ट्विटर पर कल किसी ने एक सवाल पूछा की अगर आपकी ज़िंदगी कोई फ़िल्म होती तो आप उसको क्या रेटिंग देते। अर्थात आप उसको 5 में से कितने स्टार * देते। वैसे तो ये पूरा कार्यक्रम मज़े के लिये किया था लेक़िन लोगों के जवाब काफ़ी चौकानें वाले थे।
लगभग 90 प्रतिशत जवाब वहाँ पर नेगेटिव थे। कुछ ने अपने को – में रेटिंग दी तो कुछने अपने को 0। बहुत ही कम लोग थे जो अपनी ज़िंदगी से ख़ुश दिखे। मुझे जवाब देने वालों के बारे में कोई जानकारी तो नहीं है लेक़िन इतना कह सकता हूँ इनमें से ज़्यादातर एक मध्यम वर्गीय परिवार के तो होंगे ही। ठीक ठाक स्कूल/कॉलेज भी गये होंगे और शायद बहुत अच्छा नहीं तो ठीक ठाक कमा भी रहे होंगे। फ़िर इतनी निराशा क्यूँ?
ज़िन्दगी से शिक़ायत होना कोई बुरी बात नहीं लेक़िन अगर मैं स्वयं अपने बारे में अच्छा नहीं सोचूंगा तो राह चलता कोई भी व्यक्ति जिसके पास अपने ही कई झमेले होमगे, ऐसा क्यूँ करेगा। हम में से किसी की भी ज़िन्दगी परफ़ेक्ट नहीं होगी लेक़िन ये हमारी सोच ही इसे बेहतर बना सकती है।
–―――――――――――――
कुछ साल पहले की बात है। मैं अपने तत्कालीन बॉस से किसी विषय पर चर्चा कर रहा था। बात करते करते मैंने उन्हें कुछ कह दिया। शायद दीवार फ़िल्म में जैसा शशि कपूर जी अमिताभ बच्चन जी से कहते हैं और जवाब में अमिताभ बच्चन कहते हैं \”उफ़्फ़ तुम्हारे ये उसूल, ये आदर्श\”।
हमारे बीच बातचीत टीम के सदस्यों को लेकर चल रही होगी और मैं उनका मुखिया होने के नाते उनके लिये ही कुछ बोल रहा होऊँगा इसका मुझे पक्का यक़ीन है। लेक़िन बॉस ने जो कहा उससे मुझे थोड़ा दुख भी हुआ और थोड़ा आश्चर्य भी।
पिछले कुछ हफ़्तों से घर में एक बड़े समारोह की तैयारी चल रही थी। कोरोना के चलते ये अब एक इंटरनेट पर होने वाली गतिविधि बन गया था। इसके लिए हमें बहुत से पुराने पारिवारिक मित्रों को ढूंढना पड़ा और कई रिश्तेदारों से भी संपर्क में आने का मौक़ा मिला। बहुत से ऐसे लोग जिनसे हम वर्षों से मिले नहीं, और बहुत से ऐसे जिनसे हम कई बार मिलते रहे हैं – सब मिले।
इस समारोह में कई बार ऐसा हुआ कि जब किसी से बात करी तो उस दिन वो बॉस से हुई बात याद आ गयी। मेरे कुछ कहने पर उन्होंने कहा \”अरे यार कहाँ तुम ये मिडिल क्लास वैल्यू को लेकर बैठे हुये हो। इनको कोई नहीं पूछता\”। वो शायद मुझे चेता रहे थे कि आज इन चीज़ों का कोई मतलब नहीं है तो मुझे भी बहुत ज़्यादा इमोशनल नहीं होना चाहिये।
जबसे इस कार्यक्रम के सिलसिले में बात करना शुरू हुआ तो मुझे उनकी याद आ गयी और याद आया अपना जवाब। मैंने उन्हें कहा, \”सर ये किसी के लिये भी दकियानूसी या बेकार हो सकती हैं, लेक़िन मेरे लिये ये बहुत अनमोल हैं क्योंकि इन्ही को मानते हुये मैं जीवन में आगे बढ़ा हूँ औऱ मेरा व्यक्तित्व इनसे ही बना है। मेरा विश्वास इनमें है किसी और का हो न हों। और मैं चाहता भी नहीं की कोई मुझे इनके सही, ग़लत होने का कोई सबूत दे\”।
