समस्या है तो समाधान भी होगा

सुबह से श्रीमती जी थोड़ी सी विचलित सी दिखीं। मैंने अपने दिमाग़ में सुबह का पूरा सीक्वेंस दोहराया कि कहीं इसमें मेरा कोई योगदान तो नहीं है। मैंने उनके कार्यक्षेत्र (रसोईघर) में किसी तरह का कोई उल्टा पुल्टा काम भी नहीं किया था। चाय के बारे में भी सब कुछ अच्छा ही बोला था मतलब अच्छी चाय के बारे में अच्छा ही बोला जायेगा और वही ग़ुलाम ने किया था।

मैं निश्चिंत था आज न किसी का जन्मदिन है जिसे मैं भूल गया हूँ। वैसे उनकी सखियों की शादी की सालगिरह और जन्मदिन याद रखने का ज़िम्मा मुझे दिया गया है। अगर चूक हुई तो दोनों ही तरफ से सुनने को मिलता है। जब तक व्हाट्सएप पर था तो वहाँ सबके सहयोग से ये कार्य बहुत ही आसानी से सम्पन्न हो जाता था। जबसे व्हाट्सऐप से हटा हूँ तो अपनी कमज़ोर होती याददाश्त पर ही निर्भर रहता हूँ।

जिस समय ये विचारों की रेल 180 की मि की रफ्तार से दौड़ रही थी श्रीमती जी अपने व्हाट्सऐप पर दुनिया के कोने कोने में बसे रिश्तेदारों और अपनी सखियों को गुड मॉर्निंग मैसेज के आदान प्रदान में लगी हुईं थीं। मेरे बाद आता है नम्बर बच्चों का तो बच्चों के स्कूल की भी छुट्टी थी तो वहाँ से किसी शिकायत की गुंजाइश नहीं थीं। अगर होती भी तो उसका निवारण फ़टाफ़ट पिछले दिन ही हो जाता। अब ये कोई सरकारी दफ्तर तो है नहीं कि फ़ाइल घूमे। सिंगल विंडो क्लीयरेंस सरकार अभी अमल में ला पाई है। घरों में ये अनन्त काल से चल रहा है। खैर, छुट्टी के चलते बच्चों ने अपने से ही पढ़ाई की भी छुट्टी घोषित कर दी थी तो रोजाना होने वाला एक सीन भी इन दिनों नदारद था।

जितना पतियों को सवाल नापसंद हैं, पत्नियों को अच्छा लगता है कि उनसे सवाल पूछे जायें। मतलब आप इशारे समझ लीजिये और एक छोटा सा सवाल पूछ लें – क्या हुआ। बस जैसे किसी बाँध के दरवाज़े खुलते हैं वैसे ही जानकारी का बहाव शुरू। आप उसमे से काम की बात ढूंढ लें। मैंने वही किया। सुबह सुबह उन्हें ख़बर मिल गयी कि आज काम करनेवाली ने छुट्टी घोषित कर दी है।

कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी मेरे हिसाब से क्योंकि जैसे में वैसे हर काम करने वाला छुट्टी का हक़दार होता है। और फ़िर आप अपनी ऊर्जा, समय इसके ऊपर फ़ोन और व्हाट्सएप कर क्यों बर्बाद कर रहे हो? ऐसा मैंने सोचा लेकिन बोला नहीं। जब सामने से तूफान निश्चित दिखाई दे रहा है तो क्यों अपनी नाव उतारी जाये। ऐसे समय ख़ामोश रहना बेहतर है। कोई सुझाव हो तो आप उसको दुनियाभर को बता दें। श्रीमती जी को न बतायें। सो नहीं बताया।

बस यही गलती कर दी। कल मैं फ़ोन पर किसी को उनकी समस्या के लिये कुछ सुझाव श्रीमती जी के सामने दे दिये थे। आपके पास इसके लिये कुछ सुझाव नहीं है? उन्होंने पूछ ही डाला और उसके बाद जैसा सैफ अली खान का दिल चाहता है में सीन था वैसा ही कुछ होता। मतलब की, वो, तो, मैं जैसे चार शब्द मेरे हिस्से में आते।

लेकिन मैंने उनसे दूसरा प्रश्न पूछ लिया समस्या पता है। उन्होंने कहा हाँ। तो अब इसका समाधान ढूँढते हैं।

अपने जीवम में हम अक्सर समस्या पर ही उलझ जाते हैं। वो तो हमें पता होती है लेकिन समाधान नहीं। उसपर ध्यान दें और जो भी दो-तीन समाधान दिखें उसपर काम करना शुरू करें। बात सिर्फ फ़ोकस बदलने की है।

श्रीमती जी इस सलाह के बाद व्हाट्सएप पर कुछ और संदेश का आदान प्रदान किया, एक दो फ़ोन भी लगा लिये और उनका काम हो गया। वैसे श्रीमती जी और बाकी गृहणियों से एक बहुत अच्छी मैनेजमेंट की सीख भी मिलती है। उसपर चार लाइना कल। फ़िलहाल गरम चाय की प्याली इस सर्द सुबह का आनन्द दुगना करने का आमंत्रण दे रही है।

अम्माँ

शाहरुख खान की फ़िल्म स्वदेस में कावेरी अम्माँ की तरह उन्होंने हमें पाला तो नहीं था लेकिन फ़िर भी हम सब उन्हें अम्माँ कहते हैं। उनको ऐसा कैसे बुलाना शुरू किया ये याद नहीं लेकिन घर के सभी सदस्य उन्हें अम्माँ ही बुलाते। शायद उनके माँ के जैसे प्यार करने के कारण ही उनको अम्माँ बुलाना शुरू किया होगा। आज अचानक अम्माँ की याद वो भी इतने लंबे समय बाद कैसे आ गयी?

