मेरी आदत है अक्सर मैं भूल जाता हूँ…

मैं अपनी नज़रें एक स्क्रीन से दूसरी और दूसरी से तीसरी की तरफ़ बारी बारी से दौड़ा रहा था। श्रीमती जी ने ऐसे ही पूछ लिया अपने किसी लिबास के बारे में। क्या मुझे याद है? अगर आप स्क्रीन पर ही उलझे रहे तो आपको नहीं समझ आयेगा की ये एक ट्रैप है।

अब अगर आप शादीशुदा हैं तो आपको दिख रहा होगा की श्रीमान जी ने कुछ ज़्यादा ही छूट ले ली है। एक तो स्क्रीन पर नज़रें हैं, मतलब ध्यान कहीं और है उसपर \’किसी लिबास\’ कह कर तो बस आगे का सारा मंज़र साफ दिख रहा है।

अब अगर ये कहूँगा की बीवियों को भी ऐसे जाल बिछाना बहुत अच्छे से आता है तो मुझे भी पड़ोसी देशों में शरणार्थी के लिये अर्ज़ी लगानी पड़े। लेकिन ये एक ऐसा खेल है जिसमें आप ने भाग लिया यही आपका बड़प्पन है। इस खेल का विजेता तो उस समय ही तय हो गया था जब आपने बाकायदा कार्ड छपवाकर सबको अपनी आज़ादी के दिन खत्म होने की बड़ी पार्टी दी थी।

इस खेल के नियम भी बिल्कुल साफ हैं। विजेता कभी भी बदलेगा नहीं। कुछ दिन श्रीमती जी सही होंगी और बाकी दिन आप ग़लत। एक बार फ़िर से पढ़ लें। श्रीमती जी कभी ग़लत नहीं होती हैं, कभी भी नहीं। हो सकता है वो हमेशा ही सही हों। सब आपकी किस्मत है, आज़माते रहिये।

अब अगर आपने ऊपर पूछे गये सवाल \’क्या तुम्हें याद है\’ का जवाब सही दिया जैसे डिनो मोरिया ने बिपाशा बसु को दिया था, तो दूसरे सवाल का इंतजार करें। जैसे केबीसी में दसवें सवाल के बाद जैकपॉट प्रश्न खुल जाता है, ठीक वैसे ही आपके ऊपर प्रश्नों की बौछार शुरू हो जायेगी। अगर आपको याद नहीं होता तो बात आगे नहीं बढ़ती। मतलब बढ़ती लेकिन उस दिशा में नहीं जिधर आपका सही जवाब लेकर जायेगा।

बात शुरू एक बहुत ही सादे से प्रश्न से हुई थी। लेकिन दिन चढ़ते चढ़ते ये सबको अपने लपटे में ले लेती है। आप को मालूम है अंत में क्या होने वाला है लेक़िन पूरे जोश खरोश से डटे रहते हैं। कभी घरवालों का तो कभी अपनी ऑफिस की कोई सहयोगी का और उस दिन चहलकदमी करते हुये जो नये पड़ोसी आये थे उनकी श्रीमती से मुस्कुराकर बात करने का – सभी का बचाव करते हुये। लेकिन एक दो मिसाइल अपने ससुराल पक्ष पर दाग देने के बाद।

अगली बार क्या ये नहीं होगा? बिल्कुल होगा जनाब। हाँ इसमें थोड़े बहुत फेरबदल ज़रूर होंगे। वो कोई शायर कह भी गया है, किसी रंजिश को हवा दो, अभी में ज़िंदा हूँ।

https://youtu.be/YkEHvTuoEDU

नोट: ये कहानी या इसके पात्र बिल्कुल भी काल्पनिक नहीं है। ये सब अपने इर्दगिर्द होते घटनाक्रम का ही बयान है। इसमें लिखी घटना एक अलसायी सी दोपहर की \’सूचना के आदान प्रदान\’ प्रक्रिया का हिस्सा थी