पिछले दिनों जिनसे भी बात हुई सबने मेरे माता-पिता के बारे में ख़ूब सुंदर बोल बोले, लिखे और उनके प्रति अपना आदर, प्रेम सब व्यक्त किया। किसी ने बहुत ही छोटी सी बात बताई की अगर कोई आपको बुलाये तो क्या है या हाँ की जगह जी कह कर जवाब दिया जाये ये सीख उन्हें पिताजी से मिली तो किसी ने उनके व्यक्तित्व की सरलता बताई जिसके चलते कोई बड़ा या कोई छोटा, सब उनसे अपनी बात कर सकते थे।
―――――――――――――――
ग्लास आधा भरा है या आधा खाली ये आपके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।
आज वैसे तो मन था एक और मीडिया से जुड़ी पोस्ट लिखने का लेक़िन कुछ और लिखने का मन हो रहा था। तो मीडिया की अंतिम किश्त कुछ अंतराल के बाद।
फ़िर क्या लिखा जाये? ये सवाल भटकाता ही है क्योंकि लिखने को बहुत कुछ है मगर किस विषय पर लिखें हम? ये सिलसिला वाला डायलॉग अमिताभ बच्चन की आवाज़ में कुछ और ही लगता है और साथ में रेखा। फिल्मी इतिहास में इससे ज़्यादा रोमांटिक जोड़ी मेरे लिये कोई नहीं है।
वैसे ही जब किताबों की बात आती है तो धर्मवीर भारती जी की \’गुनाहों का देवता\’ एक अलग ही लेवल की किताब है। देश में इतनी उथलपुथल मची हुई है और मैं इस किताब की चर्चा क्यों कर रहा हूँ? अब देखिए देश और दुनिया की हालत तो आप तक पहुँच ही रही होगी। तो मैं काहे की लिये उसपर आपका और अपना समय गावउँ। वैसे भी दिनभर समाचार का ओवरडोज़ हो जाता है तो शाम को इससे परहेज़ कर लेता हूँ।
खबरें पता रहती हैं लेक़िन उसके आगे कुछ नहीं करता। तो वापस आते हैं क़िताब पर। किसी देवी या सज्जन ने ये क़िताब पहली बार पढ़ी और उन्हें कुछ खास अच्छी नहीं लगी। ये बात उन्होंने सोशल मीडिया पर शेयर भी कर दी। बस फ़िर क्या था, दोनों तरफ़ के महारथी टूट पड़े। कुछ ने क़िताब को अब तक की सबसे बेहतरीन रोमांटिक और ट्रैजिक किताब बताया तो कुछ लोगों ने भी यही बोला की उनको किताब कुछ खास नहीं लगी और ये भी समझ नहीं आया कि क्यों लोग इसके दीवाने हैं।
कुछ पाठकों का कहना था कि कोई भी क़िताब उम्र के अलग अलग समय पर अलग अलग प्रभाव छोड़ती है। मसलन गुनाहों का देवता आपकी जवानी में आपको बहुत।प्रभावित करेगी क्योंकि उम्र का वो दौर ही ऐसा होता है। लेक़िन वही किताब आप जब 30-35 के होते हैं तब न तो वो इतनी ख़ास लगती है और उसमें कही बातें भी हास्यास्पद लगती हैं।
ये बात है तो बिल्कुल सही। लेक़िन तब भी मैं इससे इतेफाक नहीं रखता। इसका कारण भी बड़ा ही सादा है – जैसे आप किसी रिश्ते को उसके शुरुआती दौर में अलग तरह से देखते हैं और कुछ समय के बाद आपका नज़रिया बदल जाता है। वैसे ही किताब के साथ है। आपने उसको प्रथम बार जब पढ़ा था तब आपकी मानसिक स्थिति क्या थी और आज क्या है। दोनों में बहुत फ़र्क़ भी होगा। समय और अनुभव के चलते आप कहानी, क़िरदार और जो उनके बीच चल रहा है उसको अलग नज़रिये से देखते, समझते और अनुभव करते हैं।