दरअसल ट्विटर पर एक चर्चा चल रही थी कि कैसे हम अपने घर में काम करने वालों के साथ भेदभाव करते हैं। जैसे उनके खाने पीने के अलग बर्तन होते हैं, शहरों में कई सोसाइटी में काम करने वालों के लिये अलग लिफ़्ट होती है और रहवासियों के लिये अलग। काम करनेवाले उस लिफ़्ट का इस्तेमाल नहीं कर सकते।

इस सब को पढ़ते हुये अम्माँ का चेहरा सामने आ गया। याद नहीं कबसे उन्होंने हमारे घर काम करना शुरू किया। अम्माँ के पति की मृत्यु हो चुकी थी और उनकी कोई संतान नहीं थी। रिश्तेदार आस पास ही रहते थे लेकिन अम्माँ को भी ये पता था कि उनकी नज़र उनके पैसों पर है। शायद इसलिये एक दिन उन्होंने आकर बोला कि उनका एक बैंक खाता खुलवा दिया जाए। घर के पास वाले बैंक में जहाँ हमारा खाता था वहीं उनका भी खाता खुलवा दिया।

उनसे पहले भी कई काम करने वाले आये लेक़िन वो बस काम करती और निकल जातीं। अम्माँ कब सिर्फ़ एक काम करने वाली न होकर घर की एक सदस्य बन गयीं पता नहीं चला। उन्होंने भी कब हमको अपना मान लिया इसकी याद नहीं। उनके हाथ की बनी ज्वार की रोटी का स्वाद कुछ और ही था। अक्सर उनके डिब्बे से अदला बदली कर लेते और वो खुशी खुशी इसके लिये तैयार हो जातीं।

आज ट्विटर पर काफी सारे लोगों ने बताया कि कैसे लोग अपने घरों में काम करनेवालों के साथ व्यवहार करते हैं, कैसे दूसरी जाति के लोगों को सुबह सुबह देखना अपशकुन माना जाता है, कैसे काम करनेवाले जिस स्थान पर बैठते हैं उसको उनके जाने के बाद धो कर साफ किया जाता है इत्यादि।

मुम्बई में जो घर में काम करती हैं वो दरअसल बड़ी विश्वासपात्र हैं। कई बार उनके काम करने के समय हम लोग घर पर नहीं होते लेकिन वो पड़ोसियों से चाबी लेकर काम करके चली जाती हैं। कभी कोई विशेष आयोजन रहता है तो सबसे पहले वो ही भोजन ग्रहण करती हैं क्योंकि उन्हें जल्दी घर जाना होता है।

बाहर निकलिये तो अक्सर ऐसे जोड़े दिख जाते हैं जिनके बच्चों को संभालने के लिये आया रखी होती है। होटल में वो आया अलग बैठती है और उसका काम साहब और मेमसाब को बिना किसी परेशानी के खाना खाने दिया जाये यही होता है। अम्माँ तम्बाकू खातीं थीं तो उनको ऐसे ही चिढ़ाने के लिये मैं बोलता मसाला मुझको भी देना और वो मुझे डाँट कर भगा देतीं।

पिताजी जब रिटायर हुये तो अम्माँ का साथ भी छूट गया। हम सरकारी घर छोड़ कर नये घर में रहने आ गये। अम्माँ के लिये नया घर बहुत दूर हो गया था। शायद एक बार वो नये घर में आईं लेकिन उसके बाद से उनसे कोई संपर्क नहीं रहा। वो अभी भी भोपाल में हैं या महाराष्ट्र वापस आ गईं, किस हाल में हैं पता नहीं लेकिन यही प्रार्थना है कि स्वस्थ हों, प्रसन्न हों और वो मुस्कुराहट उनके चेहरे पर बनी रहे।

पत्र अपडेट: काफी लोगों से पतों का आदान प्रदान हुआ है और दोनों ही पार्टीयों ने जल्द ही पत्र लिखने का वादा किया है। पहले पत्र का बेसब्री से इंतज़ार है।

Darr: Aamir Khan\’s rejection gave Shahrukh Khan his stardom

At a time when films are not remembered beyond their 100 days or so, we are remembering 25 years of Yash Chopra\’s Darr starring Shahrukh Khan, Juhi Chawla and Sunny Deol which was released on December 24, 1993. The film was milestone in both Shahrukh Khan and Juhi Chawla\’s career and in a way also helped Yash Raj banners in their journey. Darr remained in news for reasons other than the obvious much before its shooting began.

The film was first offered to Aamir Khan. In fact Khan had signed the Yash Chopra film and the trade was very excited as it was first collaboration between the king of romance Yash Chopra and Aamir Khan. It was also bringing back the hit pair of Aamir Khan and Juhi Chawla after their not so hit outings post QSQT. The muhurat of the film was also performed with the cast.

