उसने कहा मुमकिन नहीं, मैंने कहा यूँ ही सही

आज से कुछ पाँच महीने पहले मैंने एक पोस्ट लिखी थी चिट्ठियों के बारे में। कैसे ये चिट्ठि पढ़ने का मज़ा कुछ सालों बाद दुगना हो जाता है। इस पोस्ट के बाद सभी उत्साहित। मेरी पुरानी टीम के कुछ सदस्यों के साथ पत्राचार के लिये पतों का आदान प्रदान भी किया। लेकिन इसके बाद न मैंने पत्र लिखने का कष्ट किया न किसी और ने। दोष घूम फिरकर समय पर ही आ जाता है। बिल्कुल ऐसा आज होने वाला था। सुबह से कुछ न कुछ काम चलते रहे और समय नहीं मिला। उसके बाद लिखने के काम को बस प्राथमिकता नहीं दी।

लेकिन कितना आसान होता है समय को दोष देना। जिस चौबीस घंटे को हम कम समझते हैं उन्हीं चौबीस घंटों में जिनकी प्रबल इच्छा होती है वो सारे काम भी कर लेते हैं और उसके बाद अपने आगे बढ़ने के प्रयास के तहत कुछ नया सीखते भी हैं और पढ़ते भी हैं। मैं और मेरे जैसे कई और बस समय ही नहीं निकाल पाते। सब काम टालते रहते हैं। फ़िर कभी कर लेंगे।

ऐसे ही मैंने करीब दो साल पहले गिटार लिया था अपने जन्मदिन पर। मुझे गिटार पता नहीं क्यूँ शुरू से बड़ा अच्छा लगता। जवानी में समय सीख लेता तो कुछ और किस्से सुनाने को रहते। ख़ैर। सीखने के बाद श्रीमती जी को अपनी बेसुरी आवाज़ से परेशान ही कर सकते हैं। जबसे आया है तबसे कुल जमा एक दर्ज़न बार उस गिटार ने कवर से बाहर दर्शन दिए होंगे। सोचा था क्लास लगायेंगे लेकिन क्या करें समय नहीं है। जब भी श्रीमती जी पूछती हैं कि क्या ये घर की शोभा ही बढ़ायेगा तो मेरे पास कोई उत्तर नहीं होता। सोचता हूँ अच्छा हुआ किसी जिम की फ़ीस भरकर वहाँ जाना नहीं छोड़ा नहीं तो नसीरुद्दीन शाह के शब्दों में बहुत बड़ा गुनाह होता और इसका एहसास मुझे कई बार करवाया जाता।

जिस किसी दिन सुबह से सारे काम एक के बाद एक होते जायें उस दिन तो लगता है चलो कुछ और करते हैं। समय भी मिल जाता है लेकिन पत्र लिखने या गिटार सीखना अभी तक नहीं हो पाया है। शायद इस हफ़्ते उन दोनों मोर्चों पर काम शुरू हो जाये। पुनः पढ़ें। शायद। अगले हफ़्ते दो पत्रों का टारगेट रखा है। वो कौन खुशनसीब होंगे? उनके बारे में तभी जब उनका जवाब आयेगा।

आप अगर सोच रहें हो कि इस पोस्ट का टाइटल मैंने कहाँ से लिया है तो वो ये क़व्वाली। है। लिखा मज़रूह सुल्तानपुरी पूरी साहब ने है।

मैं भी राहुल गाँधी

वाशी के बीएसईएल टॉवर की 12वीं मंज़िल के हमारे ऑफिस को छोड़ हम नये ऑफिस में शिफ़्ट होने वाले थे। शिफ़्ट होने के पहले वाली रात कम्पनी के वरिष्ठ अधिकारी ने मुझे फ़ोन किया और जानना चाहा कि विंबलडन के मैच जो उस समय चालू था, उसे कौन कवर कर रहा था। मैंने उन्हें बताया मोहतरमा का नाम। वो कवरेज से काफी नाराज़ थे क्योंकि अंग्रेज़ी ठीक नहीं थी कॉपी में। मैं उनके विचारों से सहमत था की बहुत ही ख़राब कॉपी थी। हम दोनों की इस पर बहस हुई और मैंने उन्हें अपना त्यागपत्र भेज दिया ये कहते हुये की आप और अच्छा संपादक ले आयें।

