ये पल है वही, जिसमें है छुपी पूरी एक सदी, सारी ज़िन्दगी

विगत कुछ वर्षों से विदेश घूमने का चलन बहुत बढ़ गया है। इसके पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं लेकिन हमारे यहाँ विदेश यात्रा को एक स्टेटस सिंबल की तरह देखा जाता है। आपने भारत भले ही न घुमा हो लेकिन अगर आपने एक भी विदेश यात्रा नहीं करी हो तो आपने अपने जीवन में कुछ नहीं किया।

आज से लगभग 20 वर्ष पहले जब फ़ेसबुक या इंस्टाग्राम या ट्विटर नहीं था तो आपके निकट संबंधियों के अलावा जन सामान्य को आपकी विदेश यात्रा के बारे में कैसे पता चले? अगर आप विदेश यात्रा पर जाते थे या लौटते थे तो कुछ लोग इसका ऐलान बाक़ायदा समाचार पत्र में एक इश्तेहार देकर करते थे। उस छोटे से विज्ञापन का शीर्षक होता था विदेश यात्रा और उस व्यक्ति का नाम और वो कहाँ गये थे और यात्रा का उद्देश्य सब जानकारी रहती थी।

शायद मार्च के पहले हफ़्ते दस दिन तक तो ये बखान यथावत चलता रहा। लेकिन उसके बाद सब कुछ बदलने लगा। वही लोग जो सोशल मीडिया पर अपनी इस यात्रा के टिकट से लेकर हर छोटी बड़ी चीज़ें शेयर करते नहीं थकते थे अचानक उनकी विदेश यात्रा के बारे में बात करने से परहेज़ होने लगा।

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इसमें कुछ ऐसे लोग भी पकड़े गए जो घर से तो काम के सिलसिले में बेंगलुरू और कोलकता का कहकर निकले थे, लेकिन असल में थाईलैंड की यात्रा कर आये थे। उनकी चोरी उनके परिवार को तब पता लगी जब स्थानीय प्रशासन नोटिस लगाने आयी। पकड़े गये व्यक्तियों ने इसका सारा गुस्सा मीडिया पर निकाला।

मेरे एक सीनियर ने मुझे भी ये समझाइश दी थी आज से लगभग पाँच साल पहले की अगर बाहर कहीं जाओ, किसी अच्छे होटल में रुको तो वहाँ की फ़ोटो शेयर करो सोशल मीडिया पर। उनके अनुसार ये अपने आप को मार्केट करने का एक तरीका है। सोशल मीडिया पर लोग फ़ोटो देखेंगे तो आपका स्टेटस सिंबल पता चलेगा और आपके लिये आगे के द्वार खुलेंगे।

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ये सच ज़रूर है की आजकल कंपनियां आपका सोशल मीडिया एकाउंट भी देखती हैं लेकिन वो ये देखने के लिये की आप किस तरह की पोस्ट शेयर कर रहे हैं। कहीं आप कोई आपत्तिजनक पोस्ट तो नहीं करते या शायद ये देखने के लिये भी की आप न कभी उस कंपनी के ख़िलाफ़ कुछ लिखा है क्या? क्या आपने कहाँ अपनी पिछली गर्मी की छुट्टियां बितायीं थीं उसके आधार पर नौकरियां भी दी जाती हैं?

मेरे ध्यान में इस समय वो परिवार है जो रायपुर के समीप अपने गाँव की तरफ़ चला जा रहा है। जिसका कोई सोशल मीडिया एकाउंट नहीं होगा, जिसकी इस यात्रा का कोई वृत्तांत नहीं होगा लेकिन वो इन सबसे बेखबर है। कई बार यूँ बेख़बर होना ही बड़ा अच्छा होता है।

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जब ये महीना शुरू हुआ था तब श्रीमती जी और मेरी यही बात हो रही थी की साल के दो महीने तो ऐसे निकल गये की कुछ पता ही नहीं चला। होली तक इस महीने के भी उड़नछू हो जाने की सभी संभावनाएं दिख रही थीं की अचानक फ़िल्म जो जीता वही सिकन्दर के क्लाइमेक्स सीन के जैसे सब कुछ स्लोमोशन में होने लगा और लगता है जैसे बरसों बीत गये इस महीने के पंद्रह दिन बीतने में। लेकिन जैसा होता है, समय बीत ही जाता है। मार्च 2020 को हम सभी एक ऐसे महीने के रूप में अपने सारे जीवन याद रखेंगे जिसने हमारे जीवन से जुड़े हर पहलू को हमेशा हमेशा के लिये बदल दिया है। क्या ये बदलाव हमें नई दिशा में लेके जायेगा?