मेरे साथ अक्सर ये होता है की पहली बार अगर कोई क़िताब पढ़ी या फ़िल्म देखी तो उसमें बहुत कुछ और देखता रहता हूँ। लेक़िन दोबारा देखता हूँ तब ज़्यादा अच्छे से फ़िल्म समझ में भी आती है और पहले वाली राय या तो और पुख़्ता होती है या उसमें एक नया दृष्टिकोण आ जाता है।
हालिया देखी फिल्मों में से नीरज पांडे जी की अय्यारी इसी श्रेणी में आती है। जब पहली बार देखा तो बहुत सी चीज़ें बाउंसर चली गईं। लेक़िन इस बीच जिस घटना से संबंधित ये फ़िल्म थी उसके बारे में कुछ पढ़ने को मिला और उसके बाद फ़िल्म दोबारा देखी तो लगा क्या बढ़िया फ़िल्म है। वैसे फ़िल्म फ्लॉप हुई थी क्योंकि कोई भी दो बार क्यों इस फ़िल्म को सिनेमाहॉल में देखेगा जब पहली बार ही उसे अच्छी नींद आयी हो।
किताबों में हालिया तो नहीं लेक़िन अरुंधति रॉय की \’गॉड ऑफ स्माल थिंग्स\’ एकमात्र ऐसी किताब रही है जिसको मैं कई बार कोशिश करने के बाद भी 4-5 पेज से आगे बढ़ ही नहीं पाया। शायद वो मुझे जन्मदिन पर तोहफ़ा मिली थी। फ़िर किसी स्कॉलर दोस्त को भेंट करदी थी पूरा बैकग्राउंड बता कर क्योंकि दुनिया बहुत छोटी है और इसलिये भी की दीवाली पर सोनपापड़ी वाला हाल इस किताब का भी न हो।
बहरहाल ऐसा हुआ नहीं। लेक़िन ऐसी किताबों की संख्या दोनो हाँथ की उंगलियों से भी कम होंगी ये सच है। वहीं कुछ ऐसी किताबें, फिल्में भी हैं जिनको उम्र छू भी नहीं पाई है। जब बात फ़िल्मों की हो रही है तो एक बात कबुल करनी है – मैंने आजतक मुग़ल-ए-आज़म और दीवार नहीं देखी हैं। दोनो ही फिल्मों के गाने औऱ डायलॉग पता हैं लेक़िन फ़िल्म शुरू से लेकर अंत तक कभी नहीं देखी।
जब भी मौक़ा मिला तो कुछ न कुछ वजह से रह जाता। उसके बाद मैंने प्रयास करना भी छोड़ दिया और धीरे धीरे जो थोड़ी बहुत रुचि थी वो भी जाती रही। अब मुग़ल-ए-आज़म रंगीन हो गई है तो देखने का और मन नहीं करता। मधुबाला जी ब्लैक एंड व्हाइट में कुछ अलग ही खूबसूरत लगती थीं।
तो बात किताब से शुरू हुई थी और फ़िल्म तक आ गयी। जिस तरह मेरे और कई और लोगों का मानना है गुनाहों का देवता एक एवरग्रीन किताब है और अगर किसी को पसंद नहीं आयी तो…
वैसे ही क्या मुग़ल-ए-आज़म या दीवार न देखना क्या गुनाहों की लिस्ट में जोड़ देना चाहिये? या कुछ ले देके मामला सुलझाया जा सकता है? दोनों ही फिल्में निश्चित रूप से क्लासिक होंगी लेक़िन मुझे उनके बारे में नहीं पता। हाँ मैंने कुछ और क्लासिक फ़िल्में देखी हैं जैसे दबंग 3, जब हैरी मेट सेजल और ठग्स ऑफ हिन्दुतान को भी रख लीजिये (इतना संजीदा रहने की कोई ज़रूरत नहीं है)। मुस्कुराइये की आधा साल खत्म होने को है!
