उनमें से कुछ लोग भूल जाते हैं, कुछ याद रह जाते हैं

मेरी लगभग सभी लंबी दूरी की यात्रा ट्रैन से अथवा उड़नखटोले से हुई हैं। ट्रैन में मैं हमेशा से ऊपर की बर्थ लेकर सीधे सोने चला जाता। ट्रैन चलने के बाद नींद टिकट चेक करने के लिये खुलती। कभी खाने के लिये उठे तो ठीक नहीं तो सोते हुये सफ़र निकल जाता था।

हवाई जहाज की यात्रा में जो सीट नसीब हुई उसी पर थोड़ा बहुत सोकर सफ़र पूरा हो जाता। ट्रैन में तो फिर भी कभी आसपास वालों से दुआ सलाम हो जाती है लेकिन हवाई जहाज में एक अलग तरह के लोग सफ़र करते हैं। वो सफ़र के दौरान या तो कुछ पढ़ना या देखना पसंद करते हैं। ग्रुप में सफर करने वाले बातचीत में समय बिताते हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे मुम्बई की लोकल ट्रेनों में फर्स्ट और सेकंड क्लास में होता है।

इसलिये मुझे अपनी पिछली ट्रैन यात्रा के दौरान थोड़ा आश्चर्य हुआ जब बोरीवली स्टेशन से मेरी सीट के साझेदार कुशल सवार हुये। उन्होंने अपना परिचय दिया और उसके बाद मुझे उम्मीद थी की बाकी ढेरों यात्रियों की तरह वो भी मोबाइल में खो जायेंगे। मैंने फ़ोन से बचने के लिये उस दिन का अख़बार हथिया लिया था। लेकिन अगले पाँच घंटे हमने बमुश्किल कुल 10 से 15 मिनिट ही मोबाइल देखा और बाकी सारा समय बात करते हुये बताया। वो अख़बार मेरे साथ गया और वापस आ गया। अब बासी खबरों को बाचने का कोई शौक नहीं।

हमारे सामने की सीट पर बैठे दंपत्ति और उनके परिचित कुशल के आने के पहले बहुत बात कर रहे थे। लेकिन उनके आने के बाद से हम दोनों की बातों का जो सिलसिला चला तो उनकी आवाज़ कुछ कम आने लगी। जब कुशल वड़ोदरा में उतर गये तो वो जानना चाहते थे की हम दोनों में से कौन उतरा।

जर्मनी से पढ़ाई कर लौटे कुशल का वडोदरा में स्वयं का पारिवारिक व्यवसाय है और वो काम के सिलसिले में ही मुम्बई आये थे। मुझे याद नहीं मैंने पिछली बार अकेले यात्रा करते हुये किसी से कभी इतनी बात हुई हो। उन्होंने जर्मनी के अपने प्रवास के कई अनुभव साझा किये और कैसे वहाँ एक अध्यापक होना एक बहुत बड़ी बात होती है। उनको एक बहुत ऊँचा दर्ज़ा दिया जाता है एक गर्व की बात है।

बहरहाल, कुशल से मिलना और बातचीत करना एक सुखद अनुभव रहा। इस साल की शुरुआत एक बड़े बदलाव से हुई है और उम्मीद है मैं ख़ुद को ऐसे ही चौंकाते रहने वाले काम आगे भी जारी रखूँगा।

आपने 2020 में क्या नया किया? क्या आपकी भी ऐसी ही कोई यादगार यात्रा रही है? कमेंट कर मेरे साथ शेयर करें।

मुस्कुराने की वजह तुम हो, गुनगुनाने की वजह तुम हो

लोग आपकी क्या क्या बातें याद रखते हैं इसका आपको अंदाज़ा भी नहीं होगा। कल से पहले मुझे भी नहीं था। मैं अपने स्कूल के एक पुराने मित्र से बात कर रहा था। ये हमारी पिछले 25 सालों में, मतलब स्कूल छोड़ने के बाद, पहली बातचीत थी।

दोनों एक दूसरे की अभी तक के सफर के बारे में बात कर चुके थे लेकिन भाईसाहब को मेरी शक्ल याद ही नहीं आ रही थी। जब मैं किसी से मिलता हूँ तो मेरे साथ अक्सर ये परेशानी होती है लेकिन इनके साथ नहीं थी। मुझे इनकी शक्ल और इनके कारनामे सभी याद थे। बात करते करते उन्होंने बोला यार इस नाम के एक लड़के की याद है और फ़िर उन्होंने मेरे बारे में बताना शुरू किया। इस नाम का लड़का जोकि खाते पीते घर का दिखता था और उसके बाल कुछ इस तरह के होते थे। लेकिन जो बात उन्हें बिल्कुल साफ साफ याद थी वो ये की लंच ब्रेक में मैं किस तरीके से अपना टिफिन पकड़ कर खाता था। शायद ये भी मेरे खाते पीते शरीर के पीछे का राज़ था।