But soon it was reported that Aamir Khan was out of the Yash Chopra film and Shahrukh Khan has replaced him. Shahrukh at that point had already done Baazigar in which he had played a negative role. There were many theories doing the rounds at to why Aamir left the film. One version was Aamir Khan insisted on a joint narration with Sunny Deol but Yash Chopra refused. Year later Sunny Deol also said something on similar lines. He did not stop there and called Yash Chopra a cheat and also turned down their offer to launch his son. Sunny Deol did not work with Yash Raj films and Shahrukh Khan after Darr.

[youtube https://www.youtube.com/watch?v=huj9_8uV5y8&w=560&h=315]

The other theory was Yash Chopra did not like Aamir Khan asking too many questions and hence dropped him. Yash Chopra also said in an interview that Aamir Khan developed cold feet after the muhurat as he was playing a negative character for the first time. His family, fans and well wishers advised him against it and he finally said no.

Whatever be the reason, in the end it worked to Shahrukh Khan\’s advantage. As for Aamir Khan he did work with Yash Chopra and their venture Parampara was released the same year but failed to set the box office on fire. The film is best remembered for a couple of songs and Ramya\’s hot scenes with Vinod Khanna.

Coming back to Darr, I liked Juhi Chawla from her first film – Qayamat Se Qayamat Tak. It was combination of everything – the music, story, how she spoke in the film and of course her pairing with Aamir Khan. So when Juhi Chawla did the itsy-bitsy role in Yash Chopra\’s Chandni I was disappointed. But soon there was news that Yash Chopra had offered her a role in his next film. Darr was supposed to be her big film as she was working with a big banner and Yash Chopra was known for presenting his actress in the most beautiful way.

Coming after the debacle of Lamhe, a lot was riding on Darr. Baazigar had released on November 12 and Shahrukh Khan was lauded for his role as Ajay Sharma. Darr was releasing exactly a month after but the story was completely different. Baazigar was still running in theaters when Darr was released. Soon Shahrukh Khan\’s character in Darr and his K..K..K…Kiran became popular and the next big star had arrived.

The music of the film is still loved specially Tu Hai Meri Kiran which incidentally is only playing in the background and we see Shahrukh Khan singing rather different version in the film. The other songs also go well with the story but I must add that I saw the film recently and I thought we could do away with couple of songs like Likha Hai Ye and Solah Button Meri Choli Main for a more enjoyable film.

Darr also has the unique distinction of being made into English in 1996 as Fear.

जब एक पोस्टकार्ड बना पार्टी की सौगात

चलिये पत्र लिखने की बात से ये तो पता चला कि ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने आज तक न तो पत्र लिखा है ना उन्हें कभी किसी ने। इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। क्योंकि इन लोगों के समझते समझते मोबाइल फ़ोन का आगमन हो चुका था और हम सबको संपर्क में रहने के लिये एक नया तरीका मिल गया था। जिन्होंने कभी पत्रों का आदान प्रदान नहीं किया हो वो इससे जुड़े जज़्बात शायद न समझें। और अगर आने वाली पीढियां इस पर पीएचडी कर लें कि पत्र लिखने की कला कैसे विलुप्त हुई, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।

बदलाव का बिल्कुल स्वागत करना चाहिये लेकिन इस बदलाव ने भाषा बिगाड़ दी। एक तो लोग पहले से लिखना छोड़ चुके थे और उस पर ये छोटे छोटे मैसेज। रही सही कसर व्हाट्सएप ने पूरी कर दी। अब तो लिखना छोड़ कर सिर्फ 🙏, 👍,🤣 जैसा कुछ कर देते हैं और बस काम हो गया। मुझे अपने काम के चलते ऐसे बहुत से युवा पत्रकार मिले जो भ्रष्ठ भाषा के धनी थे।

ऐश्वर्या अवस्थी ने पोस्टमेन की याद दिला दी। हमारे यहाँ जो पोस्टमेन आता था उसको हमसे कोई खुन्नस थी। शायद उसका होना भी वाज़िब था क्योंकि हमारे यहां ढ़ेर सारे ख़त तो आते ही थे साथ में पत्रिकाओं का आना लगा रहता। जब मेरा पीटीआई में चयन हुआ तो इसका संदेश भी डाक के द्वारा मिला। हाँ आदित्य की तरह प्रेम पत्र नहीं लिखे। काश फ़ोन के बजाय लिख दिया होता तो आज दोनों अलग अलग ही सही पढ़ कर मुस्कुरा रहे होते।

ऐसा ही एक संदेश एक सज्जन के पास उनकी बहन ने पहुँचाया। उनकी पत्नी जो गर्भावस्था के अंतिम चरण में थीं उन्होंने पुत्र को जन्म दिया है। अब ये बात एक पोस्टकार्ड पर लिख कर बताई गई थी। ज़ाहिर सी बात है की पत्र कई लोगों द्वारा पढ़ा गया और नये नवेले पिता से पार्टी माँगी गयी और उन्होंने खुशी खुशी दे भी दी। समस्या सिर्फ इतनी सी थी की ऐसा कुछ हुआ नहीं था। डिलीवरी में अभी भी समय था। बहन ने भाई को यूँ ही लिख दिया था। फ़िर तो बहन को जो डाँट पड़ी।