अगले दिन नये ऑफिस के उद्घाटन से पहले हम दोनों और साथ में एक और सीनियर ने ठंडे दिमाग से इस मुद्दे पर फ़िर बात करी। उन्होंने मुझे काफी समझाया कि त्यागपत्र देना सबसे आसान काम है। चीजों को बेहतर सिस्टम में रहकर किया जा सकता है बाहर रहकर नहीं।

लोकसभा चुनाव के परिणाम से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी काफ़ी आहत हैं। उन्हें इस तरह के नतीजों की ज़रा भी उम्मीद नहीं थी। उन्हें लगा था कि लोग मोदी का नहीं उनका साथ देंगे। लेकिन लोगों के फैसले से काफ़ी दुखी राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद छोड़ने का मन बना लिया है। कांग्रेसी नेताओं का एक बड़ा तबका चाहता है को वो ऐसा न करें लेकिन राहुल ने न सिर्फ अपना पद छोड़ने का बल्कि अपनी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को भी इससे दूर रखने का एलान कर दिया है।

राहुल का दर्द समझ आता है। उन्होंने सचमुच काफी मेहनत करी लेकिन परिणाम ठीक नहीं मिले। जब आप एक टीम के लीडर बनते हैं तो कई चीजों का ध्यान रखना पड़ता है। जैसे सचिन तेंदुलकर जब कप्तान बने तो उन्हें लगा की इससे उनके खेल पर फर्क पड़ रहा है। इसलिए उन्होंने कप्तानी छोड़ दी। वहीं आप धोनी को देख सकते हैं। कैप्टन कूल का ख़िताब उन्हें यूं ही नहीं मिला।

राहुल गांधी कांग्रेसी नेताओं से गुस्सा हैं टिकट वितरण को लेकर। उन्होंने तीन वरिष्ठ पार्टी सदस्यों पर इल्ज़ाम भी लगाया कि अपने बेटों के टिकट के लिये उन्होंने बहुत जोर दिया। ये सही हो सकता है। लेकिन अंतिम निर्णय तो राहुल का ही था। ऐसे में वो अपनी ज़िम्मेदारी से कैसे बच सकते हैं। अगर यही उम्मीदवार जीत कर आते तो कोई बहस का मुद्दा ही नहीं बनता। ये बिल्कुल सच है और सही है कि आप उतने ही अच्छे हैं जितनी अच्छी आपकी टीम है। और बजाए ये की आप त्यागपत्र दें, क्यों न उस टीम को बदला जाये और उन सभी से त्यागपत्र मांगा जाये जिनकी कोशिशें अधूरी थीं।

हार से हताशा जायज़ है लेकिन ये हमारे प्रयास ही हैं जो इस हार को जीत में बदल सकते हैं। जो हो गया उसे बदला तो नहीं जा सकता सिर्फ सीख ली जा सकती है।

मैंने त्यागपत्र वापस लेकर काम जारी रखा और टीम ने उसके बाद नई ऊंचाइयों को छुआ। रणभूमि में रहकर संघर्ष काफी कुछ सीखा जाता है। उन मोहतरमा को अंग्रेज़ी भी न सीखा सका न उनसे पीछा छुड़ा सका। हाँ, आगे के लिये उनसे बहुत कुछ सीख ज़रूर मिल गयी। उस पर फ़िर कभी।

डांस फ्लोर को देखते रहने से अगर सब को नाचना आता तो आज मैं गोविंद जैसे मटक रहा होता। लेकिन अभी तो लगता है सनी देओल भी अच्छा डांस कर लेता है।

ज़िंदगी फ़िर भी यहाँ खूबसूरत है

ये परीक्षा परिणाम का मौसम है। ट्विटर, फेसबुक पर कुछ लोगों ने अपनी हाई स्कूल और हायर सेकंडरी की मार्कशीट शेयर कर छात्रों को ये बताने की कोशिश करी है कि नंबर अगर कम आयें तो निराश न हों। जिन्होंने ये शेयर किया है वो आज आईएएस हैं या किसी कंपनी में किसी बड़े ओहदे पर।

आजकल परीक्षा के परिणाम देखने की कई सहुलियत हैं। आप नेट पर देख सकते हैं नहीं तो sms कर भी परिणाम जान सकते हैं। जिस समय हमारे परिणाम आते थे उस समय ये सब सुविधा उपलब्ध नहीं थी। रिजल्ट चार बजे बोर्ड/यूनिवर्सिटी ऑफिस के बाहर चस्पा कर दिये जाते थे और आप भी भीड़ में शामिल हो ढूंढिये अपना रोल नम्बर। मेरा घर यूनिवर्सिटी के नज़दीक हुआ करता था तो रिजल्ट की अफवाहों के चलते साईकल दौड़ानी पड़ती थी और सही न होने पर एक रुपये के सिक्के वाले पीसीओ से फ़ोन कर समाचार देना होता था।