क्या ऐसी कोई फ़िल्म या किताब है जिसके लोग क़सीदे पढ़ते हों लेकिन आपको कुछ खास नहीं लगी या आपने वो पढ़ी ही नही? या कोई फ़िल्म जिसे आपने देखने की कोशिश भी नहीं करी? कमेंट कर आप बता सकते हैं और मुझे कंपनी दे सकते हैं।
पुराने ऑफिस में ये धमाल चल रहा था तो नौकरी ढूँढने का काम शुरू किया। मुझे एक शख्स मिले जो एक बिल्कुल ही अलग क्षेत्र से आते थे लेक़िन अब मीडिया में कार्यरत थे। उनसे एक मुलाकात हुई थी और बात फ़िर कुछ रुक सी गयी थी। अचानक एक शाम उन्होंने मिलने के लिये बुलाया।
इस मुलाक़ात के समय से ख़तरे की घंटी बजना शुरू हुई थी लेक़िन मैंने उसे नज़रअंदाज़ किया। जो घंटी थी वो थी दोनों ही शख्स – पहले वाले महानुभाव और अब ये – बात ऐसे करते की आप झांसे में आ जाते। ख़ैर मुलाकात हुई और उन्होंने कंपनी के शीर्ष नेतृत्व से मिलने के लिये बुलाया।
माई बाप सरकार
जबसे मैंने पत्रकारिता में कदम रखा है तबसे सिर्फ़ शुरुआती दिनों में एक अखबार में काम किया था तब न्यूज़रूम का मालिकों के प्रति प्रेम देखा था। उसके बाद से एक अलग तरह के माहौल में काम किया जहाँ आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि मायने नहीं रखती थी। लगभग 18 वर्षों बाद मैं वापस उस माहौल में पहुँच गया।
इतने वर्षों में मालिकों के पास और महँगी गाड़ियाँ आ गईं थीं और सबसे नया मोबाइल फोन। लेक़िन मानसिकता वही माई बाप वाली जारी थी। माहौल पूरा अजीबोगरीब था। आपको ऑफिस में किसी से बात नहीं करनी थी और दुनिया इधर की उधर हो जाये आपके काम के घंटे पूरे होने चाहिये।
नई जगह जॉइन करने के दूसरे दिन बाद समझ में आ गया था ग़लती हो गई है। अब हम मध्यम वर्गीय परिवार के लिये नौकरी बहुत ज़रूरी होती है। अगर किसी कारणवश आप घर पर बैठ भी जायें तो ज़्यादा दिन तक ये चलता नहीं। तो मैंने भी इन सब विचारों को ताक पर रखकर काम पर ध्यान देना शुरू किया।
एक दो अच्छे सहयोगी मिले जो अच्छा काम करने की इच्छा रखते थे। लेकिन माहौल ऐसा की आपके हर कदम पर नज़र रहती। आप कितने बजे लंच के लिये गये, कब वापस आये ये सब जानकारी मैनेजमेंट के पास रहती थी।
सब चलता है
आफिस पॉलिटिक्स से मेरा कभी भी पाला नहीं पड़ा था। लेक़िन इस नए संस्थान में ये संस्कृति बेहद ही सुचारू रूप से चालु थी। मेरा एक मीटिंग में जाना हुआ जहाँ और भी विभागों से जुड़े संपादक मंडल के लोगों का आना हुआ। जैसे ही मालिक का प्रवेश हुआ तो सब ने नमस्ते के साथ चरण स्पर्श करना शुरू किया। मेरे लिये ये पूरा व्यवहार चौंकाने वाला था और मैं अपनी पहली नौकरी के दिन याद करने लगा।
उस समय भी मालिक को सिर्फ़ न्यूज़रूम में कदम रखने की देरी थी की सब खड़े हो जाते। निश्चित रूप से मालिकों के ईगो को इससे बढ़ावा मिलता होगा इसलिये उन्होंने कभी भी ये ज़रूरी नहीं समझा कि इस पर रोक लगाई जाये। इस नई जगह पर भी यही चल रहा था।