चेहरे पे चेहरा लगा लो, अपनी सूरत छुपा लो

टीम मैनेजमेंट के बारे में मैंने जो भी कुछ सीखा या जिसका अनुसरण किया उसमें दो चीजों का बड़ा योगदान रहा। पहली तो अपने सभी पुराने बॉस और दूसरा उसमें से क्या था जो पालन करने योग्य नहीं था। इसके अलावा अपने आसपास – घर पर और बाहरी दुनिया में मिलने जुलने वालों से। चूँकि बाहर वालों से मिलने का समय असीमित नहीं होता था तो घर पर माता-पिता को देखकर काफी पहले से ये मैनेजमेंट की शिक्षा ग्रहण की जा रही थी।

एक अच्छे मैनेजर के लिये सबसे ज़रूरी चीज़ होती है संयम और दूसरी संवाद। जब शुरुआती दिनों में टीम की ज़िम्मेदारी मिली तो मुझमें दोनों ही की कमी थी। किसी और बात पर टीम के किसी सदस्य से नाराज़गी हो लेकिन गुस्सा निकलता काम पर। पीटीआई के मेरे सहयोगियों ने मेरा ये दौर बहुत अच्छे से झेला है। ख़ैर अपनी गलतियों से सीखा और कोशिश करी की टीम को सही मार्गदर्शन मिले।

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इसमें कितनी सफलता मिली ये तो नहीं बता सकता लेकिन हर बार ऐसे कुछ नमूने ज़रूर मिल गये जो फ़िर से सीखा गये की गुरुजी, अभी भी आपको बहुत कुछ सीखना बाकी है। नमूना इसलिये कह रहा हूँ की वो सैंपल पीस थे।

मेरी टीम के एक सदस्य थे। बहुत मेहनती और अच्छा काम करने वाले। एक दिन अचानक उन्होंने आकर त्यागपत्र देने की सुचना दी। बात करी, पता किया कि ऐसा क्या हुआ की उन्हें ये कदम उठाना पड़ रहा है। उनके परिवार में कुछ आकस्मिक कार्य के चलते उन्हें लंबे अवकाश पर जाना था लेक़िन इतने दिनों की छुट्टी की अर्ज़ी ख़ारिज होने के अंदेशे से उन्होंने संस्थान छोड़ना ही बेहतर समझा। वो पहले भी बहुत छुट्टी लेते थे तो उनका ये डर लाजमी था। ख़ैर, सब उनके हिसाब से करके उन्हें अवकाश पर जाने दिया लेकिन लौटने के हफ़्ते भर के अंदर उन्होंने फ़िर से त्यागपत्र डाल दिया। इस बार हम दोनों ने कोई बात भी नहीं करी। न मैंने उन्हें समझाईश देना ज़रूरी समझा और उनके त्यागपत्र को स्वीकृति प्रदान कर दी।

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ख़ैर, सब उनके हिसाब से करके उन्हें अवकाश पर जाने दिया लेकिन लौटने के हफ़्ते भर के अंदर उन्होंने फ़िर से त्यागपत्र डाल दिया। इस बार हम दोनों ने कोई बात भी नहीं करी। न मैंने उन्हें समझाईश देना ज़रूरी समझा और उनके त्यागपत्र को स्वीकृति प्रदान कर दी।
मेरा ऑफिस में चल रही पॉलिटिक्स या रोमांस दोनों में ज़रा भी रुचि नही रहती। इसलिये मुझे दोनों ही बातें जब तक पता चलती हैं तब तक काफ़ी देर हो चुकी रहती है। जैसे इन महोदय ने बाकी जितने दिन भी रहे सबसे खूब अपने गिले शिकवे सुनाये। तबसे मन और उचट गया। लेक़िन कुछ लोगों को तो जैसे मसाला मिल गया। मुझे नहीं पता उनसे अगर अब आगे मुलाक़ात होगी तो मेरा क्या रुख़ रहेगा।

लेकिन मैं तब भी जानता हूँ की जब हम मिलेंगे तो सब अच्छे से ही मिलेंगे। यही शायद एक अच्छे लीडर की पहचान भी होती है। आप सार्वजनिक जीवन में सब अच्छे से ही व्यवहार करते हैं।

ऐसे ही एक सज्जन हैं जो मुझसे भी बहुत नाराज़ चल रहे हैं। हम साथ में काम करना चाहते थे लेकिन कुछ कारणों के चलते शुरू करने के बाद काम बीच में ही रुक गया और फ़िर टलता ही रहा। जैसे मुझे अपने टीम के साथी से नाराजगी है वैसे ही कुछ वो भी ख़फ़ा से हैं। मुझे एहसास-ए-जुर्म तो है लेकिन अब सब समय के ऊपर छोड़ दिया है।

