यादों के मौसम 3

इससे पहले की कड़ी यादों के मौसम 2

जय और सुधांशु शोले के जय-वीरू तो नहीं थे लेकिन दोनों कॉलेज में अक्सर साथ रहते थे। सुधांशु होस्टल में रहता था तो कभी कभार जय उसको घर पर खाने के लिये ले जाता था। सुधांशु जब घर जाता तो जय के लिये अलग से घर की बनी मिठाई का डिब्बा लेकर आता और सबसे बचाते हुये उसे दे देता। कृति दोनों के बीच एक कड़ी थी।

कृति और सुधांशु ने एक ही कॉलेज से ग्रेजुएशन किया था लेकिन कोई ख़ास जान पहचान नहीं थी। वो तो जब पोस्ट ग्रेजुएशन में इनकी दस लोगों की क्लास बनी तब सब का एक दूसरे को ज़्यादा जानना हुआ। जय को कृति शुरू से ही पसंद थी। वो ज़्यादा बात नहीं करती थी, ऐसा उसको लगा था। लेकिन एक दिन कैंटीन जब वो बाकी लोगों के साथ बैठा था तब उसको अपनी गलतफहमी समझ आयी। बहुत ज़्यादा खूबसूरत भी नहीं थी लेकिन उसे ओढ़ने पहनने का सलीक़ा था। जय को उसके बाल बांधने का तरीका बहुत पसंद था।

उस दिन ठंड कुछ ज़्यादा ही थी। जय का मन नहीं था कॉलेज जाने का तो उसने सुबह से ही आलस ओढ़ लिया था। माँ को भी अच्छा लगा की बेटा आज घर पर है नहीं तो सारा सारा दिन गायब रहता और शाम को पढ़ाई में व्यस्त। उन्होंने उसके पसंद के आलू के परांठे बनाये नाश्ते में और दोनों माँ बेटे ने सर्दी की उस सुबह आराम से नाश्ता किया। जय के पिताजी बैंक में मैनेजर थे और उसकी छोटी बहन प्रीति इस साल बारहवीं की परीक्षा देने वाली थी। नाश्ते के बाद रजाई ओढ़ कर जय कब सो गया उसे पता ही नहीं चला।

प्रीति ने स्कूल से लौटकर जय को जगाया तब उसकी आंख खुली। प्रीति को भी जय को घर पर देखकर आश्चर्य हुआ। उसने माँ से भाई की तबीयत पूछने के बाद जय को उठाना शुरू किया। जैसे तैसे जय ने बिस्तर छोड़ा और ड्राइंग रूम में सोफे पर जाकर बैठ गया।

\”भैया आज तुम घर पर हो तो क्यों न मार्केट चला जाये। मुझे कुछ किताबें भी देखनी हैं और फ़िर विजय की चाट भी…\”, प्रीति ने जय से बहुत प्यार से कहा। जय की आज घर से कहीं बाहर निकलने की बिल्कुल इच्छा नहीं थी।

\”तुम कविता के साथ क्यों नहीं चली गईं\”, जय ने ग्लास में पानी निकालते हुए पूछा। \”उसकी गाड़ी बनने गयी हुई है नहीं तो मेरी इतनी हिम्मत की आपको परेशान करूँ,\” प्रीति ने भाई की टांग खींचते हुये कहा।

वैसे प्रीति अपनी पढ़ाई के संबंध में जय से ज़रूर सलाह लेती। जय भी अपनी बहन को आगे पढ़ने के लिये प्रोत्साहित करता। माता-पिता की भी कोई बंदिश नहीं थी प्रीति पर।

जय को मार्किट जाने से बचने का कोई उपाय नज़र नहीं आ रहा था। लेकिन तैयार होते हुये उसे बड़ा अजीब सा लग रहा था। घर के गेट पर पहुँचना जय की लिये मुश्किल हो गया था। कदम साथ नहीं दे रहे थे। पीछे से आ रही प्रीति ने उसका हाथ पकड़ लिया नहीं तो क्यारी में लगी ईंट से जय का सिर टकरा जाता। जय प्रीति की गोद में लगभग बेहोश सा पड़ा था।

