We both left home at 18

We both left home at 18.
You cleared JEE,
I got recommended.
You got IIT, I got NDA.

You pursued your degree,
I had the toughest training.
Your day started at 7 and ended at 5,
Mine started at 4 till 9 and Some nights also included.
You had your convocation ceremony,
I had my POP.

You celebrated festivals with lights and music,
I celebrated with my comrade in bunkers.
We both married,
Your wife got to see you everyday,
My wife just wished I was alive.
You were sent to business trips,
I was sent on line of control.

We both returned,
Both wives couldn\’t control their tears,
but You wiped her but,
I couldn\’t.
You hugged her but,
I couldn\’t.

Because I was lying in the coffin,
With medals on my chest and,
Coffin wrapped with tricolour.
My way of life ended, Your continued.
We both left home at 18.

Shared by Advit Verma,
Army Public School,
Ambala Cantonment

हर मायने में राम मिलाय जोड़ी

कॉलेज के दिन थे और भविष्य की बातों में एक रात सलिल, विजय और मैं उलझे थे। बात धीरे धीरे गंभीर से हल्की हो रही थी। हम तीनों इस बारे में अपने विचार कर रहे थे की हमारा भावी जीवनसाथी कैसा हो। उन दिनों हम तीनों में से किसी एक का दिल कहीं उलझा हुआ था। किसका ये मैं नहीं बताऊंगा क्योंकि बात निकलेगी तो फ़िर दूर तलक जाएगी।

हम सभी ने अपनी अपनी पसंद बताई। कैसा जीवन साथी चाहते हैं, उनमें क्या खूबियाँ हों आदि आदि। मैं हमेशा से शादी अरंजे ही चाहता था। ठीक ठीक याद नहीं बाकी दोनों क्या चाहते थे लेकिन शायद लव मैरिज के पक्षधर थे। ये कॉलेज के दिनों की बात हो रही है और हम तीनों को नहीं पता था कि भविष्य में क्या होने वाला है।

जब मैं पहले दिल्ली और फ़िर मुम्बई आया तो परिवार में तो नहीं लेकिन रिश्तेदारों ने ये मान लिया थे कि लड़का तो हाँथ से गया। दिल्ली में अपनी मित्र वाली घटना के बारे में तो बता ही चुका हूँ। लेकिन इससे ज़्यादा कुछ हुआ नहीं या कहें होने नहीं दिया। इस बारे में ज़्यादा नहीं। दिल्ली जाने से भोपाल में मेरी नादानियों का ज़िक्र भी किया जा चुका है। माता-पिता ने सिर्फ ये हिदायत ही दी थी कि अगर तुम्हें कोई पसंद हो तो बाहर से पता चले उसके पेजले हमको बताना। जब कभी मेरी कोई महिला सहकर्मी को मिलवाता तो क्या माजरा होता होगा आप सोच सकते हैं।

मेरी लिस्ट कोई बहुत लंबी नहीं थी लेकिन अपने जीवनसाथी से सिर्फ दो एक चीजों की अपेक्षा थी। पढ़ी लिखी तो हों ही इसके साथ बाहर के कामकाज के लिये मुझ पर निर्भर कम से कम रहें। मुम्बई में इसकी ज़रूरत बहुत ज़्यादा महसूस हुई इसलिए इसको मैंने सबसे ऊपर रखा। लेकिन इसके चलते रिश्तेदारों के साथ बड़ी मुश्किल भी हो गयी जिसका असर अभी तक बरक़रार है।

जब बहुत सारी लड़कियों से मिलकर अपनी होने वाली पत्नी से मिला तो शायद पहली बार मैंने किसी के पक्ष में कुछ बात करी थी। माता पिता ने इसे पॉजिटिव माना और फ़टाफ़ट आगे बढ़कर बात पक्की कर दी। हमारी जोड़ी को मैं सही में राम मिलाय जोड़ी कहता हूँ क्योंकि श्रीमतीजी के पिता के पास भी कुछ और विवाह प्रस्ताव थे। लेकिन मेरे स्वर्गीय ससुर साहब ने अन्य प्रस्तावों को मना कर दिया और मुझे चुना। पत्नी जी ने भी अपने पिता, जिन्हें घर में राम बुलाते हैं, के निर्णय से सहमति जताई। तो ऐसे हुई हमारी राम मिलाय जोड़ी।

गोलमाल है भाई सब गोलमाल है!

