जब सामने तुम आ जाते हो, कुछ मिल जाता है, कुछ खो जाता है

पत्रकारिता में जब शुरुआत हुई तो सभी चीजें नौकरी पर ही सीखीं। किसी संस्थान से कोई डिग्री, डिप्लोमा तो किया नहीं था, तो कैसे लिखने से लेकर, क्या लिखना, क्या नहीं लिखना ये सब सीखा। शुरुआत अखबार से करी थी तो ख़बर हमेशा जगह की मोहताज़ रहती थी। कभी जगह कम मिली तो बड़ी ख़बर छोटी हो जाती, लेकिन जब जगह ज़्यादा होती तो जैसे नासिर साब कहते, \”आज खुला मैदान है, फुटबॉल खेलो\”।

अख़बार में काम करते करते एक और चीज़ सीखी और जिसे प्रोफेशनल होने का लिबास पहना दिया – वो थी गुम होती सम्वेदनशीलता। उदाहरण के लिये जब किसी दुर्घटना की ख़बर आती तो पहला सवाल होता, फिगर क्या है। यहाँ फिगर से मतलब है मरने वालों की संख्या क्या है। अगर नंबर बड़ा होता तो ये फ्रंट पेज की ख़बर बन जाती है, अगर छोटी हुई तो अंदर के पेज पर छप जाती है या जैसे किसानों की आत्महत्या की खबरें होती हैं, छुप जाती हैं।

कुछ वर्षों पहले मुम्बई में मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी ने भी एक बार मुझे ये समझाया। \”लोगों को किसी दूसरे की ट्रेजेडी, दुख से एक अनकहा जुड़ाव रहता है। वो खुद दुखी होते हैं और यही हमारी सफलता है। तुम बस इसको समझ जाओ और इसको बेचो\”। उन्होंने कुछ गलत भी नहीं कहा था। 1984 में जब इंदिरा गांधी का निधन हुआ था तो उस समय उनके अंतिम संस्कार से लेकर बाकी सभी काम दूरदर्शन पर दिखाये जाते थे। उस दिन जब अस्थिसंचय का काम चल रहा तो शायद माँ ने टीवी बंद करने को कहा था। लेकिन मैंने बोला देखने दीजिये। पहली बार देख रहे हैं ये सब।

शायद ये सही भी होगा। अभी पिछले दिनों जब अभिनेता इरफ़ान खान और ऋषि कपूर जी की दुखद मृत्यु हुई तो सबने इसको बढ़चढ़ कर कवर किया। रही सही कसर उस बंदे ने पूरी करदी जिसने उनके अंतिम संस्कार के वीडियो बनाये और शेयर करने शुरू कर दिये। मुझे यकीन है इसको एक बड़ी जनता ने देखा भी होगा।

कोरोना वायरस के बाद ऐसी खबरों की जैसे बाढ़ आ गयी है। एक मोहतरमा भारत भ्रमण कर ऐसी खबरों का नियमित प्रसारण कर रही हैं। मुझे इन खबरों से कोई परहेज नहीं है। लोगों को परेशानी हो रही है और ये बताना चाहिये। लेक़िन क्या यही सब पत्रकार क्या अपने जानकारों के ज़रिये किसी भी तरह से इन लोगों की मदद नहीं कर सकते? सभी की मदद करना एक पत्रकार के लिये संभव नहीं होगा लेकिन वो किसी संस्था के ज़रिये ये काम कर सकते हैं। लेकिन किसी की ऐसी कहानी के ऊपर अपनी रोटियां सेंकना या अपने मालिकों के एजेंडे को आगे बढ़ाना कहाँ तक उचित है? अगर आपने Delhi Crime देखा हो तो उसमें एक पत्रकार पुलिस अफसर को बताती है की कैसे उनके संपादक महोदय ने दिल्ली पुलिस की नींद हराम करने की ठानी है। ये उनका एजेंडा है।

मेरा हमेशा से ये मानना रहा है की अगर आपको समस्या मालूम है तो समाधान की कोशिश करें। समस्या कितनी बड़ी है या छोटी है, उसके आकार, प्रकार पर समय न गवांते हुये उसका समाधान तलाशें। जब मेरा MA का पेपर छूट गया था तो समाधान ढूंढने पर मिल गया और मैंने साल गवायें बिना पढ़ाई पूरी करली। ऐसा कुछ खास नहीं हुआ लेक़िन ये एक अच्छी वाली फ़ील के लिये था।

तो क्या पत्रकार ही सब करदें? फ़िर तो किसी सरकार, अधिकारी की ज़रूरत नहीं है। नहीं साहब। लेकिन क्या आप हमेशा पत्रकार ही बने रहेंगे या कभी एक इंसान बन कर कोई मुश्किल में हो तक उसकी मदद करने का प्रयास करेंगे?

(इस फ़ोटो को देखने के बाद अपने को लिखने से रोक न सका)

https://youtu.be/j5Pq9NRd6BE