कब तक गिने हम धड़कने, दिल जैसे धड़के धड़कने दो

समय को जैसे पर लग गये हैं। एक दिन में साल के छह महीने गुज़र जायेंगे। वैसे समय तो उसी रफ्तार से चल रहा है लेक़िन हम इस रफ़्तार से भी तेज चलना चाहते हैं और चौबीस घंटे के दिन में तीस घंटे गुज़ारना चाहते हैं। थोड़ा रुक कर, इत्मीनान से आसपास का मंजर देखने का भी समय नहीं निकालते। लेक़िन क्या हम एक अच्छी ज़िन्दगी जी रहे हैं?

अब ये फलसफे झाड़ने में तो महारत मिली हुई है। लेक़िन आज मैं यही सोच रहा था। हम काम से कब फुरसत पाते हैं। एक ख़त्म तो दूसरा शुरू और ऐसे ये सिलसिला चलता रहता है। कुछ दिनों के लिये कहीं घूम आये लेकिन वापस फ़िर वही दौड़भाग। और ये सब किस के लिये? उस कल के लिये जिसका कोई अता पता भी नहीं है। लेकिन हम अपना आज रोज़ उसके लिये दाँव पर लगा देते हैं।

छोटे शहर से बड़े शहर जाते हैं। अच्छा पैसा कमाने के लिये ताकि ज़िन्दगी अच्छी हो, बच्चों की सारी ख्वाहिशें पूरी कर सकें। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में जो आप होते हैं वो कहीं खो जाते हैं। और फ़िर धीरे धीरे आप भी इस पुराने आप से मिलने से कतराते हैं। सब काम एक व्यवस्था के जैसे चलते रहते हैं। आप उसका एक हिस्सा और यही आपकी ज़िंदगी बन जाती है।

लेक़िन ये सब करके आपको क्या मिला जो आपके पिताजी या उनके पिताजी के पास नहीं था? ऑटोमेटिक कार? बिजली से भी तेज इंटरनेट? मैं ये इसलिये पूछ रहा हूँ क्योंकि कल एक टैक्सी ड्राइवर मिला था। उसकी अमेठी में ख़ुद की दुकान है लेकिन वो ये सब छोड़ मुम्बई आया है और यहाँ आकर 14-16 घंटे टैक्सी चलता है। कोई छुट्टी नहीं लेता क्योंकि वो छुट्टी लेकर क्या करेगा। मैं हम दोनों में फ़र्क समझने की कोशिश कर रहा हूँ।

ये मौसम का जादू है मितवा

ये मौसम बदलता है और फरमाइशों का दौर शुरू हो जाता है। गर्मी रहती तो कुछ ठण्डे की फ़रमाइश रहती लेकिन कल से बारिश ने दस्तक दी है तो अब भजिये, पकौड़ी के लिये दरख्वास्त डाली है। हमारा कितना सारा खाना पीना मौसम के इर्दगिर्द घूमता है। अगर ये मौसम ही न हों तो?

सर्दियों में श्रीमती जी के साथ ढ़ेर सारी मटर लायी गयी और सबने मिलके छीली भी। लेकिन जब खाने की बात आई तो हम दोनों ही बचते। बच्चों को हर चीज़ में मटर कुछ ज़्यादा पसंद नहीं आया। इसलिये मैंने भी मटर के हलवे की फ़रमाइश को ठंडे बस्ते में डाल दिया और गरमा गरम छौंका मटर कई शाम खाया। लेकिन एक बार इस हलवे का स्वाद लेने की बड़ी इच्छा है। अगली सर्दी निश्चित रूप से सबसे पहले यही बनेगा।

लेकिन सर्दी की बात हो और गाजर का हलवा का ज़िक्र न हो तो मुझे सर्दी सर्दी नहीं लगती। बाज़ार में पहली गाजर की खेप आते ही हलवे की तैयारी शुरू। ये थोड़ा मेहनत और सब्र वाला काम रहता है लेक़िन उसके बाद जो मीठा फल मिलता है उसके लिये सारे कष्ट चलेंगे। भोपाल में एक मिठाई की दुकान है जहाँ बहुत ही कमाल का गाजर का हलवा मिलता है। जब कभी सर्दी में जाना हो तो कोशिश रहती की स्वाद ले लिया जाये।

इन दिनों आम की बहार है लेक़िन मुझे आम की कोई ख़ास समझ नहीं है। श्रीमती जी को है और स्वाद भी है। तो बस वो बाज़ार से ख़रीद कर सबको खिलाती रहती हैं। कभी लंगड़ा तो कभी दशहरी। लेकिन मुझे सबसे ज़्यादा मज़ा आता है आमरस पूड़ी खाने में। ठंडा आमरस और गरमा गरम पूड़ी। जिसने भी ये कॉम्बिनेशन बनाया है उनको धन्यवाद।

गर्मियों में एक और चीज़ जिसके बिना गर्मी अधूरी लगती है – ऑरेंज बार। तपती गर्मी में ठंडी ठंडी ऑरेंज बार। अभी तक ये तो बताया नहीं की क्या हुआ आज जो ये खाने के ऊपर लिखना शुरू है। क्या श्रीमती जी ने भोजन नहीं दिया या बात कुछ और है?

इसके पीछे ये फ़ोटो है जिसे किसी ने ट्विटर पर शेयर किया था। आज मुम्बई में ज़ोरदार बारिश हुई और कई जगह लोग फँस गए थे। उन्हीं लोगों के लिये चाय और पारले-जी का इंतजाम किया था।

क्या??? आपने गरमा गरम चाय के साथ पारले-जी डूबा डूबा कर नहीं खाया है??? अभी भी देर नहीं हुई है। कल सुबह ही ट्राय करें। हाँ बिस्किट को सिर्फ दो सेकंड या ज़्यादा से ज़्यादा चार सेकंड तक डूबा कर रखें नहीं तो आपकी प्याली की तह में उसका हलवा मिलेगा। अदरक की चाय के साथ स्वाद कुछ और ही आता है।

खाने पर चर्चा जारी रहेगी। आप बतायें बरसात की आपकी पसंदीदा खाने की चीज़ क्या है।

अपने रंग गवायें बिन मेरे रंग में रंग जाओ

दरअसल ये कहना जितना आसान है उसका पालन उतना ही मुश्किल है। हम सबको अपने हिसाब से ढालना चाहते हैं लेकिन हम अपने आप को बदलना नहीं चाहते। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमारी अर्धांगिनी यानी पत्नियाँ होती हैं।

भोपाल प्रवास के दौरान परिवार में एक विवाह की स्वर्णजयंती समारोह में सम्मिलित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ। मतलब साथ रहते हुये पचास साल। बाकी सारे रिश्ते आते जाते रहे जैसे माता-पिता, भाई-बहन, बच्चे। लेकिन ये दो प्राणी साथ में रहे पूरे पचास साल। इस लंबे सफ़र की शुरुआत थोड़ी अजीब सी होती है।

वो ऐसे की एक लंबे समय तक लड़की अपने माता-पिता के घर पर अपने हिसाब से रहती थी। लेकिन एक दिन सब बदल जाता है और एक नये रिश्ते, परिवार के बीच एक शुरुआत होती है। जो काम करने ऑफिस जाते हैं अगर उन्हें बताया जाये कि अगले दिन से ऑफिस नई जगह लगेगा और सब नये सहयोगी होंगे। कपड़े भी नये तरीक़े से पहनने होंगे। ये बदलाव कैसा होगा?

