कुछ ऐसे ही दिन थे वो जब हम मिले थे

1988 में आई फ़िल्म क़यामत से क़यामत तक की नायिका जूही चावला मुझे बेहद पसंद आयीं। इसका श्रेय फ़िल्म में उनके क़िरदार, उनके बोलने का ढंग या उनका एक आम लड़की की तरह ओढ़ना पहनना -इन सबको जाता है। उसके बाद भी उनकी काफी फिल्में देखीं लेक़िन ऐसी कोई फ़िल्म जिसमें लगता उनके रोल के साथ न्याय नहीं किया होगा, मैं नहीं देखता। मतलब फैन तो हैं लेकिन अपनी शर्तों पर।

उनकी एक फ़िल्म आयी थी राधा का संगम। जब ये फ़िल्म बन रही तो ऐसा बताया जा रहा था की ये दूसरी मदर इंडिया या मुग़ल-ए-आज़म होगी। फ़िल्म को बनने में समय भी लगा और लता मंगेशकर जी और अनुराधा पौड़वाल की लड़ाई भी हुई गानों को लेकर। चूंकि संगीत टी-सीरीज़ पर था तो निर्माता के पास सिवाय इसके की अनुराधा पौड़वाल से भी गाने गवायें, कोई दूसरा विकल्प नहीं था। फ़िल्म का संगीत अच्छा है। अन्नू मलिक की कुछ फिल्मों में से जहां वो किसी से प्रेरित नहीं हैं। मौके मिले तो नीचे ज्यूक बॉक्स की लिंक पर सुनें।

जब फ़िल्म रिलीज़ हुई तो अंदर का जूही फैन जाग उठा। आजकल के जैसे उन दिनों फिल्मों के रिव्यु इतनी पहले नहीं आते थे और अगर आते भी तो सिर्फ़ अख़बार में छपते। बहरहाल फ़िल्म देखने घर के नज़दीक सिनेमाघर पहुँच गये। जो मुझे छोड़ने गये थे वो पूछने लगे की बाकी कौन आ रहा है। झूठमूठ बोल दिया एक दो दोस्त और आयेंगे। लेकिन कोई आने वाला नहीं था। कौन अपने पैसे ऐसी फिल्म पर खर्च करेगा। मुझे ये फ़िल्म अकेले ही देखनी थी। टिकट खिड़की भी लगभग खाली ही थी। लेक़िन हमने हिम्मत दिखाई और फ़िल्म देखी। उसके बाद किस हाल में घर पहुंचे ये नहीं पता लेकिन सही सलामत पहुंच गये।

जिस हॉल में मैंने ये हिम्मत दिखाई थी, ये वही हॉल है जहाँ मेरे छोटे भाईसाहब ने मुझे ज़ोर का झटका दिया था। जी हाँ ये वही किस्सा है जिसका ज़िक्र पहले हुआ है। राधा का संगम आयी थी 1992 में और एक साल बाद आयी थी यश चोपड़ा की डर। इस फ़िल्म से बड़ी उम्मीदें थीं। फ़िल्म का ट्रेलर कमाल का था। गाने जितने देखे सुने थे सब बढ़िया। बस गुरुवार को पहले शो के लिये पहुँच गये सिनेमाघर भाई के साथ। लेकिन वहाँ ज़बरदस्त भीड़। जूही चावला के फैन को बड़ी खुशी हुई लेकिन पहले शो के टिकट मिलना नामुमकिन था। बुझे दिल से घर वापस आने का मन बनाया तो देखा भाई ग़ायब। ढूंढने पर भी नहीं मिला। बाद में पता चला की पुलिस के लाठीचार्ज के बाद मची अफरातफरी में वो हॉल के अंदर पहुँच गये और फ़िल्म का आनंद लेने के बाद घर लौटे। जब भी इस फ़िल्म का ज़िक्र आता है तो अब पहले जूही चावला नहीं छोटे भाई की हँसी याद आती जो उनके चेहरे पर थी उस दिन फ़िल्म देखने के बाद। मुझ से पहले फ़िल्म देखने के बाद। मैंने सपरिवार उसी रात फ़िल्म देखी लेकिन…