यादों के मौसम 2

यादों के मौसम – 1

जय और सुधांशु कॉलेज की कैंटीन में चाय की चुस्कियां ले रहे थे तभी वहाँ कृति आ गयी। \”सरकार यहाँ चाय का लुत्फ़ उठा रहे हैं और इधर हम उन्हें ढूंढ के परेशान हुए जा रहे है,\” उसने सुधांशु की तरफ़ देखते हुये कहा। जय को मालूम था की ये ताना उसपर कसा जा रहा है इसलिये वो सर झुकाये सब सुन रहा था। सुधांशु के पास बचने का कोई उपाय नहीं था सो उसने कृति को भी चाय पीने का न्योता दे दिया।

जय उठ कर खड़ा हुआ जाने के लिये तो कृति ने हाँथ में पकड़ी किताबों को देखते हुये कहा, \”कहाँ तुम किताबों के चक्कर में फंसे हुए हो। ज़रा ज़िन्दगी के बाकी मज़े भी लो।\”

\”उसी की तो तैयारी कर रहा हूँ। थोड़ा सा त्याग अभी और बाद में मज़े,\” जय बोला।

\”पर तब उम्र निकल जाएगी,\” सुधांशु ने कहा।

\”भाई मज़े लेने की कोई उम्र नहीं होती,\” जय ने चलते हुए कहा।

सुधांशु हाथ जोड़ते हुए बोला \’बाबा की जय हो\’ और दोनों कृति को वहीं छोड बात करते हुए कॉलेज की तरफ चल पड़े। जय ने एक बार मुड़कर कृति को देखा जो बाकी लोगों से बात कर रही थी और यूँ ही मुस्कुरा उठा। उसे ध्यान आया की कृति से ये पूछना तो रह गया की वो उसे क्यों ढूंढ रही थी। लेकिन अब फ़िर से कौन डाँट खाये। आज का कोटा हो गया था।

जय अपने आप को बड़ा प्रैक्टिकल इन्सान मानता था। उसे इमोशन फ़िज़ूल तो नहीं लेकिन फालतू लगते थे। उसका मानना था भावनाओं में पड़ कर इन्सान बहुत कुछ गवां बैठता है। लेकिन कृति के लिये उसके दिल में एक ख़ास इमोशन था। वो दोस्ती थी, प्यार था या वो उसकी इज़्ज़त करता था ये समझना उसके लिये थोड़ा मुश्किल हो रहा था।

जय इन्हीं ख़यालों में खोया हुआ था की स्मृति की आवाज़ उसे वापस वर्तमान में ले आयी। वो उसे किसी से मिलवा रही थी। डॉ रायज़ादा के पुराने सहयोगी थे जिनके साथ वो रोज़ सुबह सैर के लिये जाते थे। उस ग्रुप के बाकी सदस्यों से भी जय, स्मृति, सुधांशु और कृति मिले। इस मिलने मिलाने से जय थोड़ा परेशान हो गया था। उसने सुधांशु को ढूंढा और उससे पूछा की उसके पास सिगरेट है क्या। दोनों ने किशन काका से छत की चाबी ली और चल दिये।

जय की तरफ़ सिगरेट बढ़ाते हुये सुधांशु ने पूछा, \”कैसे हो जय?\”। जबसे वो जयपुर आया था तबसे वो और सुधांशु साथ में थे लेकिन पूरे समय डॉ रायज़ादा के अंतिम संस्कार की तैयारी में लगे रहे तो दोनों को समय ही नहीं मिला एक दूसरे से बात करने का।

इस बात को दस बरस हो गये थे लेकिन आज भी जब वो सुधांशु को देखता तो जय को याद आती कृति और सुधांशु की नीचे ड्राइंग रूम में लगी शादी वाली फ़ोटो और कृति का वो फ़ोन कॉल। \”जय मैं शादी कर रही हूँ\”। उसको टूटे फूटे शब्दों में बधाई देते हुये जय ने ये पूछा ही नहीं लड़का कौन है।

यादों के मौसम

\’राम नाम सत्य है\’ बोलते हुये जब डॉ रायज़ादा के पार्थिव शरीर को ले जाने लगे तो जय भी अंतिम संस्कार की रीतियों में शामिल होने के लिये अपने दिवंगत ससुर को कन्धा देेने के लिये आगे बढ़ा। अचानक एक हाँथ उसके कंधे पे आ रुका।