अच्छा है संभल जायें…

2017 में जिस कंपनी में काम करता था उसने अपना ऑफिस नई जगह शिफ्ट करने का निर्णय लिया। ये काफ़ी समय से चल रहा था। कुछ लोग इससे बहुत खुश थे तो कुछ लोग खासे परेशान थे। अच्छा इसमें आपके पास इस बदलाव को गले लगाने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। ठीक उस दुल्हन की तरह जो किसी दूसरे प्रान्त से आती है और अपने अभी तक के सीखे सभी तौरतरीकों को भुलाकर नये को अपना लेती है।

आज जब भोजन कर रहा था तो श्रीमती जी ने जो सब्जी बनाई थी उसको उन्होंने विवाह पूर्व देखा तक नहीं था। लेकिन उन्होंने बनाना भी सीखा और खाना भी शुरू किया। मैं कितना अपना रंग बिना गवायें उनके रंग में रंगा इसका पता नहीं लेकिन उन्होंने यहां के काफी सारे रंगों को अपना लिया है।

हर मायने में राम मिलाय जोड़ी

बरसों पहले अभिनेता अजय देवगन का एक इंटरव्यू पढ़ा था जिसमें उन्होंने यही बात कही थी अपनी पत्नी काजोल के बारे में। वो विवाह पूर्व जैसी थीं वैसी ही हैं। उन्होंने एक दूसरे को पसंद ही उनकी इन खूबियों के कारण किया था। तो अब बदलने का मतलब की अब हम उन्हें पसंद नहीं करते।

हम पति-पत्नी के रिश्ते को सफल भी तभी मानते हैं जब हम उन्हें पूरी तरह से बदल लेते हैं। अब चाय का ही उदाहरण ले लें। हम चाय ऐसी पीतें हैं, आप ऐसी बनाना सीख लें। थोड़े समय बाद दोनों एक जैसी चाय पीने लगते हैं। पचास साल बाद साथ में खड़े होते हैं तो क्या दोनों ही ये कहते हैं तुम कितना बदल गये हो?

https://youtu.be/p6oOyK1h7Zs

तुम्हारा नाम क्या है…

सभी ने शोले देखी होगी ऐसी उम्मीद नहीं। ऐसा इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि जब राजेश खन्ना का निधन हुआ तो ये सवाल पूछा गया था की वो कौन हैं और उन्होंने क्या काम किया था।

शोले में जो जय, वीरू और बसंती के बीच तांगे में हो रहा था लगभग वैसा ही नज़ारा ट्रैन में मेरे सामने था। बस फ़र्क ये था कि बसंती तो थी लेकिन जय, वीरू की जगह ठाकुर साहब और मौसीजी थीं।

ट्रैन में जो सामने महिला और दोनों वरिष्ठ नागरिकों के बीच जो संवाद चल रहा था उससे मुझे युवती के परिवार के बारे में सब कुछ पता चल गया था। उनके पिताजी को क्या बीमारी थी और अगर आप उनका पुश्तैनी घर खरीदना चाहें तो उसके साथ आपको क्या क्या मिलेगा ये सब मेरी जानकारी में आ चुका था। उसके बाद तो लग रहा था कि अब आधार कार्ड और भीम एप्प का पासवर्ड शेयर होना ही बाकी है।

मगर ये नहीं हुआ। युवती ने अपनी किताब निकाल ली थी औऱ उनका सारा ध्यान उस पर ही था। बीच बीच में वो और वरिष्ठ महिला समसामयिक विषयों पर बात कर लेते। जैसे आजकल के बच्चों से कुछ कहना कितना मुश्किल है। वो कुछ सुनते ही नहीं है। बच्चे मतलब जिनकी उम्र पंद्रह तक हो। दोनों महिलायें अपने अपने अनुभव के आधार पर बात कर रही थीं। एक कि ख़ुद की बेटी थी और दूसरी की शायद पोता-पोती रहे हों।

बातों को बीच में रोकने का काम फ़ोन का होता। जबसे डाटा सस्ता हुआ है तो लोग फ़ोन कम वीडियो कॉल ज़्यादा करते हैं। युवती को किसी रिश्तेदार का फ़ोन आया तो बात हो रही है आज खाने में क्या बना है। इस पूरी यात्रा में मैंने लोगों द्वारा इस डेटा का सिर्फ़ और सिर्फ़ दुरुपयोग ही देखा। और चलती ट्रेन में बीच में नेटवर्क ठीक न मिले तो मोबाइल कंपनी को कोसना भी ज़रूरी है।

लौटते समय रेलवे के एक कर्मचारी हमारे डिब्बे में चढ़े तो लेक़िन उनका सारा काम ऐसे जैसे वो अपने घर के ड्राइंगरूम में बैठें हों। उनको किसी तीसरे व्यक्ति ने किसी दूसरे व्यक्ति की दावत का न्यौता दिया था। लेकिन फ़िर उन्हें कोई जानकारी नहीं मिली प्रोग्राम के बारे में। आनेवाले दो घंटे हम सब ने उनको दूसरे और तीसरे व्यक्ति को लताड़ते हुये सुना। कैसे उन्होंने एक होटल से खाना मंगाया और कैसे सामने वाला उनसे माफ़ी मांगता रहा की वो उन्हें बता नहीं पाया की पार्टी आगे बढ़ा दी गयी है। एक बार तो इच्छा हुई की उनकी पार्टी का प्रबंध करवा दें। लेक़िन ये ख़्याल अपने तक ही रखा।

लोग इतनी जल्दी कैसे किसी से घुलमिल जाते हैं? क्या ये एक कला है? कैसे आप दस लोगों के बीच में ऐसे बात कर सकते हैं जैसे आप अपने घर पर बैठें हों? क्या घर में भी इन सज्जन की इतनी ही बुलंद आवाज़ रहती होगी जितनी ट्रैन में थी या वहाँ नहीं बोलने का मौका मिलने की भड़ास ट्रैन में निकल रही थी? लेकिन ऐसे ही चुप रहकर हम कैसे गुनाह को बढ़ावा देते हैं – इसका बयां कल।

उड़ती हुई वक़्त की धूल से, चुन ले चलो रंग हर फूल के

ट्रैन के सफ़र का एक अलग ही आनंद है। पिछले काफ़ी सालों से ट्रैन से चलना कम हुआ है लेक़िन यदा कदा जब भी मौक़ा मिलता है (जब फ्लाइट का किराया बहुत ज़्यादा हो तो) भारतीय रेल की सेवायें ली जाती है।

जबसे ट्रैन का सफ़र याद है, तबसे लेकर अभी तक बहुत सारे बदलाव देखें हैं। पहले सफ़र स्लीपर क्लास में ही होता था मौसम कोई भी हो। मुझे फर्स्ट क्लास में भी सफ़र करना याद नहीं है। पहली बार एसी कोच अंदर से देखा था तो किसी परिचित को छोड़ने गये थे। उस समय ये नहीं मालूम नहीं था कि रात के अँधेरे में अगर अंदर की लाइट जली हो तो बाहर से सब दिखता है। अब पर्दा खींच कर ही रखते हैं।

जब पीटीआई ने दिल्ली से मुम्बई भेजा था तब पहली बार राजधानी में सफ़र किया था और शायद एसी में भी। मेरे सहयोगी रणविजय के साथ उस सफ़र का बहुत आनन्द लिया। अब राजधानी में पता नहीं है की नहीं पर उन दिनों सैटेलाइट फ़ोन हुआ करते थे। मैंने उससे माता पिता को कॉल भी किया था।

पिछले हफ़्ते भोपाल जाने का मौका मिला तो ट्रैन को चुना। अब स्लीपर में सफ़र करने का मन तो बहुत होता है लेक़िन हिम्मत नहीं होती। लेकिन इस बार की एसी से यात्रा भी स्लीपर का आनंद दे गई। आसपास बात करने वाले बहुत सारे लोग थे तो विचारों का बहुत आदान प्रदान हुआ। मैं सिर्फ एक श्रोता बन उसको सुन रहा था।

एक माता पिता अपने बेटों से मिल कर वापस लौट रहे थे तो एक महिला यात्री कुछ दिनों के लिये भोपाल जा रहीं थीं। लेकिन दोनों ने भोपाल से जुड़ी इतनी बातें कर डालीं की बस ट्रैन के पहुंचने का इंतज़ार था। अगर आप एक ऐसी ट्रैन से यात्रा कर रहे हों जो उसी शहर में खत्म होती है जहाँ आप जा रहें है तो सबकी मंज़िल एक होती है। ऐसे मैं ये सवाल बेमानी भी हो जाता है कि आप कहाँ जा रहे हैं। उनकी बातें सुनकर भोपाल के अलग अलग इलाके आंखों के सामने आ गये। ये बातचीत ही दरअसल ट्रैन और फ्लाइट की यात्रा में सबसे बड़ा अंतर होता है।

