जाने हमारा आगे क्या होगा…

ये शायद पिछली गर्मियों की बात है। शायद इसलिये बोल रहा हूँ क्योंकि याद नहीं किस साल की बात है लेक़िन है गर्मियों की क्योंकि ये भोपाल की बात है जहाँ सालाना गर्मियों में हमारा अखिल भारतीय सम्मेलन होता है। सुबह की चाय पर चर्चा चल रही थी गानों के बारे में और मैंने बताया ऋषि कपूर जी के एक गाने के बारे में।

आज उनके निधन के बाद वही गाने देख रहे थे तो वो किस्सा याद आ गया। अभी दो दिन पहले ही कर्ज़ देखी थी तब इसका पता नहीं था कि ऋषि जी ऐसे अचानक ही चले जायेंगे। हमारी पीढ़ी में अगर खानों के पहले कोई रोमांटिक हीरो था तो वो थे ऋषि कपूर। उनकी फिल्में देख कर ही बड़े हुये। उनकी हर फ़िल्म का संगीत कमाल का होता था। फ़िर वो चाहे बॉबी हो या दीवाना।

अगर 70, 80 और कुछ हद तक 90 को भी शामिल करें तो इन तीस सालों के बेहतरीन रोमांटिक गीत में से ज़्यादातर ऋषि कपूर जी के होंगे। अब जब बाकी सब कलाकार मारधाड़ में लगे हों तो कोई तो ऐसा चाहिये जो अच्छा संगीत सुनाये और साथ में नाचे भी। ये ज़िम्मेदारी ऋषि कपूर जी की फिल्मों ने बख़ूबी निभाई।

हिंदी फ़िल्म जगत में उनकी पहले दौर की फिल्में बेहद हल्की फुल्की, फॉर्मूला फिल्में रहीं। लेक़िन जब वो एक ब्रेक लेने के बाद वापस आये तो वो एक एक्टर के रुप में ज़्यादा पहचाने गये। और जब वो वापस आये तो जैसे अपने अंदर के सारे डर छोड़ आये कहीं पीछे और अब वो कुछ भी करने को तैयार थे। अगर उनकी पहली पारी अच्छे गीत संगीत के लिये याद रखी जायेगी तो दूसरी पारी बतौर एक उम्दा कलाकार के लिये।

ऋषि कपूर और अमिताभ बच्चन वो बहुत ही चुनिंदा लोगों में शामिल हैं जिन्हें ज़िंदगी ने दूसरे मौके दिये और इन दोनों ने उन मौकों का पूरा फ़ायदा उठाया और एक नये अंदाज़ में दूसरी पारी की शुरुआत करी। हम सभी को ऐसे मौके दुबारा नहीं मिलते। कोरोना के चलते क्या हम सभी को एक दूसरा मौका मिला है? मतलब कुछ नया सीखने का नहीं लेक़िन अपनी सोच और अपने देखने के नज़रिये में थोड़ा बदलाव?

एक बात और ऋषि कपूर जी की जो मुझे बेहद अच्छी लगती थी वो है उनका बेबाक़पन। न बातों को घुमाना फिराना और न ही उनपर कोई शक्कर की परत चढ़ाना। ये भी तभी संभव है जब आपको इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता की आपके इस तरह से बात करने से कोई नाराज़ भी हो सकता है। इस का मैंने कई बार पालन करना चाहा लेक़िन बुरी तरह असफल रहा।

हम लोग अपनी राय तो कई मामलों में रखते हैं लेकिन इस डर से की कहीं उससे किसी की भावनाओं को ठेस न पहुँचे, उसको बताते समय थोड़ा हल्का कर देते हैं। लेकिन ऋषि कपूर जी तो सार्वजनिक रूप से ऐसा करते थे। तो क्या सबका डर छोड़ कर बस जो दिल में है वही ज़ुबान पर रखें? मेरे हिसाब से तो ये अच्छा है की आप जो सोचते हैं वही बोल दें। इससे कम से कम आपको बार बार कुछ नया तो नहीं बोलना पड़ेगा।

आदतन तो सोचेंगे, होता यूँ तो क्या होता, मग़र जाने दे

कई बार ऐसा होता है की लिखने को बहुत कुछ होता है लेक़िन समझ नहीं आता क्या लिखें। मेरे साथ अक्सर ये होता है क्योंकि आईडिया की कोई कमी नहीं है बस विषय चुनने का मुद्दा रहता है। मैंने इससे बचने का अच्छा तरीक़ा ये निकाला कि लिखो ही मत तो कोई परेशानी नहीं होगी।

लेक़िन जब से 2017-18 से लिखने का काम फ़िर से शुरू किया है तब से ऐसा लगता है लिखो। जिन दिनों ये उधेड़बुन ज़्यादा रहती है उस दिन थोड़ा सा ध्यान देना पड़ता है। विचारों की उस भीड़ में से कुछ ढूंढना और फ़िर लिखने पर बहुत बार तो ये हुआ की पोस्ट लिखी लेक़िन मज़ा नहीं आया। उसे वहीं छोड़ आगे बढ़ जाते हैं। फ़िर कभी जब समय मिलता है तब ऐसी अधूरी पोस्ट पढ़कर खुद समझने की कोशिश की जाती है आख़िर क्या कहना चाह रहे थे। और हमेशा मैं ऐसी सभी पोस्ट को डिलीट कर देता हूँ।

आज भी मामला कुछ ऐसा ही बन रहा था। एक तरफ़ इरफ़ान खान जी के निधन से थोड़ा मन ठीक नहीं था, तो सोचा आज उनके बारे में लिखा जाये। लेक़िन फ़िर ये ख़्याल आया की क्या लिखूँ? ये की शादी के बाद श्रीमतीजी को जब पहली बार मुंबई आयीं थी उनको लेकर मेट्रो सिनेमा में उनकी फ़िल्म मक़बूल देखी थी और श्रीमतीजी को उस दिन मुझे किस तरह की फिल्में पसंद हैं इसका एक नमूना देखने को मिल गया था?

वैसे इसे एक इत्तेफाक ही कहूँगा की बीते कुछ दिनों से उनका ज़िक्र किसी न किसी और बात पर हो रहा था। जैसे मैं श्रीमतीजी से कह रहा था की उनकी फिल्म क़रीब क़रीब सिंगल देखनी है फ़िर से (इसका लॉक डाउन से कोई लेना देना नहीं है)। पहली बार देखी तो अच्छी लगी थी और उनका वो चिरपरिचित अंदाज़। फ़िल्म की स्क्रिप्ट और डायलाग भी काफ़ी अच्छे थे।

वैसे ही श्रीमती जी की एक मित्र ने मेरी एक काफ़ी पुरानी पोस्ट पढ़ कर उन्हें फ़ोन किया था। इत्तेफाक की बात तो ये है जिस पोस्ट का वो ज़िक्र कर रहीं थीं उसमें इरफ़ान जी के इंटरव्यू में उन्होंने क्या कहा था उसका ज़िक्र था।

पिछले दिनों एक बार और उनके बारे में बिल्कुल ही अजीब तरीक़े से पढ़ना हुआ। अजीब आज इसलिये लग रहा है और कह रहा हूँ क्योंकि आज वो नहीं हैं। दरअसल मैं पढ़ रहा था कंगना रानौत पर लिखी हुई एक स्टोरी पढ़ रहा था जो क़रीब दो साल पुरानी थी। उससे पता चला की जिस इंटीरियर डिज़ाइनर ने कंगना का मनाली वाला बंगला डिज़ाइन किया है उन्होंने उससे पहले इरफ़ान जी का मुम्बई वाला घर डिज़ाइन किया था। कंगना को वो पसंद आया और इसलिये उन्होंने उन डिज़ाइनर साहिबा की सेवाएँ लीं।

जैसा मेरे साथ अक्सर होता है मुझे ये जानने की उत्सुकता हुई की इरफ़ान जी का घर कैसा है। बस इंटरनेट पर ढूंढा और देख लिया और पढ़ भी लिया। इंटीरियर डेकोरेशन का मुझे कभी शौक़ हुआ करता था लेक़िन बाद में नये शौक़ पाल लिये तो वो सब छूट गया। लेक़िन उस दिन फ़िर से थोड़ी इच्छा जगी। अब श्रीमतीजी इसको कितना आगे बढ़ने देती हैं, ये देखना पड़ेगा।

आज जब इऱफान खान जी के निधन की ख़बर आयी तो ये बातें याद आ गयी। कुछ समय के लिये बहुत बुरा भी लगा। लेक़िन किसी चैनल पर कोई कह रहा था हमें उनके काम को, उनके जीवन को सेलिब्रेट करना चाहिये।