https://youtu.be/vMZTAVzg6qk

शनिवार की शाम हंसी, कल  छुट्टी इतवार की, सोमवार को सोचेंगे, बातें सोमवार की

आज छुट्टी का दिन और काम की लंबी लिस्ट। लेकिन काम नहीं होने का मतलब अगले हफ्ते तक की छुट्टी। जबसे ये पाँच दिन का हफ़्ता आया है जिंदगी में, एक बड़ी बोरिंग सी ज़िन्दगी लगती है (है नहीं), सिर्फ़ लगती है। पहले जब पीटीआई और हिन्दुस्तान टाइम्स में काम किया था तब हफ़्ते में एक रोज़ छुट्टी मिल जाती थी। जब डिजिटल की दुनिया में प्रवेश किया तो वहाँ पाँच दिन काम होता। पिछले नौ सालों से ये आदत बन गयी है। हालांकि ऐसा कम ही होता जब छुट्टी पूरी तरह छुट्टी हो। समाचार जगत में तो ऐसा कुछ होता नहीं है। जैसे आज ही शीला दीक्षित जी का निधन हो गया। ऐसे बहुत से मौके आये हैं जब ये सप्ताहांत में ही बड़ी घटनायें घटी हैं। मतलब कोई घटना सप्ताह के दिन या समय देख कर तो नहीं होती। जैसे पीटीआई में एक मेरे सहयोगी थे। उनकी जब नाईट शिफ़्ट लगती तब कहीं न कहीं ट्रैन दुर्घटना होती। बाकी लोग अपनी शिफ़्ट रूटीन के काम करते उन्हें इसके अपडेट पर ध्यान रखना पड़ता।

विषय पर वापस आते हैं। वीकेंड पर पढ़ने और टीवी देखने का काम ज़रूर होता। अख़बार इक्कट्ठा करके रख लेते पढ़ने के लिये। हाई कमांड की इसी पर नज़र रहती है की कब ये पेपर की गठरी अपने नियत स्थान पर पहुँचायी जाये। काउच पटेटो शब्द शायद मेरे लिये ही बना था। जिन्होंने रूबरू देखा है वो इससे सहमत भी होंगे। मुझे टीवी देखने का बहुत शौक़ है और शुरू से रहा। जब नया नया ज़ी टीवी शुरू हुआ था तब उसके कार्यक्रम भी अच्छे होते थे। उसके पहले दूरदर्शन पर बहुत अच्छे सीरियल दिखाये जाते थे। लेकिन वो सास-बहू वाले सीरियल नहीं पसंद आते। हाँ सीरियल देखता हूँ लेकिन जिनकी कहानी थोड़ी अलग हो। जब नया नया स्टार टीवी आया था, जब उसके प्रोग्राम सिर्फ़ अंग्रेज़ी में होते थे, तब बोल्ड एंड द ब्यूटीफुल भी देखा।

अभी तक गेम ऑफ थ्रोन्स नहीं देख पाया। उसके शुरू के कुछ सीजन लैपटॉप में रखे हैं जो मनीष मिश्रा जी ने दिये थे लेक़िन थोड़ी देर देखने के बाद बात कुछ बनी नहीं तो आगे बढ़े नहीं। देवार्चित वर्मा ने तो इसको नहीं देखने के लिये बहुत कुछ बोला भी लेक़िन आज भी मामला पहले एपिसोड से आगे नहीं बढ़ पाया। उन्होंने मुझे और नीरज को इस शो को नहीं देखने को अपराध की श्रेणी में शामिल कर दिया है। शनिवार, इतवार थोड़ा बहुत टीवी ज़रूर देखा जाता है। लेकिन चूंकि लोकतंत्र है तो रिमोट \’सरकार\’ के पास रहता है। सरकार से मतलब श्रीमतीजी और बच्चों के पास। उसमें भी बच्चों के पास ज़्यादा क्योंकि उनकी नज़रों में बादशाह, अरमान मलिक, सनम जैसे कलाकार ही असली हैं।

इन दिनों मैं बिटिया के साथ सोनी टीवी का पुराना सीरियल माही वे देख रहे हैं। वैसे सोनी ऐसे अलग, हट के सीरियल के मामले में बहुत आगे है। पाउडर भी बहुत ही ज़बरदस्त सीरियल था। ये दोनों नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध हैं। मौका मिले तो ज़रूर देखें। जो नई वेब सीरीज बन रही हैं हमारे यहाँ उनमें एडल्ट सीन में कहानी होती है और बाकी भाषाओं में कहानी में एडल्ट सीन होते हैं। इसलिये कई अच्छी सीरीज़ देखने के लिये समय निकालना पड़ता है।