ऐसे ही एक बार मैं भोपाल जा रहा था फ्लाइट से। ऑफिस के एक सहयोगी भी साथ थे। उन्हें कहीं और जाना था। हम दोनों समय काटने के लिये कॉफी पी रहे थे की अचानक मुझे कुछ भोपाल के पहचान वाले नज़र आ गए। चूंकि दोनों आमने सामने थे तो मेरा बच निकलना मुश्किल था। दुआ सलाम हुआ और हम आगे बढ़ गए। मेरे सहयोगी से रहा नही गया और वो बोल बैठे लगता है तुम उनसे मिलकर बहुत ज़यादा खुश नहीं हुये। बात खुश होने या न होने की नहीं थी। उन लोगों के भोपाल में रहने पर कोई मुलाक़ात नहीं होती तो 800 किलोमीटर दूर ऐसा दर्शाना की मैं उनका फैन हूँ कुछ हजम नहीं होता। मेरे इन ख़यालों को भोपाल में उतरने में बाद मुहर भी लग गयी जब हम दोनों ने ही एक दूसरे की तरफ़ देखना भी ज़रूरी नहीं समझा औऱ अपने अपने रास्ते निकल गये।

एक वो यात्रा थी, एक ये यात्रा थी।

ये न थी हमारी किस्मत…

मुम्बई या कहें नवी मुंबई में जहां में रहता हूँ वहाँ इन दिनों ट्रैफिक पुलिस काफी सक्रिय है ग़लत तरह से पार्क हुई गाड़ियों के खिलाफ कार्यवाही करने में। ये एक अच्छा प्रयास है। लेकिन जिस जगह वो ये सब कर रहे हैं वहाँ से ट्रैफिक कभी भी बाधित नही होता। जहाँ से गाड़ी उठायी जाती हैं उसके बिल्कुल सामने गाड़ियां बहुत ही बेतरतीब तरीक़े से खड़ी रहती हैं लेकिन उस पर इस पूरी टीम की नज़रें ही नहीं पड़ती। इसी एरिया में थोड़ी दूर पर ऑटोरिक्शा वाले ग़लत तरीक़े से ऑटो खड़े कर ट्रैफिक बाधित करते है लेकिन कुछ कार्यवाही होती हुई नहीं दिखती।

चलिये इसको भी मान लेते हैं। लेकिन उसी रोड पर थोड़ा आगे चलकर एक भारत सरकार के उपक्रम का कार्यलय है और उसमें काम करने वालों के वाहन, उनको मुम्बई से लाने वाली मिनी बस जैसे कई वाहन ग़लत लेन में पार्क रहते हैं। लेकिन उसपर कोई कार्यवाही इतने दिनों में होती हुई नहीं देखी है। आगे भी होगी इसकी गुंजाइश कम ही लगती है।

ज़्यादातर लोग अपनी ऊर्जा ऐसे छोटे छोटे काम में गवां देते हैं जो समय का भी नुकसान करते हैं। दो ऐसे समय गवाने वाले काम जो अक्सर काफ़ी लोग करते है उनमें से एक है सोशल मीडिया पर और दूसरा चैनल पर घूमते रहना। लेकिन रोज़ मैं जब अपनी बालकनी से ये नज़ारा देखता हूँ तो गुस्सा भी आती है लेक़िन ये भी लगता है कि उस टीम को जो ज़िम्मेदारी दी गयी है वो उसको पूरा करते हैं। हाँ अगर वो बाकी आड़ी तिरछी गाड़ियों की पार्किंग भी सुधारवाते तो और अच्छा होता। अग़र वैसे ही हम अपना ध्यान अपने लक्ष्य पर रखें और उसी पर आगे बढ़ते जायें तो हमारे सफ़ल होने की गुंजाइश और बढ़ जाती है।

इस पूरे प्रकरण का दूसरा पहलू ये है कि किसी भी व्यवस्था को सफल या विफल होने में आम जनता का सहयोग बहुत ज़रूरी होता है। जिस समय ट्रैफिक पुलिस ये मुहिम चला रही होती है तो वाहन चालकों को एक हिदायत देने के लिये वो वाहन नम्बर बताते हैं और उनसे कहते हैं कि वो गाड़ी वहाँ से हटालें। लेकिन एक ड्राइवर महाशय जैसे ही ये मुहिम शुरू होती है तेज़ी से अपनी गाड़ी दूसरी और ले जाते हैं। जब तक अमला वहाँ रहता है वो इंतज़ार करते हैं। उसके बाद गाड़ी वहीं वापस। दोबारा ऐसा होने पर वो फ़िर से ऐसा करते हैं। शायद ट्रैफिक पुलिस की टीम भी ये समझ चुकी है और इसलिए कोई कार्यवाही नहीं होती। मुझे तो इस पूरी मुहिम से सिर्फ़ एक सीख मिलती है – नियम, कायदों का पालन करना। वो चाहे पार्किंग के लिये हो या किसी और काम से संबंधित।

लेकिन हमारा यानी जनता के बर्ताव से सिर्फ यही पता चलता है – हम नहीं सुधरेंगे।

दिल का हाल सुने दिलवाला, सीधी सी बात न मिर्च-मसाला

भारत-पाकिस्तान के मैच के बाद सबसे ज़्यादा जो चर्चा में पाकिस्तान टीम की परफॉर्मेंस के अलावा कुछ है तो वो है रणवीर सिंह का परिधान जो उन्होंने उस दिन पहना था। आपने रणवीर सिंह की अजीबोगरीब कपड़ों में तस्वीरें ज़रूर देखी होंगी। उनके जैसे कपड़े पहनने के लिये बड़ी हिम्मत चाहिये। उससे भी ज़्यादा चाहिये ऐसा attitude की आपको इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मतलब कपड़े या स्टाइल ऐसा की हम और आप पूरे जीवन ऐसे कपड़े न पहनें। ऐसा इसलिये क्योंकि हम अपना पूरा जीवन इस बात पर ही ध्यान रखते हुए बिताते हैं कि लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं। जो हम पहनते हैं वो इसका एक बहुत बड़ा हिस्सा होता है।

ये सिर्फ परिधानों तक ही सीमित नहीं है। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है कि मुझसे किसी मामले में राय माँगी जाती है और मैं वही बोल देता हूँ जो लोग सुनना नहीं चाहते। मतलब की बोलना हो तो उस पर कुछ मीठी वाणी का लाग लपेट कर बोला जाए। चूँकि ऐसा करना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल होता है इसलिए लोग कम ही पसंद करते हैं मेरी राय।

मेरा ये मानना है कि एक बार ही सही जो सही है वो बोल दो। कम से कम सामने वाला कोई दुविधा में न रहे। ऐसा नहीं है कि मैंने हर बार यही रास्ता अपनाया है। कई बार मुझे सिर्फ आधी सच्चाई ही बतानी पड़ी और उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। उसके बाद लगता की काश पहले ही सब सही बोल दिया होता तो बात वहीं ख़त्म हो जाती।

सच कहने का साहस और सलीका – याद नहीं किस पेपर का कैंपेन है लेकिन बिल्कुल सही बात है। सच कहने के कई तरीक़े होते हैं। एक तो जैसा है वैसा बोल देना। दूसरा उसको थोड़ा मीठा लगा के बोलना। मुझे ऐसी ही एक ट्रेनिंग में भाग लेने का मौका मिला था। द आर्ट आफ गिविंग फीडबैक। इसमें हमें ये बताया कि कैसे बतायें आपकी टीम के सदस्यों को उनके काम के बारे में।

ये सिर्फ ऑफिस के लिये लागू नहीं होता। अपने परिवार वालों को हम लोग ये फीडबैक देने का काम करते ही हैं। ये एक बहुत ज़रूरी ट्रैनिंग है जो पति शादी के कुछ साल बाद सीख ही जाते हैं। लेकिन जैसा फीडबैक वो अपनी श्रीमतियों को देते हैं वैसा वो अपने कार्यक्षेत्र में नहीं करते। अब कार्यस्थल में तो उनका हुक्का पानी बंद होने से रहा। लेकिन श्रीमती जी के साथ ये जोखिम कौन मोल ले। क्या रणवीर सिंह अपनी पत्नी दीपिका को राय भी इतनी ही बेबाक तरीक़े से देते हैं?