ज़िन्दगी फ़िर भी यहाँ खूबसूरत है

यत्र, तत्र, सर्वत्र ये आज कोरोना के लिये सही है। हम घरों में क़ैद हैं लेकिन बहुत सारे ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने सारे नियम, कायदे तोड़ अपने पैतृक गाँव या शहर जाना ही बेहतर समझा। ये सब उन्होंने तब सोचा जब सरकार ने ट्रेन, बस, हवाई जहाज के कहीं भी आनेजाने पर पूरी तरह से रोक लगा दी है। ये पोस्ट इस बारे में नहीं है की उन्होंने ऐसा क्यों किया बल्कि 905 किलोमीटर दूर वो जो घर जिसे वो अपना मानते हैं, उस सफ़र पर पैदल चलते हुये एक परिवार के बारे में है जो हमें बहुत कुछ सिखाता है।

तमाम सोशल मीडिया लोगों की मदद करते हुये फ़ोटो से पटा हुआ है। किसी ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसलिये ऐसी किसी पोस्ट को देखता हूँ जहाँ मक़सद मदद नहीं है तो आगे बढ़ जाता हूँ। इस परिवार की कहानी मुझे पढ़ने को मिली फेसबुक पर जहाँ शिबल भारतीय एवं ग्राष्मी जीवानी ने बताया की कैसे उन्हें ये परिवार NH8 पर पैदल चलता हुआ मिला। छह सदस्यों का ये परिवार बढ़ रहा है रायपुर, छत्तीसगढ़ के पास अपने गाँव की तरफ़। घर पहुँचने में शायद एक हफ़्ता लग जाये। शिबल और ग्राष्मी विज़न अनलिमिटेड संस्था से जुड़े हैं जो इस समय कष्ट झेल रहे लोगों की हर संभव मदद करने की कोशिश कर रहा है।

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जिस तरह के अनिश्चितता से भरे माहौल में हम रह रहे हैं, अगर कभी मार्किट जाने को मिल जाये तो सब भर भर के ले आयें। हमारा काम दो से चल सकता हो लेकिन हम छह उठा लायेंगे। पता नहीं फ़िर कब मौका मिले और अगर मौका मिला लेकिन सामान नहीं मिला तो? भर लो भाई जितना भर सकते हो।

शायद यही प्रवृत्ति हमें और इस परिवार को अलग करती है। जब हॉस्पिटल से लौटते हुये इन दोनों महिलाओं को ये परिवार दिखा तो उन्होंने गाड़ी रोककर पूछा कुछ खाने के लिये या पीने के लिये पानी चाहिये? परिवार की तरफ़ से माता ने बोला नहीं कुछ नही चाहिये। है सब हमारे पास। उन्होंने फ़िर से पूछा तो इस बार पिताजी ने बोला \”दीदी हमारे पास है। आप किसी और को दे दीजिए।\”

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साथ चल रहे दो बच्चों ने बिस्किट के पैकेट लिये लेक़िन बाकी दो ने मना कर दिया। जितना है वो काफ़ी है। उससे काम चल जायेगा। दो बैग में पूरी गृहस्थी समेटे रोड पर चले जा रहें हैं। और ऐसे भी लोग हैं जो इस समय भी मुनाफाखोरी के बारे में ही सोच रहे हैं। उन परिवारों का क्या करिये जो घर में अनाज भरते जा रहें हैं और सिर्फ़ औऱ सिर्फ़ अपने ही बारे में सोचते हैं।

शायद वक़्त उन्हें कोई सीख दे, शायद उनकी समझ में जल्द आ जाये की संतोष जीवन में कितना आनंद देता है। इस परिवार की फ़ोटो देखिये। हर सदस्य के चेहरे पर मुस्कुराहट देखिये। लगता है कितने दिनों बाद एक असली मुस्कान देखी है।

शिबल भारतीय एवं ग्राशमी जीवानी आपकी इस प्रेरणादायी पोस्ट और फ़ोटो के लिये धन्यवाद। इस पोस्ट को आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

आज कहाँ का नेशन, काहे की धरती मैय्या

दो दिनों से महाभारत देखना शुरू किया है। जब ये पहले देखा था तब इतनी समझ नहीं थी की ये क्या है। बस कहानियां सुनते थे और गीता उपदेश के बारे में सुना था। गीता सार का एक बड़ा सा पोस्टर किसी ने दिया था पिताजी को जिसमें बिंदुवार गीता समझाई गयी थी।

बीच में मुझे इस्कॉन के एक प्रभुजी से मिलने का मौका मिला और कुछ दिन उनसे गीता का ज्ञान लेने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। लेकिन फ़िर मेरा तबादला दिल्ली हो गया तो ये सिलसिला ख़त्म हो गया। मुम्बई वापस आने के बाद फ़िर ये मौका नहीं मिला।

लेकिन दो दिनों से महाभारत देख कर लगा की गीता उपदेश के पहले भी काफी कुछ सीखने योग्य है। जैसे हस्तिनापुर नरेश शांतनु ने अपने बड़े पुत्र भीष्म को युवराज पद से हटा कर अपने अजन्मे पुत्र को युवराज बना दिया। मतलब कर्म को नहीं मानते हुये जन्म को ज़्यादा महत्व दिया।

हमारे आसपास भी देखिये यही हो रहा है। फलां का बेटा या बेटी ही किसी कंपनी की कमान संभालेंगी। उनके कर्म कैसा भी हो लेकिन जन्म के आधार पर ही उनके भविष्य का फैसला हो गया। कई राजनीतिक दलों में भी यही हो रहा है। सब एक दूसरे को आईना दिखाते रह जाते हैं लेक़िन कोई खुद अपने को देखना नहीं चाहते।

ऐसी ही एक घटना 2017 में हुई जब एक कंपनी के मालिक के घर नई संतान का आगमन हुआ। कंपनी के तमाम कर्मचारी गिरे जा रहे थे ये बताने के लिये की कंपनी को उसका भविष्य में होने वाला मालिक मिल गया है। बच्चे के जन्म को घंटे ही हुये थे लेकिन उसका भविष्य तय हो गया था।