ग्रेजुएशन तक तो यही नियम रहता कि अख़बार में आ जाता फलां तारीख़ को रिजल्ट आयेगा। आप साईकल उठा कर पहुँच जाइये। आ गया तो ठीक नहीं तो वापस घर। चूँकि पिताजी स्कूल शिक्षा विभाग से जुड़े हुए हैं तो स्कूल के रिजल्ट की पक्की तारीख़ उन्हें पता रहती और शायद रिजल्ट भी। जहाँ हमारे कुछ जानने वाले अपना \’एड़ी-चोटी का जोड़\’ लगा देते के उनकी बच्चों के नंबर अच्छे आयें, पिताजी सब जानते हुये भी की कॉपी कहाँ जाँची जा रही हैं ऐसा कुछ नहीं करते।

ग्रेजुएशन के बाद पत्रकारिता में प्रवेश किया तो रिजल्ट की कॉपी मेरी टेबल पर होती। चूँकि शुरुआती दिनों में मेरी बीट शिक्षा हुआ करती थी तो सभी रिजल्ट मुझे ही देखने को मिलते। जब जानने वालों को ये पता चला तो कुछ लोगों ने पूछना शुरू कर दिया। लेकिन पूछने का तरीक़ा थोड़ा अलग। अपना रोल नम्बर देने के बजाय या तो 1-4 का रिजल्ट पूछते या 1,4,8,5 इन चार रोल नंबर का परिणाम। अपना रोल नंबर नहीं बताते। आज माता-पिता बच्चों के इम्तिहान के परिणाम को अपनी इज़्ज़त से जोड़ लेते हैं। अगर व्हाट्सएप पर शेयर करें तो समझिये उनको इस पर गर्व है। अगर पूछने पर नहीं बतायें तो समझ लीजिये उन्हें शर्म आ रही है। लेकिन ऐसे भी कइयों को जानता हूँ जो जैसा है वैसा बताने में कोई।संकोच नहीं करते। अच्छा या बुरा।

आपको अगर आमिर ख़ान की 3 इडियट्स का सीन याद हो जब परीक्षा के रिजल्ट आते हैं और आर माधवन एवं शरमन जोशी क्लास के टॉपर का नाम देखकर सकते में हैं। बिल्कुल वैसा तो नहीं लेकिन लगभग वैसा हुआ जब पिताजी परिवार के तीन लोगों के फर्स्ट ईयर के परिणाम देखने गए। ये करीब 40-45 साल पुरानी बात है। घर लौटे तो दादी ने पूछा पहले का नाम लेकर तो पापा ने कहा नहीं है रोल नंबर, दूसरे का परिणाम पूछने पर भी यही उत्तर मिला। तीसरे का परिणाम पूछने तक पिताजी पलंग पर लेट चुके थे और सिर्फ हाथ उठा कर बता दिया कि उनका नंबर भी लिस्ट में नहीं था।

मेरे दसवीं के परिणाम से पिताजी बहुत दुखी थे। उन्हें लगा था मैं कुछ अच्छे नंबर से पास होऊंगा। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। और बंदे की मार्कशीट भी कमाल की। उसमें डिस्टिंक्शन के साथ ग्रेस नंबर भी। बारहवीं तक आते आते ये नंबर और ज़्यादा अच्छे तो नहीं हुये। लेकिन ग्रेजुएशन में सब ठीक चला और फाइनल ईयर में तो मैं कॉलेज का टॉपर रहा। बस उसके बाद पीजी वाला किस्सा तो मैं पहले ही बता चुका हूँ।

जब अपनी संतान हुई तो मैंने बहुत कोशिश करी की उसको भी इस असेंबली लाइन में न डालूँ। लेकिन मेरी नहीं चली। बच्चों को हर साल सेशन शुरू होने से पहले पूछता हूँ अगर वो न जाना चाहें और घर बैठकर कुछ सीखें। फ़िलहाल तो उन्हें स्कूल प्यारा लग रहा है।

कोशिश यही है कि नंबर पर ज़्यादा ज़ोर न हो। जो करें उसका आनंद लें। कुछ न कुछ हो ही जाता है। सेकंड डिवीजन और दो बार लगभग फेल होने से बचने वाले इस पोस्ट के लेखक को ही ले लीजिए।

भारत में बसे इस दूसरे भारत से क्या आपकी मुलाकात हुई है?