आसमान से गिरे और ख़जूर में अटके वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। मैं सिर्फ़ इस इंतज़ार में था की मुझे जल्दी से उस शहर भेज दिया जाये जहाँ से मुझे नया काम शुरू करना था। जब ऐसी दूरी हो जाये तो थोड़ी राहत तो मिलती है। एक बार फ़िर नई टीम बनानी थी। लोग खोजे गये और ये कार्यक्रम शुरू हुआ। नये ऑफिस को लेकर ढ़ेर सारे वादे किये गये। ऑफिस इस सोशल मीडिया कंपनी के ऑफिस की टक्कर का होगा, ये होगा, वो होगा। लेक़िन सब बातें।
मेरा प्रत्याशी
ये जो शख्स थे ये एक कैंडिडेट के पीछे पड़े हुये थे की इनको लेना है। मैंने थोड़ी पूछताछ करी तो कुछ ज़्यादा ही तारीफें सुनने को मिलीं इन महोदय के बारे में और मैंने मना कर दिया। पहले तो शख्स बोलते रहे तुम्हारी टीम है तुम देखो किसको लेना है। लेक़िन उन्होंने इन महोदय को फाइनल कर लिया और नौकरी भी ऑफर कर दी।
अच्छा ये शख्स की ख़ास आदत थी। ये सबकी दिल खोलकर बुराई करते। क्या मालिक, क्या सहयोगी। ऐसी ऐसी बातें करते कि अगर यहाँ लिखूँ तो ये एडल्ट साइट हो जाये। मुझे इन सब में कोई दिलचस्पी नहीं थी और जब अंततः शहर छोड़ने का सशर्त आदेश मिला तो लगा अब ये सब चक्कर ख़त्म। लेक़िन अभी तो कुछ और नया शुरू होने वाला था।
शर्त ये थी कि हम दो लोग जो उस ऑफिस में शीर्ष अधिकारी होंगे वो किसी केबिन में नहीं बैठेंगे। क्यों नहीं बैठेंगे ये पता नहीं, लेक़िन ये बात बार बोली गयी और हमें भी ये स्वीकार्य थी। आज़ादी बड़ी बात लग रही उस समय।
नया शहर पुरानी आदतें
नया शहर, कुछ पुराने, ढ़ेर सारे नये लोगों के साथ काम शुरू किया। मुझे लग रहा था अब शांति से काम होगा लेक़िन मैं एक बार फ़िर गलत था। कुछ दिनों के अंदर पता तो लग गया था की शख्स जी दरअसल हर चीज़ पर कंट्रोल रखने में दिलचस्पी रखते हैं। आप की किसी दूसरी कंपनी में काम को लेकर अगर कोई मीटिंग हो तो उनको सब पता होना चाहिये और सब जगह के ईमेल, फ़ोन नंबर उन्हें दिए जाने चाहिये। लेक़िन निर्णय लेने में इनके पसीने छूटते क्योंकि इनके हाँथ में भी कुछ नहीं था। कोई बड़ी विदेशी कंपनी हो तो ये सब कुछ स्वयं ही करते। आपको बस साथ में जाकर नोट लेना होता।
अब मैं दूसरे शहर में था तो फ़ोन उनका सबसे बड़ा सहारा था। सुबह शाम फोन पर फ़ोन, मैसेज पर मैसेज। मेरी ये आदत नहीं रही कि उनको फ़ोन पर हाज़री लगवाउँ तो मैंने फ़ोन पर बातें कम करदीं और मूड नहीं होता तो बात नहीं करता। लेक़िन साहब को ये नहीं भाया और उन्होंने टीम से एक बंदे को अपना संदेशवाहक बनाया। इसका पता तब चला जब मैंने दो तीन लोगों की एक मीटिंग बुलाई थी। बाहर निकलने पर उन्होंने फोन करके पूछा मीटिंग कैसी रही। उनकी तरफ से संदेश साफ था – मेरे पास और भी तरीकें हैं खोज ख़बर रखने के।
एक दो महीने काम ठीक से चलना शुरू हुआ था की शख्स ने फ़रमाइश करना शुरू कर दिया कि जिन महोदय को इन्होंने रखा है उनको और बडी ज़िम्मेदारी दी जाये। इन दो महीनों में इन महोदय का सारा खेल समझ में आ चुका था। काम में इनकी कोई रुचि नहीं थी। टीम की महिला सदस्यों के आगे पीछे घूमना और फ़ालतू की बातें करना इनका पेशा था। शख्स के जैसे ये भी बोल बच्चन और काम शून्य।