लेकिन ये तो कंपनी का मामला है। आजकल साधारण माता पिता भी अपने बच्चे का भविष्य खुद ही तय कर लेते हैं। 3 इडियट्स में जो दिखाया है वो कतई ग़लत नहीं है। रणछोड़दास चांचड़ में इंजीनियर बनने की काबिलियत नहीं थी। इसलिये फुँसुक वांगड़ू उनकी जगह वो डिग्री लेते हैं और रणछोड़दास कंपनी में पिता का स्थान। फरहान अख्तर के जन्म से ही उनके इंजीनियर बनने की तैयारी शुरू हो जाती है।

अगर कोई बड़ा व्यवसाय खड़ा करता है लेकिन वो इसको परिवार का व्यवसाय न बनाकर सिर्फ़ व्यवसाय की तरह करता है तो क्या उसके पास सभी अच्छी योग्यता प्राप्त लोगों का अकाल रहेगा? अगर केवल और केवल योग्यता को ही आधार माना जाये तो क्या हम एक अलग देश होंगे? नेता के बेटे को नेता बिल्कुल बनने दिया जाये लेक़िन सिर्फ़ उनका एक उपनाम है इसके चलते उन्हें कोई पद न दिया जाये। पद सिर्फ़ उसे मिले जो उसका सही हक़दार है। जन्म लेने भर से पद का फैसला नहीं हो सकता। लेकिन अगर महत्वकांक्षी व्यक्ति हो तो? महाभारत होना तय है!

सुन खनखनाती है ज़िन्दगी, देख हमें बुलाती है ज़िन्दगी

भोपाल में मेरे एक मित्र हैं राहुल जोशी। इनसे मुलाक़ात मेरी कॉलेज के दौरान मेरे बने दोस्त विजय नारायन के ज़रिये हुई थी। राहुल घर के पास है रहते हैं तो उनसे मुलाक़ात के सिलसिले बढ़ने लगे और मैंने उनको बेहतर जाना।

जोशी जी की एक ख़ास बात है की कोई भी सिचुएशन हो वो उसमें आपके चेहरे पर मुस्कान ले आते हैं। परेशानी की बात हो, दुख का माहौल हो – अगर राहुल आसपास हैं तो वो माहौल को हल्का करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। ज़िंदगी में जो भी घटित हो रहा हो उसको वो एक अलग अंदाज़ से देखते हैं। मेरे घर में आज भी उनके एक्सपर्ट कमेंट को याद किया जाता है।

राहुल के दादाजी का जब निधन हुआ तो मैं उनसे मिलने गया था। राहुल उनके बहुत करीब भी थे और जब वो लौट के आये तो मुलाक़ात हुई। राहुल बोले जब आप किसी के अंतिम संस्कार में शामिल होते हैं तो चंद पलों के लिये ही सही, आपको एहसास होता है अभी तक आप जिन भी चीजों को महत्व देते हैं वो सब पीछे छूट जायेगा। ज़िन्दगी की असली सच्चाई दिख जाती है। लेकिन क्रियाकर्म खत्म कर जैसे जैसे आपके क़दम बाहर की और चलते हैं वैसे वैसे आप वापस इस दुनिया में लौटते हैं। सबसे पहले तो सिगरेट सुलगाते हैं इस बात को और गहराई से समझने के लिये और चंद मिनटों में सब वापस।

आज राहुल और उनके साथ कि ये बातचीत इसलिये ध्यान आयी क्योंकि जिस समस्या से हम जूझ रहे हैं जब ये खत्म हो जायेगा तो क्या हम वही होंगे जो इससे पहले थे या कुछ बदले हुये होंगे? क्या हम महीने भर बाद भी अपने आसपास, लोगों को उसी नज़र से देखेंगे या हमारे अंदर चीजों के प्रति लगाव कम हो जायेगा। शायद आपको ये सब बेमानी लग रहा हो लेक़िन अगर एक महीने हम सब मौत के डर से अंदर बैठे हों और इसके बाद भी सब वैसा ही चलता रहेगा तो कहीं न कहीं हमसे ग़लती हो रही है।

लगभग सभी लोगों ने अपनी एक लिस्ट बना रखी है की जब उन्हें इस क़ैद से आज़ादी मिलेगी तो वो क्या करेंगे। किसी ने खानेपीने की, किसी ने शॉपिंग तो किसी ने पार्टी की तो किसी ने घूमने का प्रोग्राम बनाया है। बस सब थोड़े थोड़े अच्छे इंसान भी बन जायें और अपने दिलों में लोगों के लिये थोड़ी और जगह रखें – इसे भी अपनी लिस्ट में रखें।

https://youtu.be/X_q9IXvt3ro

एक पल तो अब हमें जीने दो, जीने दो

फ़िल्म 3 इडियट्स का एक सीन इन दिनों बहुत वायरल हो रहा है जिसमें तीनों इडियट्स के शराब पीने के बाद उनकी संस्थान के हेड वीरू सहस्त्रबुद्धे जिन्हें वो वायरस बुलाते हैं, उसे धरती से उठाने की प्रार्थना करते हैं। इस सीन को आज चल रहे कोरोना वायरस से जोड़ के देखा जाये तो लगता है किसी भी देश के नागरिक हों सबकी यही प्रार्थना होगी।