बस फ़िर क्या था। उनकी क़रीब क़रीब सिंगल टीवी पर चालू। योगी बने इरफ़ान खान और न जाने कितने किरदारों के ज़रिये वो हमेशा हमारे बीच रहेंगे। उनको कोई भी क़िरदार दे दीजिये उसमें वो अपने ही अंदाज़ में जान फूँक देते थे।

इऱफान खान के घर के बारे में आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

कंगना रनौत के बंगले के बारे में आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

और इस पल में कोई नहीं है, बस एक मैं हूँ, बस एक तुम हो

बहुत सी फिल्मों में ऐसी महफिलें देखी थीं जिसमें सब पार्टी का मज़ा ले रहे हैं और ऑरकेस्ट्रा का गाना भी चल रहा है। बड़े हुये तो होटलों में जाना होता था। मगर कभी जाना हुआ भी तो वही इंडियन कॉफ़ी हॉउस जाते या ऐसे ही किसी होटल जहाँ ये सब चीजें नहीं होती थीं। फ़िर लगा शायद बार में ऐसा होगा लेकिन जितने भी बार गया वहाँ तेज़ संगीत, DJ होता।

पाँच साल पहले पहली बार महाबलेश्वर जाना हुआ और एक ठीक ठाक होटल में रुकने की बुकिंग थी। दोपहर में जब पहुँचे तब खाना खाकर आसपास घूमने निकल गये। शाम को जब लौटकर आये तो पहले तो सभी बेसुरों ने इकट्ठा होकर कराओके पर गाना गाया। वहाँ एक नौजवान मिला जो ठीक ठाक ही गा रहा था। कराओके पर गाना एक कला है और आपको इसको मास्टर करने में थोड़ा सा समय लगता है। लेकिन भट्ट अंकल के पड़ोसी होने का असर आ ही गया क्योंकि मेरे गाये गाने सब लगभग सुनने में ठीक लग रहे थे।

थोड़ी देर बाद वो बंदा वहां से चला गया और उसके बाद बग़ल के डाइनिंग हॉल से गीत संगीत की आवाज़ आ रही थी। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं। इतने बरसों से मेरी जो तमन्ना थी वो आज पूरी हो गयी थी। बस फ़िर क्या था एक अच्छी सी टेबल देखकर डेरा जमा लिया। उसके बाद शाम का कुछ अता पता नहीं रहा। दो लोगों की उस टीम ने कई फ़रमाइश गाने और मेड़ली सुनाई। उसके बाद से बाक़ी तीन रातें उन दोनों के नाम थीं।

इसके बाद टीम के सभी सदस्यों के साथ एक पार्टी में जाना हुआ जहाँ एक बार फ़िर लाइव ऑरकेस्ट्रा थी। दोनों ही पार्टी में एक बहुत बड़ा फ़र्क़ था लोगों का। पहली पार्टी में एक बहुत ही सुकून, इत्मीनान वाला माहौल था। सब अपने परिवार के साथ थे तो उस समय को ज़्यादा से ज़्यादा यादगार बनाने का था। ऑफिस वाली पार्टी में हंगामा बहुत ज़बरदस्त होता है। यादगार वो भी रहती हैं लेक़िन उसके कारण अलग होते हैं और आज जब याद आती हैं तो उन जोकरों की हरकतों के बारे में सोचकर हँसी आती है।

एक साल बाद फ़िर महाबलेश्वर जाना हुआ और इत्तेफाक से उसी होटल में रुकना हुआ। इस बार भी वो दोनों गायक और संगीतकार जोड़ी से मिलना हुआ। इस बार और मज़ा आया। उनको भी पता था कैसे गाने पसंद हैं तो उन्होंने भी पिटारे में से खोज खोज कर गाने सुनाये। क्या मैंने ऑरकेस्ट्रा में लालच में वहीं बुकिंग कराई थी?

आज मुझे वो महाबलेश्वर की शामें याद आ गईं जब फ़िल्म कर्ज़ में ऋषि कपूर जी को गिटार बजाते हुये देखा और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जी की क़माल की कर्ज़ की थीम धुन सुनी। उस धुन में क़माल का जादू है और वो न सिर्फ़ गिटार पर बल्कि संतूर पर भी बहुत ही अच्छी लगती है। पहले कई फिल्मों में इस तरह का थीम म्यूजिक हुआ करता था। अब तो फ़िल्म संगीतकारों से भरी रहती है लेक़िन संगीत नदारद होता है।

बरसों पहले जब मैं दिल्ली में था तब सलिल को जन्मदिन पर एक गिटार भेंट किया था। अब शायद वो किसी स्टोर रूम की शोभा बढ़ा रहा होगा (अगर पैकर्स की मेहरबानी रही हो तो)। ये शायद महाबलेश्वर की शामों की ही देन है की मैंने अपने जन्मदिन पर गिटार गिफ़्ट के रूप में ले लिया। क्या मैं कर्ज़ का थीम म्यूजिक बजा सकता हूँ? इन वर्षों में कुल चार बार हाँथ लगाया है और अभी तो ठीक से पकड़ना भी नहीं सीखा है। अभी पिछले एक दो हफ़्ते से बाहर रखा हुआ है और अब उनकी नज़र में वो आने लगा है। आदेश जल्द मिलेगा की उसको उसकी जगह पर रख दिया जाये। तब तक एक दो पोज़ खिंचवा ही सकते हैं।

हाँ 3 इडियट्स के शरमन जोशी के जैसे गिटार बजा के कुछ न कहो ज़रूर सुना सकता हूँ। या लम्हे के अनुपम खेर जैसे लागा चुनरी में दाग छुपाऊं कैसे की भी अच्छी तैयारी है। अगर इक्छुक हों तो संपर्क करें।

रेखाओं का खेल है मुक़द्दर, रेखाओं से मात खा रहे हो

रामायण ख़त्म होने के बाद उत्तर रामायण शुरू हुआ है। जब ये पहले आया था तब पता नहीं क्यूँ, लेक़िन देखा नहीं था। शायद दोनों के बीच अंतराल था तो देखने का उत्साह ख़त्म हो गया था या उस समय इसका प्रसारण समय कुछ और रहा होगा। बहरहाल, कारण जो भी रहा हो तीस साल पहले उत्तर रामायण नहीं देखा था सो अब पूरे मग्न होकर तो नहीं लेक़िन बीच बीच के कुछ प्रसंग देखे जा रहे हैं।

पहले भी जब रामायण देखी होगी तो उसका कारण बहुत अलग रहा होगा। आज इसमें ज़्यादा ध्यान रहता है की क्या ग्रहण कर रहे हैं और शायद इसीलिये अब देखते हैं तो ध्यान देते हैं ज्ञान की बातों पर।

कल के एपिसोड में लक्ष्मण को ये जानकर बड़ा आश्चर्य होता है की उनके पिता, बड़े भाई राम और भाभी सीता को मालूम था की भविष्य में क्या होने वाला है। लेक़िन सब जानते हुये भी उन्होंने सब कुछ स्वीकार किया। ये जानते हुये भी की अगर वो चाहते तो इन सबको बदल सकते थे।

लक्ष्मण को ये बड़ा अजीब लगता है की अगर कोई भविष्य के बारे में जानता हो और तब भी कुछ न करे तो उसका क्या फायदा। राम उन्हें समझाते हैं की भविष्य के ज्ञान का कोई महत्व नहीं है। महत्व इस बात का है की व्यक्ति दुःख और सुख में तटस्थ रहता है या नहीं। होनी तो होगी ही लेकिन उसका सामना प्राणी किस प्रकार करता है ये महत्वपूर्ण बात है।

राम उदाहरण देते हैं अपने पिता दशरथ का जिन्हें भविष्य में क्या होने वाला है इसका पूरा ज्ञान था। लेक़िन तब भी उन्होंने अपने वचन का पालन किया और इसके लिये उन्हें अपने प्राण त्यागना पड़ा और यही उनकी महानता थी। वर्तमान का जो धर्म है, कर्तव्य है उसे निभाओ।

इससे पूर्व लक्ष्मण आर्यसुमंत से भी ऐसा ही वार्तालाप करते हैं। जब उन्हें पता चलता है की राजा दशरथ को पता था। आर्यसुमंत उन्हें समझाते हैं कि होनी को मान लेना चाहिये लेक़िन फ़िर इससे आगे जाने का मार्ग ढूँढना चाहिये। जिन्हें पता होता है क्या होने वाला है वो इसके मार्ग में हस्तक्षेप नहीं करते।