\’इस देश में दो भारत बसते हैं\’, ऐसा मैं नहीं कह रहा लेकिन अमिताभ बच्चन ने प्रकाश झा द्वारा निर्देशित फ़िल्म आरक्षण में कहा था। हाल ही में सम्पन्न हुऐ आम चुनाव में ये बात बिल्कुल सही साबित हुई। चुनाव से पूर्व सब ये मान बैठे थे कि किसानों की समस्या, रोज़गार, महंगाई और ऐसे कई मुद्दों के चलते सरकार का वापस आना नामुमकिन था।

ऐसा मानने वाले कौन? मेरे और आप जैसे शहरों में रहने वाले। हम अपने सोशल मीडिया, मिलने जुलने वालों का जो कहना होता है वही मान लेते हैं और वही सच्चाई से परे बात को आगे भी फॉरवर्ड कर देते हैं। हम ज़मीनी सच्चाई से बिल्कुल अलग थलग हैं। अगर ये कहा जाए कि परिणामों से कइयों की पैरों तले ज़मीन खिसक गई तो कुछ ग़लत नहीं होगा।

मुम्बई में जहाँ में रहता हूँ वहाँ पिछले दो महीनों से पानी की समस्या शुरू हो गयी है। समस्या क्या? दिन में अब चौबीस घंटे पानी नहीं मिलेगा। अब से सिर्फ सुबह-शाम चार घंटे ही पानी आयेगा और सभी रहवासियों को इससे काम चलाना पड़ेगा। इस को लेकर काफ़ी हंगामा हुआ। कुछ लोगों को सप्लाई के समय से दिक्कत थी तो कुछ इस बात को पचा नहीं पा रहे थे कि नल खोलने पर पानी नहीं मिलेगा। एक दो दिन में पता चला कि चार घंटे की सप्लाई बिल्डिंग के एक हिस्से में दो घंटे में समाप्त। पता चला कुछ लोग अपने फ्लैट में छोटे छोटे पानी स्टोर करने वाले टैंक में पानी भरकर रख लेते। बाकी किसी को मिले न मिले इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं। उन्हें सख्त हिदायत दी गयी कि ऐसे टैंक ज़ब्त कर लिये जायेंगे तब कुछ मामला ठीक हुआ। ये सब पढ़े लिखे महानुभाव हैं जो अच्छी जगह नौकरी कर रहे हैं।

बाहर की दूसरी सोसाइटी भी कुछ कम नहीं। पानी का सप्लाई कम होने के बाद उन लोगों ने बूस्टर पंप लगा लिये। हमारे पास तो पानी होना चाहिये आस पास वालों की वो जाने। ये तब की पानी रोज़ाना आ रहा है बस उसकी मात्रा थोड़ी कम है। लेकिन महाराष्ट्र के कई इलाकों में तो पानी हफ़्ते में एक बार और वो भी सिर्फ आधे घंटे के लिये। मतलब महीने में कुल दो घंटे पानी की सप्लाई। लेकिन हम शहरों में रहने वाले लोग अपनी समस्याओं से ज़्यादा नहीं सोचते हैं। शायद इसी वजह से हमें बहुत सी सच्चाई दिखाई नहीं देती।

आपने अगर वो सुनयना वाला कार्यक्रम नहीं देखा हो तो ज़रूर देखें। वो हम सबके गाल पर एक तमाचे की तरह है। हम बड़ी बड़ी बातें ही करते रह जाते हैं और ये बालिका इतनी कठिनाई के बाद भी डॉक्टर बनने की चाह रखती है। और वो बन भी जायेगी बिना किसी अच्छी कोचिंग के या ताम झाम वाली पढ़ाई के। इसी एपिसोड में छिपी है सरकार की जीत की कहानी।

अगर आप परीक्षा परिणाम पर नज़र रखते हों तो कौन है जो इसमें अव्वल आ रहे हैं? वो छात्र जो आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवारों से नहीं आते। हम अपने बच्चों पर लाखों रुपये खर्च देते हैं की वो कुछ बन जायें लेकिन ये सामान्य सी परिस्थितियों से आने वाले उनको पछाड़ देते हैं।

अगर सूरत के केतन जोरावड़िया भी उस दिन जब वो बिल्डिंग में लगी आग के वीडियो बनाने में लग जाते तो? लेकिन उन्होंने बच्चों की जान बचाने को ज़्यादा महत्व दिया। हम शहरों में रहने वालों को लगता है इतना इनकम टैक्स, रोड टैक्स, प्रॉपर्टी टैक्स दिया है तो सुविधाओं पर हमारा हक़ है। जब हमारा पेट भरने वाले किसान अपने हक़ ही बात करते हैं तो हम चैनल क्यों बदल देते हैं?