ये मेरे जीवन में शायद पहली बार मैंने या हम सभी लोगों के भी जीवन में ऐसा हो रहा है की कोई किसी भी देश में हो सब एक ही दुश्मन से लड़ रहे हैं। इससे पहले भारत में हुई कोई घटना का विश्व पर कोई असर नहीं पड़ता था या विश्व में कोई घटना होती जैसे 9/11 या ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में आग लगती तो हम उनके लिये प्रार्थना करते। मतलब किसी भी घटना का एक बहुत सीमित और बहुत ही ऊपरी असर दिखता।

लेकिन पिछले लगभग दो महीनों से पूरा विश्व क्या अमेरिका, क्या स्पेन, इटली या भारत, सब बस एक ही बात कर रहे हैं। लोगों से दूरी बनाये, घर से बाहर न निकलें और हाथ धोयें। मैं जिस संस्थान से जुड़ा हूँ वहाँ के सहकर्मी अलग अलग देशों में काम करते हैं। जब कभी हम लोग बात करते हैं इन दिनों तो शुरुआत इसी से होती है की आप के यहाँ कितने दिनों का लॉकडाउन है और क्या आपके पास ज़रूरत का सामान है।

इन बातों से और कुछ नहीं तो सब एक दूसरे की हिम्मत बढ़ाते रहते हैं। ये समय सभी के लिये एक चुनौती की तरह है। इसमें आसपास वाले तो आपके साथ हैं ही लेकिन हज़ारों किलोमीटर दूर बैठा कोई आपसे आपका कुशलक्षेम पूछता है और आप उनसे उनके हालचाल तो लगता है क्या विकसित और क्या विकासशील देश। सब एक ही नाव में सवार हैं और सब बस इस कठिन समय के निकलने का इंतजार कर रहे हैं।

कई संस्थान ने अपने बहुत से ऑनलाइन कोर्स इस समय फ्री में उपलब्ध कराए हैं। ये समय आपको एक मौका दे रहा है कुछ नया सीखने का, कुछ नया करने का। और जैसा की 3 इडियट्स में आमिर खान शरमन जोशी को अस्पताल में कहते हैं – फ्री फ्री फ्री।

https://youtu.be/HZu3bXWhnX4

रुकावट के लिये खेद है

जो केबल टीवी या अब डिश टीवी देखकर बड़े हुये हैं उन्हें शायद रुकावट के लिये खेद है का संदर्भ नहीं समझ आये। लेक़िन दूरदर्शन की जनता इससे भली भांति परिचित होगी। आज जो माहौल चल रहा है ये वही रुकावट के लिये खेद है वाला है और आज इससे नई पीढ़ी का मिलना भी हो गया।

जब दूरदर्शन पर कोई प्रोग्राम देख रहे होते थे तो अचानक लिंक गायब और स्क्रीन पर रुकावट के लिये खेद है का नोटिस दिखाई देने लगता। ये कई बार होता और अगर मैं ये कहूँ की फ़िर इसकी आदत सी बन गयी तो ग़लत नहीं होगा।

आज अगर आप टीवी देख रहें हो तो ऐसा कोई अनुभव नहीं होता। आज तो ब्रेक होता है और आप चैनल बदल लेते हैं। उन दिनों ऐसा कोई ऑप्शन नहीं हुआ करता था। अगर प्रोग्राम में कोई रुकावट आ जाये तो आप अपनी नज़रें स्क्रीन पर ही गड़ाये बैठे रहते की कब वापस आ जाये। अच्छा ये प्रोग्राम की लिंक या तो दिल्ली से टूट जाती या सैटेलाइट के व्यवधान से। कई बार ऐसा भी होता की जब तक लिंक वापस आयी तो प्रोग्राम ख़त्म। कोई रिपीट टेलिकास्ट का भी ऑप्शन नहीं।

पिछले कुछ दिनों से ऐसा ही हुआ है। रुकावट के लिये खेद है वाला बोर्ड लगा दिया गया है। आप के पास भी कोई ऑप्शन नहीं सिवाय इसके की आप लिंक के फ़िर से जुड़ने का इंतजार करें। इस दौरान आप क्या करते हैं ये बहुत ज़रूरी है क्योंकि आपको इतना पता है लिंक के जुड़ने की संभावना कब है। बजाय इसके की आप एक एक दिन गिन कर इसके ख़त्म होने का इंतज़ार करें, क्यूँ न अपने आप को ऐसे ही कामों में व्यस्त रखें। समय निकल भी जायेगा और आपके कई काम भी निपट जायेंगे।

कहने के लिये तो लिंक टूट गयी है, लेकिन ये समय है लिंक जोड़ने का। अपने आप से, परिवार के सदस्यों से। ट्विटर पर किसी ने सुझाव दिया कि हर दिन अंग्रेज़ी वर्णमाला के एक एक वर्ण से शुरू होने वाले नाम के लोगों को फ़ोन करें। जब तक ये कर्फ्यू हटेगा आपकी फ़ोन लिस्ट में A से Z तक बात हो चुकी होगी।

कच्चे रंग उतर जाने दो, मौसम है गुज़र जाने दो

इन दिनों मौसम बदला हुआ है। बदलते मौसम के अपने नखरे होते हैं और इस बार के नखरे उठाना बड़ा महंगा पड़ सकता है। तो मत उठाइये नखरे। मौसम ही तो है, गुज़र जायेगा। आप क्यूँ खामख्वाह परेशान हो रहे हैं। आपके पास कामों की एक लंबी फेहरिस्त है जिसे आप समय न होने का बहाना बनाकर टाल रहे थे। ये मान लीजिये आपको समय दिया गया है इन कामों को पूरा करने के लिये ताकि आप इस ब्रेक के बाद जो काम आयेंगे उनके लिये तैयार रहें।