हम में से ज़्यादातर लोग इसको जानने के लिये उत्सुक रहते हैं कि भविष्य में क्या होने वाला है। लेकिन क्या किसी भी भविष्य वक्ता ने ये बताया था जो इस समय हो रहा है? मुझे तो ऐसे किसी की भविष्यवाणी पढ़ने को नहीं मिली।

मैं भी हर हफ़्ते बाकायदा अगले हफ़्ते में क्या होने वाला है, ज़रूर पढ़ता हूँ। और कुछ नहीं तो सिर्फ़ इसलिये की पढ़कर अच्छा लिखा हो तो अच्छा लगता है। लेक़िन मैंने ऐसे बहुत से लोग देखे हैं जो काल आदि देखकर अपना सारा काम करते हैं और ऐसे भी जो ये कुछ नहीं देखते और सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने काम पर विश्वास रखते हैं।

दोनों में से ज़्यादा सफ़ल कौन है?

https://youtu.be/EeOeoqVF3zY

आज फ़िर दिल ने एक तमन्ना की, आज फ़िर दिल को हमने समझाया

अभी पिछले दिनों टुकड़ों में फ़िर से क़यामत से क़यामत तक देखना शुरू किया है। ये फ़िल्म बहुत से कारणों से दिल के बहुत करीब है। लेकिन ये पोस्ट उस बारे में नहीं हैं।

फ़िल्म में जूही चावला का एक डायलॉग है जो की ग़ज़ब का है दिन गाने के ठीक बाद है। आमिर खान जहाँ जंगल से बाहर निकलने पर बेहद खुश हैं वहीं जूही चावला थोड़ा दुखी हैं। जूही कहती हैं जब वो माउंट आबू आयीं थीं तो उन्हें नहीं पता था उनकी मुलाक़ात आमिर से होगी और उनकी दुनिया ही बदल जायेगी। ये फ़िल्म का आप कह सकते हैं टर्निंग प्वाइंट है जब दोनों क़िरदार अपने प्यार का इज़हार करते हैं और कहानी आगे बढ़ती है।

बिल्कुल वैसे ही हमारी दुनिया बदल जाती है जब हम कोई किताब उठाते हैं। उससे पहले हमें उसके बारे में कुछ भी पता नहीं होता। लेकिन जैसे आप पन्ने पलटते जाते हैं आप एक नई दुनिया में खोते जाते हैं। और ये शब्दों के जादूगर ही हैं जो अपने इस जाल में फँसा कर उस क़िरदार को हमारे सामने ला खड़ा करते हैं।

पढ़ने के शौक़ के बारे में पहले भी कई बार लिखा है। लेकिन आज विश्व पुस्तक दिवस पर एक बार और किताबों की दुनिया। जैसा अमूमन किसी दिवस पर होता है, लोगों ने अपनी पाँच पसंदीदा किताबें लिखी। वो लिस्ट बड़ी रोचक लगती है क्योंकि वो आपको उस इंसान के बारे में थोड़ा बहुत बता ही जाती है। लेक़िन मैं अपनी ऐसी कोई लिस्ट नहीं बताने वाला हूँ।

आप किताबें कैसे पढ़ना पसंद करते हैं? मतलब हार्डकॉपी, ईबुक या अब जो चल रहीं है – ऑडियो बुक। मैंने ये तीनों ही फॉरमेट में किताबें पढ़ी/सुनी हैं और पहला तरीका अब भी सबसे पसंदीदा है। तीनों के अपने फ़ायदे नुकसान हैं। नुकसान का इस्तेमाल शायद यहाँ ग़लत है। जैसे हार्डकॉपी लेकर चलना आसान नहीं है अगर आप दो-तीन किताबें साथ लेकर चलते हैं तो। अगर वो दुबली पतली हैं तो कोई कष्ट नहीं लेक़िन अगर वो खाते पीते घर की हों तो थोड़ी समस्या हो सकती है।

ऐसे समय ईबुक सबसे अच्छी लगती है। अगर आप किंडल का इस्तेमाल करते हों तो आप अपनी पूरी लाइब्रेरी लेकर दुनिया घूम सकते हैं। और सबसे मजेदार बात ये की आप अपनी लाइब्रेरी में किताबें जोड़ सकते हैं बिना अपना बोझा बढ़ाये।

जो सबसे आख़िरी तरीका है उससे थोड़ी उलझन होती है। मुझे तो हुई थी शुरुआत में। क्योंकि किताब को सुनना एक बिल्कुल अलग अनुभव है। ठीक वैसे ही जैसे मैंने क़यामत से क़यामत तक को देखा नहीं लेक़िन सिर्फ़ सुना। अब अग़र फ़िल्म देखने के लिये बनी है तो क़िताब पढ़ने के लिये। इसलिये सुनना थोड़ा अजीब सा लगता है।

दूसरी बात जो ईबुक या ऑडियो बुक में खलती है वो है निशान लगाना जो आपको अच्छा लगा या आपको कुछ समझना है। ईबुक में ये सुविधा ज़रूर है लेक़िन शायद आदत पड़ी हुई है तो इसलिये वो पुराना तरीका अच्छा लगता है।

और क़िताब पढ़ते समय साथ में अगर एक गर्म चाय की प्याली हो तो क्या कहने। एक हाँथ से किताब संभालते हुये और दूसरे हाँथ से चाय का मग। मुझे अक्सर साथ में एक रुमाल की भी ज़रूरत पड़ जाती है क्योंकि मैं कहानी में इतना खो जाता हूँ की पढ़ते हुए आँसू निकल आते हैं। इसका अभी हिसाब नहीं है की क्या ये तीनों फॉरमेट के साथ होता है या सिर्फ़ पहले वाले के साथ।

2020 की बदौलत मुझे लगता है एक लंबा समय जायेगा जब मैं या और क़िताब प्रेमी भी हार्डकॉपी को हाँथ लगायेंगे। इसलिये अग़र अब किताब पढ़ना होगा तो सिर्फ़ ईबुक या ऑडियो बुक ही चुनी जायेगी।

लेक़िन हमेशा ऐसा लगता है अगर क़िताब को, उसके पन्नों को छूने का मौका न मिले और पन्नों से आती खुशबू न मिले तक पढ़ने जैसा लगता ही नहीं।

क्या ये साल के बदलावों की लंबी लिस्ट में किताबें भी शामिल हो गयी हैं?

प्यार बाँटते चलो

हमारे व्यक्तिगत जीवन में कई उतार चढ़ाव आते हैं जिनसे हम कुछ न कुछ सीखते ही हैं या कहें की हमें कुछ न कुछ सीखा ही जाता है। जबसे हमारी लड़ाई कोरोना से शुरू हुई है तो ये किसी एक व्यक्ति की न होकर पूरे समाज की लड़ाई बन गयी है। इसमें तो सीखने को और ज़्यादा मिल रहा है।

जब हम ऐसा कुछ अपने परिवार के स्तर पर कर रहे होते हैं तो ये एक छोटा समूह रहता है। उसमें से आप ज़्यादातर लोगों को जानते हैं, उनके मिज़ाज़ से वाकिफ़ होते हैं। लेकिन इस समय कोरोना के ख़िलाफ़ जिस सोसाइटी में आप रहते हैं वो सब, उस गली, मुहल्ले, शहर में रहने वाले, सब इसमें साथ हैं। मेरे जैसे अति असामाजिक व्यक्ति के लिये तो ये एक बड़ा सीखने वाला समय है। साल में एक दो बार दिख गये तो कुशल क्षेम पूछने वाले व्यक्तियों के स्वभाव के बारे में कुछ पता चलता है। कुछ अपने बारे में भी की आप कैसे इसका सामना करते हैं और क्या आपका देखने का तरीका सिर्फ़ बोलने तक सीमित है या वाक़ई में कुछ करने का साहस भी रखते हैं। अपने लिये तो सब कुछ न कुछ कर लेते हैं लेक़िन उस समाज के लिये आप क्या करने को तैयार हैं इसका भी पता चल जाता है।

विपत्ति के समय हमें कुछ अच्छे तो कुछ थोड़े कम अच्छे अनुभव होते हैं। मैं उन्हें बुरा इसलिये नहीं मानता क्योंकि उसमें भी कुछ तो अच्छा होता ही है। बस आप उस अच्छे को ले लीजिये और बुरे को छोड़ दीजिये। समाज के स्तर पर ऐसे मौके कम ही आते हैं जब सब मिलकर किसी एक मोर्चे पर लड़ाई लड़ रहे हों। इस समय सब एक ही मोर्चे पर तो हैं लेकिन साथ साथ नहीं हैं। सब मजबूरी में साथ हैं और कहीं न कहीं ये दिख जाता है।