क्या मुझमें रणवीर सिंह जैसी हिम्मत है? अगर किसी भी समारोह में कुर्ता पायजामा पहने के जाने को हिम्मत कह सकते हैं, तो हाँ। मुझमें हिम्मत है। क्या मैं अपनी राय भी उतने ही बेबाक तरीक़े से देता हूँ? ये मैं अपनी दीपिका पादुकोण से पूछ कर कल लिखूंगा।

देखें किसको कौन मिलता है

सलमान खान की भारत में पहले प्रियंका चोपड़ा जोनास को कुमुद का रोल अदा करना था। लेकिन निक जोनास से शादी करने के निर्णय के चलते उन्होंने फिल्म को छोड़ दिया। सलमान खान शायद इससे ख़ासे नाराज़ भी हैं।

जब भारत देख रहा था तो रह रह कर बस कैटरीना कैफ की जगह कुमुद के रूप में अगर प्रियंका चोपड़ा होतीं तो क्या फ़िल्म कुछ और होती, यही ख़याल आता। ये पता नहीं लेकिन कुमुद का क़िरदार प्रियंका चोपड़ा को ध्यान में रख कर लिखा गया था। इसलिये शायद बार बार प्रियंका ही दिखाई दे रही थी। लेकिन कुछ एक सीन देख कर लगा की प्रियंका चोपड़ा ज़्यादा अच्छा कर सकती थीं। प्रियंका ने बर्फी में बहुत अच्छा काम किया था शायद इसके चलते उनका पलड़ा भारी है।

ऐसे ही फ़िल्म थी फितूर। अभिषेक कपूर द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में बेग़म का किरदार पहले रेखा निभाने वाली थीं। लेकिन एक हफ्ते की शूटिंग करने के बाद उन्होंने इसको करने से मना कर दिया और उनकी जगह तब्बू ने ले ली। मज़ेदार बात तो ये है कि अभिषेक कपूर ने काफ़ी पहले फ़िल्म का यही रोल तब्बू को ऑफर किया था। लेकिन उस समय बात कुछ बनी नहीं और अभिषेक ने भी दूसरी फ़िल्म बनानी शुरू कर दी थी। मैंने ये फ़िल्म पूरी तो नहीं देखी लेक़िन जितनी थोड़ी बहुत देखी उसमें मुझे तब्बू की जगह रेखा ही नज़र आईं। शायद डायरेक्टर के दिलोदिमाग पर रेखा के किरदार ने ऐसी छाप छोड़ी थी कि सिर्फ़ जिस्मानी तौर पर तब्बू थीं लेकिन ओढ़ने पहनने से लेकर हाव भाव सब रेखा।

असल जिंदगी में अगर हमें किसी के असली क़िरदार की पहचान हो जाये तो उनका सभी व्यवहार हम उसी दृष्टि से देखते हैं। जैसे अगर कोई आपका विश्वास तोड़ दे तो फ़िर से उनपर विश्वास करना मुश्किल होता है। मेरी तरह आप भी ऐसे बहुत से लोगों से मिले होंगे जिनका असली रूप उस समय सामने आ जाता जब आपको उम्मीद ही नहीं होती।

जैसे प्रेम चोपड़ा, रंजीत, शक्ति कपूर, गुलशन ग्रोवर से आप एक विलेन वाले काम की ही उम्मीद करते हैं। फ़िल्म दिलवाले में ऐन इंटरवल के पहले काजोल का असली चेहरा सामने आता है। शाहरुख खान के लिये ये विश्वास करना मुश्किल होता है। दोनों सालों तक इस अविश्वास के चलते अलग रहते हैं लेकिन फ़िल्म है असल जिंदगी तो नहीं। अंत में सब वापस साथ में आ ही जाते हैं।

असल ज़िन्दगी में कोई है जो फिर से विश्वास जीतने का प्रयास कर रहा है। लेकिन पुराने अनुभव ऐसा होने से रोक रहे हैं। क्या उनके प्रयास की जीत होगी या मेरे डर की – ये समय के साथ पता चलेगा।

बधाई हो, आप पापा बन गए हैं

ऑफिस में मेरी सहयोगी ऐसे ही मेरे परिवार के बारे में बात कर रही थीं। बच्चों की बात आई तो उनका ये मानना था की बिटिया तो मुझे उंगलियों पर नचाती होगी।

ऐसा शुरुआत से माना जाता है। आप पिता के ऊपर सोशल मीडिया पर चलने वाले बहुत सारे मैसेज ही देख लें। कई को पढ़ कर आंखें भर आती हैं। लेकिन इनमें से ज़्यादातर बेटियों की तरफ से होते हैं। बहुत कम सिर्फ पिता के लिये होते हैं – न कि बेटी या बेटे के पिता।

पिता पुत्र का संबंध इतना अलग क्यों होता है

पिता का क़िरदार फिल्मों में या असल जिंदगी में कहाँ पर सच्चाई के करीब होते हैं? ज़्यादातर फिल्मों में पिता का क़िरदार लगभग एक विलेन जैसा ही होता है। फ़िर चाहे वो मैंने प्यार किया के राजीव वर्मा हों या आलोक नाथ या क़यामत से कयामत तक के दलीप ताहिल या गोगा कपूर या हालिया रिलीज़ धड़क के आशुतोष राणा। ये पिता तो हैं लेकिन हैं अपनी औलाद के दुश्मन।

ज़ाकिर खान का ये विडियो कमाल का है। उन्होंने अपने पिता के बारे में बहुत सारी बातें बताई हैं। लेकिन उस रिश्ते के बारे में बताया है जो वो अपने पिता के साथ शेयर करते हैं। ज़रूर देखिये ये वीडियो।

दूसरा वीडियो है फ़िल्म अकेले हम अकेले तुम का। फ़िल्म के आख़िर में कोर्ट रूम में आमिर ख़ान जज को बताते हैं उनके बेटे के साथ उनका रिश्ता उनकी पत्नी के जाने के बाद।

जिस रिश्ते को आप रोज जी रहे हों उसके लिये सिर्फ एक दिन कैसे काफ़ी हो सकता है? इस रिश्ते को बनने में सालों लग जाते हैं।लेक़िन आज के उपलक्ष्य में मैंने भी पिताजी को फ़ोन कर बधाई दी।

पिताजी के साथ एक बहुत पुरानी फोटो है। किसी पिकनिक की है। बच्चों के साथ हैं। और सब उनके साथ उस समय का आनंद ले रहे हैं। बस ऐसे ही सारे पिता आनंद लें अपने पिता होने का।

हँसते हँसते कट जायें रस्ते, ज़िन्दगी यूँ ही चलती रहे

फेसबुक पर फेल वीडियो की भरमार है। ऐसे बहुत से मज़ेदार वीडियो देखने को मिलते हैं जिसमें लोग करने तो कुछ और निकलते हैं लेकिन हो कुछ और जाता है। ये वीडियो देख कर हँसी भी आती है और याद आते हैं अपने ही कुछ फेल होने वाले पल जिनकी कोई रिकॉर्डिंग तो नहीं है लेकिन वीडियो जब चाहें रिप्ले होता रहता है।

गर्मी का मौसम आते ही सब वाटर पार्क की तरफ भागते हैं। हमारे समय में ऐसा कुछ नहीं था। अब बच्चों की गर्मी की छुट्टियों में ये एक ज़रूरी काम हो गया है। भले ही उसके बाद आपकी स्किन एक महीने तक परेशान करती रहे। ऐसे ही तीन-चार बरस पहले भोपाल के वाटर पार्क पर एक राइड लेने का शौक चढ़ा। सबको करता देख लगा इसमें कुछ ज़्यादा कठिनाई तो नहीं है।

ऐ ज़िन्दगी, ये लम्हा जी लेने दे

उस राइड का एक बड़ा हिस्सा पाइप के बीच से गुज़रता था। श्रीमती जी और मैंने हृतिक रोशन के डर के आगे जीत है वाले विज्ञापन को याद करके शुरू किया। लेकिन थोड़ी देर ठीक चलने के बाद मामला गड़बड़ हो गया और जिस फ्लोटर पर हम बैठे थे वो कहीं और और हम पाइप के अंदर सिर और चेहरे पर ठोकर खाते हुये बाहर निकले।

