रविवार के दिन जब बाकी घरों में अमूमन थोड़ा आराम से कामकाज होता है, सुबह से घर में अजीब सी हलचल थी। श्रीमती जी फ़ोन पर किसी से बड़ी देर तक बात कर रहीं थीं। वैसे तो उनके सारे काम व्हाट्सएप पर संदेश के आदान प्रदान के साथ हो जाते हैं लेकिन आज मामला कुछ और था। पहले तो लगा फ़िर से तारीख़ों का घपला हुआ है और मैं कुछ भूल गया हूँ।
ख़ैर ख़बर निकलवाने के लिये ज़्यादा पापड़ नहीं बेलने पड़े। अब श्रीमतीजी हैं कोई सरकारी मुलाज़िम थोड़े ही जो ख़बर के लिये खर्चा पानी देना पड़े। यहां तो उल्टा ही होता है। आप चाय की अर्ज़ी के साथ बोल दीजिये क्या हुआ तो गरम चाय पक्की और जब कहानी चालू रहे तो थोड़ी हूँ हाँ करते रहिये।
श्रीमतीजी की परेशानी काम वाली की अचानक छुट्टी थी। एक दिन पहले तबियत ठीक न होने का ज़रूर बोला था लेकिन छुट्टी की कोई पूर्व घोषणा नहीं थी। जिनसे इनका वार्तालाप हो रहा था वो भी इस बात सेकाफी परेशान थीं। इससे मुझे ऑफिस के अपने टीम के कई सदस्य याद आये। वो भी कुछ ऐसा ही करते थे। जब पूछो की कहाँ गायब थे तो जवाब मिलता आपको बताया तो था तबियत ठीक नहीं है। मतलब आप समझ लें अगर आपको बताया है तो। वैसे बाद में बातों बातों में तबियत ठीक नहीं होने वाले सदस्य बाकी लोगों को गोआ की यात्रा संस्मरण सुनाते हुये मिले।
श्रीमतीजी आहत थीं कि अब जब फ़ोन काल फ्री है तब भी उनको बताया क्यों नहीं गया। जिस तरह से कामवाली का इंतज़ार होता है उसे देख अपनी क़िस्मत पर बड़ा दुख होता है। और जिस प्यार से बात होती है वो सुनने के बाद आपको मैनेजमेंट का बड़ा पाठ सीखने को मिलता है। काम निकलवाना एक कला है। ये सबके बस की बात नहीं है।
इस पोस्ट को लिखने में चाय का बड़ा योगदान रहा। हर महीने की शुरुआत में एक प्रण लिया जाता है कि नियमित लिखा जायेगा लेकिन किसी न किसी कारण से छूट जाता है। इस महीने फ़िर से वही प्रण और उसके अंतर्गत ये पोस्ट। मेरा नियमित होने का प्रयास चलेगा। आप कमेंट कर हौसला अफजाई करें।