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एक और जहाँ समाज में ऐसे कई उदाहरण मिल जायेंगे जो लोगों की सिर्फ़ मदद करना जानते हैं, वहीं दूसरी और ऐसी भी कई घटनायें हुई हैं जिन्हें जानने के बाद मेरी आँखों मैं आँसूं आ गये। जैसे आंध्र प्रदेश की वो महिला जिसने गर्मी में काम कर रहे पुलिसकर्मियों के लिये कोल्डड्रिंक की दो बोतल ख़रीद कर दी। उन्होंने चार बोतल के पैसे होने का इंतजार नहीं किया। दो ख़रीद सकती थीं तो उसी समय दे दी।

या बेंगलुरू की वो सब्ज़ी विक्रेता जिन्होंने एक भले मानस से पूछा की वो इतनी सारी सब्ज़ियों का क्या करेंगे। ये जानने पर की वो करीब 200 लोगों के भोजन की व्यवस्था कर रहे हैं तो उन्होंने सारी सब्ज़ी मुफ़्त में दे दी।

दूसरी और आज चेन्नई के एक डॉक्टर का वीडियो देखा जिसमें वो हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर रहे हैं की लोग डॉक्टरों पर हमले करना बंद करें। उनके मित्र जो स्वयं डॉक्टर थे, उनकी कोरोना वायरस से मृत्यु हो गई लेकिन जब उनको चर्च में दफ़नाने की बात आई तो आसपास के लोगों ने उनकी अंतिम यात्रा में शामिल लोगों पर हमला कर दिया। अंत में उनको दफ़नाने का सारा काम उनके मित्रों के द्वारा ही किया गया।

क्या हमारे अंदर की मानवता ख़त्म हो चुकी है? एक व्यक्ति जो हमारे समाज का हिस्सा था, क्या उसको एक सम्मानजनक अंतिम संस्कार भी नहीं मिलने देंगे? आपको अगर ये चिंता है की ऐसा करने से वायरस फैलेगा, तो आप अधिकारियों से बात करिये। लेक़िन अपने किसी अज़ीज़ की मौत के ग़म में डूबे लोगों पर हमला किसी भी नज़रिये से उचित नहीं ठहराया जा सकता है।

अमेरिका की एक घटना का वीडियो देखा जिसमें भारतीय मूल की एक महिला चिकित्सक ने भी कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ते हुये अपनी जान गवायीं। लेक़िन वहाँ डॉक्टरों से ऐसे सुलूक के बारे में नहीं पढ़ा। हमारे यहाँ तो ऐसी कई घटनायें हुई हैं।

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दूसरी घटना जिसको पढ़कर मन व्यथित हो गया वो थी बारह साल की उस कन्या की जिसने अपने घर की ओर पैदल सफ़र ख़त्म होने के चंद घंटे पहले ही दम तोड़ दिया। जब वो घर के इतने करीब थी तो उसके मन में भी ये उत्साह रहा होगा की बस अब पहुँचने ही वाले हैं? क्यूँ हमारा सिस्टम इन लोगों की ख़ैर खबर नहीं रख पाया? क्या हम उसकी जान बचा नहीं सकते थे?

और फ़िर पढ़ने को मिलता है ऐसी महिला अधिकारी के बारे में जो जन्म देने के 22 दिन बाद ही काम पर वापस लौट आईं क्योंकि उस समय उनकी ज़रूरत समाज को थी।

अगर हम सब सिर्फ़ भगवत गीता के \”कर्म किये जाओ फ़ल की चिंता मत करो\” के सिद्धांत पर बस काम करते रहें तो क्या हम एक अच्छे समाज को बनाने में सहायक नहीं होंगे?

आया है मुझे फ़िर याद वो ज़ालिम

अक्सर दोस्ती ऐसे होती है की आपकी और आपके दोस्तों की कुछ पसंद मिलती हो। मतलब कोई एक ऐसी चीज़ होती है जो आपको साथ लाती है। वो आपके शौक़, कलाकार या कोई खेल। जैसे हिंदुस्तान में क्रिकेट खेलने वाले दोस्त न सही लेकिन जान पहचान की शुरुआत का ज़रिया तो बन ही जाते हैं।

अंग्रेज़ी का एक शब्द है vibe (वाइब)। मतलब? आप जब किसी से मिलते हैं तो उसका पहला इम्प्रेशन। कुछ लोग आपको पहली ही मुलाक़ात में पसंद आते हैं और कुछ कितनी भी बार मिल लीजिये, उनके बारे में अवधारणा नहीं बदलती। कुछ लोगों से पहली बार मिलकर ही आप को पता लग जाता है की ये कहाँ जानेवाला है या कहीं नहीं जानेवाला है।

फ़ेसबुक जहाँ सभी दोस्त हैं – आपका रिश्ता कुछ भी हो, अगर आप फ़ेसबुक पर हों तो आप फ्रेंड ही हैं। ठीक वैसे ही जैसे पहले फेसबुक पर कोई भी कुछ भी शेयर करे – अच्छा या बुरा आपके पास बस लाइक बटन ही क्लिक करने को था। वो तो पता नहीं किसने मार्क भाई को समझाया तब जाकर कुछ और इमोजी जोड़ी गईं। नहीं तो आप सगाई का ऐलान करें या अलग होने का सब को लाइक ही मिलते थे। ये आप पता करते रहिये की इसमें से किस लाइक का क्या मतलब है।

तो आज फ़ेसबुक की सैर पर देखा तो एक सज्जन ने बड़े प्यार से बताया की वो इन दिनों कौन सी किताब पढ़ रहे हैं। उनके ज़्यादातर दोस्तों ने तो किताब की बड़ाई करी और साथ में ये भी बताया की उस किताब ने उनके जीवन पर क्या प्रभाव डाला है। लेकिन एक दो लोगों ने इसके विपरीत ही राय रखी। एक सज्जन ने तो कई बार ये लिखा की ये एक बकवास किताब है और इसको न पढ़ा जाये तो बेहतर है।

उनका ये कहना था की उन्होंने अपने जीवन के पाँच वर्ष इस किताब को पढ़ कर और उसमें जो लिखा है उसका पालन करने में लगाये लेक़िन उन्हें निराशा ही हाथ लगी। उन्होंने लोगों को ये समझाईश भी दे डाली की इस किताब को छोड़ उन्हें दूसरी किताबें पढ़नी चाहिये।

इस पूरे मामले का ज़िक्र मैं इसलिये कर रहा हूँ की उन सज्जन का ये कहना की ये किताब अच्छी नहीं है हो सकता है उनके लिये बिल्कुल सही हो। लेक़िन क्या वो सबके लिये सही हो सकता है? मैं ये भी मानने के लिये तैयार हूँ की उनकी मंशा अच्छी ही रही होगी।

लेकिन जब बच्चे बडे हो रहे होते हैं तब माता पिता उनको जितना हो सके ज्ञान देते हैं। क्या गर्म है, क्या ठंडा ये बताते हैं लेकिन जब तक बच्चे एक बार गर्म बर्तन को छू नहीं लेते उनकी जिज्ञासा शांत नहीं होती है। ठीक उसी तरह मुझे इनकी समझाईश से परेशानी है। निश्चित ही वो अपने दोस्त का भला चाहते होंगे इसलिये उन्होंने अपना अनुभव साझा किया। लेकिन अगर ऐसे ही चलता होता तो हम आगे कैसे बढ़ेंगे? और हमारे अपने अनुभव न होंगे तो हमारे व्यक्तित्व का विकास कैसे होगा?

हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है हमारी गलतियाँ। छोटी या बड़ी कैसी भी हों वो हमें सीखा ज़रूर जाती हैं। बात तो तब है जब आप अपनी ग़लती माने और उसको सुधारें भी। यही मैं उन सज्जन को भी बताना चाहता हूँ।

हम देखें ये जहाँ वैसे ही, जैसी नज़र अपनी

लॉकडाउन शुरू हुआ तो बहुत से लोगों को ये लगा की ये एक स्वर्णिम अवसर है कुछ करने का। मेरा भी ऐसा ही मानना था – मेरे लिये नहीं क्योंकि मेरा रूटीन इससे पहले भी ऐसा ही था और इसमें कोई भी बदलाव नहीं हुआ है। लेकिन उन लोगों के लिये एक बड़ा बदलाव ज़रूर आया जिनको अब घर से काम करना पड़ रहा है। उनके पास थोड़ा ज़्यादा समय है जब वो कुछ और कर सकते हैं। मसलन कुछ नया सीख सकते हैं या कुछ नया कर सकते हैं या लिस्ट बना कर वो सारी वेब सीरीज़ देख लें जो किसी न किसी कारण से नहीं देख पाये थे।

इस \’कुछ करो अब तो टाइम भी है\’ कैंपेन के चलते जो नुकसान हुआ उसपर किसी की नज़र भी नहीं गयी। शायद मेरी भी नहीं। हम सभी जो ये ज्ञान दे रहे थे की कुछ और करो, नया सीखो, लिखो, पढ़ो, देखो के चलते बहुत से लोग इस अनावश्यक द्ववाब में भी आ गये। उसपर ऐसे मैसेज चलने लगे जो यही कह रहे थे कि अगर अब भी आपने कुछ नहीं किया तो धिक्कार है आपके जीवन पर।

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लेक़िन ये उतना ही गलत था, है तब जब आप लॉक डाउन में नहीं थे। बल्कि इस समय ये और ग़लत है। कैसे?