होली पर मेरा वो रंग डालने के ऐन पहले फ़िसल जाने किस्सा आपको बता ही चुका हूँ। हमारे पड़ोस में रहने वाले परिवार के साथ भी एक ऐसी ही घटना हुई थी जो अनायास ही मुस्कान ले आती है। जैसा की हमारे देश में अक्सर होता है, घर के सामने केबल डालने का काम चल रहा था। चूंकि घर के अंदर गाड़ी ले जाने का एकमात्र रास्ता सामने की तरफ से था तो जैसे तैसे गाड़ी निकालने भर की जग़ह मिट्टी डाल दी। लेकिन उसी दौरान ज़ोरदार बारिश हो गयी। बगल के घर से कोई स्कूटर लेकर निकला तो लेकिन गाड़ी कीचड़ में फँस गयी और सवार केबल वाले गड्ढे में।

अच्छा है संभल जायें…

ऐसा ही एक किस्सा है माँ और बुआ का जब वो मेले में गयीं थी। छोटे छोटे लकड़ी के झूले पर दोनों झूलने बैठीं। दीदी उस समय जो क़रीब एक बरस की रही होगी झूले के चलते ही ज़ोर ज़ोर से रोने लगी। झूला चलाने वाले से बुआ और माँ ने चिल्ला कर झूला रोकने के लिये कहा। लेकिन शोर के चलते शायद उसने सुना नहीं और एक दो चक्कर लग ही गये। उसके बाद माँ ने जो किया वो पूरा फिल्मी है। जैसे ही उनकी पालकी नीचे आयी उन्होंने दोनों हाथ से झूले वाले के बाल पकड़ लिये और झूला फौरन रोकने को कहा। क्या उसने हेड मसाज के लिये शुक्रिया कहा?

आपके पास हैं ऐसे किस्से? तो साझा करिये मेरे साथ और कमेंट में बतायें।

मेरी आवाज़ ही पहचान है, गर याद रहे

अगर आप रेडियो सुनने का शौक़ रखते हैं तो क्या आपने वो देर रात वाले लव गुरु वाले शो सुने हैं? ये अमूमन रात 11 या उसके भी बाद होते हैं और ज़्यादातर इसमें पुरूष RJ रहते हैं। इसमें श्रोता अपने दिल/प्यार से जुड़ी परेशानी रखते हैं।

मैंने आखिरी बार तो नहीं लेकिन जो याद है वो पीटीआई के चेम्बूर गेस्ट हाउस में अपने पुराने फिलिप्स के टू-इन-वन पर देर रात इस शो को सुनना। चूंकि शिफ़्ट देर से ख़त्म होती तो घर पहुंचने में भी समय लगता। मनोरंजन के लिये बचता सिर्फ़ रेडियो। मोबाइल फ़ोन उन दिनों रईसी की निशानी होता। इनकमिंग के लिये भी पैसे देने पड़ते थे।

तो ये रेडियो शो जो नये नये FM चैनल पर शुरू हुये थे, रह देकर यही साथ देते रात में। अच्छा ये जो समस्याएँ हैं दिल वाली इनमें कोई बदलाव नही हुआ है। पहले भी लड़का लड़की को पसंद करता था लेकिन लड़की की सहेली लड़के को पसंद करती थी। लड़के का दोस्त उसकी बहन को बहुत चाहता है लेकिन दोस्ती के चलते बोल नहीं पाता। या क्लासिक प्रॉब्लम वो मुझे सिर्फ अपना अच्छा दोस्त मानती है। हाँ इसमें से कुछ अजीब अजीब से किस्से भी आते।

इन समस्याओं के क़िरदार भर बदलते रहते हैं। बाकी सब वैसा का वैसा। अमीर लडक़ी, ग़रीब लड़का जिसके ऊपर परिवार की ज़िम्मेदारी है। उसके बाद ये सुनने को मिले की आप ये बातें नहीं समझोगे तो सलमान ख़ान का भारत वाला डायलाग बिल्कुल सही लगता है।

जितने सफ़ेद बाल मेरी दाढ़ी में है उससे कहीं ज़्यादा रंगीन मेरी ज़िंदगी रही है

मैं अभी 70 साल से सालों दूर हूँ इसलिये वापस रेडियो के शो पर। दरअसल रेडियो इतना सशक्त माध्यम है और इतनी आसानी से एक बहुत बड़ी जनसंख्या में पास पहुंच सकता है। उससे भी बड़ी ख़ासियत ये की आपकी कल्पना शक्ति को पंख लगा देता है रेडियो। अगर आप कोई गाना सिर्फ सुन सकते हैं तो आप सोचना शुरू कर देते हैं कि इसको ऐसे दिखाया गया होगा। एक अच्छा RJ तो आपको सिर्फ़ अपनी आवाज़ के ज़रिये उस स्थान पर ले जा सकता है जहाँ कुछ घटित हो रहा हो। जैसे एक ज़माने में बीबीसी सुनने पर होता था।

आज रेडियो की याद दिलाई मेरे पुराने सहयोगी अल्ताफ़ शेख ने। हम दोनों ने मिलकर पॉडकास्ट शुरू किया था पुरानी कंपनी में। उसको करने में बड़ा मजा आता। पिछली संस्थान में मेघना वर्मा, आदित्य द्विवेदी और योगेश सोमकुंवर के साथ ये प्रयोग जारी रहे। योगेश को देख कर आपको अंदाजा नहीं होगा की इनके पास दमदार आवाज़ है।

घर में दो रेडियो थे। टेलीक्राफ्ट और कॉस्सिर। दोनों बिल्कुल अलग अलग सेट थे लेकिन बड़े प्यारे थे। सुबह से लग जाते और जब एनाउंसर सभा ख़त्म होने का ऐलान करती तब बंद हो जाते। उन दिनों चौबीस घंटे रेडियो प्रसारण नहीं होता था। दिन को तीन से चार सभाओं में बाँट दिया था।

इस धुन को तो सभी पहचान गए होंगे। अधिकतर सुबह इसी के साथ होती थी।

जहाँ आज के FM सिर्फ़ मनोरंजन का साधन हैं सूचना के नहीं (वो भी सरकार के नियमों के चलते), आल इंडिया रेडियो मनोरंजन के साथ ढ़ेर सारी जानकारी भी देता है। बस हुआ इतना है की हम उस चैनल तक पहुँचते पहुँचते रेडियो बंद ही कर देते हैं। न तो विद्या बालन जैसी अदा के साथ बोलने वाली RJ होंगी न टूटे दिलों को जोड़ने वाले लुवगुरु।

कभी मौका मिले तो लवगुरु वाले शो और आकाशवाणी के शो को सुनें।

बहुत शुक्रिया, बड़ी मेहरबानी

ये पोस्ट मेरा तीसरा प्रयास होगा आज का। दो काफ़ी लंबी लिखी हुई पोस्ट ड्राफ्ट में रखी हैं। लिखना शुरू कुछ और किया था लेकिन पता नहीं ख़याल कहाँ पहुँच गये उड़ते उड़ते। इससे पहले की फ्लाइट क्रैश होती, उसको सुरक्षित उतार कर ड्राफ्ट में बचा लिया। अब जब सर्जरी होगी तब काँट छाँट करी जायेगी।

लेकिन क्या उड़ान होती है ख़यालों की। वो मेहमूद साहब का गाना है जिसकी शुरुआत में वो कहते हैं ख़यालों में, ख़यालों में। मसलन जब आप को बहुत भूख लगी हो और आप किसी ऐसे इलाके से गुज़रे जहाँ दाल में बस अभी अभी तड़का डाला गया हो और शुद्ध घी के उस तड़के की खुशबू आप तक पहुंच जाए। आप के सामने स्वाद भरी थाली आ जाती है। ख़यालों में ही सही।

जिन दिनों में दिल्ली में अकेला रहता था तब ऐसे ख़याल लगभग रोज़ ही आ जाते थे जब कभी आसपड़ोस में कुछ भी पकता। हम उसकी खुशबू का आनंद उठाते हुये अपने लिये भोजन का प्रबंध करते। घर के खाने की बात मैं पहले भी कर चुका हूँ तो इसलिये इस बारे में ज़्यादा नहीं लिखूँगा।

लेकिन आज भोजन में बारे में इसलिये लिख रहा हूँ क्योंकि पिछले दिनों एक मेसैज आया था। खाना खाने बैठो तो भगवान, किसान और इतनी गर्मी में खाना बनाने वाली का धन्यवाद करना मत भूलना। सच भी है। गर्मी कितनी ही तेज क्यों न हो खाना भले ही सादा हो लेकिन बनाना तो पड़ता है। स्वाद में कोई कमी हमें बर्दाश्त नहीं होगी, गर्मी हो या सर्दी। लेकिन अधिकतर हम इस बात को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि जो किसान मौसम की मार झेलकर हमतक ये अन्न पहुंचाता है और उसके बाद वो गृहणी जो उससे स्वादिष्ट व्यंजन बना के खिलाती है उनको उनके हिस्से की कृत्यगता व्यक्त करने में कंजूसी कर देते हैं।