भोपाल के एक सांसद महोदय ने भी इस पोस्टकार्ड का बहुत ही अनोखे तरीक़े से इस्तेमाल किया। उन्होंने अपने पते के साथ पोस्टकार्ड अपने क्षेत्र में लोगो को दे दिये। कोई समस्या हो तो बस मुझे लिख भेजिये। मतदाताओं को ये तरीका बहुत भाया।

सदी के महानायक अमिताभ बच्चन आज भी किसी को उनकी अदाकारी या किसी और काम के लिये बधाई या धन्यवाद अपने एक छोटे से स्वयं के लिखे नोट से करते हैं। नोट की क़ीमत इस लिए तो है ही कि इसे बच्चन साहब ने भेजा है। लेकिन उनके हाथ से लिखा हुआ है तो ये अमूल्य हो जाता है।

इस विषय पर थोड़ी रिसर्च भी कर डाली तो सब जगह यही पढ़ने को मिला। हज़ारों साल पुरानी ये परंपरा को लोगों ने लगभग छोड़ ही दिया है। हाँ जैसा आदित्य द्विवेदी ने कहा, फौज में आज भी ये चलन है। उतने बड़े पैमाने पर शायद नहीं लेकिन फौजी के घरवाले आज भी पत्र लिखते हैं।

फ़ोन पर आप बात करलें तो आवाज़ सुनाई देती है और दिल को चैन आ जाता है। सही मायने में जब आप पत्र लिख रहे होते हैं तो जाने अनजाने आप अपने बारे में कुछ नहीं बताते हुए भी बहुत कुछ बता जाते हैं। वैसे ही पत्र पढ़कर आप एक तस्वीर बना लेते हैं लिखने वाले के बारे। जैसे फ़िल्म साजन में माधुरी दीक्षित बना लेती हैं संजय दत्त की और उनसे प्यार करने लगती हैं। लेखक, कवि, शायर से बिना देखे बस इसलिये तो प्यार हो जाता है।

काफ़ी लोगों की तरह मैंने भी प्रण तो लिया है कि अब पत्र लिखा जायेगा। लेकिन इस पर कितना कायम रहता हूँ ये आप को तब पता चलेगा जब आपके हाथ होगा मेरा लिखा पत्र जिसका जवाब आप भी लिख कर ही देंगे। तो फ़िर देर किस बात की। मुझे sms करें अपना पूरा पता (पिनकोड के साथ)। व्हाट्सएप से मैं हट गया हूँ तो वहाँ कुछ न भेजें।

यादों का खज़ाना

आज ऐसे ही सफ़ाई के मूड में अपनी कुछ पुरानी फ़ाइल और कागज़ात निकाले। इस पूरी प्रक्रिया की शुरुआत होती कुछ इस तरह से की मैं परिवार के अन्य सदस्यों को बोलता हूँ कि वो पुराना सामान निकाले और जिसकी ज़रूरत नहीं हो वो निकाल कर रद्दी में रख दें। ये मेरा सेल्फ गोल होता है क्योंकि फिर मुझे ही सुनने को मिलता है श्रीमती जी से की आप का भी बहुत सारा पुराना सामान रखा है उसे भी देख लीजियेगा।

मैं सिर्फ इसी उद्देश्य से इस काम में जूट जाता हूँ। लेकिन बस शुरू ही हो पाता है कि फिर एक एक कर कुछ न कुछ मिलता रहता है। जैसे इस बार मुझे मिले कुछ पत्र जो करीब 18 साल पुराने हैं। कुछ दोस्तों के द्वारा लिखे हुए और कुछ परिवार के सदस्यों के द्वारा। परिवार वाले पत्र तो उस समय क्या चल रहा था उसके बारे में होते हैं लेकिन दोस्तों के पत्र होते हैं अधिकतर फ़ालतू जानकारी से भरे हुए लेकिन मज़ेदार। अगर उनको अठारह वर्ष बाद पढ़ा जाये तो उसका मज़ा ही कुछ और होता है।

लेकिन अब आजकल जो ये ईमेल और व्हाट्सएप का चलन शुरू हुआ है तो कागज़ पर अपने विचारों को उतारना ख़त्म सा हो गया है। अब तो जन्मदिन या बाकी अन्य आयोजन के उपलक्ष्य में भी फेसबुक या व्हाट्सएप पर बधाई दे दीजिये। बस काम हो गया। इससे पहले दोस्त, घरवाले कार्ड दिया करते थे। दूर रहनेवाले रिश्तेदार भी कार्ड चिट्ठी भेजा करते थे।

लेकिन जैसा कि फ़िल्म नाम के चिट्ठी आयी है गाने में आनंद बक्शी साहब ने लिखा है,

पहले जब तू ख़त लिखता था कागज़ में चेहरा दिखता था, बंद हुआ ये मेल भी अबतो ख़त्म हुआ ये खेल भी अब तो।

वैसे हिंदी फिल्मों में ख़त का इस्तेमाल अमूमन प्यार के इज़हार के लिये ही होता रहा है फ़िर चाहे वो सरस्वतीचंद्र का फूल तुम्हे भेजा है ख़त में हो या मैंने प्यार किया का कबूतर जा या संगम का ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर। लेकिन अब ऐसे गीत बनेंगे नहीं और अगर मेरे जैसे किसी ने ऐसा कर दिया तो सब हंसेंगे की अब कौन पत्र लिखता है।