अगर आप एक अच्छे मैनेजर हैं और ऐसा कुछ काम आपका बचा नहीं हुआ है तो आप को सलाम। आप वाकई तारीफ़ के काबिल हैं। आपने ये कैसे किया ये लोगों के साथ साझा करें। अगर आपको पता है किसी को आपके पास जो ज्ञान है उससे फायदा मिल सकता है तो उनके साथ बाँटें। अगर आपको किसी से कोई ज्ञान लेना है तो इससे बेहतर समय क्या हो सकता है?

आज जब पूरा हिन्दोस्तान अपने 24 घंटे घर पर कैसे काटे इसका जवाब ढूंढ रहा है, वहीं दूसरी और कई लोग हैं जिनकी दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं हुआ है। आप वाकई में खुशकिस्मत हैं की आपको ऐसा मौका मिला है जिसमें आप स्वस्थ हैं, परिवार वालों के साथ है। अमूमन ऐसे ब्रेक बहुत कम मिलते हैं।

आप अगर इस बदलाव का हिस्सा हैं तो इस समय कुछ ऐसा कर गुज़रिये की मुड़ के देखने पर आप अपने आप को पहचान ही न पायें। टीवी, वेब सीरीज़, इंटरनेट पर कितना समय बर्बाद करेंगे? हम तो हमेशा से ही किसी भी काम को नहीं कर पाने का ठीकरा वक़्त के सर पर ही फोड़ते रहते हैं। आज वक़्त ने हमें वक़्त दिया है। ऐसा मौका फ़िर कहाँ मिलेगा?

मैं कोई भविष्यवक्ता तो हूँ नहीं लेकिन इतना ज़रूर कह सकता हूँ की आने वाले तीन महीनों में सब कुछ बदल जायेगा। और कुछ भी नहीं बदलेगा और। क्योंकि जो बदल गया होगा वो तो गुज़र चुका होगा।

Special Ops: Welcome back, Neeraj Pandey

There are movies you remember watching and there are others you have a faint recollection of watching somewhere – not sure where.

It was in the month of September 2008 when I saw two films on one day. I have not done this many times but that day the first movie I saw was because of the director and second because my father recommended it.

The first movie – Welcome to Sajjanpur – had director Shyam Benegal at the helm and I strongly believed it would be a treat. Sadly, it wasn\’t for various reasons.

The second one was A Wednesday. I had come out of the cinema hall and was talking to my father who asked me not to miss A Wednesday. Now, this recommendation does not come on a regular basis. As I was alone during those days, going back home to empty house was not a very exciting idea.

I booked a ticket for the next available show, which was couple of hours later, to watch this film. The title of the film was very intriguing and the poster also added to the curiosity. I saw the film and fell in love with everything about it. The characters, script, actors, direction – just about everything. This was the beginning of a one sided love affair with Neeraj Pandey\’s movies.

I still find it hard to believe that initially the film had no takers. Like really???

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As someone who grew on cop and spy movies, may be it was a dormant wish to see Indian thrillers. We had very few genuine thrillers. But you watch A Wednesday and you realise a thriller need not have all the elements we had previously associated with it.

Watching Neeraj Pandey\’s films was like prayers have been answered. His next films like Special 26, Baby and MS Dhoni have been on the favourite list and I always end up watching them whenever I catch them on satellite channels. Aiyaary was a surprise disaster and I have barely managed to watch it once.

His latest is a web series – Special Ops with Kay Kay Menon in the lead. It is interesting that Manoj Bajpayee who has been part of so many Neeraj Pandey films is also doing a rather similar role in The Family Man. Though we dont know this – but did the role went to Kay Kay Menon because Manoj had already done The Family Man? We will never know it. But what we do is Kay Kay Menon has completely nailed it in Special Ops. We need to see this gem of an actor more often.

Thrillers need that special touch, that twist and turn, that requires special talent and that is where Special Ops score over The Family Man. The Manoj Bajpayee series was not engaging enough. It all comes down to writing which Neeraj Pandey is so good at. There are so many instances in the series that take you completely by surprise. The biggest complaint against The Family Man is the trivial writing that Raj and DK have to offer. I hope season 2 proves me wrong and I hope Neeraj Pandey is working on season 2 of Special Ops.

If I write anymore I will have to declare spoilers ahead, in case you have not seen it already. If you have – please share your reviews too.