जो खाना हमारे सामने खाने की मेज़ पर सजा रहता है उसके बनने के पीछे एक कहानी होती है। लेकिन हम उसमें बिल्कुल रुचि नहीं रखते। जैसे कि ये पोस्ट। इसको मैंने तीन बार बनाने की कोशिश करी लेकिन सफल नही हुआ। आप जो इसे पढ़ रहे हैं आपको इन कहानियों के पीछे की कहानी बताने लगूँ तो बात दूर तलक जायेगी। फ़िलहाल उंगलियों और मोबाइल के कीपैड को आराम। ढेर सारा धन्यवाद किसान भाइयों का जो बारिश की राह देख रहे हैं और उन सभी का जो रसोईघर में सबकुछ झेलते हुये भी मुस्कुराते हुए ये पूछते हैं स्वाद तो ठीक है ना। कुछ कम ज़्यादा तो नहीं।

कैसी ये नगरिया, कैसे हैं ये लोग

आज ट्विटर पर एक बहस चल रही थी। रोज़ जो फालतू की बहस चलती रहती है उससे ये कुछ अलग थी। बहस बहुत ही सभ्य थी क्योंकि इसमें किसी नेता या अभिनेता को उनकी ट्वीट के लिये ट्रोल नहीं किया जा रहा था।

इस बहस की शुरुआत हुई एक वेबसाइट की ट्वीट से। जानेमाने फ़िल्म और रंगमंच के कलाकार गिरीश कर्नाड का आज सुबह निधन हो गया। वेबसाइट ने इसकी हैडलाइन दी \”टाइगर ज़िंदा है फ़िल्म में अभिनय करने वाले गिरीश कर्नाड का निधन\”। बस ट्विटर सबने मिलकर इस वेबसाइट की क्लास ले ली। सभी ने इसका मज़ाक उड़ाया की स्वर्गीय कर्नाड ने काफ़ी सारी अच्छी फिल्में करी हैं, बहुतेरे नाटकों का निर्देशन किया लेकिन उस फिल्म से उनको जोड़ा जा रहा है जिसमें उनका काम कुछ ऐसा नहीं था कि उनकी याद को उसके साथ जोड़ा जाये।

लेकिन इसमें क्या गलत है? आप अगर किसी को उनके पुराने काम का हवाला देंगे और अगर कहें की फ़िल्म स्वामी या मंथन या मालगुडी डेज में काम करने वाले गिरीश कर्नाड का निधन तो सबको थोड़ी अपनी याददाश्त पर ज़ोर देना होगा कि ये किसकी बात हो रही है। पत्रकारिता में आप सूचना दे रहे हैं। सामने वाले तक जो संदेश पहुंचा रहे हैं वो पहुंच जाए। अब अगर टाइगर ज़िंदा है का हवाला दिया गया है तो वो उनकी शायद आखिरी बड़ी हिट फिल्म थी तो इसमें क्या गलत है? एक बहुत बड़े तबके के पास जिन्होंने ये सलमान खान की फ़िल्म देखी होगी, वो गिरीश कर्नाड साहब को सलमान के बॉस वाले क़िरदार को फ़ौरन पहचान गये होंगे।

अब इसमें बड़ी सी भूमिका, वैसे इस नाम की भी उन्होंने फ़िल्म करी थी, बांधने की क्या ज़रूरत है। जिस शख़्स ने उन्हें टाइगर ज़िंदा है के साथ याद किया और जिसने उन्हें मालगुडी डेज से जोड़कर याद किया दोनों में कोई अंतर है क्या? मैं ये निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि गिरीश कर्नाड साहब को अपने दोनों ही काम प्रिय होंगे। नहीं तो वो टाइगर ज़िंदा है जैसी घोर कमर्शियल फ़िल्म नहीं करते।

जैसा ट्विटर पर अक्सर होता है, लोगों ने लाइन लगादी कैसे कुछ नामीगिरामी लोगों को याद किया जायेगा। इन सबके पीछे एक ही कारण है – मेरे हिसाब से ये सही है। लेकिन सब आपके या मेरे हिसाब से ही तो सही नहीं हो सकता। आप राजेश खन्ना को कैसे याद करेंगे? उनकी वो डांस स्टेप के लिये या चिंगारी कोई भड़के या मेरे सपनों की रानी वाले गानों के लिये? अगर मैं उनको अगर तुम न होते के गाने के लिये या आ अब लौट चलें में उनके अभिनय के लिये याद करूं तो क्या ग़लत है? ये सिर्फ़ इसलिये तो गलत नहीं हो सकता क्योंकि ये आपके उनको याद रखने के मापदंडों से अलग है।

गिरीश कर्नाड साहब को उनकी बहुत सारे किरदारों के साथ तो याद रखूँगा लेकिन एक गाना जो उनपर फ़िल्माया गया था वो भी मुझे बहुत प्रिय है। सुभाष घई की मेरी जंग में उनपर और नूतन पर एक गीत फिल्माया था – ज़िन्दगी हर कदम एक नई जंग है। ये गाना उनकी याद में और उस शख्स के लिये जिसने उस स्टोरी की हैडलाइन दी।

https://youtu.be/3qgbp8z0cnc

दरिया ने ली है करवट तो, साहिलों को सहने दे

सलमान खान को निजी जिंदगी में भले ही प्यार न मिला हो लेकिन स्क्रीन पर तीनों खान में वो सबसे अच्छे लवर बॉय लगते हैं। ये मेरा जवाब था श्रीमती जी को उस सुबह जब चाय का आनंद लेते हुये उन्होंने पूछ लिया कि तीनों खान में से कौन सबसे अच्छा रोमांटिक हीरो है। आमिर खान और शाहरुख खान ने भी रोमांटिक फिल्में करी हैं और शाहरुख को किंग ऑफ रोमांस भी कहा जाता है। लेकिन मेरे लिये सलमान से अच्छा रोमांटिक खान कोई नहीं।

भोपाल में हम आपके हैं कौन केवल एक सिनेमाघर में लगी थी। फ़िल्म के निर्माता राजश्री ने फ़िल्म को सिर्फ़ डॉल्बी में रिलीज़ किया था। ये टेक्नोलॉजी नई थी और बहुत कम सिनेमा मालिक पैसा खर्च करने को तैयार थे। ध्यान रहे उस समय सिंगल स्क्रीन ही हुआ करते थे।

चूंकि एक ही सिनेमाघर था, तो काफी भीड़ रहती थी। परिवार में सभी को इसे देखने का मन था। सलमान खान और माधुरी दीक्षित साथ में और सूरज बड़जात्या का निर्देशन। फ़िल्म के गाने तो सभी ने सुन रखे थे। चित्रहार में गानों की झलक भी मिल गई थी। ये भी पता था कि नदिया के पार का मॉर्डन एडिशन था।

आख़िरकार वो दिन आ ही गया जब फ़िल्म देखने का प्रोग्राम बन गया। एडवांस बुकिंग के लिये मैं औऱ बड़ी बहन गये थे। bookmyshow, paytm की पीढ़ी को न इसका अनुभव होगा न इससे जुड़ी खुशी का अनुभव। टिकट मिल गये और बस ऐसे ही घूमते हुये अंदर पहुँच गए। शो बस शुरू ही हुआ था। जब अंधेरे में फ़िल्म का टाइटल शुरू हुआ तो बस नज़रें जम गयीं स्क्रीन पर। सलमान खान और माधुरी दीक्षित पर ब्लैक एंड व्हाइट में उस गाने की बात ही कुछ और थी। हम दोनों ने पूरा गाना देखा और घर वापस क्योंकि दोपहर में शो देखने जो आना था।