“घर के दामाद कन्धा नहीं देते”, जय ने पलटकर देखा तो कृति का पति और उसका पुराना दोस्त सुधांशु था। जय ने कुछ कहा नहीं और सुधांशु के बगल खड़ा हो गया। इतनी भीड़ में उसने कृति को देखा ही नहीं। कितने साल हो गये उसे देखे हुए। लेकिन लगता जैसे कल की ही बात हो जब उसने पहली बार डॉ रायज़ादा से उसे मिलाया था।

अंतिम संस्कार का काम संपन्न कर सब शाम को जब पाठ के लिए इकट्ठा हुए तो उसकी नज़र कृति पर गयी। बिलकुल वैसी ही दिखती है। थोडा वज़न बढ़ गया है लेकिन इस दुःख के मौके पर भी उसकी आँखें मुस्कुरा रही थीं। उसने भी जय को देखा और नमस्ते किया। जवाब में जय सिर्फ अपने हाथ मिला ही पाया था और यादों का कारवां चल पड़ा।

जय अपने आप को दस साल पीछे जाने से रोक नहीं पाया।

कृति ने उसे मेसेज किया था अर्जेंट मिलना है। वो घर से कॉलेज के लिए निकला ही था। अब कॉलेज में तो मिलना ही था। ऐसा क्या अर्जेंट था ये सोचते हुए वो कॉलेज पहुँच गया पर कृति का कहीं नामोनिशान नहीं था। अपने ग्रुप के बाकी लोगों से पूछने पर भी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। उसकी खीज बढती जा रही थी की तभी मुस्कुराती हुयी कृति उसे आवाज़ लगाते हुए उसके पीछे आ रही थी। उसे देख वो अपनी सारी झुन्झूलाहाट भूल गया।

\”कहाँ थीं अब तक? पहले तो कहती हो अर्जेंट मिलना है और फिर गायब। लाइब्रेरी जाना था किताबें वापस करना है नहीं तो फाइन लगेगा\”, जय बोलता जा रहा था । कृति ने मानो सब अनसुना करते हुए अपने बैग से एक पेपर कटिंग निकाली। एक नौकरी का विज्ञापन था। जय के हाथ में देते हुए बोली, \”जब बोलना खत्म हो जाये तो पढ़ लेना\”।

जय चुप होकर कटिंग को पढ़ने लगा। एक रिसर्च अस्सिस्टेंट की पोस्ट थी। पैसा ठीक था। उसने कृति को धन्यवाद कहा। कृति ने मेंशन नॉट बोलते हुए हिदायत दी जल्दी भेज देना। \’ओके मैडम\’, कहते हुए जय लाइब्रेरी की ओर चल पड़ा।

लाइब्रेरी जाते हुये उसने सोचा आज कृति से अपने दिल की बात बोल ही देनी थी। लेकिन उसे डर था की अगर कृति ने मना कर दिया तो। वैसे तो वो उसका बहुत ख़याल रखती है और हमेशा आगे बढ़ने के लिये कहती है लेकिन क्या वो जय को अपने जीवन साथी के रूप में पसंद करती है? ये सवाल जय कई बार अपने आप से पूछ चुका है लेकिन इसका जवाब सिर्फ़ कृति के पास था।

इन्हीं विचारों में उलझे हुये जय को सुधांशु की आवाज़ ही सुनाई नहीं दी। वो तो जब पास आकर उसने चिल्लाकर कहा \’जय हो\’ तब जय का ध्यान गया।

\”लगता है किसी लड़की के ख़यालों में खोये हुये थे,\” सुधांशु ने कहा तो जय इधर उधर देखने लगा। \”जैसे हमें नहीं पता वो कौन है\”, सुधांशु ने कहा तो जय थोड़ा झेंप गया और बोलने लगा, \”यार सुबह सुबह क्यूँ मेरे पीछे पड़े हो\”। पीछा छुड़ाने के लिये बोला चाय पियोगे?

