दिया और थोड़ा सा सामान और ढेर सारी यादों के साथ मायानगरी के लिये प्रस्थान कर दिया।

जो भी कोई मुम्बई आ चुका या रह चुका है वो ये समझेगा की मुम्बई जैसी कोई दूसरी जगह नहीं। आप शिकायत करते करते भी इसके तौर तरीके अपना लेते हैं और इसका एहसास आपको तब होता है जब आप कहीं और जाते हैं। मसलन यहाँ सुबह सब के लिये जल्दी होती है और दुकाने भी जल्दी खुल जाती हैं। कुछ दिनों बाद भोपाल गया तो लगा वहां सब चीज़ें स्लो मोशन में चल रहीं हैं।

मुम्बई पर वापस आते हैं। PTI ने चेम्बूर में एक फ्लैट को गेस्ट हाउस का नाम दे दिया था लेकिन ऐसी कोई सहूलियतें नहीं दिन थी। खाने का इंतज़ाम आपकी ज़िम्मेदारी थी। जल्द ही यहां कुछ नए प्राणी आने वाले थे और एक नीरस सा गेस्ट हाउस एक हंगामे वाली जगह बनने वाली थी।

मुम्बई लोकल में घुसना एक कला है जो आप धीरे धीरे सीख लेते हैं या यूँ कहें रोज़ रोज़ की धक्कामुक्की आपको सीखा देती हैं। शुरुआती हफ्ता थोड़ा समझने में गया। लेकिन फिर कौन सा डिब्बा पकड़ना है से लेकर कौन सी लोकल पकड़नी है सब सीखते गये। चेम्बूर के पास ही है तिलक नगर स्टेशन जिसने मुझे फिर से भोपाल से जोड़े रखा।

चेम्बूर में एक रेस्टॉरेंट है जहां प्रसिद्ध कलाकार, निर्माता, निर्देशक राज कपुर जी आते थे। एकाध बार खुद खा कर अपने आप को काफी गौरान्वित महसूस करने लगें लेकिन फिर ये भी सोचा कि आखिर ऐसा खास क्या हैं यहां के खाने में। लेकिन कोई मुम्बई आता तो उसको ज़रूर लेके जाते। इस उम्मीद पर की शायद वो बताएं। लेकिन सभी मेरे खयाल से मुझ जैसा ही रियेक्ट कर रहे थे।

PTI मुम्बई में काफी बदलाव हो रहे थे जब हमारा तबादला यहाँ किया गया। यह एक अलग चुनौती थी जिसका सामना करने के अलावा और कोई चारा नही था। लेकिन यहां के डेस्क और रिपोर्टिंग स्टाफ के सदस्यों ने बहुत ध्यान रखा। और ये इसका ही नतीजा है आज भी इन सभी से संपर्क बना हुआ है।

मुम्बई की बारिश का तब तक सिर्फ सिनेमा के पर्दे पर देख कर आनंद ही लिया था। उसके कहर को झेला नहीं था। लेकिंन वो दिन भी जल्दी आ गया जब ज़ोरदार बारिश के चलते मुम्बई ठप्प हो गयी थी। कैसे सामना किया इसका?

जीवन एक गीत है तो कोरस है अनुभव

एक बार फिर मुम्बई। आज कार में सफ़र करते समय रेडियो पर ज़माने को दिखाना है फ़िल्म का गाना दिल लेना खेल है दिलदार का चल रहा था। इस गाने के बीच में कुछ कोरस गाता है जिसका कोई मतलब इतने वर्षों मे समझ ही नहीँ आया। ये कोई अकेला गाना नहीं है जिसमे ऐसा कुछ है। आर डी बर्मन के बहुत से ऐसे गाने हैं जिनमे ऐसा कुछ सुनने के लिए अक्सर मिलता है। इसमें कितना योगदान RDB का हैं और कितना फ़िल्म से जुड़े अन्य लोगों का ये शोध का विषय हो सकता है। लेकिन ये कहना कि इस उटपटांग कोरस को सिर्फ RDB ने ही इस्तेमाल किया है तो गलत होगा।

हमारे जीवन में भी कुछ ऐसा ही होता है। सब एक सुर, ताल में बँधे चलते रहते हैं और अचानक एक अलग सा कोरस शुरू हो जाता है जिसका कोई मतलब समझ में तो नहीं आता। लेकिन ये कोरस गाने में इस तरह से गुंथा जाता है कि आपको वो गाने से अलग नहीं लगता। जीवन में ये कोरस को आप अनुभव कह सकते हैं। अच्छे और बुरे सभी अनुभव हमारी इस यात्रा को यादगार बना देते हैं।

अब ये आप पर निर्भर है कि आप उस कोरस को अलग से निकाल कर उसका सुक्ष्म परीक्षण कर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहते हैं या उसको गुनगुनाते हुए अपने गाने पर वापस आना चाहते हैं। कई बार हम लोग गाना भूल कोरस पर ही अपना ध्यान रखते हैं।

अगर हम किशोर कुमार के गाये हुए फ़िल्म शालीमार के गीत हम बेवफा हरगिज़ न थे कभी सुने तो ये बात औऱ अच्छे से समझ सकते हैं। गाना दिल टूटने की दास्तां बयाँ कर रहा है और उसका कोरस उतना ही ज़्यादा मज़ेदार। कभी फुरसत में सुनियेगा। अब अगर मैं इसके बाकी बैकग्राउंड को ध्यान में रखूं तो गाने का सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है।

वैसे आजकल के ज़्यादातर गाने बिना किसी मतलब के ही होतें है। क्या यही कारण है कि आज भी लोग उन पुराने गीतों को पसंद करते हैं या रीमिक्स कर बिगाड़ देते हैं?