ताज़ी ताज़ी लगे हमको रोज़ाना, तेरी मेरी बातें यूँ तो पुरानी है

जब नया साल शुरू होता है तो सब नई नई वाली फीलिंग आ जाती है। जैसे जैसे महीने निकलते जाते हैं, तो गिनने लगते हैं या यूं कहें सोशल मीडिया के चलते गिनाया जाता है इस साल के इतने महीने निकल गये पता ही नहीं चला। दिसंबर तक आते आते तो सब पीछे मुड़कर देखना शुरू कर देते हैं और साल का लेखा जोखा लिखने का काम शुरू हो जाता है। लिस्ट बनने लगती है साल की सबसे अच्छी या सबसे बुरी चीज़ों की। फिल्में, गाने, किताबें, वेब सिरीज़ भी इस लिस्ट में शुमार होते हैं।

दूसरी लिस्ट होती है अगले साल कुछ कर गुज़रने वाले कामों की। इसमें कहाँ घूमेंगे, अपनी कौन सी बुरी आदतों को छोड़ देंगे और मेरा प्रिय – इस साल तो वज़न कम करना है। लेकिन जैसे जैसे दिन निकलते जाते हैं दृढ़ संकल्प कमज़ोर होता जाता है और वज़न लेने वाली मशीन का काँटा आगे नही भी बढ़ता है तो पीछे जाने में भी बहुत नख़रे करता है। एक शख़्स जिन्हें मैंने ये वज़न कम करने वाले प्रण पर टिके रहते देखा है वो हैं मेरे पुराने सहयोगी मोहित सिंह। अगर उनकी इच्छाशक्ति का दस प्रतिशत भी मैं अपने जीवन में फॉलो करूं तो मेरा अच्छा खासा वज़न कम हो जायेगा।

कितना अच्छा हो अगर हम कैलेंडर में बदलते दिन, महीने और साल को न देखकर हर दिन भरपूर आनंद के साथ जियें और अगले दिन का इंतजार ही न करें। साल के 364 दिन निकलने के बाद साल के आखिरी दिन सब चंद घंटों के लिये ही सही जी उठते हैं। और उसके बाद फ़िर वही 364 का इंतजार और एक दिन का जीना।

ये जो इस पोस्ट की हेडलाइन है वो दरअसल ख़ुद से ही रोज़ाना की मुलाक़ात के बारे में है। आपने अगर क्लब 60 फ़िल्म देखी हो तो रघुबीर यादव के सबसे रंगीन क़िरदार की तरह आप भी स्वस्थ रहिये और मस्त रहिये।

और जैसे अमिताभ बच्चन फ़िल्म मिस्टर नटवरलाल के एक गाने में कहते हैं, ये जीना भी कोई जीना है लल्लू!

हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है

आपकी क्या राय है? ये सवाल बड़ा मुश्किल वाला होता है। मतलब आप जो सच है वो बोल दें या उसको कुछ ओढ़ा पहना कर बोलें। अगर किसी मशीन पर ये फीडबैक दे रहे हैं तो कोई दिक्कत नहीं लेकिन अगर सामने कोई शख्स बैठा हो तो? सब सुंदर पिचाई के बॉस के जैसे नहीं होते।

सुंदर पिचाई का जब इंटरव्यू हुआ तो उनसे नई जीमेल के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बोल दिया उन्होंने इसका ज़्यादा इस्तेमाल नहीं किया है इसलिये इस बारे में वो कुछ ज़्यादा नहीं जानते। इसके बाद भी गूगल में उन्हें नौकरी मिली और आज वो गूगल के सीईओ के पद पर कार्यरत हैं और उनकी ज़िम्मेदारी और बढ़ गयी हैं।

लेकिन सबकी ऐसी किस्मत नहीं होती। जैसा मेरे साथ हुआ था जब मैं भारत में क्रिकेट की शीर्ष संस्था में गया था एक साक्षात्कार के लिये। उन्होंने मुझसे उनके द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम पर लेख लिखने को कहा। मैंने उसके बारे में बिना लाग लपेट के लिख दिया। बस उसके बाद उन्होंने कोई संपर्क नहीं किया।