\”आपकी चाय\”, ये शब्द जय को वर्तमान में ले आये थे। सामने उसकी पत्नी स्मृति उसकी काली चाय का प्याला लिये खड़ी थी। (क्रमशः)

रुक जाना नहीं तू कहीं हार के, काँटों पे चलके मिलेंगे साये बहार के

इस कहानी का भी वही अंत न जो कि पिछली कई कहानियों का हुआ है, इसलिये समय मिलते ही लिखना शुरू कर दिया। मुम्बई में या बाकी बड़े शहरों में गाड़ी चलाना अपने आप में एक अवार्ड जीतने जैसा लगता है। नवी मुम्बई में जहां मैं रहता हूँ वहाँ से उल्टे हाथ पर मुम्बई जाने की सड़क है और सीधे हाथ वाले मोड़ से आप मुम्बई से बाहर निकल सकते हैं। मेरी कोशिश यही रहती है की सीधे हाथ की ओर गाड़ी मुड़े लेकिन काम के चलते उल्टे हाथ पर ज़्यादा जाना होता है। अच्छी टैक्सी सर्विस के चलते उन्हीं की सेवा लेते हैं। और ऐसे ही कल मेरी मुलाकात हुई प्रदीप से।

जब भी में टैक्सी में बैठता हूँ तो अक्सर चालक से बात करता हूँ क्योंकि उनके पास कहानियां होती हैं। दिनभर न जाने कितने अनजान लोग उनकी गाड़ी में बैठते होंगे और सबकी छोटी बड़ी कोई तो कहानी होती होगी। लेकिन मुझे सुनाने के लिये प्रदीप के पास दूसरों के अलावा अपनी भी कहानी थी। पुणे से माता-पिता के देहांत के बाद मुम्बई आये प्रदीप ने गाड़ी साफ करने से अपना सफर शुरू किया। फ़िर गाड़ी चलाना सीखी और टैक्सी चलाना शुरू किया। इसी दौरान उनका संपर्क एक चैनल के बड़े अधिकारी से हुआ और प्रदीप उनके साथ काम करते हुये नई ऊंचाइयों को छुआ। अपनी कई गाड़ियां भी खरीदीं लेकिन कुछ ऐसा हुआ की सब छोड़ कर उन्हें फ़िर से एक नई शुरुआत करनी पड़ी। जीवन एक गीत है तो कोरस है अनुभव

इस बार गाड़ी छोटी थी लेकिन तमन्ना कुछ बड़ा करने की थी। फ़िर से टैक्सी चलाना शुरू किया और अब वो एक सात सीट वाली गाड़ी चलाते हैं। बातों ही बातों में प्रदीप ने बताया की अगर उन्हें लॉटरी लग जाये तो वो ज़मीन खरीद कर उसमें फुटपाथ पर रहनेवालों के लिये घर बनवायेंगे और पास ही एक छोटी सी फैक्टरी भी शुरू करेंगे जिससे की ये लोग पैसा भी कमा सकें। सब अपना कुछ छोटा मोटा काम भी करें। इसके लिये वो पैसे भी बचा रहें हैं और उम्मीद है मुम्बई के आसपास उन्हें ज़मीन मिल जायेगी। दूसरा काम जो प्रदीप करते हैं वो सिग्नल पर खड़े भीख मांगने वाले बच्चों को पैसा न देकर कुछ खाने के लिये देना जैसे बिस्किट या टॉफ़ी। प्रदीप को कभी कोई ज़रूरतमंद मिल जाता है तो वो उसको अपने कमरे में रहने खाने के लिये जगह भी देते हैं और ज़रूरत पड़ने पर पैसा भी। अपने इसी व्यवहार के चलते प्रदीप ने अभी शादी नहीं करी है और उनकी गर्लफ्रैंड का भी इस काम के लिये पूरा समर्थन प्राप्त है। जीवन सिर्फ सीखना और सिखाना है

प्रदीप जब ये सब बता रहे थे तो मैं सोचने लगा हम सब अपने ही स्तर पर अगर उनके जैसे ही कुछ करने लगें तो ये समाज कितना बेहतर बन सकता है। लेकिन हम सोचते ही रह जाते हैं और ये प्रदीप जैसे कुछ कर गुज़रने की चाह रखने वाले चुपचाप काम करते रहते हैं। शायद समाज अगर आज कुछ अच्छा है तो इसमें प्रदीप जैसे कईयों का योगदान होगा न कि मेरे जैसे कई जो बस सही वक्त का इंतजार ही करते रहते हैं।

तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी, हैरान हूँ मैं

कुछ दिनों पहले आलिया भट्ट का एक इंटरव्यू पढ़ा था जिसमें उन्होंने बोला था उन्हें इस बात की चिंता रहती है की लोग उन्हें किसी भी कारण से नापसंद न करें। मुझे ये बीमारी तो नहीं है लेकिन कई पोस्ट इसलिये आप तक नहीं पहुँच पाती क्योंकि लगता फलाँ व्यक्ति को बुरा लग जायेगा (ये इस उम्मीद के साथ की जिस शख़्स के बारे में लिखा है वो मेरी पोस्ट पढ़ेगा ही)। वैसे ऐसा एक भी बार नहीं हुआ है। हाँ बाकी लोगों ने ज़रूर इस बारे में कहा सिवाय उस व्यक्ति के। जैसा की आजकल का चलन है हम फेसबुक पर अभी भी मित्र हैं और उन्होंने मुझे व्हाट्सएप पर मैसेज भेजना भी बंद नहीं किया है। जब लिखना शुरू किया था तो कई लोगों को मेरी कहानी के किरदार पता थे। नहीं होते तो वो पता लगाने की कोशिश करते की कौन है।


जैसे इस पोस्ट की कहानी कुछ और ही चल रही थी लेकिन मैंने इसे बदल ही दिया। अपने घर से निकाले जाने का दुख जीवन में किसी को कभी न भोगना पड़े। मैंने भोगा है और आज उसी के इर्दगिर्द कहानी बुनी थी लेकिन समय रहते उसे बदल दिया। दरअसल इसका रिश्ता कश्मीर से निकाले गये उन परिवारों से है जो रातों रात अपनी जान बचाते हुये भारत के कई हिस्सों में पहुँचे। उनमें से एक परिवार भोपाल भी पहुँचा और उनकी बिटिया मेरी श्रीमती जी की कक्षा में ही पढ़ती थी। उसने अपनी कहानी उन्हें सुनाई थी और अभी जो कश्मीर में उठापटक हो रही है तो श्रीमती जी को उसकी याद आयी और उन्होंने मुझसे उस कश्मीरी लड़की की कहानी साझा करी।

मेरा कश्मीर जाना एक बार हुआ है। वैसे तो कश्मीर की खूबसूरती ही यात्रा को यादगार बनाने के लिये काफी है, मेरी यात्रा इसलिये कभी न भूलने वाली बन गयी क्योंकि हम भोपाल से कार से इस यात्रा पर निकल पड़े थे। उन दिनों कोई गूगल मैप नहीं था। बस रोड मैप और सड़क पर लगे साइनबोर्ड से इसको अंजाम दिया था। पिताजी ने बहुत गाड़ी चलाई है लेकिन हम दोनों को ही घाट पर गाड़ी चलाने का अनुभव नहीं था। आज जब उस यात्रा के रोमांच के बारे में सोचते हैं तो बस ये लगता है एक बार फिर से इसे दोहराया जाये।

आज कश्मीर से जो जुड़ाव है वो आमिर सलाटी की बदौलत है। आमिर खेल के ऊपर लिखते हैं और क़माल का लिखते हैं। हम बीच बीच में संपर्क में रहते हैं। वो मुझे कश्मीर बुलाते रहते हैं और लालच के लिये वो खूबसूरत वादियों की तस्वीरें, बर्फ़ से ढँकी अपनी गाड़ी और दालान की फ़ोटो भेजते रहते हैं। वो मुम्बई आये थे लेकिन मुम्बई की ये भागदौड़ और कश्मीर की वादियों में से किसकी जीत हुई ये जानना बहुत आसान है। देखें आमिर से फ़िर रूबरू कब मिलना होता है।