जब आजकल के नये संपर्क साधन नहीं थे तो नई जगह पहुंच कर वहाँ से पिक्चर पोस्टकार्ड भेजने का भी चलन था। ऐसे ही कुछ मुझे अपने ख़ज़ाने में मिले जब भाई विदेश गया था और जब माता पिता धरती पर स्वर्ग यानी कश्मीर गए थे। अब तो बस सेल्फी खींचो और शेयर करो। विपशना के जैसे कहीं बाहर जाओ तो फ़ोन के इस्तेमाल पर रोक लगा देना चाहिये।

इस डिजिटल के चलते एक और चीज़ छूट रही है और वो है फ़ोटो। सबके मोबाइल फ़ोन फ़ोटो से भरे हुए हैं लेकिन अगर आप और मोबाइल बिछड़ जायें तो… पिछले दिनों जब व्हाट्सएप मोबाइल से हटा रहा तो श्रीमती जी ने आगाह भी किया कि फ़ोटो भी चली जायेंगी। ख़ज़ाने में मुझे बहुत सारी पुरानी फ़ोटो भी मिलीं। ढूँढने पर एक पुराना एल्बम भी मिल ही गया। बस इस सबके चलते यादों का कारवाँ निकल पड़ा लेकिन जिस काम के लिये बैठे थे वो नहीं हुआ।

इस नये चलन को बढ़ावा मैंने भी दिया लेकिन अब जब पुराने पत्र पढ़ रहा हूँ तो लगता है इस सिलसिले को फ़िर से शुरू करना चाहिये। तो बस कल पास के पोस्टऑफिस से कुछ अंतर्देशीय और पोस्टकार्ड लेकर आयेंगे और पहुँचाते हैं आप तक। अगर आप भी इसका हिस्सा बनना चाहते हैं तो अपना पता छोड़ दें कमेंट्स में। वो क्या है ना कि हम फ़ोन नंबर से शुरू कर अपनी दोस्ती सिर्फ फ़ोन तक ही सीमित कर लेते हैं। जब तक मिलने का संयोग न हो तो पते का आदान प्रदान नहीं होता है।

मेरी आवाज़ ही पहचान है

पिछले दो दिनों से घर में माहौल थोड़ा अलग सा है। श्रीमती जी एक मित्र हमारी सोसाइटी छोड़ नई जगह चली गयीं। दोनों की मुलाक़ात दस साल पहले हुई थी जब हम इस सोसाइटी में रहने आये थे। शुरुआत में वो हमारी ही फ्लोर पर रहती थीं लेकिन मुझे उस समय के बारे में कुछ भी याद नहीं है। वो तो जब बारिश होती और उनके पति अपनी कार से बच्चों को छोड़ने जाते, तब उनसे मिलते और यही मुझे याद है। इन दोनों की अच्छी दोस्ती के चलते उनके पति और मेरा भी कभी कभार मिलना हो ही जाता था। लेकिन दोनों सखियों की रोज़ फ़ोन पर बात एक नियम था और संभव हुआ तो मिलना भी। अब ये सब ख़त्म होने जा रहा था और श्रीमती जी इससे बहुत दुखी थीं।

ये जो घटनाक्रम चल रहा था उससे मुझे फ़िल्म दिल चाहता है का वो सीन याद आ गया जब तीनों दोस्त गोआ में एक क़िले से दूर समंदर में एक जहाज़ को देखते हैं। आमिर खान कहते हैं उन तीनों को साल में एक बार गोआ ज़रूर आना चाहिये। सैफ इस प्रस्ताव का अनुमोदन करते हैं। लेकिन अक्षय खन्ना जो शायद सबसे ज़्यादा प्रैक्टिकल होते हैं, आँखों से ओझल होते जहाज़ का हवाला देते हुये कहते हैं कैसे एक दिन उस जहाज़ के जैसे तीनों दोस्त अपनी अपनी मंज़िल की तलाश में निकल पड़ेंगे और साल में एक बार तो दूर दस साल में एक बार मिलना भी मुश्किल हो जायेगा।

श्रीमती जी और उनकी मित्र ने जल्द मिलने का वादा किया तो है लेकिन दोनों जानते हैं मुम्बई जैसे शहर में इस वादे को निभाना कितना मुश्किल है। मुझे तो कई बार फ़्लोर पर ही रहने वाले सज्जनों से मुलाक़ात किये हुए महीनों गुज़र जाते हैं। लेकिन मैं इस मिलने मिलाने के कार्यक्रम का अपवाद हूँ, ऐसा मानता हूँ। बहरहाल दोनों अपनी अगली मुलाक़ात को लेकर काफ़ी उत्साहित हैं।

ऐसे ही मिलने के वादे मैं भी करता रहता हूँ। कोई इंतज़ार कर रहा है कब मैं दिल्ली आऊँ और उसके साथ समय बिताऊँ। इस वादे पर मिर्ज़ा ग़ालिब ने बहुत ही शानदार लिखा भी है:

तेरे वादे पर जिये हम, तो ये जान झूठ जाना
के खुशी से मर न जाते, अगर ऐतबार होता

ऐसे ही बहुत से मिलने के वादे बहुतों से किये हुए हैं लेकिन एक भी वादा झूठा नहीं है। पता नहीं कब मिलना होता है। वैसा भी मेरा इस मामले में रिकॉर्ड बहुत ही ख़राब रहा है। मिलना तो दूर लोग मुझे फ़ोन पर मिल जाने की बधाई देते हैं।

Tere Bin song review: Recycled Simmba song has nothing going for it, not even Ranveer Singh and Sara Ali Khan

The new Rohit Shetty action drama Simmba seems to be completely relying on old hits. Both the songs released so far have been rehashed versions of popular hits. After the first song Aankh Mare which was a recreated version of Tere Mere Sapne song, the second song Tum Bin was released on Friday.