जब सब कुछ ठीक ठाक था तब आप घर से बाहर निकल सकते थे। एक रूटीन था। हर चीज़ का समय बंधा हुआ था। उसमें आपके स्वास्थ्य की देखभाल भी शामिल था और आपकी हॉबी के लिये भी समय था। लेकिन अब सब बदल गया था। आपको अपना रूटीन घर के अंदर ही फॉलो करना है और उसपर घर के सभी काम भी करने हैं। निश्चित रूप से घर के सभी सदस्य इसमें योगदान कर रहे होंगे लेकिन अब वो समय की पाबंदी खत्म है।

मैं जब मुम्बई की भीड़ का हिस्सा था तो सुबह 7.42 की लोकल पकड़ना एकमात्र लक्ष्य रहता था। उसके लिये तैयारी करीब डेढ़ घंटे पहले से शुरू हो जाती थी। जब ये बाध्यता खत्म हो जाये तो? कुछ वैसा ही ऑफिस से वापस आने के समय रहता था। लेक़िन अब तो सब घर से है तो 6 बजे की मीटिंग अगर 7 बजे तक खिंच भी गयी तो क्या फ़र्क़ पड़ता है।

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लेक़िन इसके चलते बाक़ी सभी काम का समय जो है वो उसी समय होना है। परिवार के अन्य सदस्य होंगे जिनका भी ख्याल रखना हैं। ये मान लेना की आप घर से काम कर रहे हैं तो आपके पास ज़्यादा समय होगा सबसे बड़ी ग़लती है। आपका ऑफिस जाने के समय में बचत ज़रूर हुई है लेक़िन आप घर से ज़्यादा काम करते हैं। उसपर घर के भी कुछ न कुछ काम रहते हैं।

दरअसल घर से काम करना इतना आसान है ही नहीं। ये सुनिश्चित करना कि सब ठीक से हो उसके लिये बहुत नियमों का पालन करना होता है। इसमें इंटरनेट से लेकर कमरे की उपलब्धता शामिल है। इसको लेकर बहुत ही शानदार मिमस भी बने हैं।

इसलिये अगर आप इस दौरान कुछ नया नहीं सीख पाये या पढ़ पाये तो कोई बात नहीं। आप इसका बोझ न ढोयें। इस समय ज़रूरी है कि आप अपनी क्षमता अनुसार जितना कर सकते हैं उतना करिये। आपके पास इस समय वैसे ही कामों की लंबी लिस्ट है और उसमें अगर कुछ सीखने सीखना वाला काम नीचे है तो उसे वहीं रहने दे। जब उसका समय आयेगा तब उसको भी देख लीजियेगा।

आप जिन मोर्चों पर डटे हैं उन्हें संभाल लीजिये। ऐसा कहा भी गया है की जब शिष्य तैयार होगा तो गुरु प्रकट हो जायेंगे।

कल की हमें फ़ुर्सत कहाँ, सोचे जो हम मतवाले

जब भी कोई बड़ी घटना होती है या आपदा आती है तो वो उस क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के लिये एक बड़ा अवसर होता है। जैसे इस समय हमारे डॉक्टर और मेडिकल स्टॉफ के अन्य सदस्य, पुलिस, स्थानीय प्रशासन के लोग कई मोर्चों पर लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे अवसर को अगर आपकी ज़िंदगी बदलने वाला अवसर कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

बीते 20 दिनों के बाद ये तो मैं दावे से सबके लिये कह सकता हूँ की जब हमारा जीवन पटरी पर लौटेगा तो कुछ भी पहले जैसा नहीं होगा। इसका हमारी ज़िंदगी पर असली असर शायद एक दो महीने नहीं बल्कि उसके भी बाद में पता चलेगा।

पत्रकारिता के क्षेत्र की बात करूं तो सबके पास बहुत से किस्से कहानियां होती हैं। हम लोग बहुत सी ऐसी घटनाओं के साक्षी भी होते हैं जो जीवन पर बहुत गहरा असर छोड़ती हैं।

वैसे तो मैं इन 20 वर्षों में कई बड़ी घटनाओं का साक्षी रहा हूँ लेक़िन इनमें से दो का ज़िक्र यहाँ करना चाहूँगा। पहली घटना उस रात की है जब पीटीआई की न्यू ईयर पार्टी थी। हमारा पूरा बैच इस पार्टी का इंतजार कर रहा था। जो पीने पिलाने का शौक़ रखते थे उनके लिये तो ये एक अच्छा मौका था। पार्टी अमूमन दिसंबर के अंतिम हफ़्ते में होती थी लेकिन नये साल से लगभग एक हफ़्ते पहले ताक़ि सब नया साल अपने परिवार के साथ मना सकें।

लेकिन शाम होते होते पार्टी का माहौल थोड़ा फ़ीका पड़ने लगा था। एक न्यूज एजेंसी के रूप में पीटीआई का काम कभी नहीं रुकता था। उस दिन जो एक विमान अपहरण की घटना हुई थी वो कहाँ से कहाँ पहुँच जायेगी इसका कोई अंदाज़ा नहीं था। लेक़िन पल पल मामला ख़राब होता जा रहा था। जब अमृतसर से विमान उड़ा तब हम लोग होटल के लिये निकल रहे थे।

पार्टी हुई लेक़िन सीनियर ने अपनी हाज़री लगायी और वापस आफिस। उनके साथ कुछ और लोग भी चले गये। रात होते होते विमान अपहरण की घटना कोई पुरानी घटना जैसी नहीं रही थी। कंधार विमान अपहरण की याद शायद इसीलिए हमेशा ताज़ी रहती है।

पहली घटना अगर पार्टी की रात थी तो दूसरी घटना थी 26 जनवरी की। जैसा मैंने बताया पीटीआई में कोई त्योहार हो या राष्ट्रीय पर्व, काम चलता रहता है। मैं नाईट शिफ़्ट ख़त्म कर चेंबूर वाले फ्लैट में पहुँच कर बाक़ी लोगों के साथ चाय पी रहा था। उसी समय ऑफिस से फ़ोन आया और भुज के भूकंप के बारे में पता चला।

इस बार की बात बहुत ही अलग है। जिन दो घटनाओं का मैंने ज़िक्र ऊपर किया उसका असर बहुत ही सीमित लोगों पर हुआ। लेकिन कोरोना वायरस का सबका अपना अनुभव है। इस देश में रहने वाले हर एक व्यक्ति के पास, हर गली मोहल्ले में आपको एक कहानी मिल जायेगी। इसमें से अगर बहुत सी कहानियां उन लोगों के बारे में होंगी जो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने ही बारे में सोचते हैं, तो कुछ ऐसी भी होंगी जिसमें लोग निस्स्वार्थ भाव से सिर्फ़ मदद कर रहे हैं। उन्हें न अपनी फ़ोटो खिंचवाने का शौक़ है न अपने काम का बखान करने का। संख्या उनकी कम होगी लेक़िन उनका पलड़ा हमेशा भारी रहेगा।

ये उनके लिये।

मैं कुछ लिखूँ, वो कुछ समझें ऐसा नहीं हो जाये

फेसबुक या ट्विटर आपको हर साल ये याद दिलाते रहते हैं की आपको उस प्लेटफार्म पर कितने समय से हैं। फेसबुक एक कदम आगे जाकर आपको अपने सभी दोस्तों के साथ कितने साल हो गये ये भी दिखाता है। लेकिन इन सबसे पहले मैंने और शायद मेरी तरह आपने भी ईमेल का इस्तेमाल शुरू किया था। इसका ठीक ठीक समय तो याद नहीं लेकिन पिछले दिनों इतिहास के पन्ने मजबूरी में पलटने ही पड़े।