घर के खाने के स्वाद का है कोई मुकाबला

पिछले दिनों श्रीमती जी प्रवास पर थीं तो खानेपीने इंतज़ाम स्वयं को करना था। कुछ दिनों का इंतजाम तो वो करके गईं थीं तो कोई परेशानी नहीं हुई लेकिन जब वो जब खत्म हो गया तो दो ही विकल्प बचते – या तो स्वयं कुछ करें या बाहर से ले आयें।

आज से क़रीब दस वर्ष पहले या कुछ और पहले घर पर अकेले रहने का मतलब होता था आप को खाना बनाना है। बाहर खाने का मतलब जेब पर बड़ी मार और फ़िर उस समय बाहर खाने का इतना चलन भी नहीं था। मुझे याद है जन्मदिन हो या कोई और त्यौहार, सारा खाना घर पर ही बनता। दोस्तों के साथ भी बाहर खाना कॉलेज के दौरान शुरू हुआ। जय कृष्णन के साथ कभी न्यू मार्केट जाना होता तो पाँच रुपये के छोले भटूरे की दावत होती। परिवार के साथ इंडियन कॉफ़ी हाऊस ही जाते क्योंकि सभी को दक्षिण भारतीय व्यंजन पसंद थे। लेकिन ये ख़ास मौके हुआ करते थे। साल में ऐसे मौके इतने कम की एक उंगली भी पूरी न हो।

इन दिनों बाहर खाना एक आदत बन गया है। सोमवार से शुक्रवार किसी तरह घर की रसोई चलती है लेकिन सप्ताहांत आते आते सब बस बाहर के खाने का इंतज़ार करते। मैं ऐसे कई परिवारों को जानता हूँ जहाँ बड़े गर्व से ये सबसे कहते फ़िरते हैं कि शनिवार-रविवार को तो हम बाहर ही खाते हैं।

लेकिन जब पिछले दिनों मुझे ये मौका मिला तो समझ ही नही आये की क्या खाया जाए। मासांहारी लोगों के लिये कई सारे विकल्प लेकिन शाकाहारी व्यक्ति के लिये कुछ अच्छे खाने की शुरुआत पनीर से शुरू और खत्म होती है। और फ़िर ये मसाला जो लगभग एक जैसा ही होता है। हर बार मैं अपना समय ऑनलाइन कुछ खाने के लिये ढूंढता और फ़िर आख़िर में दाल खिचड़ी ही बचती आर्डर करने के लिये। ऐसा ही कुछ जब बाहर खाने जाते हैं तब भी होने लगा है।

रसोई में घुसना और कुछ पकाने का आनंद ही कुछ और होता है। मुझे याद है जब मैं पिछले साल दिल्ली में था तो टीम के पुरुष सदस्य घर से कुछ बना कर लाते। रोज़ रोज़ बाहर का खाना खाते हुये बोर हो चुकी ज़बान को आदित्य, रामदीप के बनाये हुए खाने का बड़ा स्वाद आता। भोपाल में तो और ही सुख – रिश्तेदारों या अड़ोसी पड़ोसी के यहाँ से या तो खाना आ जाता या न्यौता। मुंबई के अपने अलग ढ़ंग हैं तो इस पर कोई टिप्पणी नहीं।

बच्चों को भी बाहर का खाना जैसे पिज़्ज़ा, बर्गर सब पसंद हैं लेकिन पिछले दिनों हम लोग एक होटल में रुके थे। नाश्ते में पोहा था और बेटे ने खाने से मना कर दिया। कारण? मम्मी जो पोहा बनाती हैं उसमें ज़्यादा स्वाद होता है।

अब जब श्रीमती जी वापस आ गयीं हैं तो पूछती रहती हैं मेरी कुछ खाने की फरमाइश और मेरा सिर्फ एक जवाब – घर का बना कुछ भी चलेगा। सादी खिचड़ी, आलू का सरसों वाला भर्ता और पापड़ भी। आख़िर घर का खाना घर का खाना होता है। स्वाद बदलने के लिये बाहर खाया जा सकता है लेकिन घर के खाने जैसी बात कहाँ।