This song is again recreated version of a popular Nusrat Fateh Ali Song Tere Bin Nahin Lagda. Unlike the original which had only Nusrat Fateh Ali Khan doing the honours behind the mic, the fresh version has Rahat Fateh Ali Khan who is joined by Asees Kaur. Tanishk Bagchi who has awarded himself the contract to destroy old bollywood songs, does a rather awesome job (in killing the original song).

The song is supposed to be a love song between the lead pair Ranveer and Sara. Shot in the picturesque Switzerland, it is not a Yash Chopra like song but there are elements like Sara in a sari. But don\’t expect too much as the song is just not up to the mark.

A romantic song in an out and out Rohit Shetty cop drama is odd and you know it\’s there as a dream sequence and is not going to add any value to the narrative. The first song too is a filler song and I won\’t be surprised if it comes in the end credit.

Tere Bin has been a let down and it is not what the makers promised it to be. May be I will watch old romantic song to quench my thirst for a good romantic number.

Book review: Promising subject but script is all over the place

Music Masti Modernity – The Cinema of Nasir Husain by Akshay Manwani

Publisher: HarperCollins Publishers India

Pages: 402

Price: Rs 599

Having grown up on Nasir Husain films, I picked up the book hoping it would let me understand what went in making Nasir Husain the phenonmenon he has become. But early into the book I realise the biggest shortcoming of the book. The three things that made Nasir Husain and his films – the man himself, composer R D Burman and lyricist Majrooh Sultanpuri were no longer there. This actually is the biggest handicap of the book – we never get to know what went into a certain scene or how Nasir Husain took failure.

What we instead get it is lots of assumptions or what people thought about Husain and his films. Both Aamir Khan and Mansoor Khan started working with Nasir Husain when he almost retired from direction or when his career was going downhill. The writer gets some kind of understanding from Javed Akhtar – he and Salim Khan worked with Husain in Yaadon Ki Baarat. But its not the same as you would expect – at least I did not get it.

Much of Nasir Husain\’s success is also because of the music of his films. Here the book completely lets you down as we don\’t get anything from the core members of the team – RD and Majrooh. Instead we get tid bits from Karan Johar and Aditya Chopra.

The only living collaborator of many hits is Asha Parekh but she too makes a very guest appearance like participation in the proceedings. Also in many chapters the writer starts talking about something and then goes completely off the track which spoils the flow.

If you are looking for more on Nasir Husain – this boook is certainly not the one. The one big lesson is – speak to these legends when they are with us instead of speaking to people who have worked with them and their take on the happenings.

यादों से भरी सालगिरह

भोपाल में पिताजी को जो सरकारी घर मिला था उसकी लोकेशन बड़ी कमाल की थी। हबीबगंज स्टेशन के बारे में आपको बता ही चुका हूँ। दो सिनेमाघर भी हमारे घर के पास ही हुआ करते थे ज्योति और सरगम। जो भी बड़ी नई फिल्म रिलीज़ होती वो इन दो में से किसी सिनेमा हॉल में ज़रूर लगती।

चूंकि मेरा घर इनके समीप था तो हर गुरुवार को मेरी ड्यूटी रहती टिकट खिड़की पर खड़े होने की। उन दिनों आज की बुकमाईशो जैसी सुविधा तो थी नहीं तो बस सुबह से यही एक काम रहता की लाइन में लगो और धक्के खाते हुए टिकट निकालो। टिकट न मिलने की स्थिति मे कई बार खाली हाथ भी लौटना पड़ता। उन दिनों टिकट खिड़की से टिकट लेकर फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने का मज़ा आज की एडवांस बुकिंग में कहाँ। और उस दौरान हो रहे हंगामे की क्या बात।

महिलाओं की लाइन में भीड़ कम होती तो लड़के किसी भी अनजानी लड़की को बहन बना टिकट लेने की गुज़ारिश करते। उन लड़कियों के परिवार वाले इन लड़कों पर नज़र रखते के कोई बदतमीजी न करें।

मेरे कॉलेज जाने का रास्ता ज्योति टॉकीज से ही जाता था। नई फिल्म रिलीज़ होते ही मैं बाहर खड़ी भीड़ से अंदाज़ा लगता कि फ़िल्म हिट होगी या फ्लॉप। जब यश चोपड़ा की लम्हे रिलीज़ हुई तो सिनेमा हॉल खाली था। फ़िल्म देखी तो समझ में नहीं आया कि आखिर क्यों लोगों ने इसको पसंद नहीं किया। ऐसा ही कुछ हाल था अंदाज़ अपना अपना का। एक किस्सा शाहरुख खान की फ़िल्म डर का भी है लेकिन उसका ज़िक्र फिर कभी।