 

बर्बाद हो रहे हैं जी तेरे अपने शहर वाले

तुम्हे पता है मेरे पिताजी कौन हैं? फिल्मों में ये सवाल कोई बिगड़ैल औलाद पूछती ही है। जब सामने अफ़सर को पता चलता है तो अगर वो ईमानदार है तो उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता लेकिन अगर बेइमान हो तो झट से पहचान हो जाती है। चोर चोर मौसेरे भाई जो ठहरे।

आप इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति जी की पत्नी सुधा मूर्ती जी को जानते ही होंगे। शायद आपने उनका वो किस्सा कैसे उन्हें एयरपोर्ट पर इकोनॉमी क्लास की यात्री बताकर लाइन में पीछे जाने को कहा गया था। शायद आपने स्वर्गीय मनोहर पर्रिकर जी का किस्सा भी सुना होगा कैसे एक विवाह समारोह में वो भी कतार में खड़े रहकर नवविवाहित जोड़े को आशीर्वाद देने के अपने नंबर का इंतज़ार करते रहे। या भारतीय क्रिकेट के महान खिलाड़ी राहुल द्रविड़ जो बच्चों के स्कूल में अपने नम्बर का इंतज़ार करते हैं अपने बच्चों के अध्यापक से मिलने के लिये।

आज मुझे ये किस्से याद इसलिये आ रहे हैं क्योंकि अपने आसपास मैं बहुत सी ऐसी घटनाओं के बारे में पढ़ रहा हूँ, देखरहा हूँ जहाँ लोग जिनकी या तो किसी अफ़सर से पहचान है या उनके परिवार से की कोई ऊंचे पद पर कार्यरत है, उन्होंने उसका फ़ायदा उठा कर बाकी लोगों की जान को मुश्किल में डाल दिया।

दरअसल प्रथम दृष्टया वो दोषी दिखते हैं लेकिन ये असल में एक लंबे समय से हमारे समाज में चली आ रही एक और कुरीति ही है जिसमें जो ऊँचे ओहदे वाले माई बाप का रोल निभाते हैं। हम अपने आसपास ऐसा हमेशा से होता देख रहे हैं लेक़िन ये अब इतना नार्मल सा लगता है की अगर कोई वीआईपी स्टीकर लगी गाड़ी जब ग़लत पार्किंग में नहीं खड़ी हो तो आश्चर्य होता है।

जबसे मैंने होश संभाला है मैं ऐसे ही रसूख़ वालों से घिरा रहा हूं। ये सत्ता का नशा और दुरुपयोग बहुत क़रीब से देखा है। और ऐसे भी सत्ता के पीछे भागने वाले देखे हैं जो अपना प्रोमोशन न होने पर डिप्रेशन में चले जाते हैं। किसी भी तरह जोड़ तोड़ करके बड़े पद से रिटायरमेंट लेना है। इसके लिये जो करना पड़े सब करने को तैयार। इन्हें सिर्फ़ एक बात मालूम है – सब हो सकता है अगर आपके पास पैसा है।

अभी कोरोना वायरस के चलते ऐसे कई किस्से सामने आये जहाँ माता पिता स्वयं ही अपने बच्चों की बीमारी छुपा रहे हैं। कोलकाता में राज्य सरकार की एक बडी अफसर का बेटा लंदन से आने के बाद दो दिन पूरा शहर घुमा। इस नवयुवक ने सभी सरकारी आदेशों की अवेल्हना कर सरकारी अस्पताल में रहने को भी मना कर दिया।

अब इसका उल्टा सोचिये। इन अफ़सर के घर काम करने वाली कोई औरत को ये बीमारी होती और वो छुपाती तो उसका क्या हश्र होता? उस कनिका कपूर का क्या करें जो फाइव स्टार होटल में रहीं और सरकार पर ही आरोप लगा दिये। मैं इस बात से सहमत हूँ की कोई भी देश परफ़ेक्ट नहीं होता। लेकिन उसके नागरिक होने के नाते हमारा कर्तव्य है की अपने साथ वालों को बर्बाद होने से बचायें।

ऐ ज़िन्दगी, ये लम्हा जी लेने दे

गुलज़ार साहब का गीत आनेवाला पल जानेवाला है देखने से पहले सुना था। जी आपने बिल्कुल सही पढ़ा है। उस समय गाने सुने ज़्यादा जाते थे और देखने को मिल गये तो आपकी किस्मत। गाना है भी बड़ा फिलासफी से भरा हुआ। उसपर किशोर कुमार की आवाज़ और आर डी बर्मन का संगीत।

फरवरी के अंतिम सप्ताह में श्रीमती जी से चाय पर चर्चा हो रही थी की कितनी जल्दी 2020 के दो महीने निकल गये। बच्चों की परीक्षा शुरू हो गयी और उसके बाद समय का ध्यान बच्चों ने रखा। लेकिन होली आते आते कहानी में ट्विस्ट और ट्विस्ट भी ऐसा जो न देखा, न सुना।

पिछले लगभग दो हफ्तों में दो बार ही घर से बाहर निकलना हुआ। अब घर के अंदर दो हफ़्ते और क़ैद रहेंगे। इतनी ज़्यादा उथलपुथल मची हुई है की लगता है जब ये सब ख़त्म हो जायेगा तो छोटे छोटे सुख का फ़िर से अनुभव करूँगा। जैसे पार्क में सैर करने जाना, किसी से बात करना, किसी चाय की दुकान पर बैठकर चाय पीना और अपने आसपास लोगों को देखना।

सोशल मीडिया के चलते सूचना की कोई कमी नहीं है बल्कि ओवरडोज़ है। लेकिन इन सब में एक बात समान है – सब उम्मीद से भरे हैं की ये समय भी निकल जायेगा। सब एक दूसरे से जुड़े हुये हैं और एक दूसरे को हिम्मत भी दे रहे हैं। मैंने इससे पहले ऐसी कोई घटना अगर देखी थी तो वो भोपाल गैस त्रासदी के समय थी। उस समय ये नहीं मालूम था हुआ क्या है बस इतना मालूम था लोगों को साँस लेने में तक़लीफ़ थी। उसके बाद कुछ दिनों के लिये शहर बंद हो गया था और हम सब भी ज़्यादातर समय घर के अंदर ही बिताते। कपड़े में रुई भरकर एक गेंद बना ली थी और इंडोर क्रिकेट खेला जाता था।