सोनी पर इन दिनों दो और सीरियल चल रहे हैं – पटियाला बेब्स और लेडीज़ स्पेशल। दोनों की कहानी आम सीरियल से अलग हैं और इसलिये जब देखने को मिल जाये तो कहानी अच्छी लगती है। पटियाला… एक तलाक़शुदा औरत और उसकी बेटी के समाज में अपना स्थान बनाने की लड़ाई को लेकर हैं। दोनों सीरियल ने कई जगह कहानी या कॉमन सेंस को लेकर समझौता किया है। लेकिन कुछ बहुत अच्छे सवाल भी उठाए हैं – विशेषकर पटियाला…। श्रीमतीजी का ये मानना है कि दोनों सीरियल में शायद रोमांस का तड़का है इसलिये मैं बड़े चाव से देखता हूँ। वो बहुत ज़्यादा गलत नहीं हैं वैसे।

काम भी ऐसा है की सबकी ख़बर रखनी पड़ती है। तो सीरियल में क्या हो रहा है इसका पता रखते हैं। आपके पास अगर कोई सीरीज़ देखने का सुझाव हो तो नीचे कमेंट में बतायें। आपका वीकेंड आनंदमय हो।

दिल ढूंढता है फ़िर वही फ़ुर्सत के रात दिन

गुलज़ार साहब के लिखे गानों को सुना था, उनकी लिखी फिल्मों को देखा था। जब आप किसी का लिखा पढ़ते हैं या उनका काम देखते हैं तो एक रिश्ता सा बन जाता है। शुरुआत में तो किसने लिखा है ये पता करने की कोशिश भी नहीं करते। बाद में ये जानने की उत्सुकता रहती की किसने लिखा है।

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दिल ढूंढता है फ़िर वही फुरसत के रात दिन। फ़िल्म-मौसम, संगीतकार-मदन मोहन (फोटो: यूट्यूब)

गुलज़ार साहब का लिखने का अंदाज़ अलग है ये भी समझते समझते समझ में आया। उसके बाद से तो उनकी लिखाई के ज़रिये उनसे एक रिश्ता बन गया। जब पता चला की वो भोपाल किसी कार्यक्रम के सिलसिले में आये हुये हैं तो मैंने उनके होटल के बारे में पूछताछ कर फ़ोन लगा दिया। थोड़ी देर में उनकी वही भारी सी आवाज़ लाइन पर सुनाई दी।

पहले तो विश्वास नहीं हुआ। लेक़िन उन्होंने ऐसे बात करनी शुरू की जैसे हमारी पुरानी पहचान हो। मैं नया नया पत्रकार ही था। बहरहाल उन्होंने थोड़ी देर बात करने के बाद होटल आने का न्योता दिया। मेरा होटल जाना तो नहीं हुआ लेक़िन गुलज़ार साहब से मायानगरी में फ़िर मुलाक़ात हो गयी। इस बार वो अपनी एक किताब के विमोचन के लिये मुम्बई के चर्चगेट इलाके में स्थित ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर में आये थे।

मैं ऑफिस से अपने पुराने सहयोगी समोद को साथ ले गया था। समोद वैसे तो बहुत बात करते हैं लेकिन ऐसी कोई शख्सियत सामने आ जाये तो वो बस सुनने का काम करते हैं। समोद ने जल्दी से उनकी एक किताब खरीदी और उसपर उनका ऑटोग्राफ़ भी लिया। समोद के साथ और भी कई प्रोग्राम में जाने को मिला। एक बार अमोल पालेकर जी से मिलना हुआ। समोद को भी कुछ पूछने की इच्छा हुई। लेकिन बस वो उस फिल्म का नाम भूल गये जिससे संबंधित प्रश्न था। उन्होंने ने मेरी तरफ देखा लेकिन मुझे जितने नाम याद थे बोल दिये। लेकिन वो फ़िल्म कोई और थी। अब ये याद नहीं की वो अमोल पालेकर साहब की ही फ़िल्म थी या कोई और लेकिन वो कुछ मिनट पालेकर साहब और मैं दोनों सोचते रहे समोद का सवाल क्या था।