हमारे घर की एक ख़ासियत और थी। घर के सामने ही था गर्ल्स हायर सेकंडरी स्कूल, थोड़े आगे जाने पर वुमेन्स पॉलीटेक्निक और उसके बाद गर्ल्स कॉलेज। जिन दिनों विवाह के लिए लड़की ढूंढी जा रही थी उस समय दूर दराज से रिश्ते आ रहे थे। कुछ लोग मेरे दिल्ली और उसके बाद मुम्बई जाने के बाद ये मान चुके थे कि मैं लव मैरिज ही करूँगा। खैर ये हुआ नहीं और खोज चलती रही। लेकिन ये पता नहीं था कि मेरी भावी जीवन संगिनी कई वर्षों से मेरे घर के सामने से ही आ जा रही थीं।

इस तलाश को खत्म हुए आज पंद्रह वर्ष हों गये हैं। दिखता एक लंबा समय है लेकिन लगता है इस बात को अभी ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ।

त्रासदी ये है कि पूरा देश भोपाल बनने की कगार पर है और हम सो रहे हैं

कुछ दिन पहले दिल्ली और इन दिनों मुम्बई में शहर की हरियाली पर सरकार की नज़र है। इनके नुमाइंदे खुद तो बढ़िया हरियाली से घिरे घरों में रहते हैं और आम आदमी को विकास का हवाला देकर सब कुछ बेचने को तैयार रहते हैं। कुछ गलती हमारी भी है कि हम खुद उदासीन बने रहते हैं और सब सरकार भरोसे छोड़ देते हैं।

आज से 34 साल पहले हम भोपाल के निवासीयों ने भी सरकार के एक फैसले की बहुत बड़ी कीमत दी थी, शायद आज भी दे रहे हैं।

सर्दी के दिन थे और उन दिनों सर्दी भी कुछ ज़्यादा ही होती थी तो खाना खाने के बाद सब सो ही गये थे कि अचानक लगातार घंटी बजने लगी और ज़ोर ज़ोर से दरवाज़ा पीटने की आवाज़ आने लगी। पहले तो समझ नहीं आया इतनी रात में कौन है और क्या हुआ है।

पुराने भोपाल में रहने वाले हमारे रिश्तेदार दरवाज़े पर खड़े थे। सब अस्तव्यस्त हालत में थे, कुछ को साँस लेने में तक़लीफ़ हो रही थी। लेकिन हुआ क्या था ये किसीको नहीं पता था। शुरुआत में उन लोगों को लगा की बहुत बड़ी आग लगी है क्योंकि सब जगह सफेद धुआं था और लोगों के मुँह से झाग निकल रहा था।

जिसको जैसे समझ में आया अपने घर से निकल गया। ताला लगाया तो ठीक नहीं तो पहली चिंता जान बचाने की थी। नवजात शिशुओं को छोड़ माता पिता घर से निकल गए। उस ठिठुरती सर्दी की रात में कोई बिना किसी गरम कपड़े के तो कोई पायजामा बनियान में घर छोड़ कर भागा। पापा के एक छात्र 5-6 किलोमीटर दौड़े फिर रास्ते में एक आदमी गिरा हुआ था। उसकी साईकल उठा कर वो हमारे घर आये थे। लोगों ने बताया सड़क पर भागते हुये के लोग गिर पड़े और फ़िर वहीं उनके प्राण निकल गए।

उन दिनों 24 घंटे के चैनल नहीं हुआ करते थे। टीवी 1982 के एशियन गेम्स में आ गया था लेकिन प्रसारण का समय बहुत ही सीमित था। इसलिये जानकारी के लिये बचता सिर्फ रेडियो और अखबार।

अफवाहों का बाज़ार भी गर्म की गैस फ़िर से रिस सकती है। अनिश्चितता के माहौल के चलते घर के लिये राशन लेने पापा-मम्मी बाज़ार गये थे जहां भगदड़ मच गई। किसी ने बोल दिया फिर से गैस रिस रही है और सामने चौराहे तक आ गयी है। सबका भागना शुरू। सब्जी-फल के ठेले वाला ऐसे ही भाग खड़ा हुआ।

इस हादसे के बारे में आने वाले सालों में कभी मैं भी लिखूंगा इसका कोई इल्म नहीं था। जब भोपाल में नौकरी करना शुरू किया तो भोपाल गैस कांड भी कवर किया। लेकिन धीरे धीरे गैस पीड़ित और उनकी समस्याएं सालाना याद करने वाला एक मौका हो गईं।

कई लोगों ने अगर सही में उनके लिये काम किया तो अधिकतर ने इसमें अपना फायदा देखा। सरकारें आईं और गईं लेकिन गैस पीड़ितों के साथ न्याय नहीं हुआ। ये ज़रूर हुआ कि भोपाल में रहने वाले उन कई लोगों को सरकार से पैसा मिला जो इस हादसे से अछूते रहे।

लेकिन जिस तरीके से सरकार ने यूनियन कार्बाइड से हाथ मिलाया उससे ये बात तो साबित हो गयी कि भारत में जान की कोई कीमत नहीं। आज भी हालात बदले नहीं हैं। भोपाल अगर सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना थी तो अपने आसपास देखिये। महानगर ही नहीं छोटे शहर भी विकास की बलि चढ़ रहे है। अगर समय रहते नहीं चेते तो पूरा भारत ही भोपाल बन जायेगा…बहुत जल्दी।

पिता-पुत्र का सम्बंध इतना अलग क्यों होता है?