मैं किसी तरह इसको टालता रहा। लेक़िन शख्स को जो कंट्रोल चाहिये था उसकी सबसे बड़ी रुकावट मैं था। मैं किसी भी विषय में निर्णय लेना होता तो बिना किसी की सहायता से ले लेता। अब अग़र उस ऑफिस का मुखिया मैं था तो ये मेरे अधिकार क्षेत्र में था। लेक़िन उनको ये सब नागवार गुजरता क्योंकि उनकी पूछपरख कम हो जाती।
जैसी उनकी आदत थी, वैसे वो मेरे बारे में मेरे अलावा पूरे ऑफिस से बात करते और अपना दुखड़ा रोते। एक दो बार वो आये भी नये ऑफिस में और मुझे अपनी तरफ़ रखने के लिये सब किया। लेक़िन मुझे ऐसे माहौल में काम करने की आदत नहीं थी और न मैंने वो चीज़ इस नये ऑफिस में आने दी थी। हमारी एक छोटी सी प्यारी सी टीम थी और सब एक अच्छे स्वस्थ माहौल में काम कर रहे थे।
अंदाज़ नया खेल पुराना
तब तक इस शख्स का भी संयम जवाब दे रहा था। उन्होंने नया पैंतरा अपनाया और अब व्हाट्सएप में जो ग्रुप था वहाँ मेसेज भेजते और वहीं खोज ख़बर लेते। इसके लिये भी मैंने उनको एक दो बार टोका। जब नहीं सुना तो मैंने भी नज़रंदाज़ करना शुरू कर दिया। काम हो रहा था और सबको अपना काम पता था। लेक़िन उनको परेशानी ये थी कि दूसरे शहर में हम लोग क्या कर रहे थे उनको इसका पूरा पता नहीं मिलता।
मेरे वरिष्ठ सहयोगी को मैंने बोल रखा था अग़र कोई बात तुम्हें मुझसे करनी हो या मुझे तुमसे तो सीधे बात करेंगे। बाक़ी ऊपर वालों को मैं संभाल लूँगा।
आज जब सब वर्क फ्रॉम होम की बात करते हैं और इसके गुण गाते हैं तो मुझे याद आता है दो साल पहले का वो दिन। हुआ कुछ ऐसा की जिस सदस्य की रात की ड्यूटी थी उसको किसी कारण अपने गृहनगर जाना पड़ा। मुझे पता था और मुझे इससे कोई आपत्ति नहीं थी कि वो काम दुनिया के किस हिस्से से हो रहा था। काम हो रहा था ये महत्वपूर्ण था।
ऑफिस में शख्स को ये बात पता चली और कुछ दिनों में वो साक्षात दर्शन देने आ गये। उन्होंने सबकी क्लास ली और कड़ी चेतावनी दी कि अब से लैपटॉप से आपकी लोकेशन भी ट्रैक की जायेगी। मेरे समझाने का कोई फायदा नज़र नहीं आ रहा था। उसपर से शीर्ष नेतृत्व ने कहीं से एक स्टडी निकाली जिसके मुताबिक़ घर से काम करने से फ़ायदा कम और नुकसान ज़्यादा था। आज पता नहीं उस स्टडी का क्या हाल होगा।
दोस्त के नाम पर…
शख्स जैसा व्यक्ति मैंने आज तक नहीं झेला था। वो सोशल मीडिया पर टीम के सदस्यों को अपना दोस्त बनाते और उसके बाद उनकी जासूसी करते। मसलन कौन कहाँ घूमने गया है, उसके साथ कौन है और कौन किसकी कौनसी फ़ोटो को लाइक कर रहा है। ये सब करने के बाद वो बताते फलाँ का चक्कर किसके साथ चल रहा है। आप कंपनी के बड़े अधिकारी हैं, काम की आपके पास कमी है नहीं। इन सब में क्यों अपना टाइम बर्बाद कर रहे हैं? उसके बाद जब वो ये कहते कि वो रात को फलाँ धर्मगुरु का उपदेश सुनकर ही सोते हैं तो लगता गुरुजी को पता नहीं है उनके शिष्य कितने उच्च विचार रखते हैं।