ख़ैर, उस दिन गुलज़ार साहब से लंबी तो नहीं लेक़िन अच्छी बातचीत हुई। बातों बातों में उन्होंने बोला आओ कभी फुरसत में घर पर। बाद में और भी कई मौके आये जहाँ गुलज़ार साहब के करीबी निर्देशक के साथ मिलने का प्रोग्राम बनते बनते रह गया। मजरूह के बाद अगर कोई शायर पसंद आया तो वो थे गुलज़ार साहब। दोनों का लिखने का अंदाज़ बहुत अलग है लेक़िन क़माल का है।

मेरा कुछ सामान के बारे में आर डी बर्मन ने क्या कहा था वो कहानी सबने सुनी ही होगी। श्रीमतीजी के भाई एक बार मेरे साथ फँस गये। उनकी संगीत की पसंद कुछ दूसरी तरह की है। टीवी पर गुलज़ार हिट्स आ रहे थे। मैं बड़ी तन्मयता के साथ गाने को देख रहा था और आशा भोंसले जी के इसी गीत का आनंद ले रहा था। मेरा कुछ सामान आधा ही हुआ था की उन्होंने मुझसे पूछा ये सामान वापस क्यों नहीं कर देता। उसके बाद से जब उन्हें पता चला तो अब बस चुपचाप देख लेते हैं बिना किसी विशेष टिप्पणी के।

काम नहीं है वर्ना यहाँ, आपकी दुआ से बाकी सब ठीक ठाक है

मैं जब लिखने बैठता हूँ तो कोई सेट एजेंडा लेकर नहीं चलता। उस दिन जो भी पढ़ा, देखा, सुना उसका निचोड़ होता है और उसमें से कोई कहानी निकल जाती है। पिछले तीन हफ्तों से कुछ ऐसा देखा, पढ़ा, सुना की बहुत लिखने की इच्छा होते हुये भी एक शब्द नहीं लिख पाया। कई दिन इसी में निकल गये। आज तीन ड्राफ्ट को लिखा फ़िर कचरे में डाल दिया। ये एक और प्रयास है। देखें किधर ले जाता है।

अब ये बात बहुत पुरानी हो चुकी है। वैसे हुये कुछ दस दिन ही हैं लेकिन जिस रफ़्तार से समय निकलता है लगता है बहुत लंबा समय हो गया है। कबीर सिंह के निर्देशक संदीप रेड्डी वांगा का एक इंटरव्यू जिसमें उन्होंने उनके हिसाब से प्यार क्या होता है ये बताया। बस लोग तो जैसे इस फ़िराक़ में थे की कैसे उन पर हमला बोला जाये। संदीप से मैं सहमत या असहमत हूँ मुद्दा ये नहीं है। क्या संदीप को अपने हिसाब से कुछ कहने का अधिकार है? अगर उनके हिसाब से लड़का या लड़की एक दूसरे पर अधिकार रखते हैं तो उन्हें उसकी अभीव्यक्ति की भी छूट मिलनी चाहिये। अगर आप उनसे सहमत नहीं है तो आप अपने पैसे उनकी फ़िल्म पर मत ख़र्च करिये। अपने जानने पहचानने वालों को भी अपने तर्कों से सहमत करिये की वो उनकी फ़िल्म न देखें।

आपके हिसाब से जो प्यार की अभिव्यक्ति हो वो मेरे लिये शायद एक अपमानजनक कृत्य हो। या जो मेरा अभीव्यक्त करने का तरीका हो उसे देख आप हँसने लगे। तो क्या मेरा तरीका ग़लत है? क्या मुझे आपके हिसाब से या आपको मेरे हिसाब से अपने सभी कार्य करने चाहिये?

हम लोग अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात तो करते हैं लेकिन किसी दूसरे को ऐसा करता देख उससे सवाल पूछना शुरू कर देते हैं। अंग्रेज़ी में एक कहावत है – The right to be right belongs to everyone. लेकिन हम संदीप को ये अधिकार नहीं दे रहे क्योंकि उनकी सोच अलग है।