1979 में आयी हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म एक बेरोज़गार युवक के बारे है जो नौकरी पाने और फ़िर उसी नौकरी को बचाने के लिये एक के बाद एक झूठ बोलता है।

फ़िल्म में अमोल पालेकर ने राम प्रसाद का किरदार निभाया था। उनके बॉस भवानी शंकर के रूप में उत्पल दत्त थे और उनकी बेटी बनी बिंदिया गोस्वामी। राम प्रसाद नौकरी के लिये पूरे हिंदुस्तानी बन सिर्फ कुर्ता-पाजामा ही पहनते हैं। सिर में ढेर सारा तेल और मूछें रखते हैं। उन्हें खेल में कोई दिलचस्पी नहीं है और वो बहुत ही धार्मिक बनते हैं। ये सब वो सिर्फ और सिर्फ एक नौकरी के लिये करते हैं।

झूठ बोल कर मैच देखने पर पकड़े जाते हैं और फ़िर जन्म होता है उनके छोटे भाई लक्ष्मण प्रसाद का जिसे बिंदिया गोस्वामी अपना दिल दे बैठती हैं। ऐसे ही और झूठ बोलते हुये अमोल पालेकर और उनकी बहन अपनी दिवंगत माता को भी जीवित कर देते हैं दीना पाठक के रूप में। ये सब एक नौकरी बचाने के लिये होता है औऱ इसमें अमोल पालेकर की बहन, दोस्त परिवार के बड़े सब शामिल होते हैं।

आप में से अधिकांश लोगों ने ये फ़िल्म देखी होगी। रोहित शेट्टी ने इसी शीर्षक से चार फिल्में बना डाली हैं लेकिन उनका पहली आयी फ़िल्म से कोई रिश्ता नहीं है। सभी फिल्में कॉमेडी हैं और

कल से अमोल पालेकर का एक वीडियो चल रहा है जिसमें एक समारोह में उन्हें मंत्रालय के खिलाफ बोलने पर टोकने को लेकर बवाल मचा हुआ है। वीडियो में पालेकर मंत्रालय के कुछ निर्णय के ख़िलाफ़ बोलना शुरू करते हैं और उनसे कहा जाता है कि आप विषय से भटक रहे हैं और आप जिस कलाकार की प्रदर्शनी का उद्घाटन करने आये हैं उस बारे में बोलें। पालेकर जी ने पूछा कि क्या उन्हें बोलने की स्वतंत्रता नहीं है? इस पर उन्हें फ़िर से बताया आप बोल सकते हैं लेकिन इस मंच पर आप अपने विचार सिर्फ़ उसी विषय तक सीमित रखें जिसका ये आयोजन है।

बस। तबसे सब ने इसे फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन अर्थात विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता पर एक वार बताया है। इसके पक्ष और विपक्ष में सब कूद पड़े। बाद में पालेकर जी ने बताया कि उन्हें विभाग के कुछ निर्णय से ऐतराज़ था जिसे उन्होंने उस मंच से उठाना चाहा।

1970-80 के दशक में अमोल पालेकर ने गोलमाल, चितचोर, बातों बातों में, रंगबिरंगी, छोटी सी बात, रजनीगंधा, दामाद आदि जैसी कई फिल्में करीं जो दर्शकों को काफ़ी पसंद आई। उसके बाद बतौर निर्देशक भी उन्होंने काफी सारी फिल्में बनायीं।

मेरी पालेकर जी से कोई व्यक्तिगत रंजिश नहीं है पर मुझे लगता है उस मंच का उपयोग उन्हें मंत्रालय से संबंधित अपनी शिकायतों के लिये नहीं करना चाहिए था। जिन बातों का ज़िक्र वो कर रहे हैं वो नवंबर की हैं। अगर वाकई उन्हें इस विषय पर कोई शिकायत थी तो उन्हें इतना समय क्यों लगा। वो इस विषय पर पत्रकार वार्ता भी कर सकते थे। अगर आपने दीपिका पादुकोण और रनवीर सिंह की शादी के मुम्बई रिसेप्शन का वीडियो देखा हो तो उसमें मुकेश अम्बानी के आने पर एक फोटोग्राफर ने चिल्ला कर कहा सर यहाँ नेटवर्क नहीं आ रहा।

अमोल पालेकर का मंच का उपयोग उस फोटोग्राफर के जैसे लगा। मैं उनके सारे विषय से सहमत हूँ लेकिन मंच की और कार्यक्रम की मर्यादा रखना उनका धर्म है। अगर शाहरुख खान उनकी फिल्म पहेली में रानी मुखर्जी के साथ फ़िल्म चलते चलते के गाने तौबा तुम्हारे ये इशारे पर थिरकने लगते तो क्या अमोल पालेकर अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर इसे चलने देते?