जब वो ये बता रहे तो मैं ये सोच रहा था अच्छा हुआ उन्हें ये याद नहीं रहा की मैं कितना खाता था। लेकिन सोचिये याद रहा भी तो क्या। हमें अक्सर लोगों की क्या बातें याद रह जाती हैं? उनके हावभाव, बोलने का तरीका, खाने पीने का तरीका या चलने का तरीका। लेकिन टिफिन पकड़ने का तरीका? मैं सही में वक़्त में वापस जाकर देखना चाहता हूँ की उसमें ऐसा क्या अनोखा था? क्या इन्होंने कभी मेरा टिफिन खाने की इच्छा व्यक्त करी हो और मैंने उन्हें नहीं खाने दिया हो। अब पच्चीस साल बाद सिर्फ़ कयास ही लगा सकते हैं।

जब से लिखना शुरू किया है इन यादों के ख़ज़ाने से ही कुछ न कुछ ढूंढता रहता हूँ। लेकिन किसी के टिफ़िन पकड़ने के अंदाज़ को याद नहीं रखा। लोगों की कंजूसी और दरियादिली याद है और उनका किसी बात पर नाराज़ होना भी। जैसे हमारे एक पड़ोसी हुआ करते थे। उनका हँसने का अंदाज़ एकदम जुदा और इसके चलते हम उनकी न हँसने वालीं बातों पर भी हँस दिया करते थे। लेकिन मुझे उनके या उनके बच्चों का टिफ़िन पकड़ने का अंदाज़ याद नहीं आ रहा।

कुछ ऐसी ही यादों के पुलिंदे खुल गये पिछले गुरुवार की रात जब ख़बर आयी की हमारी एक करीबी रिश्तेदार की अचानक मृत्यु हो गयी है। पहले तो जब ये संदेश पढ़ा तो विश्वास ही नहीं हुआ क्योंकि उनके स्वास्थ्य को लेकर ऐसा कुछ मालूम ही नहीं था। सब कुछ अचानक में हो गया और रह गईं सिर्फ़ यादें। मैं उनके विवाह में भी सम्मिलित हुआ था और जब कुछ समय वो मुम्बई में थीं तब भी उनके यहाँ आना जाना था। कुछ महीनों पहले भोपाल प्रवास के दौरान उनसे मिलना हुआ था। बहुत ही मिलनसार और चेहरे पर हमेशा एक मुस्कुराहट याद रहेगी और याद रहेगा उनकी रसोई से निकलने वाले हर पकवान का स्वाद।

तो आप भी हमेशा हँसते मुस्कुराते मिला करें, ताकि आपकी यादें भी मुस्कुराती हुई ही मिलें। मैं फिलहाल किसी तरह टिफ़िन पकड़ने की याद को किसी और बेहतर व्यवहार से बदलने की कोशिश करता हूँ।

जग में रह जायेंगे प्यारे तेरे बोल – 2

जहाँ दशक की शुरुआत में एक बहुत बड़े बदलाव का साक्षी बना, दस साल का अंत होते होते एक और कड़वी सच्चाई से पाला पड़ा। एक संस्थान में जाने का मौका मिला जो बदलाव की कगार पर खड़ा है लेकिन बदलाव को अपना नहीं रहा।

इन दस वर्षों में बहुत सी चीज़ें बदलती हुई देखी। जब ये दशक शुरू हुआ था तो किसे पता था हमारी दुनिया एक पाँच इंच की स्क्रीन पर सिमट जायेगी। लेकिन आज मैं ये पोस्ट उसी स्क्रीन पर टाइप कर रहा हूँ। कहने का मतलब है सिर्फ़ और सिर्फ़ बदलाव ही निरंतर है। लेकिन उस संस्थान को देखकर लगा समय जैसे रुक सा गया है। कहाँ हम इंटरनेट क्रांति की बात कर रहे हैं और कहाँ लोगों के पास अच्छी स्पीड वाला इंटरनेट नहीं है जो कि उनके काम को आसान बनाता है। ऐसा नहीं है की पैसे नहीं है, लेकिन जो चला आ रहा है उसको बदलने का डर और फ़िर हमारी माईबाप वाली मानसिकता जो इस बदलाव का सबसे बड़ा रोड़ा बन बैठी है।

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ऐसे किसी भी बदलाव को हम सिर्फ़ कुछ समय तक रोक सकते हैं। लेकिन वो बदलाव होगा ये निश्चित है। अगर समय रहते हम नहीं बदले तो पीछे ही रह जायेंगे। चार्ल्स डार्विन ने भी तो यही कहा है। तो क्या ये बेहतर नहीं है कि हम अपने आप को किसी भी बदलाव के लिये तैयार रखें?