अब चूँकि सभी के पास अपने विचार व्यक्त करने के लिये अलग अलग प्लेटफार्म हैं तो कोई मौका भी नहीं छोड़ता। अपने आसपास ही देखिये। व्हाट्सएप, फ़ेसबुक और ट्विटर के पहले भी लोग राय रखते थे लेक़िन व्यक्त करने का ज़रिया सीमित था। आपके आसपास के कुछ लोग जानते थे आपके विचार। आज तो न्यूयॉर्क में प्रियंका चोपड़ा के कपड़ों के बारे में गौहरगंज के सोनू लाल भी राय रखते हैं और उसे इन्हीं किसी प्लेटफार्म पर शेयर भी करते हैं।

कभी मुझे वादविवाद प्रतियोगिता में भाग लेने में बहुत अच्छा लगता था। दूसरों के विचार सुन कर कुछ नया तर्क सीखने को मिलता। छठवीं कक्षा में रामधारीसिंह दिनकर की कविता कलम या तलवार से प्रेरित वादविवाद में मैंने जब तलवार का पक्ष लिया था तब शायद ये नहीं पता था की एक दिन पाला बदल कर में क़लम की हिमायत करूँगा। लेकिन आज ये जो बेतुकी बहस चलती है उसका हिस्सा बनने से परहेज़ है। वादविवाद के चलते एक चीज़ समझ में आई की तर्क का अपना महत्व है। आसमां से चाँद तोड़ लाने का वादा तो हर आशिक़ करता है।

https://youtu.be/NykVp7qG_Ss

भीड़ से भरे रेलवे स्टेशन पर रोमांस?

पापा हमेशा से यह कहते रहे हैं की जो भी काम करना है उसे उसी समय कर दो। बाद के लिये छोड़ कर मत रखो। ये पढ़ाई से लेकर बिल भरने तक और अपनी ट्रैन या फ्लाइट पकड़ने के लिये भी लागू होता है। लेक़िन उस समय समझ में नहीं आता था तो सब काम ऐन वक्त के लिये छोड़ देते और आखिरी समय में बस किसी तरह से काम होना है। कुछ समय पहले वो मुम्बई आये थे तो उनको छोड़ने VT स्टेशन जाना था। लेकिन टैक्सी मिलने में थोड़ी देर हो गयी और बाकी काम ट्रैफिक जाम ने कर दिया। देरी होते देख उन्हें दादर से ट्रेन पकड़वाने का निर्णय लिया। किसी तरह से प्लेटफार्म पर पहुंच कर ट्रैन पकड़ी। तबसे वो समय का मार्जिन बढ़ा दिया है। अब पूरे दो घंटे पहले घर से निकल ही जाते हैं।

उस दिन जब मुझे वापस आना था तो मैंने भी भरपूर मार्जिन रख जल्दी स्टेशन पहुंच गया। लेकिन ट्रैन का कोई नामोनिशान नहीं। तो बस आसपास सबको देखते रहे। दरअसल रेलवे स्टेशन से बचपन से ऐसा लगाव रहा है और इससे बहुत सारी यादें जुड़ी हुई है। स्टेशन घर के नज़दीक था तो कई बार सुबह की सैर भी वहीं हो जाती। फ़िर लाने लेजाने का काम भी। नौकरी लगी तो ट्रैन से ही आना जाना होता। अगर ये कहूँ की रेलवे स्टेशन पर आपको साक्षात भारत दर्शन होते हैं तो कुछ गलत नहीं होगा। एसी, फर्स्ट क्लास से लेकर जन साधारण डिब्बे के यात्री सब साथ में खड़े रहते हैं। और उनके साथ उन्हें छोड़ने वाले। अभी भी पिताजी हम लोग कोई घर पहुंचने वाले हों तो स्टेशन लेने आ जाते हैं हम सभी के मना करने के बावजूद।

ख़ैर बात करनी थी स्टेशन के रोमांस की और कहाँ आपको लाने छोड़ने के काम में उलझा दिया। जब मेरी सगाई हुई तो कुछ समय के लिये पिताजी ने स्टेशन पर छोड़ने का काम बंद कर दिया। मामाजी ने उन्हें स्टेशन के बाहर तक ही छोड़ने की समझाइश भी दी और कारण भी बताया। कारण वही जो आप सोच रहे हैं। भावी श्रीमती जी अपनी सखी के साथ मुझे स्टेशन छोड़ने आती और हमे थोड़ा साथ में समय बिताने को मिलता। सगाई के ठीक दूसरे दिन श्रीमतीजी को स्टेशन बुला लिया छोटे भाई को छोड़ने के लिये। उन्हें ये पता नहीं था की दस लोगों की पूरी फौज उनको छोड़ने के लिये गयी हुई है। आज भी मुझसे पूछा जाता है की इतनी महत्वपूर्ण जानकारी उन्हें क्यों नहीं दी गयी।