ईमेल आ रहे थे की एकाउंट में अब जगह नहीं है। नई मेल आना बंद हो जायेंगी। दो ही विकल्प थे – या तो पुरानी मेल डिलीट करूँ या और जगह बनाने के लिये पैसा दूँ। जबसे एक मेल एकाउंट से सभी चीज़ें – जैसे फ़ोटो वीडियो सेव होने लगे हैं तबसे जगह निश्चित ही एक समस्या बन गयी है। पहले तो लोग मेल भी लिखते थे तो लंबी मेल हुआ करती थीं। लेकिन धीरे धीरे उन मेल में फ़ोटो, वीडियो आदि आने लगे तो ज़्यादा जगह जाने लगी।

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इस समस्या का दूसरा पहलू तब दिखा जब मैं पुरानी ऐसी मेल हटाने लगा जिनको उसी समय डिलीट कर देना चाहिये था जब वो आईं थीं। लेकिन शायद उस समय ये नहीं सोचा था की एक दिन 15GB की जगह भी कम पड़ जायेगी। आज देखिये तो आपके हाँथ में जो फ़ोन है वो ही 128GB की मैमोरी के साथ आता है। इसलिये अब मेल आती है तो उसी समय उसके भविष्य का फ़ैसला हो जाता है। अगर दिन मैं 100 मेल आते हैं तो उसमें से बमुश्किल 10-15 ऐसी होते हैं जिनकी भविष्य में कोई आवश्यकता पड़ेगी।

बाक़ी बची मेल पर फ़टाफ़ट फ़ैसला और आगे के सिरदर्द से छुटकारा। इस पूरी कसरत में कई 15 से ज़्यादा पुरानी मेल पढ़ने को मिली। सच में उस समय चिट्ठी की जगह मेल ने ले ली थी। लेक़िन हम लोग बाकायदा बड़ी मेल ही लिखते थे। मेरे पहले बॉस नासिर साहब की कई मेल भी मिली जिसमें उन्होंने मुझे कई बातें समझाईं। उन पुराने आदान प्रदान को पढ़कर एक अजीब सा सुकून भी हुआ।

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मुझे याद आया मेरा पहला ईमेल एकाउंट जिसे मैंने रेडिफ पर शुरू किया था। उसके बाद याहू और बाकी जगह। शुरू वाले एकाउंट तो बहुत से कारणों से बंद हो गये और कई दिलचस्प मेल इसलिये अब पास में नहीं हैं। इसका मुझे ज़रूर अफ़सोस रहेगा। लेक़िन जो है उसके लिये भी शुक्रगुज़ार हूँ। जगह बन तो गयी लेक़िन इसी बहाने एक बढ़िया यादों का सफ़र भी तय हो गया। क्या क्या छुपा रखा था इस मेल एकाउंट में ये शायद पता भी नहीं चलता।

अब ऐसी नौबत कब आती है पता नहीं। लेक़िन जगह बनाने की इस पूरी प्रक्रिया को दोहराने में कोई परेशानी नहीं होगी ये पक्का है।

हम हो गये जैसे नये, वो पल जाने कैसा था

आपने ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा ज़रूर देखी होगी। दोस्ती के साथ साथ ये फ़िल्म जीने के भी कुछ फ़लसफ़े दे जाती है। फ़िल्म में वर्क फ्रॉम होम या WFH, आजकल जिसका बहुत ज़्यादा ज़िक्र हो रहा है, उसकी भी झलक मिलती है। ऋतिक रोशन को अपने काम से बहुत प्रेम है और वो सफ़र करते हुये भी गाड़ी साइड में खड़ी करके मीटिंग कर लेते हैं (मोशी मोशी वाला सीन)।

लगभग पिछले पंद्रह दिनों से कोरोना के साथ अगर बहुत ज़्यादा इस्तेमाल करने वाला शब्द कोई है तो WFH है। पहले कुछ तरह के काम ही इस श्रेणी में रहते थे। लेकिन अब क्या सरकारी क्या प्राइवेट नौकरी सब यही कर रहे हैं।

मेरा इस तरह के काम करने के तरीके से पहला परिचय हुआ था 2008 में जब मैंने अपना डिजिटल माध्यम का सफ़र शुरू किया था। एक वेबसाइट से जुड़ा था और हमें सप्ताहांत में आने वाले शो के बारे में लिखना होता था। उस समय ये कभी कभार होने वाला काम था इसलिये कोई बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता था। उस समय नेट कनेक्शन भी उतना तेज़ नहीं होता था लेकिन काम चल जाता था।

इससे पहले अपने आसपास सभी को ऑफिस जाते हुये ही देखा था। हाँ सब काम घर पर लाते थे और फ़िर अपनी सहूलियत से करते थे। लेकिन वो भी कुछेक लोगों को देखा था।

इस तरीक़े से पूरी तरह पहचान हुई 2011 में जब मैंने दूसरी कंपनी जॉइन करी। इस समय तक ये कोई अनोखी बात नहीं थी और भारत एक इन्टरनेट क्रांति के युग में प्रवेश कर चुका था। नई जगह पर इससे कोई मतलब नहीं था की आप कहाँ से काम कर रहे हैं जबतक की काम हो रहा है। अगर आपकी तबियत ठीक नहीं है और आप घर से काम करना चाहते हैं तो बस परमिशन ले लीजिये।

अच्छा जब कोई ये विकल्प लेता तो सबके सवाल वही थे – कितना काम किया? आराम कर रहा होगा, मज़े कर रहा होगा। कभी मैंने ख़ुद भी ऐसा किया तो ऐसा लगा ज़्यादा काम हो जाता है घर से। लेकिन ये तभी संभव है जब थोड़ा नियम रखा जाये। नहीं तो एक साइट से दूसरी और इस तरह पचासों साइट देख ली जाती हैं। समय कैसे निकल जाता है पता ही नहीं चलता।

2017 में जब नौकरी बदली तो ऐसी कंपनी में नौकरी करी जो इन बदलावों को दूर से देख रही थी लेक़िन अपनाये नहीं थे। वहाँ का मैनेजमेंट ऐसी हर चीज़ को बड़े ही संदेह की दृष्टि से देखता और हमेशा इस कोशिश में रहता की किसी न किसी तरह लोगों को ऑफिस बुलाया जाये। वहाँ ये बदलने के लिये बड़े पापड़ बेलने पड़े।

2019 में लगा अब तो हालात काफ़ी बदल गये होंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। और मैं ये मीडिया कंपनियों की बात कर रहा हूँ। सोचिये अगर 2019 से इस कंपनी ने धीरे धीरे ही सही, इस बदलाव की राह पर चलना शुरू कर दिया होता तो आज इस समय उनकी तैयारी कुछ और ही होती।

शायद समय हमें यही बताता है। समय रहते बदल जाओ, नहीं तो पड़ेगा पछताना। ये सिर्फ़ काम के लिये ही सही नहीं है। जैसे कैटरीना कैफ ऋतिक रोशन से कहती हैं जब वो अपने भविष्य का प्लान उन्हें बताते हैं। \”क्या तुम्हें पता है तुम चालीस साल तक ज़िंदा भी रहोगे?\”

आ अब लौट चलें

दिल्ली से चला परिवार आशा है सकुशल रायपुर के पास अपने गाँव पहुँच गया होगा। हम सभी लोगों के लिये भी ये एक ताउम्र याद रखने वाला अनुभव बन चुका है। कभी न ख़त्म होने वाली लगने वाली यात्रा इस परिवार को अलग कारण से याद रहेगी और हम घर में क़ैद लोग इन दिनों को बिल्कुल अलग कारणों से याद रखेंगे। मैं बोल तो ऐसे रहा हूँ की लोककल्याण मार्ग निवासी से मेरी दिन में दो चार बार बात हो जाती है और वहाँ से मुझे पता चला है कि ये जल्दी ख़त्म होने वाला है। ये कारावास अगले आठ दिनों में ख़त्म होगा, ये मुश्किल लगता है।

आज से करीब चौदह वर्ष पूर्व मुझे भोपाल में कार्य करते हुये एक संस्था से जुड़ने का मौक़ा मिला जो ग्रामीण क्षेत्रों में हो रहे विकास कार्यों की मोनिटरिंग करती थी। मुझे शुरू से ऐसे कामों में रुचि रही है। इससे पहले भी मैंने थोड़ा बहुत कार्य किया था।

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इस कार्य के लिये मुझे जबलपुर के समीप के गाँव में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। गाँव से मेरा कोई नाता नहीं रहा है। पुष्तैनी गाँव भोपाल के समीप ही था लेक़िन जैसे होता है \’बहुत\’ से कारणों के चलते जाने के बहुत ही सीमित अवसर मिले। शहरों के समीप जो गाँव थे उनका उस समय ज़्यादा शहरीकरण नहीं हुआ था। लेकिन जिस गाँव में मुझे जाना था वो थोड़ा अंदर की और था।