हर कोई चाहता है एक मुठ्ठी आसमान, हर कोई ढूँढता है एक मुट्ठी आसमान

ये एक बेमानी सी बहस है लेकिन ये उस समय की बात है जब शायद मुझे कला और कलाकारों की पहचान नहीं थी।परिवार में सबकी अपनी अपनी पसंद होती है और मुझे किशोर कुमार की आवाज़ मोहम्मद रफ़ी से ज़्यादा पसंद थी। तो इसको लेकर बहस छिड़ गई और दोनों पक्ष अपने अपने गायक के गानों की लिस्ट लेकर सुनाने लगे। दोनों ही गायक लाजवाब और उनके गाये हुये गीत भी। लेकिन मुझे किशोर कुमार ज़्यादा पसंद हैं और इसमें मैं कुछ श्रेय उन गीतकारों को भी देता हूँ क्योंकि गाने के बोल ही कहीं न कहीं आपको छू जाते हैं और आपके सिस्टम का एक हिस्सा बन जाते हैं। आज जब बहुत दिनों बाद लिखने का मन हुआ तो किशोर दा की याद आ गयी। आज उनका जन्मदिन है तो इससे अच्छी और क्या बात हो सकती से वापस लिखना शुरू करने के लिये।

मौसम प्यार का

कुछ गाने होते हैं जो आपको अपने साथ ले जाते हैं या यूं कहें की आप बह जाते हैं। ये उनमें से एक गाना है। आर डी बर्मन, मजरूह सुल्तानपुरी और किशोर कुमार ने पर्दे के पीछे से प्यार से भरे हुये ये गाने को पर्दे पर बख़ूबी से निभाया ऋषि कपूर और पूनम ढिल्लों ने। जब पिछले दिनों पूनम जी से एयरपोर्ट पर मुलाक़ात हुई तो ये गाना ही याद आ गया था।

मेरी भीगी भीगी सी

https://youtu.be/3JsbLjT-HPI

संजीव कुमार और जया भादुड़ी की ये फ़िल्म दूरदर्शन पर देखी थी। गाने की समझ बहुत बाद में आई। मजरूह सुल्तानपुरी साहब, आर डी बर्मन और किशोर दा।

आये तुम याद मुझे

कई यादें हैं इस गाने के साथ। आज भी रात में ये गाना सुन कर एक सुकून से मिलता है। फ़िल्म में अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी के बीच चल रही उधेड़बुन इस गाने में दिखती है। इसी फिल्म का बडी सूनी सूनी है भी किशोर कुमार का एक बेहतरीन गानों में से एक है।

मेरे महबूब क़यामत होगी

ये भी दूरदर्शन पर देखी फ़िल्म से याद है। एक बहुत ही उम्दा गाना जिसके बोल हैं आनंद बक्शी और संगीत है लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जी का

हर कोई चाहता है

https://youtu.be/G891E7LzCoQ

इस गाने के दो भाग हैं। एक खुशी वाला जिसमें ये जीवन का फ़लसफ़ा हल्के अंदाज़ में है और दूसरा थोड़ा संजीदा तरीके का है। दोनों के माने एक ही हैं बस कहने का अंदाज़ अलग है और क्या खूबसूरती से गाया है किशोर कुमार ने मदन मोहन की इस धुन को। बोल हैं

https://youtu.be/lIOhSl9CDsw

ज़िन्दगी आ रहा हूँ मैं

बहुत ही आशावादी गाना जिसके बोल लिखे हैं जावेद अख्तर साहब ने और संगीत है हृदिय्नाथ मंगेशकर जी का

ज़िन्दगी के सफ़र में

ज़िन्दगी का फलसफा जिसे लिखा आनंद बक्शी साहब ने और जिसे अमर बना दिया किशोर दा की आवाज़ नें

मुसाफ़िर हूँ यारों ना घर है ना ठिकाना

गुलज़ार साहब का लिखा गीत और एक बार फ़िर आर डी बर्मन और किशोर दा साथ में।

मुझे आज भी आश्चर्य होता है की किशोर कुमार मुम्बई एक हीरो बनने आये थे लेकिन वो गायक बन गये। अगर सच में उन्हें हीरो ही बनने का मौका मिलता जाता तो क्या हम इस आवाज़ से मेहरूम हो जाते। बिना किसी तालीम के उन्होंने ऐसे ऐसे गाने गाए हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलते जा रहे हैं। इसका उदाहरण आप स्पॉटीफाई के विज्ञापन में देख सकते हैं।