कई महीनों बाद वहाँ काम करने वाले एक सज्जन मिले तो बोलने लगे भाई उन्हीं के ऑफिस में बैठ कर उनकी बुराई वहाँ लोगों को पसंद नहीं आयी। नहीं तो तुम्हे नौकरी मिल जाती।

अब देखिये राहुल बजाज को। उन्होंने अपने मन की बात कर दी और अब सब खोद खोद कर उनके ख़िलाफ़ खबर ढूंढ रहे हैं। ये अलग बात है ऐसे में हर बजाज जिसका राहुल बजाज से कोई दूर का भी कोई रिश्ता नहीं हो वो भी इसमें घसीटा जा रहा है। गनीमत है इस ब्रिगेड ने राहुल नाम को छोड़ दिया नहीं बहुत मसाला मिल जाता लेकिन किसी काम का नहीं होता।

लेकिन ये सोच और ये एप्रोच घर में आज़माने के नुकसान ही नुकसान हैं। मसलन अगर कुछ खाने में गड़बड़ हो गयी हो तो चुपचाप खा लीजिये। जब इसे बनाने वाले स्वयं खायेंगे तब उन्हें पता ही चल जायेगा की आज क्या हुआ है। आप क्यों अपने लिये मुसीबत मोल ले रहे हैं। राहुल बजाज के पीछे एक पूरी सोशल मीडिया आर्मी लगी हुई है। यहाँ सिर्फ़ एक ही शख्स काफ़ी है और आपके सारे हथियार यहाँ फेल हैं। आपके पास आत्मसमर्पण के सिवा और कोई उपाय है ही नहीं। आपको आख़िर रहना उसी घर में है। जैसा है चलने दें घर में, बाहर वालों को आइना दिखाते रहें। या अपना अंदाज़ बदल दें।

कानून या पीड़ित: कौन ज़्यादा मजबूर है?

हमारी लचर कानून व्यवस्था की बदहाली अगर कोई घटना दर्शाती है तो वो भोपाल गैस त्रासदी है। इतना लंबा समय बीत जाने के बाद भी गैस पीड़ितों को न्याय नहीं मिला। अगर मुआवजा मिला भी तो बहुत थोड़ा। उनकी भावी पीढ़ियों तक को उस भयावह त्रासदी की मार झेलनी पड़ रही है।

जब 1984 में ये घटना घटी तो उस समय ज़्यादा कुछ समझ में नहीं आया। लेकिन जब पत्रकारिता में काम शुरू किया तो इस मुद्दे को समझा। इसमें बहुत लोगों का योगदान रहा उसमें से एक थे अब्दुल जब्बार भाई जो एक संस्था, भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन, चलाते थे। जब्बार भाई का हफ़्ते में एक दो बार ऑफिस आना होता ही था। कभी फुरसत में रहते तो बैठ कर बातें कर लेते नहीं तो प्रेस रिलीज़ पकड़ाई और बाद में मिलना तय हुआ।

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मृदु भाषी, सरल स्वभाव के जब्बार भाई निःस्वार्थ भाव से लड़ते रहे। भोपाल में भी और दिल्ली में भी। जब पिछले दिनों खबर आई की जब्बार भाई नहीं रहे तो उनका वही मुस्कुराता हुआ चेहरा आंखों के सामने आ गया।

निर्भया मामले को सात साल हो गए। इसमें सभी चीजें साफ हैं – अपराधी कौन, क्या अपराध किया, कैसे किया आदि। लेकिन तब भी ये मामला कोर्ट में लटका हुआ है। फैसला नहीं हुआ की इन दरिंदों को क्या सज़ा दी जाए।

भोपाल गैस त्रासदी में एक विदेशी कंपनी थी लेकिन हमारी तत्कालीन सरकार ने एक समझौता कर लिया जिसके चलते पीड़ितों को सही मुआवजा और सहूलियतें नहीं मिली। अगर यही हादसा किसी विदेशी धरती पर होता तो उस कंपनी की ख़ैर नहीं होती। लेकिन हमारे चुने हुये प्रतिनिधि पहले अपनी तिजोरियों को भरने में ज़्यादा विश्वास रखते हैं। कुछ बच गया तो बाँट दो आम जनता में। उन्हें लगेगा कुछ तो मिला। इस त्रासदी में अगर कई पीढ़ियां तबाह हो गईं तो कई की पीढ़ियों का भविष्य बन गया।