एयरपोर्ट की अपेक्षा मुझे स्टेशन का प्लेटफार्म ज़्यादा रोमांटिक लगता है। एयरपोर्ट पर तो बस दरवाज़े तक का साथ रहता है। उसके बाद के ताम झाम वाले काम में रोमांस नहीं बचता। लेकिन स्टेशन पर ट्रैन की सीट पर बैठने तक आपका ये अफ़साना चलता रहता है।

जब कॉलेज में पढ़ रहे थे और उसके बाद भी जब नौकरी करनी शुरू करी तो सलिल और मैं अकसर हबीबगंज स्टेशन के प्लेटफार्म पर बैठकर घंटों बिता देते। बात करते हुए और आती जाती ट्रैनों को और उनसे उतरते यात्रियों को देखते समय का पता नहीं चलता था। अभी पिछले हफ़्ते भी जब उसी स्टेशन पर दो घंटे ट्रैन की राह देखी तो लगा कुछ नहीं बदला है लेकिन बहुत कुछ बदल गया था। अब सब बात से ज़्यादा मोबाइल फ़ोन में खोये हुये थे। ट्रैन आ जाये तो सीन वैसा ही होता है जैसा राजू श्रीवास्तव ने बताया था। सारी ज़रूरी बातें ठीक ट्रैन चलने के पहले। आप स्लीपर क्लास में हों तो बात करना आसान होता है। मगर एसी कोच में दरवाजे पर खड़े होकर सिर्फ निहारते रहने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते। नज़रों से पैग़ाम दे भी दीजिये और ले भी लीजिए। और मीठी यादों के साथ मुस्कुराते हुये स्टेशन से घर वापस।

एक दौर वो भी था, एक दौर ये भी है

इन दिनों फ़िल्म कबीर सिंह को लेकर बवाल मचा हुआ है। जहाँ कुछ लोगों को इसकी कहानी बहुत ही दकियानूसी, बहुत गलत लगती है वहीं कुछ लोग अपने आधार कार्ड पर ग़लत उम्र दिखाकर फ़िल्म देखने की कोशिश करते हुये पकड़े गये हैं। मतलब फ़िल्म की कमाई में कोई कमी नहीं है। मतलब ये की हमारी जनता, जिसमें महिला वर्ग भी शामिल है, को इन सबसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। कबीर सिंह के बाद आई एक और अच्छी फ़िल्म आर्टिकल 15 चार दिन में अपना दम तोड़ चुकी है। लोगों ने अपनी पसंद साफ साफ बता दी है।

मैंने अभी तक कबीर सिंह देखी नहीं है क्योंकि मैंने इसकी ओरिजनल अर्जुन रेड्डी देखी है और मुझे यही डर है कि मैं दोनों फिल्मों की तुलना करने में ही अपना समय न बिता दूं। लेक़िन इस पोस्ट को लिख़ने के पीछे न तो क्यों कबीर सिंह महान है और बाकी सब बक़वास और न ही कुछ और। कबीर सिंह दरअसल हमारी हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में आये बदलाव को दर्शाता है। इसका पहला नमूना है इसका पोस्टर।

बरसों पहले करिश्मा कपूर और गोविंदा की फ़िल्म आयी थी खुद्दार। उसमे एक गाना था जिसके बोल थे सेक्सी सेक्सी मुझे लोग बोलें। इसको लेकर बहुत हंगामा हुआ और अंततः बोल सेक्सी से बेबी हुये और तब जाके फ़िल्म रिलीज़ हो पाई। आमिर ख़ान की सीक्रेट सुपरस्टार में भी एक गाना था मैं सेक्सी बलिये और ये एक पारिवारिक फ़िल्म थी। कहने का मतलब है अब बहुत सी ऐसी बातें जो आज से 15-20 साल पहले आपत्तिजनक लगती थीं आज वो सब मान्य हैं। चाहे वो इस तरह का किस करने वाला पोस्टर ही क्यों न हो। फ़िल्म अगर एडल्ट है तो क्या, फ़िल्म का पोस्टर सभी अखबारों में छपा और बच्चे बूढ़े सभी ने देखा भी। और शायद यही देखकर लोग फ़िल्म देखने भी पहुँचे हों इससे इनकार नहीं किया जा सकता। लेक़िन फ़िल्म भी लोगों को पसंद आई होगी नहीं तो सनी लियोनी आज हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में सबसे ज़्यादा कमा रही होतीं।