टीवी उस समय नया नया ही आया था लेक़िन कार्यक्रम कुछ खास नहीं होते थे। दिनभर वाला मामला भी नहीं था। दूरदर्शन पर तीन चार शिफ़्ट में प्रोग्राम आया करते थे। आज के जैसे नहीं जब टीवी खोला तब कुछ न कुछ आता रहता है। अगर कुछ नहीं देखने लायक हो तो वेब सीरीज़ की भरमार है। आपमें कितनी इच्छा शक्ति है सब उसपर निर्भर करता है।

लेकिन गाने सुनने का कोई सानी नहीं है। आप अपना काम करते रहिये और गाने सुनते रहिये। आज जब ये गाना सुना तो इसके मायने ही बदल गये। आनेवाले महीनों में क्या होने वाला है इसकी कोई ख़बर नहीं है। लेक़िन ज़रूरी है आज के ये लम्हे को भरपूर जिया जाये। ऐसे ही हर रोज़ किया जाये। जब पीछे मुड़कर देखेंगे तो वहाँ दास्ताँ मिलेगी, लम्हा कहीं नहीं।

https://youtu.be/AFRAFHtU-PE

सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं

यात्राओं का अपना अलग ही मज़ा है। हर यात्रा का अपना एक अनुभव होता है। अगर वो अच्छा तो भी यात्रा यादगार बन जाती है और अगर बुरा हो तो अगली यात्रा के लिये एक सीख बन जाती है।

मेरी ट्रैन की ज़्यादातर यात्रा में बहुत कुछ घटित नहीं होता क्योंकि मैं अक्सर ऊपर वाली बर्थ लेकर जल्दी ही अपने पढ़ने का कोई काम हो तो वो करता हूँ नहीं तो सोने का कार्यक्रम शुरू हो जाता है। काफ़ी सारी ट्रैन की यात्रा भी रात भर की होती हैं तो बाहर देखने का सवाल ही नहीं होता। कभी कुशल अग्रवाल जैसे सहयात्री मिल जाते हैं जो आपको जीवन का एक अलग अंदाज दिखा जाते हैं।

मैंने अक्सर ट्रैन में बर्थ बदलने की बातचीत होते हुये देखा सुना है। मेरे पास ऐसे निवेदन कम ही आते थे क्योंकि अपनी तो ऊपर वाली बर्थ ही रहती थी और अक़्सर ये मामले नीचे की बर्थ को लेकर रहते थे। कई बार तो उल्टा ही हुआ। भारतीय रेल की बदौलत कभी नीचे की बर्थ मिल भी गयी तो सहयात्री से निवेदन कर ऊपर की बर्थ माँग लेता। बहुत कम ऐसा हुआ है की ऊपर की बर्थ के लिये किसी ने मना किया हो।

ज़्यादातर माता-पिता के साथ भी ऐसा कोई वाक्य हुआ जब उन्हें ऊपर की बर्थ मिल गई हो तो बाकी यात्रियों ने उन्हें नीचे की बर्थ देदी। लेकिन अगर साथ में ज़्यादा आयु वाले यात्री हों तो ऐसा होना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। लेकिन उनके साथ ऐसा भी हुआ है।

कल ट्विटर पर एक चर्चा चल रही थी जिसमें एक महिला यात्री जो की गर्भवती हैं, उनको उनके साथ सफर कर रहे एक संभ्रांत घर के युवक ने नीचे की बर्थ देने से मना कर दिया। उस दिखने वाले पढ़े लिखे युवक के इस व्यवहार से वो काफी दुखी भी हुईं। लेकिन उनके एक और युवा सहयात्री जो शायद किसी छोटे शहर से थे, उन्होंने खुशी खुशी अपनी नीचे की बर्थ उन्हें दे दी। ये महिला यात्री जो भारतीय वन सेवा की अधिकारी हैं, उन्हें दोनों के व्यवहार से यही लगा की हमारी सारी तालीम बेकार है अगर हम जिसे ज़रूरत हो उसकी मदद न करें।

उनके इस वाकये पर एक और ट्विटर की यूज़र ने 1990 की अपनी यात्रा के बारे में बताया की कैसे दो अजनबी पुरुष यात्रियों ने अपनी बर्थ उन्हें देकर खुद रात ट्रैन की फ़र्श पर बिताई थी। दोनों आगे चलकर गुजरात के मुख्यमंत्री बने और उनमें से एक इस समय भारत के प्रधानमंत्री हैं। उनकी यात्रा के बारे में आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

http://www.thehindu.com/opinion/open-page/a-train-journey-and-two-names-to-remember/article6070562.ece?homepage=true

क्या आपकी भी ऐसी ही कोई यादगार यात्रा रही है जब किसी अनजाने ने आपकी या आपने किसी अनजाने की मदद करी?

Baaghi 3 gets audience approval; Will Sooryavnshi repeat the magic?

Update: The film has opened to good response despite poor reviews. It\’s speaks volumes about credibility of Tiger Shroff because there is no one else in the film to rake in Rs 50 crore in two days. The numbers would have been better had it got a wider release. It is riding only and only Tiger Shroff\’s goodwill and the action sequences which the audience seems to have loved. It\’s good news for the Hindi film industry. Now all eyes on Akshay Kumar\’s cop drama Sooryavnshi.