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लेकिन हमारी फिक्र किसे है? हम आप जिसे वोट देकर चुनते हैं वो संसद में लीनचिंग को सही ठहराते हैं और कहते हैं ऐसे अपराध के आरोपियों को सरे आम सज़ा देनी चाहिये। मतलब सरकार की देखरेख में ऐसा कुछ हो तो वो न्याय व्यवस्था का हिस्सा है लेकिन अगर कोई दस लोग अपनी दुश्मनी निकालने के लिये यही काम करें तो वो ज़ुर्म।

लेकिन ये एक भोपाल गैस त्रासदी या निर्भया, हैदराबाद या कठुआ की बात नहीं है। भोपाल जैसी किसी और घटना के आरोपी को सज़ा इसलिये कम मिले की कम लोगों की मौत हुई है या आने वाली पीढ़ियों पर इसका असर नहीं होगा?

अगर ऐसे किसी मामले में आरोपी ने पीड़िता को ज़िंदा छोड़ दिया तो उसे रियायत मिलनी चाहिये? क्यों उस आरोप की सज़ा सभी के लिये एक जैसी न हो? क्यों एक धर्मगुरु के साथ भी वही सलूक क्यों न किया जाये जैसा इन चारों के साथ करने का हमारे माननीय सांसदों की राय है? क्यों उन सांसद या विधायक महोदय को भी ऐसे ही न न्याय मिले?

हाँ तो सबके लिये हाँ और ना तो सबके लिये ना।

एक और रेप? चलिये रोष व्यक्त करते हैं

एक और बलात्कार? हे प्रभु! हैवानों ने उसके बाद पीड़िता को जला दिया? बहुत गंभीर। चलिये रोष व्यक्त करते हैं। बहुत कड़ी निंदा करते हैं। और क्या कर सकते हैं? चलिये मोमबत्ती मार्च निकालते हैं। सोशल मीडिया पर शेयर करते हैं। अपनी प्रोफाइल फ़ोटो हटा कर एक काला फ्रेम लगा देते हैं। कुछ दिन लगा रहने देंगे। जब मामला शांत हो जायेगा और वही फ़ोटो वापस। हाँ व्हाट्सऐप पर भी कुछ करना पड़ेगा। एक नंबर सब फॉरवर्ड कर रहे हैं उसी को सारे ग्रुप में भेज देते हैं।

सच कहूँ तो आज लिखने का बिल्कुल मन नहीं था। अंदर कुछ ऐसी उथल पुथल मची हुई है जो बाहर पता नहीं किस शक्ल में आये। मुझे उसके डरावने चेहरे से डर नहीं लगता लेकिन उसके सवालों से ज़रूर लगता है जिसके जवाब मेरे पास नहीं हैं। फ़िर लगा नहीं लिखा तो सब अंदर ही दफ़न हो जायेगा।

2018 में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर मैं अपनी पुरानी टीम के सदस्यों के साथ एसिड अटैक का शिकार लक्ष्मी से मिल कर वापस लौट रहे थे। मेरी टीम की सहयोगी के साथ दिल्ली मेट्रो से ग़ाज़ियाबाद वापस आ रहे थे और हमें लौटते हुये नौ बजे गये थे। मेरे हिसाब से बहुत ज़्यादा देर नहीं हुई थी लेकिन जो मेरे साथ थीं उनको लग रहा था हम काफी लेट हो गये थे। उन्होंने अपने लिये एक समय निर्धारित कर रखा है और उसके बाद वो घर से बाहर नहीं रहती। इसके चलते उन्होंने कई टीम के साथ बाहर जाने के मौके भी छोड़ दिये। उस शाम लक्ष्मी जी से मिलने की इच्छा के चलते ही वो इतनी देर तक बाहर रहीं। ये एक पढ़ी लिखी प्रोफेशनल मोहतरमा हैं। उन्होंने ऐसे हालात से समझौता कर लिया है।