इस बीते दशक में दुनिया में कई जगह जाने का मौका मिला। दूसरे देशों के लोगों के साथ काम करने का मौका भी मिला और उनसे बहुत कुछ सीखने को भी। ऐसे शुभचिंतकों की लंबी लिस्ट भी है जिनसे अब अगले कई दशकों तक मिलने का कोई मन नहीं है और एक छोटी सी लिस्ट उन लोगों की भी जिनसे मुलाक़ात के लिये बस एक बहाने की तलाश रहती है।

कुल मिलाकर इन दस सालों में बहुत कुछ सीखने को मिला। सबसे बड़ी उपलब्धि? ये जो मैं लिख रहा हूँ और जो आप पढ़ रहे हैं। मेरे अंदर का लेखक जो पिछले दो दशकों में कहीं खो गया था वो मिल गया और वो हिंदी में भी लिख सकता है।

पिछली पोस्ट में आप सभी को नये साल की शुभकामनायें देना भूल गया था। आप सभी के लिये ये वर्ष मंगलमय हो और आप सभी स्वस्थ एवं प्रसन्न रहें। नया दशक चुनोतियों से भरा हो और आप हर चुनौती का डट कर मुकाबला करें।

https://youtu.be/IEcYHmAbznE

जग में रह जायेंगे प्यारे तेरे बोल

ये लेखा जोखा, बही खाते वाला काम तो हम कायस्थों के ही ज़िम्मे है। इसलिये जब कई लोगों का पिछले दशक का लेखा जोखा पढ़ रहा था तो सोचा एक बार अपना भी लिखा जाये। इस फ्लैशबैक में बड़ी खबरें तो आसानी से याद रह जाती हैं, लेकिन छोटी छोटी बातें जिनका असर ज़्यादा समय तक रहता है वो बस ऐसे ही कभी कभार याद आ जाती हैं।

2010 के ख़त्म होते होते ज़िन्दगी को एक नई दिशा मिल गयी। उसके पहले कुछ न कुछ चल रहा था लेकिन भविष्य कुछ दिख नहीं रहा था। और ये जो नई दिशा की बात कर रहा हूँ वो दरअसल कुछ समय बाद दिखाई दी। हम लोग जिस समय हमारे जीवन में ये घटनाक्रम चल रहे होते हैं, उस समय उससे अनजान ही रहते हैं। वो तो थोड़े समय बाद समझ में आता है की क्या हुआ है या हो गया है। थोड़े और समय बाद समझ आता है उसका असर।

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2011 से 2019 तक का समय काम के हिसाब से स्वर्णिम रहा। बहुत कुछ नया सीखने को मिला और पिछले दशक के अपने पुराने अनुभवों से जो सीखा उसे अमल करने का मौका मिला। इस दौरान ऐसे कई लोग मिले जिन्होंने मुझे बहुत कुछ सिखाया। ये मेरे सीनियर जैसे देबाशीष घोष, संदीप अमर, मनीष मिश्रा, नीपा वैद्य और मेरे बहुत से टीम के सदस्य जिनमें प्रमुख रहे आमिर सलाटी, आदित्य द्विवेदी, मोहम्मद उज़ैर, नेहा सिंह। वैसे सीखा सभी से लेकिन जिनके नाम लिये हैं उनसे मिली सीख याद रही।

जो मेरे सीनियर हैं उनसे मैंने काम करने के कई नये गुर तो सीखे ही उनसे जीने का फ़लसफ़ा भी मिला। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय मुझे काम करने का सौभाग्य मिला कुणाल मजूमदार के साथ। जब कुणाल से पहली बार मिला तो इसका अंदाज़ा नहीं था कुणाल का नेटवर्क कितना कमाल का है। उनके ज़रिये आज के कई चर्चित लेखकों ने उस समय हमारे लिये लेख लिखे। कुणाल फ़ोन पर सम्पर्क कर बात करते और स्टोरी या वीडियो तैयार। लेकिन कुणाल से मिल कर आपको इस बात का एहसास ही नहीं होता। इतने समय में कुणाल में कोई बदलाव नहीं आया है। वो आज भी वही हैं या कहूँ समय और अनुभव के साथ और बेहतर इंसान बने हैं तो कुछ ग़लत नहीं होगा।

जिस समय हम लोग ये कर रहे थे उस समय चुनाव की उठापटक शुरू थी। लेकिन इस सबके बीच सभी काम अच्छे से हुये और 16 मई 2014 को जब परिणाम आया तो हमारा ट्रैफिक का रिकॉर्ड बन गया। ये उस समय के हमारे टीम के सभी सदस्यों की मेहनत ही थी जिसके चलते हमारी वेबसाइट को लोग जानने लगे।

लेकिन अगले तीन साल में मैनेजमेंट में हुये बदलाव के चलते सब ख़त्म हो गया। मतलब तीन सालों में मैंने अपनी टीम के साथ मेहनत कर एक ब्रान्ड बनाया और फ़िर उसको ख़त्म होते हुये देखा। ये शायद जीवन की सबसे बड़ी सीख भी थी।

जीवन की दूसरी बडी सीख मिली वो शायद किसी का व्हाट्सऐप स्टेटस था – कॉरपोरेट में कोई किसी का सगा नहीं होता *+#&$#। ये वाली सीख थोड़ी देर से समझ में आई लेकिन अभी भी कभी कभी फ़िर गलती दोहरा देता हूँ। नये लोगों के साथ।

इसका एक और भाग होगा। अब दशक के लिये इतना लिखना तो बनता है।

https://youtu.be/pGYjHQbV1KE