Hindi film industry is staring at what could be worst beginning for them. Already first two months of year 2020 has seen many big films expected to rake in the moolah not living upto the expectations. March has two big films lined up for release – the third installment of Tiger Shroff action franchise Baaghi and Rohit Shetty\’s Sooryavanshi starring Akshay Kumar. But the spread of coronavirus in India just before the release of Baaghi and days after the March 24 release of Sooryavanshi trailer is not the news Hindi film industry would be happy with.

Of all the films released in first two months of 2020 only Tanhaji – The Unsung Warrior has got a nod from the audience and has managed to collect Rs 278 crore so far. None of the other films have been anywhere close to Rs 100 crore figure. Deepika Padukone\’s Chhapak managed Rs 34 crore, Varun Dhawan\’s Street Dancer 3D collected Rs 68 crore, Kangana Ranaut\’s Panga made Rs 28.92 crore.

Saif Ali Khan and Aliya F\’s Jawaani Jaaneman was the surprise hit collecting Rs 28.76 crore. Aditya Roy Kapur-Disha Patni\’s Malang collected Rs 58 crore while Imtiaz Ali\’s Love Aaj Kal did not win hearts of the people and collected Rs 34.8 crore. Even the box office favourite child these days, Ayushman Khurrana failed to get the same love for his Shubh Mangal Zyada Saavdhan and the film on gay romance has so far collected Rs 57 crore.

MOVIESBox Office Collection
Chhapaak34.08
Tanhaji – The Unsung Warrior278.47
Street Dancer 3D68.28
Panga28.92
Jawaani Jaaneman28.76
Malang58.09
Love Aaj Kal34.8
Shubh Mangal Zyada Saavdhan56.98
Thappad (Till March 3)19.13

(Figures in crore. Source: Bollywood Hungama)

Taapsi Pannu starer Thappad though loved by critics has got a rather lukeworm response with Rs 19 crore collection in first five days. The numbers will not improve, if the initial collection is anything to go by.

Cut to 2019 when three films managed to strike gold in the first two months. Uri – The Surgical Strike managed life time collection of Rs 245 crore while February releases Gully Boy and Total Dhamaal crossed the Rs 100 crore mark and collected Rs 140 and Rs 154 respectively. Two more films collected Rs 90-plus crore – Manikarnika – The Queen of Jhansi released on January 25 collected Rs 92.19 crore and Luka Chuppi, released on March 1 collected Rs 94.75 crore.

MOVIES (2019)Box Office Collection
Uri – The Surgical Strike245.36
Manikarnika – The Queen Of Jhansi92.19
Ek Ladki Ko Dekha Toh Aisa Laga20.28
Gully Boy140.25
Total Dhamaal154.23
Luka Chuppi94.75

(Figures in crore. Source: Bollywood Hungama)

Sandiwched between the two big releases is the Irrfan Khan starrer English Medium. Unlike the two biggies which are driving high on action and low on everything else, this sequel to Hindi Medium promises to be a content and performance heavy film. With Irrfan Khan still undergoing treatment for cancer, the film is eagerly awaited by his fans.

\"English

A look at first two months of 2020 indicate which way the wind is blowing. The spread of cornonavirus has already resulted in people staying away from group activities like Holi celebration and the same would apply to watching movie in a theatre. Its too early to predict hot it hits the Hindi film industry and Indian film industry in general but it definitely would impact the collection of big movies lined up for release.

Sooryavnshi trailer review: Akshay Kumar, Rohit Shetty film is a joke on \’Content is King\’

With one successful cop franchise, Singham, in his list of successful franchise films, director Rohit Shetty is adding more to the list. Simbaa with Ranveer Singh was first attempt in the diversification and Sooryavnshi with Akshay Kumar in the lead is the next attempt to create another franchise.

The trailer of Sooryavnshi tells you the entire story in a nutshell. While both Singham and Simbaa were Goa based, Sooryavnshi is Mumbai based. The villain or the evil cops are fighting in Singham series and Simbaa is local in nature but Sooryavnshi is tackling no less than Jaish-e-Mohammed. Akshay Kumar would not have settled for anything less going by his modern Bharat ka beta (don\’t confuse with the Salman Khan starrer) avatar.

Obviously the scale is huge with this kind of background but the problem is also obvious in Rohit Shetty films. The script is never the king. It\’s the stunts and the typical Rohit Shetty style of cars flying in and out. Sooryavnshi trailer is no different.

With Akshay Kumar as lead the action scenes have a chopper sequence, a bike sequence and lots of commandos in action. With just 22-days left for the release of the film, expect yourself to be bombarded with Akshay Kumar, Rohit Shetty interviews on channels, newspapers. The film is relying heavily on Akshay Kumar Katrina Kaif jodi and to encash the same there is a recreated Akshay Kumar hit. The Tip tip barsa paani song will hit the airwaves soon but will it convert into box office collection remains to be seen. Towards the end of there is good Muslim and bad Muslim gyan. Wonder how ruling government supporters are going to use it in the days to come.

Overall Sooryavnshi trailer was on expected lines. You don\’t expect Rohit Shetty to churn out a Shool or Sehar. This is what he is capable of and this is what we should expect from someone who is not willing to learn from his past mistakes.