आज की इस पोस्ट के प्रेरणास्रोत हैं आनन्द श्रीवास्तव। इलाहाबाद निवासी आनन्द से फ़ेसबुक पर ही दोस्ती हुई है। पिछले दिनों इन्होंने एक पोस्ट शेयर करी अपने पिताजी के बारे में। बीते समय को याद करते हुए आनन्द ने लिखा की कैसे उन्होंने पिताजी को गले लगाने का अपना प्रण पूरा किया और ये पूछा भी की क्यों बेटे अपने पिता से ऐसे दूर रहते हैं। माता, भाई, बहन सबसे तो हम अपना स्नेह दिखा देते हैं लेकिन बड़े होने के बाद पिता-पुत्र के बीच कुछ हो जाता है और दोनों ही पक्ष इसके लिये ज़िम्मेदार हैं। पिता अपनी बेटियों पर तो लाड़ बरसाते हैं लेकिन पुत्रों पर इतने खुले तौर पर नहीं।

पापा और मैं

आनन्द की पोस्ट पढ़ने के बाद मैं पिताजी और अपने रिश्ते के बारे में सोचने लगा जो बहुत से कारणों से अलग रहा और इसका पूरा पूरा श्रेय उनको ही जाता है। मेरा फिल्मों, किताबों और संगीत के शौक उन्ही की देन है। लेकिन उनकी और कई अच्छी आदतें मैं नही अपना पाया।

पूरे ख़ानदान में पिताजी सबसे ज़्यादा स्टाइलिश माने जाते हैं जिन्हें पहनने ओढ़ने के साथ खाने पीने, घूमने फिरने और खेलने का बेहद शौक़। अपनी बहनों को कार में बिठाकर घुमाना हो या इंदौर की बेकरी पर कुछ खाना हो – सबके लिए पिताजी हाज़िर। अच्छे कपड़ों की ज़रूरत हो तो उनके भाई पिताजी की अलमारी पर ही धावा बोलते।

अपने स्वभाव के चलते पापा सभी रिश्तेदारों से भी नियमित संपर्क में रहते हैं। हम लोगों को भी समझाते रहते हैं कि कोई शहर में हो तो उससे मिलो। इस डिपार्टमेंट में मुझे बहुत काम करने की गुंजाइश है।

स्क्रीन पर पिता-पुत्र

अगर फिल्में समाज का आईना होती हैं तो समाज में पिता पुत्र के रिश्ते भी कुछ ऐसे ही होते होंगे। पिता पुत्र के दोस्त होने की बात तो करते हैं लेकिन असल में ऐसा होता नहीं है। पुराने समय के समाज में पिता का अपनी संतानों से इतना ज़्यादा संपर्क ही नहीं रहता था। ठीक वैसा ही जैसा काजोल और अमरीश पुरी का था दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे फ़िल्म में। दोनों के बीच एक दूरी रहती और जितनी बात होती वो पूरे अदब के साथ और एक बार फ़रमान जारी हो गया तो अगली फ्लाइट से सीधे पंजाब।

मुझे याद आयी फ़िल्म क़यामत से क़यामत तक जो कई बार देखी है। ये फ़िल्म कई मायनों में यादगार है। फ़िर चाहे वो इसके गाने हों या कलाकार या लव स्टोरी का नया अंदाज़। लेकिन एक और चीज़ जो मुझे बहुत अच्छी लगी फ़िल्म में वो थी पिता-पुत्र का रिश्ता। इसके पहले की और इसके बाद कि भी कई फिल्मों में पिता और बच्चों के बीच रिश्ते में एक दूरी है।

फ़िल्म में आमिर खान जूही चावला की सगाई से लौटते हैं और गुस्से से भरे उनके पिता दिलीप ताहिल उनका इंतज़ार कर रहे हैं। घर के सभी सदस्य डरे हैं कि कहीं वो अपने बेटे की पिटाई न कर दें। लेकिन टूटे हुये आमिर को देख वो उसे गले लगा लेते हैं और रोते हुये अपने बेटे से कहते हैं बाद में बात करेंगे।

मॉडर्न पिता-पुत्र

मैंने अपने आसपास अनुपम खेर और शाहरुख खान फ़िल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे वाले पिता पुत्र देखे हैं जो साथ बैठ सिगरेट, शराब साथ में पीते हैं। क्या वाकई में वो दोस्त हैं या ये दोस्ताना सिर्फ इस काम तक ही सीमित है? इसका जवाब शायद उनके पास होगा। मैं तो सिर्फ उम्मीद कर रहा हूँ कि अपने गुस्से की तरह वो अपने प्यार का भी इज़हार करते होंगे। इस पोस्ट को पढ़ने वाले सभी पिता पुत्र से ही नहीं सभी से निवेदन – अगर प्यार करते हैं तो दिखाने से परहेज़ क्यों। वो अंग्रेज़ी में कहते हैं ना – If you love somebody show it. तो बस गले लगाइये और गले लगिये और प्यार बांटते रहिये।

आनंद श्रीवास्तव की फेसबुक पोस्ट की लिंक।