मेरे लिये ये अनुभव बिल्कुल अलग था। गाँव को दूर से देखना और वहाँ जाकर उनके साथ समय बिताना, उनके रहन सहन को देखना, उनके तौर तरीकों को समझना। ये सब इस यात्रा में जानने की कोशिश हुई। एक बार जाना और चंद घंटे में ये समझ पाना बहुत ही मुश्किल है।

लेकिन उस दिन मैंने देखा हमारे गाँव दरअसल एक अलग दुनिया है। गाँधीजी ने सही कहा था – असली भारत गाँव में बसता है। उस समय गाँव में सभी बुनियादी सुविधाओं का अभाव था। दस किलोमीटर दूर से खाने पीने का सामान लेकर आना पड़ता था। स्वास्थ्य सुविधायें कागज़ पर ही रही होंगी। लगा था इतने वर्षों में स्थिति में सुधार हुआ होगा। लेकिन पिछले दिनों देखा दिल्ली के समीप एक गाँव है जहाँ नाव द्वारा पहुँचा जा सकता है लेकिन वहाँ कोई सरकारी मदद नहीं पहुँची थी।

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अगर इसको हम ज़्यादातर गाँव की सच्चाई मान लें तो क्यूँ इतनी बड़ी संख्या में लोग लॉकडाउन के बाद पैदल ही निकल पड़े? कारण बहुत ही सीधा सा है। वो जहाँ के लिये निकले थे वो उनका घर है। वहाँ उनके अपने हैं। घर कैसा भी हो, सुविधाओं का भले ही अभाव हो लेकिन वो अपना है। शहर तो सिर्फ़ परिवार के भरण पोषण के लिये टिके हुए हैं। सिर्फ़ पैसा कमाने के लिये।

घर जाने पर एक आनन्द की अनुभूति। जैसी मुझे आज भी होती है जब कभी भोपाल जाने का मौक़ा मिलता है। बाक़ी बहुत कुछ मुझे उस परिवार से सीखना है।

https://youtu.be/DIbc7G-q6Rg

दिल पे मत ले यार, दिल पे मत ले

व्हाट्सएप ग्रुप भी बड़े मज़ेदार होते हैं इसका एहसास मुझे अभी बीते कुछ दिनों से हो रहा है। मैं बहुत ज़्यादा ग्रुप में शामिल नहीं हूँ और जहाँ हूँ वहाँ बस तमाशा देखता रहता हूँ। बक़ौल ग़ालिब होता है शबोरोज़ तमाशा मेरे आगे।

इसमें से एक ग्रुप है मेरे स्कूल के साथियों का। और इसमें क्या धमाचौकड़ी होती है। व्हाट्सएप पर लड़ाई ग्रुप छोड़ दिया और फ़िर वापस। उसके बाद फ़िर लड़ाई और फ़िर वापस। मतलब ये लॉकडाउन में सब घर में बैठे हैं और बीवियों से कोई पंगा लेने की हिम्मत नहीं कर सकता तो सब इस ग्रुप में निकल जाता है। और सब बातें ऐसे करते हैं जैसे सामने बैठे हों। मतलब सब बातें बिना किसी लाग लपेट के। कुछ लोग समय समय पर ज्ञान देते रहते हैं। कुछ समय सब ठीक और उसके बाद फ़िर से वापस हंगामा। लेकिन सब होने के बाद वापस वैसे ही जैसे दोस्त होते हैं। शायद यही इस ग्रुप की ख़ासियत है। कोई किसी को कुछ बोल भी देता है तो माफ़ी माँगो और आगे बढ़ो। दिल पे मत ले यार।

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सबको ऐसे ऐसे नामों से बुलाया जाता है। सही कहूँ तो इन सबकी बातें पढ़कर कई बार हंसी भी आती है और लगता है अभी हम जिस स्थिति में है उसमें सब साथ हैं। कुछ हंसी मज़ाक और कुछ नाराज़गी सब चलता है। लेकिन ग्रुप में सब एक दूसरे की मदद भी बहुत करते हैं। किसी को अगर नौकरी बदलनी है तो वहाँ भी सब आगे और किसी को दूसरे शहर में कुछ मदद चाहिये तो सब जैसे संभव हो मदद करते हैं।

ग्रुप के सदस्य दुनिया में अलग अलग जगह पर हैं तो इस समय के हालात पर भी जानकारी का आदान प्रदान भी चल रहा है। जो लोग इस समय बार नहीं जा पा रहे वो घर से अपनी शामों की तस्वीरें शेयर कर रहे हैं। कुल मिलाकर स्कूल की क्लास ही छूटी है बाकी सब वैसे ही चालू है।

इनमें से शायद 98% लोगों से मेरी स्कूल छोड़ने के बाद कोई बातचीत भी नहीं हुई। एक मित्र से बात हुई थी पिछले दिनों जिसका बयां मैंने अपनी पोस्ट में किया था। जी वही टिफ़िन वाली पोस्ट। एक बात शायद आपको बता दे की ग्रुप में क्या होता है – मेरा ये स्कूल सिर्फ़ लड़कों के लिये था। अब आप अंदाज़ा लगा सकते हैं…

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जब भी कोई भोपाल में स्कूल जाता है तो ज़रूर सबको बताता है। जो भोपाल में हैं वो भी कभी कभार स्कूल का चक्कर लगा लेते हैं। अगर उनको कैंटीन के समोसे खाने को मिल गये तो सबको जलाने के लिये उसकी फ़ोटो शेयर करना नहीं भूलते। सही में आंटी के उन समोसों का स्वाद कमाल का है और आज भी वैसा ही स्वाद। अगली भोपाल की यात्रा में इसके लिये समय निकाला जायेगा।

अब ये लॉकडाउन के ख़त्म होने का इंतज़ार है। क्या आप भी ऐसे ही किसे ग्रुप का हिस्सा हैं? क्या ख़ासियत है इस ग्रुप की?

हमको मिली हैं आज ये घड़ियाँ नसीब से

मिस्ट्री, सस्पेंस फ़िल्म देखने का एक अलग रोमांच है। जैसे तीसरी मंज़िल या ज्वेल थीफ या वो कौन थी आदि। क़माल की बात ये है की आम रोमांटिक फिल्म से अलग होते हुये भी इन फिल्मों का संगीत आज तक याद है लोगों को। उदहारण के लिये लग जा गले से। इससे बेहतरीन प्यार का इज़हार करने वाला कोई और गाना हो सकता है? और अगर आप को फ़िल्म की जानकारी मतलब उसके सब्जेक्ट की जानकारी नहीं हो तो ये बहुत ही अजीब सी लगती है की इतना खूबसूरत गीत एक मिस्ट्री फ़िल्म का हिस्सा है।

ये फिल्मों की एक ऐसी श्रेणी है जिसमें हर एक दो साल में कुछ न कुछ नया आता रहता है। अब तकनीक और अच्छी हो गयी है तो और अच्छी फिल्में बन रही हैं। लेकिन कहीं न कहीं अब वो मज़ा नहीं आ रहा है। फिल्मों का संगीत भी ऐसा कुछ खास नहीं है जैसा 1964 में बनी वो कौन थी के संगीत में है और उसमें अगर वो रीसायकल फैक्ट्री से बन कर निकला है तो रही सही उम्मीद भी चली जाती है।

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नये ज़माने के निर्देशक अब फिल्मों में बैकग्राउंड म्यूजिक को ज़्यादा महत्व दे रहे हैं। इन फिल्मों में उसका अपना एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान होता है। फिल्मों में ज़रूरी न हो तो गाने भी नहीं होते। एक दो गाने प्रोमोशन के लिये शूट कर लेते हैं। लेकिन अब वो भी नहीं होगा क्योंकि एक दर्शक ने केस कर दिया था निर्देशक पर की प्रमोशनल गाना फ़िल्म में दिखाया ही नहीं गया।

दूसरी श्रेणी फ़िल्मों की जिसे मैंने अब देखना कम या बंद कर दिया है वो है हॉरर फिल्म। ऐसा नहीं है की पहले बहुत देखता था लेकिन जितनी भी अच्छी फिल्में आयी हैं मैंने लगभग सभी देखी हैं और सब की सब सिनेमाघरों में।

मुझे याद जब रामगोपाल वर्मा की रात फ़िल्म रिलीज़ हुई थी उस समय मैं कॉलेज के प्रथम वर्ष में था। फ़िल्म कॉलेज से थोड़ी दूर लगी थी। मतलब कॉलेज के आसपास कोई भी सिनेमाघर नहीं था। कॉलेज था भोपाल की BHEL टाऊनशिप में। मेरे कॉलेज के नये नये मित्र जय कृष्णन को भी फ़िल्म देखने का शौक था। बस हम दोनों पहुँच गये सिनेमाघर। कॉलेज के बाकी साथियों ने इस बार हमारा साथ नहीं दिया। शायद उन्होंने अख़बार में फ़िल्म के पोस्टर के साथ लिखी चेतावनी याद रही – कृपया कमज़ोर दिल वाले ये फ़िल्म न देखें।