आप कितना बाहर खाने का मज़ा लेते हैं? क्या आपको भी शाकाहारी के विकल्प कम लगते हैं? कमेंट करें और बतायें।

अच्छा है संभल जायें…

चुनाव की इस गहमा गहमी के बीच आज मजरूह सुल्तानपुरी साहब की याद आ गई। आज ही के दिन वो अपने लिखे गीत, गज़ल और नज़्मों का खज़ाना हम को सौंप कर अलविदा कह गये। दरअसल लिखने वाला तो कुछ और था लेकिन सोचा आज गुमनाम लोगों के बारे में लिखा जाये। वो जिनको हम गुनगुनाते तो रहते हैं लेकिन उन बोल के पीछे छिपे वो गीतकार को भूल जाते हैं।

हम लोग अगर औसतन अपनी आयु 70 वर्ष की मान लें तो इस दौरान हम कुछ एकाध ऐसा काम करते हैं जिनके लिये हम या तो मिसाल बन जाते हैं या सबके प्रिय पंचिंग बैग। हम आम लोगों के लिये वो क्या काम है जिससे हमें याद रखा जायेगा वो हमारे परिवार और कुछ ख़ास आसपास वाले जानते हैं। शायद आपके कुछ सहकर्मी भी।

कुशल नेतृत्व आपके जीवन की राह बदल सकता है

कलाकारों के जीवन में ऐसा होता है जो उनके जीवनकाल की पहचान बन जाती है। जैसे यश चोपड़ा साहब की दीवार, सलीम-जावेद के लिये शोले, दीवार, शाहरुख खान के लिये डर, सलमान खान के लिये शायद दबंग या मैंने प्यार किया। ये सब मेरे अनुसार हैं। आप शायद इन्हीं शख्सियतों को उनके किसी और काम से याद रखते हों। जैसे 1983 में भारत की जीत। सब कहते हैं उसके सामने जो जीत भारत ने बाद में हासिल करी उसका कोई मुकाबला नहीं है।

बहरहाल, फ़िलहाल रुख वापस मज़रूह सुल्तानपुरी साहब की तरफ़। उनके लिखे कई गाने एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपे गये नये परिवेश में ही सही। लेकिन उनका लिखा ये शेर

मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर, लोग जुड़ते गये कारवाँ बढ़ता गया।

ये कुछ ऐसा लिखा गया है जो आज भी लोग बोलते रहते हैं। अगर आपने शाहरुख खान की ज़ीरो देखी हो तो उसमें भी जावेद जाफरी सलमान खान की एंट्री के समय यही शेर कहते हैं। अगर आपने नई कारवां देखी हो तो इरफ़ान खान की नीली रंग की गाड़ी पर भी यही शेर लिखा हुआ है। इसके पीछे छिपा संदेश दरअसल बहुत महत्वपूर्ण है। ये सच भी है। आपके जीवन की बहुत सारी यात्रायें अकेले ही शुरू होती हैं और लोग उससे जुड़ते जाते हैं।

काली कार की ढेर सारी रंगबिरंगी यादें

मेरा और मज़रूह साहब का रिश्ता क्या आमिर ख़ान-जूही चावला की क़यामत से क़यामत तक के कारण और मजबूत हुआ? शायद। लेकिन उसके पहले मैं उनके लिखे यादों की बारात के गानों को बहुत पसंद करता था। उनका लिखा आजा पिया तोहे प्यार दूँ मेरा सबसे प्रिय है। गाने के बोल सुख मेरा ले ले, मैं दुख तेरे ले लूँ, मैं भी जियूँ, तू भी जिये…

संगीत हमारी ज़िंदगी का एक अभिन्न हिस्सा है और ये फिल्मों की ही देन है। लेकिन आज के हुक उप, ब्रेक अप और ख़लीफ़ा सुन के जब मज़रूह साहब का लिखा क्या मौसम है सुनने को मिलता है तो एक सुकून सा मिलता है।

और चुनाव का मौसम है, तो जो आगे की तैयारी कर रहे हैं उनके लिये मज़रूह साहब कह गए हैं (वैसे जो सरकार बना रहे हैं ये उनके लिये भी उतना ही सही है)

खोये से हम,
खोई सी मंज़िल,
अच्छा है संभल जायें,
चल कहीं दूर निकल जायें।

आप कहीं मत जाइए। यहीं मिलेंगें। जल्दी।