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एडल्ट फ़िल्म देखने का मज़ा ही कुछ और होता है। वो दोगुना हो जाता है जब आप देखने के लिये योग्य नहीं हों। जिन दिनों राजकपूर की सत्यम शिवम सुंदरम आयी तो घर के बड़ों ने उसे देखने का प्लान बनाया। दादाजी जो सभी फिल्में साथ में देखते थे, उनसे कहा गया कि ये फ़िल्म आपके देखने की नहीं है। अब ये सबके लिये थोड़ी परेशानी वाली बात थी कि पिताजी के साथ शशि कपूर और ज़ीनत अमान के उपर फिल्माये गये कैसे देखे जा सकते हैं। आजकल तो लगभग सभी फिल्मों में ऐसे सीन रहते हैं। कबीर सिंह में भी हैं लेक़िन ये एक कारण फ़िल्म को 200 करोड़ की कमाई नहीं करा सकता।

लेकिन मुझे न तो पद्मावत और न ही कबीर सिंह का विरोध समझ आता है। अच्छी बात है कि जो विरोध कर रहे हैं उन्हें इसमें जो किस सीन हैं उससे कोई परेशानी नहीं है। बस फ़िल्म की कहानी बहुत कुछ ग़लत दिखा जाती है। प्रीति जैसी लड़कियाँ असल जिंदगी में नहीं होती हैं। ये एक फ़िल्म है। आपके मनोरंजन के लिये है। पसंद आये तो देख आयें, नहीं तो घर पर रहें। जैसे उस रात मेरे दादाजी ने माँ को घर पर छोड़ फ़िल्म देखने की अपनी इच्छा पूरी करी।

आओ मीलों चलें, जाना कहाँ न हो पता

हमारे जमाने में साइकिल तीन चरणों में सीखी जाती थी , पहला चरण कैंची और दूसरा चरण डंडा तीसरा चरण गद्दी……..
तब साइकिल चलाना इतना आसान नहीं था क्योंकि तब घर में साइकिल बस पापा या चाचा चलाया करते थे.

तब साइकिल की ऊंचाई 24 इंच हुआ करती थी जो खड़े होने पर हमारे कंधे के बराबर आती थी ऐसी साइकिल से गद्दी चलाना मुनासिब नहीं होता था।

\”कैंची\” वो कला होती थी जहां हम साइकिल के फ़्रेम में बने त्रिकोण के बीच घुस कर दोनो पैरों को दोनो पैडल पर रख कर चलाते थे।

और जब हम ऐसे चलाते थे तो अपना सीना तान कर टेढ़ा होकर हैंडिल के पीछे से चेहरा बाहर निकाल लेते थे, और \”क्लींङ क्लींङ\” करके घंटी इसलिए बजाते थे ताकी लोग बाग़ देख सकें की लड़का साईकिल दौड़ा रहा है।

आज की पीढ़ी इस \”एडवेंचर\” से मरहूम है उन्हे नही पता की आठ दस साल की उमर में 24 इंच की साइकिल चलाना \”जहाज\” उड़ाने जैसा होता था।

हमने ना जाने कितने दफे अपने घुटने और मुंह तोड़वाए है और गज़ब की बात ये है कि तब दर्द भी नही होता था, गिरने के बाद चारो तरफ देख कर चुपचाप खड़े हो जाते थे अपना हाफ कच्छा पोंछते हुए।

अब तकनीकी ने बहुत तरक्क़ी कर ली है पांच साल के होते ही बच्चे साइकिल चलाने लगते हैं वो भी बिना गिरे। दो दो फिट की साइकिल आ गयी है, और अमीरों के बच्चे तो अब सीधे गाड़ी चलाते हैं छोटी छोटी बाइक उपलब्ध हैं बाज़ार में।

मगर आज के बच्चे कभी नहीं समझ पाएंगे कि उस छोटी सी उम्र में बड़ी साइकिल पर संतुलन बनाना जीवन की पहली सीख होती थी! \”जिम्मेदारियों\” की पहली कड़ी होती थी जहां आपको यह जिम्मेदारी दे दी जाती थी कि अब आप गेहूं पिसाने लायक हो गये हैं।

इधर से चक्की तक साइकिल ढुगराते हुए जाइए और उधर से कैंची चलाते हुए घर वापस आइए !