अब चलते हैं 1994 में। मैं जब पुणे स्टेशन के बाहर बैठा था और ये सोच रहा था अगले तीन दिन इस शहर में कैसे गुज़रेंगे तब उस अनजान शख्स ने मुझे अपने घर चलने को कहा। अनजान शहर, अनजान व्यक्ति। लेकिन सिर्फ़ और सिर्फ़ भरोसा था उन पर जो उनके साथ हो लिया।

आज 2019 में भारत के एक शहर में एक पढ़ी लिखी युवती ने ठीक वैसे ही विश्वास किया था उन युवकों पर। उन्होंने उसकी पंचर गाड़ी को सुधरवाने का भरोसा दिलाया। किसी भी सभ्य समाज में विश्वास, भरोसा ही तो होता है जो आपको जोड़े रखता है। लेकिन उसके बाद जो बर्बरता हुई वो सोच कर ही सर शर्म से झुक जाता है।

दरअसल हमें इससे डील करना नहीं आता है। पहले तो ऐसा नहीं होता था लेकिन अब ऐसी कोई घटना होती है तो सबसे पहले आरोपियों के नाम देखे जाते हैं। किसी समुदाय विशेष का हुआ तो बस सब उस सम्प्रदाय के पीछे पड़ जाते हैं मानो उस समुदाय के सभी लोग वैसी ही सोच रखते हैं। लेकिन बाकी तीन आरोपियों की जाति या धर्म उन्हें नहीं दिखता। आप आज का सोशल मीडिया देख लीजिये। किसी ने ट्विटर पर लिखा ये घटना शमशाबाद इलाके में हुई है और आपको पता है वहां कौन रहता है। हमारी सोच इतनी घटिया हो गयी है की जघन्य अपराध को हमने धर्म का चोला पहना कर असल मुद्दे को ही बदल दिया।

अब ये उस युवती पर हुये अत्याचार नहीं हो कर एक समुदाय विशेष द्वारा किया गया कृत्य हो गया। हम जो भी कर रहे हैं वो सब ऊपरी है। इस समस्या की जड़ है कानून का डर न होना। पिछले दिनों सरकार ने ट्रैफिक के नियम तोड़ने पर होने वाले जुर्माने की रकम में कई गुना बढ़ोतरी कर दी। अगले ही दिन से खबरें आने लगीं लोगों ने मोटी रकम भरी नियम तोड़ने पर। सब कागज़ात साथ लेकर चलने लगे और कुछ दिन सब ठीक चला। लेकिन विरोध शुरू हुआ और कुछ राज्यों ने बढ़े हुये चालान को लागू करने से मना कर दिया। मुम्बई में ऐसे कई इलाके हैं जहां स्पीड राडार लगे हैं। आपकी गाड़ी की स्पीड ज़्यादा हुई तो चालान घर आ जायेगा। ड्राइवर डरते हैं और गति पर नियंत्रण रखते हैं।

इसका दूसरा और ज़्यादा चिंताजनक पहलू है की अपनी रक्षा की सारी ज़िम्मेदारी हमने स्त्रियों पर मढ़ दी है। लेकिन हम पुरुष से ये उम्मीद नहीं कर सकते की वो अपना स्वभाव, आचरण और नज़रिया बदले। हम लड़कियों को तो सब सलाह देते हैं की वो कैसे अपनी सुरक्षा करे, लेकिन हम लड़कों को ये क्यों नहीं सिखाते की क्या ग़लत है और क्या सही है। क्यों वो लड़कियों को सिर्फ़ एक उपभोग की वस्तु ना समझ कर एक इंसान समझें। कहीं न कहीं ऐसी घटनायें हमारी परवरिश की कमी ही है और अपराधियों की ये सोच की कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

इस ताज़ी घटना के बाद मांग हो रही है सबको फाँसी दी जाये। चलिये ये चार को फाँसी दे भी दी तो क्या ये सिलसिला थम जायेगा? निर्भया के बाद जो कानून में बदलाव हुआ उससे भी हमें लगा था अब बेटियां सुरक्षित हैं। काश ये सच होता तो आज हैदराबाद की एक बेटी अपने घर, अपने परिवार के बीच होती।