उसके पहले मैंने सलमान खान की इक्का दुक्का फिल्में ही देखी होंगी। मैंने प्यार किया और अंदाज़ अपना अपना तो याद है लेकिन इसके अलावा शायद साजन। मैं ठहरा आमिर खान का फैन और भाई वैसे भी कुछ अलग ही तरह की फिल्में करते। लेकिन उस दिन हॉल के अंधेरे में जब सलमान खान ने हम आपके हैं कौन गाना शुरू किया तो दीदी की मानो लॉटरी लग गयी थी।

हम दिल दे चुके सनम और लव दोनों ही फिल्मों में उनका किरदार बहुत बढ़िया था। हम दिल…में उनकी और ऐश्वर्या की जोड़ी बस एक फ़िल्म में आके रह गयी। लेकिन दोनों की जोड़ी कमाल की थी। शायद वैसे जैसे वरुण आलिया या दीपिका रनबीर की जोड़ी है इन दोनों। सलमान की आलिया भट्ट के साथ इंशाल्लाह का इंतज़ार रहेगा क्योंकि बहुत समय बाद वो एक लव स्टोरी में दिखाई देंगे और उसपर संजय लीला भन्साली का निर्देशन। देखना ये है कि भंसाली अपने चहेते अरिजीत सिंह की जगह किस को सलमान खान की आवाज़ बनायेंगे।

पिछले कुछ सालों से सलमान खान की फिल्में नियमित देखी जा रही हैं। बजरंगी भाईजान हो या ट्यूबलाइट या बुधवार को रिलीज़ हुई भारत। फ़िल्म में कई खामियाँ हैं लेकिन सलमान और कैटरीना की जोड़ी अच्छी लगती है। सलमान खान की तरह कैटरीना कैफ को भी हिंदी बोलने में खासी परेशानी होती है और ये इस फ़िल्म में साफ़ पता चलता है। निर्देशक स्क्रिप्ट में जो इमोशनल कनेक्ट होना चाहिए था उस पर ज़्यादा ध्यान न देकर सलमान खान को हीरो बनाने में ध्यान दे बैठे। जैसी सलमान खान की फिल्में होती हैं, भारत एक साफ सुथरी फ़िल्म है।

क्यूँ इस क़दर हैरान तू, मौसम का है मेहमान तू

पिछले दो दिनों से पुराने टीम के सदस्यों से बातचीत चालू है। इसका मतलब ये नहीं कि वो बंद हो गयी थी। वो बस मैं ही संपर्क काट लेता हूँ तो सबके लिये और आश्चर्य का विषय था कि मैंने फ़ोन किया।

बातों में बहुत सारी पुरानी यादें ताज़ा हो गईं। दिसंबर 2016 में एक पार्टी हुई थी। शायद टीम के साथ आखिरी बार। ये पार्टी बहुत लंबे समय से टलती आ रही थी। हमेशा ऐन मौके पर कैंसिल हो जाती। लेकिन दिसंबर में ये निर्णय हुआ कि 2016 का पार्टी का बहीखाता उसी साल बंद कर दिया जाये। बस एक दिन सुनिश्चित हुआ और जो आ सकता है आये वाला संदेश भेज दिया।

हर टीम में एक दो ऐसे सदस्य होते हैं जो पार्टी कहाँ, कैसे होगी, खानेपीने का इंतज़ाम करने में एक्सपर्ट होते हैं। मेरी टीम में ऐसे लोगों की कोई कमी नही थी। बस उन्होंने ये ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। और क्या पार्टी हुई थी। उस शाम वहाँ दो गायक भी थे। चूंकि हमारी फौज बड़ी थी तो नज़रंदाज़ करना भी मुश्किल था। खूब गाने सुने उनसे और थोड़ी देर बाद उन्हें सुनाये भी। अच्छा हम लोगों की पार्टी तो ख़त्म हो गयी लेकिन कुछ लोगों की उसके बाद किसी के घर पर देर रात तक चलती रही।

लेकिन अगले दिन ऑफिस में बवाल मचा हुआ था। हमारी पार्टी की ख़बर ऊपर तक पहुंच गई थी। काफ़ी सारे सवालों के जवाब दिये गये। एहसास-ए-जुर्म बार बार कराया जा रहा था। उसके पीछे की मंशा कब तक छुपी रहती। तब तक चीज़ें बदलना शुरू ही चुकी थीं और अगले सात महीने तक तो पूरी कायापलट हो गयी थी और फ़िल्मी सीन \’मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ\’ वाली स्थिति हो गयी थी। लेकिन इस पूरे समय जो साथ रहे ये वही टीम के सदस्य थे। नहीं, वही सदस्य हैं।

ये पूरी की पूरी टीम के सभी सदस्यों से मेरा मिलना 2012 से शुरू हुआ था। आज भी मुझे बड़ा अचरज होता है की कॉलेज से निकले युवाओं के साथ और कुछ अनुभवी लोगों की टीम ने क्या शानदार काम किया। ये जानकर और अच्छा लगा कि उनमें से कई अब बड़ी टीम को लीड कर रहे हैं। उनकी तरक़्क़ी देख कर खुशी भी होती है और गर्व भी। उन सभी के जज़्बे को सलाम।

बारिश का बहाना है, ज़रा देर लगेगी

गोआ के कैंडोलिम बीच पर सारी रात बैठ कर बात करके जब सुबह वापस होटल जाने का समय आया तो कहीं से बादल आ गये और बारिश शुरू। बचने की कोई गुंजाइश नहीं थी तो बस बैठे बैठे बारिश का आनंद लिया।

ये बादलों का भी कुछ अलग ही मिजाज़ है। अगर आप मुम्बई में हैं तो आपको इनके मूड का एहसास होगा।ऐसा पढ़ा है कि इस हफ़्ते मुम्बई में बारिश दस्तक दे सकती है। बारिश में मुम्बई कुछ और खूबसूरत हो जाती है। वैसे बारिश में ऐसा क्या खास है ये पता नहीं लेकिन अगर किसी एक मौसम पर सबसे ज़्यादा गाने लिखे गये हैं तो वो शायद नहीं यक़ीनन बारिश का मौसम ही होगा।

वैसे बारिश मुझे भोपाल के दिनों से पसंद थी। दिल्ली के प्रथम अल्प प्रवास में कुछ खास बारिश देखने को नहीं मिली। बाद में पता चला कि अन्यथा भी बारिश दिल्ली से दूर ही रहती। जब दिल्ली से मुम्बई तबादला हुआ तो वो ऐन जुलाई के महीने में। उस समय मुम्बई की बारिश के बारे में न तो ज़्यादा पता नहीं था न ही उसकी चिंता थी। मेरे लिये मुम्बई आना ही एक बड़ी बात थी। उसपर पीटीआई ने रहने की व्यवस्था भी करी थी तो बाक़ी किसी बात की चिंता नहीं थी।

मरीन ड्राइव पर गरम गरम भुट्टे के साथ बारिश की बूंदों का अलग ही स्वाद होता है। और उसके साथ एक बढ़िया अदरक की गरमा गरम चाय मिल जाये तो शाम में चार चाँद लग जाते हैं। वहां से दूर तक अरब सागर पर बादलों की चादर और बीच बीच में कड़कड़ाती बिजली। अगर मुम्बई में ये नज़ारा रहता तक अब पहाड़ों घर से दिखते हैं। गर्मी में बंजर पहाड़ बारिश के आते ही हरियाली से घिर जाते हैं। इन्हीं पहाड़ों के ऊपर बादल और बारिश दूर से आते दिख जाते हैं। सचमुच बहुत ही सुंदर दृश्य होता है।

कुछ लोग इस मौसम को बेहद रोमांटिक मानते हैं वहीं कुछ लोग काले बादल और बारिश में भीगने से खासे परेशान रहते हैं। मुझे इस मौसम से या किसी औऱ मौसम से कोई शिकायत नहीं है। हर मौसम की अपनी ख़ासियत होती है और उसका आनंद लेने का तरीका। जैसे अगर आप ऐसे मौसम में लांग ड्राइव पर निकल जायेँ जैसा मैंने पिछले साल किया था। भीगी हुई यादों को अपने साथ समेट कर दिल्ली ले जाने के लिये।