और यकीन मानिए इस जिम्मेदारी को निभाने में खुशियां भी बड़ी गजब की होती थी।

और ये भी सच है की हमारे बाद \”कैंची\” प्रथा विलुप्त हो गयी।

हम लोग की दुनिया की आखिरी पीढ़ी हैं जिसने साइकिल चलाना तीन चरणों में सीखा !
पहला चरण कैंची
दूसरा चरण डंडा
तीसरा चरण गद्दी

पिछले दिनों जब व्हाट्सएप पर ये संदेश मिला तो पढ़ कर यादों के सफर पर निकल पड़े और याद गयी अपनी पहली साईकल। लेक़िन इसपर लिखने का कोई इरादा नहीं था। लेकिन कल बरसों बाद साईकल चलायी तो बस…

भोपाल में सरकारी घर में नया गेट लग रहा था। सरकार ने अपने हिसाब से साइड से एक छोटा सा गेट लगा दिया था। उससे एक स्कूटर आराम से निकल सकता था। लेकिन मैंने उसे शुरुआत से ही बंद देखा था। हमने सामने के तरफ से गेट बनाया था जिससे कार अंदर रखी जा सके।

ये जो दरवाज़ा था वो लकड़ी का हुआ करता था। लेकिन बारिश शुरू होते वो लकड़ी फूलने लगती और गेट झूलने लगता। इससे जानवर आने का हमेशा अंदेशा रहता। इसको ख़त्म करने के लिये ये निर्णय लिया की लोहे का दरवाज़ा लगवाया जाये। डिज़ाइन का ज़िम्मा मैंने ले लिया। चूंकि डिज़ाइन में रुचि थी इसलिये लगा कोई बड़ा काम नहीं है। डिज़ाइन दरअसल कुछ थी ही नहीं। चारों तरफ से पाइप था बीच में जाली और ऊपर एवं बीच में क्रमशः बंद करने और ताला लगाने की सुविधा।

नया गेट बन गया और उस पर पेंट भी कर दिया। लेकिन काफ़ी सारा पेंट बच भी गया। अब उस बचे पेंट का सदुपयोग कैसे हो? मैं उन दिनों जो कभी पिताजी की साईकल रही थी, उससे स्कूल जाता था। उसका पेंट वगैरह काफ़ी खराब था। बस बचे हुए पेंट से साईकल सफेद रंग से रंग दी गयी। उस समय साईकल मुख्यतः काले रंग वाली ही होती थी। ऐसे में मेरी सफ़ेद साईकल बहुत ही अजीब लगती थी। घर पर कुछ पुरानी टेबल थीं तो वही पेंट उनपर भी कर दिया। आज भी हमलोग इस घटना को याद करके हंसते हैं।

आजकल जैसे रंगबिरंगी साईकल उस समय मिलना शुरू ही हुई थीं और काफी महँगी थीं। कुछ समय बाद मेरी नई साईकल आयी। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं। मुझे एक नार्मल साईकल नहीं मिली थी बल्कि पूरे भोपाल में कहीं भी जाने का ज़रिया मिला था।

नवी मुम्बई में नई सेवा शुरू हुई है जिसमें आठ-दस जगहों पर सायकिल खड़ी रहती हैं। आप एप्प के ज़रिये किराया भरिये और निकल जाइये घूमने। सच में स्कूटर, कार से भरी सड़कों पर सायकिल चलाने का मज़ा ही कुछ और है। अपने यहाँ साईकल चलाने के लिये प्रोत्साहित नहीं करते लेकिन विदेशों में खास ट्रैक रहता है। अपने यहाँ भी हैं लेकिन उसमें मोटरसाइकिल चलते देखने को मिलती है। और फ़िर आप उसे पार्क कहाँ करें?

आपको मौका मिले तो ज़रूर चलायें। कुछ अलग ही मज़ा है सायकिल चलाने का। एक अजीब सी आज़ादी, आसपास देखने का समय और ये गाना गुनगुनाते हुये आनंद लें।