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फ़िल्म देखने मुश्किल से 15-20 लोग रहे होंगे पूरे हॉल में। दोनों बैठ तो गये लेकिन पता नहीं था क्या होने वाला है। लेकिन क्या बढ़िया फ़िल्म थी। उसका कैमरावर्क कमाल का था और सस्पेंस भी। मेरे लिये आज भी फ़िल्म रात हॉरर फिल्मों में सबसे ऊपर है। अंग्रेज़ी की भी कई फिल्में देखी और महेश भट्ट/विक्रम भट्ट की फैक्ट्री वाली कुछ फिल्में भी देखी हैं। लेकिन रात में जब कैमरा रेवती के पीछे पीछे सिनेमाघर के अंदर और उसके बाद मैनेजर के कमरे में पहुँचता है…

रामसे भाइयों ने भी ढ़ेर सारी फिल्में बनाई हैं लेक़िन मुझे सिर्फ़ उनके नाम याद हैं। बात गानों से शुरू हुई तो उसी से ख़त्म करते हैं। ये गुमनाम फ़िल्म का गीत है जिसमें हेलेन जी वही संदेश दे रही हैं जो आज इस समय बिल्कुल फिट बैठता है।

https://youtu.be/tKodgq-1TgY

ये लम्हे ये पल हम बरसों याद करेंगे

इस वर्ष का विम्बलडन भी कोरोना की भेंट चढ़ गया। खेलकूद में कोई विशेष रुचि नहीं रही शुरू से। इस बात की पुष्टि वो लोग कर सकते हैं जिन्होंने मेरी पूरी प्रोफाइल फोटो देखी है। लेकिन टेनिस में रुचि जगी जिसका श्रेय स्टेफी ग्राफ और बोरिस बेकर को तो जाता ही है लेकिन उनसे भी ज़्यादा पिताजी को। विम्बलडन ही शायद पहला टूर्नामेंट था जिसे मैंने देखा और फॉलो करने लगा।

इसके पीछे की कहानी भी यादगार है। इस टूर्नामेंट की शुरुआत हुई थी और शायद स्टेफी ग्राफ का ही मैच था। लेकिन समस्या ये थी की टीवी ब्लैक एंड व्हाइट था। पिताजी और मेरे एक और रिश्तेदार का मन था की मैच कलर में देखा जाये। तो बस पहुँच गये कलर टीवी वाले घर में। मैं भी साथ में हो लिया या ज़िद करके गया ये याद नहीं।

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पिताजी भी बहुत अच्छा टेनिस खेलते थे तो शायद टेनिस के प्रति मेरा रुझान का कारण वो भी हैं। खेलों के प्रति उनका ख़ास लगाव रहा है। उनकी टेनिस खेलते हुये और विजेता ट्रॉफी लेते हुये कई फ़ोटो देखी हैं। उनका पढ़ने और सिनेमा देखने के शौक़ तो अपना लिये लेकिन ये शौक़ रह गया।

पिताजी ने पूरा खेल समझाया। पॉइंट कैसे स्कोर होते हैं और उन्हें क्या कहते है। बस तबसे ये खेल के प्रति रुझान बढ़ गया। उसके बाद नौकरी के चलते सब खेलों पर नज़र रखने का मौका मिला और दिल्ली में पीटीआई में काम के दौरान एक चैंपियनशिप कवर करने का मौका भी मिला।

इन दिनों कुछेक खिलाड़ियों को छोड़ दें तो ज़्यादा देखना नही होता लेकिन नोवाक जोकोविच का मैच देखने को मिल जाये तो मौका नहीं छोड़ता। रॉजर फेडरर एक और खिलाड़ी हैं जो क़माल खलते हैं। उससे कहीं ज़्यादा कोर्ट में वो जिस शांत स्वभाव से खेलते हैं लगता ही नहीं की वो दुनिया के श्रेष्ठ खिलाड़ी हैं।

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कुछ वर्षों पहले जब घर देख रहा था तब एक घर देखा जिस सोसाइटी में टेनिस कोर्ट भी था। मुझे लगा शायद अब मैं टेनिस का रैकेट पकड़ना सीख ही लूंगा। लेकिन उधर बात बनी नहीं तो टेनिस खेलने के प्लान जंग खा रहा है।

अब जो लिस्ट बना रखी है मौका मिलते ही करने की उसमें ये भी शामिल है। और क्या शामिल है इसके बारे में कल। अगर इन दिनों आप की भी लिस्ट में बदलाव हुये हों तो बतायें।

जाते थे जापान, पहुँच गये चीन, समझ गये न

एक खेल है चाइनीज कानाफूसी (Chinese Whispers)। इस खेल में आप एक संदेश देते हैं एक खिलाड़ी को जो एक एक कर सब खिलाड़ी एक दूसरे के कान में बोलते हैं। जब ये आखिरी खिलाड़ी तक पहुँचता है तब उससे पूछा जाता है उसे क्या संदेश मिला और पहले खिलाड़ी से पूछा जाता है आपने क्या संदेश दिया था। अधिकतर संदेश चलता कुछ और है और पहुँचते पहुँचते उसका अर्थ ही बदल जाता है।

इसको आप आज के संदर्भ में न देखें। इस खेल की याद आज इसलिये आई क्योंकि एक व्यक्ति को एक जानकारी चाहिये थी। लेकिन उसने ये जानकारी उस व्यक्ति से लेना उचित नहीं समझा जो इसके बारे में सब सही जानता था। बल्कि एक दूसरे व्यक्ति को फ़ोन करके तीसरे व्यक्ति से इस बारे में जानकारी एकत्र करने को कहा। अब ये जानकारी चली तो कुछ और थी लेकिन क्या अंत तक पहुँचते पहुँचते वो बदल जायेगी? ये वक़्त आने पर पता चलेगा।

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पीटीआई में मेरे एक बॉस हुआ करते थे जिनकी एक बड़ी अजीब सी आदत थी। वो हमेशा किसी तीसरे व्यक्ति का नाम लेकर बोलते की फलाँ व्यक्ति ऐसा ऐसा कह रहा था आपके बारे में। अब आप उस तथाकथित कथन पर अपना खंडन देते रहिये। कुल मिलाकर समय की बर्बादी।

एक बार उन्होंने मेरी एक महिला सहकर्मी का हवाला देते हुये कहा कि उन्होंने मेरे बारे में कुछ विचार रखे हैं। मेरे और उन महिला सहकर्मी के बीच बातचीत लगभग रोज़ाना ही होती थी। इसलिये जब उन्होंने ये कहा तो मैंने फौरन उस सहकर्मी को ढूंढा और इत्तेफाक से वो ऑफिस में मौजूद थीं। उन्हें साथ लेकर बॉस के पास गया और पूछा की आप क्या कह रहे थे इनका नाम लेकर।

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बॉस ने मामला रफा दफा करने की कोशिश करी ये कहते हुये की \”मैंने ऐसा नहीं कहा। मेरे कहने का मतलब था उस सहकर्मी का ये मतलब हो सकता था।\” उस दिन के बाद से मुझे किसी के हवाले से मेरे बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई।

कोई बुरा बनना नहीं चाहता ये भी सच है। इसलिये ऊपर जो फ़ोन वाली बात मैंने बताई उसमें भी यही होगा। दूसरे लोगों का हवाला दिया जायेगा और उनके कंधे पर बंदूक रखकर चलाई जायेगी। कुछ लोग वाकई में इतने भोले होते हैं की उन्हें पता ही नहीं होता की उनका इस्तेमाल नहीं हो रहा है। देर से सही उन्हें इस बात का एहसास होता है और ये उनके जीवन की एक बड़ी सीख साबित होती है।

ये जो चीन से कानाफ़ूसी शुरू हुई है (आज के संदर्भ में), इसका असली सन्देश हमारे लिये सिर्फ़ एक है। अपने जीवन की प्राथमिकता को फ़िर से देखें। कहीं हम सही चीज़ छोड़ ग़लत चीज़ों को तो बढ़वा नहीं दे रहे। बाक़ी देश दूर हैं तो शायद उन तक पहुँचते पहुँचते ये संदेश कुछ और हो जाये। लेकिन हम पड़ोसी हैं इसलिये बिना बिगड़े हुये इस संदेश को भली भांति समझ लें।