जो न समझे वो अनाड़ी हैं

विज्ञापन देखने का मुझे बड़ा शौक है। अगर मैं ये कहूँ की इस चक्कर में मैंने कई सारे प्रोग्राम देख डाले तो कुछ गलत नहीं होगा। जब लोग उस विज्ञापन में ब्रेक में टीवी की आवाज़ बंद कर देते हैं, मैं उसी दो मिनट के लिये 22 मिनट का प्रोग्राम झेलता हूँ। आज भी मैं अखबार या मैगज़ीन में विज्ञापन देख उसकी एजेंसी जानने की उत्सुकता रहती है। मुझे इस क़दर इस क्षेत्र में काम करने की ललक थी कि अपनी कंपनी का नाम भी सोच लिया था।

मेरे खयाल से अपनी बात 10 सेकंड से एक मिनट में ऐसे कहना की आपको पसंद भी आये और याद भी रहे, अपने आप में एक कला है। ख़ैर, वहाँ तो मेरी कोशिश सफ़ल नहीं हुई लेकिन उसी से थोड़ी बहुत जुड़ी हुई पत्रकारिता में जगह मिल गयी। यहाँ भी आपको अपनी हैडलाइन को लेकर बहुत क्रिएटिव होना पड़ता है। जैसे ये

उस दिन जब चुनाव के परिणाम आये तो सभी अखबारों को यही ख़बर देनी थी। लेकिन कोलकाता से प्रकाशित द टेलीग्राफ ने बख़ूबी ये काम किया। कम से कम शब्दों में। वैसे इस पेपर में ऐसा अक्सर होता है। अगर आप भी ऐसे ही कुछ क्रिएटिव देखना चाहें तो सोशल मीडिया पर इनका एकाउंट ज़रूर चेक करें।

अभी कुछ दिनों से एक फ़ोटो लोगों के द्वारा शेयर की जा रही है। उसमें 40 अपने समय के बेहतरीन विज्ञापन छुपे हैं। कैडबरी के विज्ञापन \’क्या स्वाद है जिंदगी में\’ बड़े अच्छे थे। वैसे ही सर्फ की ललिता जी या धारा की जलेबी का लालच करता बच्चा।

मेरी पुरानी संस्थान में मेरे एक साथी ने मुझे समझाइश दी थी कि अपनी कला को बेचना सीखो। इसके लिये उन्होंने मुझे कई सेमिनार, नेटवर्किंग इवेंट्स में जाने की सलाह भी दी। लेकिन मुझे घर से बाहर निकालना एक मुश्किल काम है। ऐसा मैं मानता हूँ और अब इतने वर्षों के बाद श्रीमती जी भी मान चुकी हैं। तो नतीजा ये होता कि फ़ीस तो भर दी जाती इन प्रोग्राम में जाने के लिये लेकिन जाना नहीं हो पाता।

खुद को बेचना एक कला है। आपको अपने आसपास ऐसे लोग मिल ही जायेंगे। काम कुछ करेंगे नहीं लेकिन बातें आप करवा लीजिये। अगर आपने सई परांजपे की कथा देखी हो तो जैसा उसमें फारुख शेख़ का क़िरदार रहता है। वही लोग बहुत बार आगे भी बढ़ते हैं। मेरी टीम में एक बहुत ही शांत, सौम्य स्वभाव वाले मोहम्मद उज़ैर। उनकी लेखनी के बारे में तो आपको बता ही चुका हूँ। लेकिन बहुत ही कमाल के इंसान। जितना समय उनके साथ काम किया उसमें एक बार ही मैंने उन्हें गुस्से में देखा है। अगर मुझे किसी को अपनी टीम में रखने का गर्व है तो मोहम्मद उस लिस्ट में टॉप 3 में शामिल होंगे।

वापस विज्ञापन की रंगबिरंगी दुनिया में लौटते हैं। वैसे तो आपका काम ही बोलना चाहिये लेकिन कई बार इसकी आवाज़ लोगों के कानों तक नहीं पहुँचती है। तो थोड़ा सा विज्ञापन का सहारा लेने में क्या बुराई है। जैसे सलमान खान और कैटरीना कैफ़ इन दिनों हर चैनल पर भारत को बेचते हुये दिख जाते हैं।

अपडेट: घोर आलस्य के बाद मैंने पहला पत्र लिख ही दिया और वो अब अपने गंतव्य के लिये रवाना हो चुका है। अब दूसरे पत्र की बारी है। उसका मुहूर्त भी जल्द ही निकाल लेंगे।

ये भी ठीक, तो वो भी ठीक, अपना अपना नज़रिया

ज़ाहिर सूचना: आज की पोस्ट जो उम्र में मार्क जुकरबर्ग को झूठी जानकारी देकर चकमा दे गये हों उनके लिये नहीं है। जो उम्र से न सही विचारों से वयस्क हों वही आगे पढें।

धर्मवीर भारती जी की गुनाहों का देवता में मुख्य क़िरदार चन्दर और सुधा की बुआ की लड़की बिनती के बीच सुधा की शादी के बाद बातचीत हो रही है प्यार और शारिरिक संबंध को लेकर। चन्दर को बहुत आश्चर्य होता है जब बिनती उन्हें बताती है कि गाँव में ये सब उतना ही स्वाभाविक माना जाता है जितना खाना-पीना हँसना-बोलना। बस लड़कियाँ इस बात का ध्यान रखती हैं कि वो किसी मुसीबत में न पड़ें।

दरअसल इस विषय पर मेरी पुरानी टीम की साथी मेघना वर्मा ने फेसबुक पर एक पोस्ट लिखी है उनके साथ पीजी में रहने वाली मोहतरमा के बारे में। मेघना उनके व्यवहार/विचार से बिल्कुल अलग राय रखती हैं। पहले जानते हैं मेघना ने क्या कहा। ये उस पोस्ट का सार है।

उनकी रूममेट का नौ वर्षों से किसी के साथ प्रेम प्रसंग चल रहा है लेकिन उन्होंने शादी के लिये किसी दूसरे ही व्यकि को चुना है। इसमें जो समस्या है जिसे मेघना ने परेशान कर रखा है वो ये की इन देवीजी को अपनी ज़िंदगी में दोनों पुरुष चाहिये। मतलब शादी के बाद भी वो अपना प्रेम प्रसंग चालू रखना चाहती हैं।

इस पोस्ट पर कई लोगों ने टिप्पणी करी। कुछ ने ऐसे व्यवहार के लिये इंटरनेट और टेक्नोलॉजी को दोषी ठहराया। ज़्यादातर लोगों का यही मत था कि उन मोहतरमा को ऐसा नहीं करना चाहिये। कम से कम उस लड़के को जिसे उनके माता पिता ने चुना है उसे सब सच बता देना चाहिये। लगभग सबका यही मानना था कि इस पूरे प्रक्रण्ड का अंत दुखद ही होगा।

मेघना की पूरी पोस्ट आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

एक्स्ट्रामैरिटल अफेयर कोई नई बात नहीं है और निश्चित रूप से जो रास्ता इन मोहतरमा और उनके आशिक़ ने अपनाया है उस राह पर कई और भी चलें होंगें। मैं स्वयं ऐसे कई शादी शुदा लोगों को जनता हूँ जो इसमें लिप्त हैं और उनको इससे कोई ग्लानि नहीं है। ऐसा नहीं है कि जिन लडकियों से उनके अफेयर चल रहे हैं उन्हें उनके शादीशुदा होने के बारे में नहीं मालूम। लेकिन फ़िर भी दोनों ही इस राह पर चलते हैं।

इरफान खान ने 2013 में एक इंटरव्यू में कहा था

I would respect a marriage where the man and woman have the freedom to sleep with anyone. There is no bondage.

बक़ौल इरफ़ान खान: मैं उस शादी की ज़्यादा इज़्ज़त करूंगा जहां पति और पत्नी को किसी के भी साथ सोने की आज़ादी हो। किसी तरह का कोई बंधन न हो।

इस इंटरव्यू को आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

क्या वो मोहतरमा गलत हैं? शायद। लेकिन हमें ये लाइसेंस किसने दिया कि हम लोगों को मॉरल लेक्चर दें। लेकिन क्या हम उन्हें इसलिये ग़लत कहें कि वो जो भी करना चाहती हैं वो डंके की चोट पर करना चाहती हैं? क्या वो और उनके प्रेमी यही काम छुप छुप कर करते तो हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता?

ये सब बातें हम आज 2019 में कर रहे हैं। 1949 में पहली बार प्रकाशित चन्दर और बिनती की ये बातें इस बात की गवाह हैं कि इन 70 सालों में बदला कुछ नहीं है।