मौके पर मौजूद मंत्रालय के अधिकारी भी राम प्रसाद की तरह अपनी नौकरी ही बचा रहे थे। हाँ उसके जैसे झूठ नहीं बोल रहे थे।

जब इश्क़ तुम्हे हो जायेगा…

कल जगजीत सिंह के जन्मदिन पर लिखने का विचार आया, जैसा किसी न किसी के बारे में रोज़ आता है, लेकिन उनके गीत, ग़ज़ल सुनने में इतना खो गये की विचार ही त्याग दिया।

आप सभी ने जगजीत सिंह को सुना तो होगा ही। मेरा उनसे मिलना बिल्कुल सही समय पर हुआ – मतलब जब मैं स्कूल में पढ़ रहा था। बहुत से उनके शेर समझ में नहीं आते थे लेकिन उनकी आवाज़ ने दिल में जगह बना ली थी। कॉलेज पहुँचते पहुँचते इश्क़-मुश्क का किताबी ज्ञान हो गया था तो जगजीत सिंह साहब की आवाज़ में दिल की दास्ताँ कुछ और भाने लगी।

भोपाल में उनके काफी सारे प्रोग्राम होते लेकिन मेरा कभी जाना नहीं हुआ। उनको एक बार देखा था चित्रा सिंह जी के साथ मुम्बई में जब हम दोनों एक ही होटल में दो अलग अलग कार्यक्रम के लिये गए थे। उस समय सेलफोन तो हुआ नहीं करते थे (मतलब अपने पहुँच के बाहर थे) तो सेल्फी का सवाल नहीं था। बस उनका वो मुस्कुराता हुआ चेहरा याद है।

जगजीत सिंह साहब को इसलिये और ज़्यादा चाहता हूँ क्योंकि उनके ज़रिये मेरी मुलाक़ात हुई ग़ालिब से। नाम सुना था लेकिन कलाम नहीं। गुलज़ार के मिर्ज़ा ग़ालिब सीरियल देखिये तो लगता है जैसे जगजीत सिंह की आवाज़ बनी ही थी ग़ालिब सुनाने के लिए।

ज़िंदगी के अलग अलग मुकाम पर जगजीत सिंह जी ने बहुत साथ दिया है। उस समय बाकी भी कई सारे ग़ज़ल गायक थे लेकिन जगजीत सिंह ग़ज़ल के मामले में पहला प्यार की तरह रहे। उन दिनों एक और सीरियल आया था सैलाब जिसमें भी जगजीत सिंह की गायी हुई ग़ज़ल थी – अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं।

ये ग़ज़ल सीरियल में किरदारों की ज़िंदगी में चल रहे कशमकश को बयां करती। सचिन खेड़ेकर और रेणुका शहाणे मुख्य भूमिका में थे और सीरियल शायद 30-35 एपिसोड में ख़त्म हो गया था। उस पूरे सीरियल को जगजीत सिंह साहब की इस एक ग़ज़ल ने बाँध रखा था।

वैसे तो मुझे उनकी सभी ग़ज़लें पसंद हैं लेकिन प्यार का मौसम है तो फ़िलहाल के लिये जब इश्क़ तुम्हे हो जायेगा।

वाशी में एक होटल है \’चिनाब\’ जो सिर्फ और सिर्फ जगजीत सिंह साहब की ग़ज़लें ही सुनाता है। मतलब पूरा माहौल रहता है। मौका मिले तो रात में तब्दील होती शाम के साथ खाट पर आराम से पसरे हुए लुत्फ़ उठायें जगजीत सिंह की मखमली आवाज़ का।

सालगिरह मुबारक ग़ज़ल सम्राट।