शिकंजा धीरे धीरे कसता जा रहा था। इसी सिलसिले में कंपनी ने एक और अधिकारी की नियुक्ति करी अपने दूसरे ऑफिस से। मैं अक़्सर लोगों को पहचानने में ग़लती करता हूँ और इस बार भी वही हुआ। इस पूरे नये ऑफिस में सभी लोग बाहर के थे – मतलब कंपनी के नये मुलाज़िम थे। कंपनी को अपना के संदेशवाहक रखना था और वो ये साहब थे।
ये साहब ने भी गुमराह किया कि वो इस ऑफिस में काम करने वालों के हितेषी हैं लेक़िन उन्होंने भी अपनी पोजीशन का भरपूर फ़ायदा उठाया, कंपनी के नियमों की धज्जियां उड़ाईं और खूब जम के राजनीति खेली।
एक दिन शख्स का फ़िर फोन आया और वो महोदय की पैरवी करने लगे। उनको वो टीम में एक पोजीशन देना चाहते थे और अभी भी मैं उसके ख़िलाफ़ था। उन्होंने मेरे कुछ निर्णय पर भी सवाल उठाने शुरू किये और एक दिन हारकर मैंने उन्हें वो तोहफा दे दिया जिसका उन्हें एक लंबे समय से इंतज़ार था। अगर भविष्य में ये शख्स किसी बड़ी देसी या विदेशी कंपनी के बडे पद पर आसीन हो जायें तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। और जिस दिन ये होगा उस दिन से वो कंपनी बर्बाद होना शुरू हो जायेगी।
इस कंपनी के लगभग एक वर्ष बहुत ही यादगार रहे। बहुत सी कड़वी यादें थीं तो कुछ मीठी भी। नौकरी बहुत महत्वपूर्ण होती है लेक़िन उस नौकरी का क्या फ़ायदा जो आपको चैन से सोने भी न दें। सीखा वही जो इससे पहले सीखा था – कॉरपोरेट में कोई किसी का सगा नहीं होता।
मीडिया कीचड़ है
मीडिया इंडस्ट्री नई तकनीक के साथ आगे तो बहुत निकल गया लेक़िन इंसानियत में बहुत पीछे चला गया है। लोगों को कम तन्ख्वाह देना और उनका ख़ून चूस लेना जैसे एक नियम से है। ये सभी पर लागू नहीं होता लेक़िन अधिकतर संस्थायें ऐसी ही हैं। उसपर भाई भतीजावाद भी जम कर चलता है। आप का \’दूसरा\’ टैलेंट आपका भविष्य तय करता है। ऐसे दमघोंटू माहौल में जो रह जाते हैं और काम कर पाते हैं और बाकी लोगों जैसे नहीं बनते उनको मेरा नमन। ये मेरी ही कमी है की मुझे काम के अलावा और कुछ, जैसे चापलूसी, राजनीति करना या लोगों का शोषण करना, नहीं आता। जिनके साथ मैंने काम किया है वो शायद इससे भिन्न राय रखते होंगे। उनसे मेरा सिर्फ़ इतना कहना है वो ये पता करलें जो मेरे साथ थे वो सब इस समय कहाँ हैं। जवाब इसी में है।
अपने काम करने के तीन वर्ष मेरे लिये बहुत ही कष्टदायक रहे। अगर इसमें मेरे काम की गलती होती तो मैं मान भी लेता। लेक़िन इतनी घटिया राजनीति और उससे भी घटिया मानसिकता वाले लोगों और मालिकों के साथ काम किया है की अब उनसे दूर रहना ही बेहतर है। पहले लगता कुछ नहीं बोलना चाहिये काहे को अपने लिये परेशानी खड़ी करना। लेक़िन फ़िर लगता अगर किसी को काम करना होगा तो वो काम करने की काबिलियत देखेगा। बाक़ी चीजों के लिये मैं सही कैंडिडेट नहीं हूँ।
जिस दिन मैं चुपचाप ऑफिस से और उसके बाद शहर से निकला तो बहुत दुखी था। टीम के साथ बहुत सारे काम करने का सपना था। लेक़िन बहुत से अधूरे सपने लेकर वापस घर आ रहा था और मेरे लिये यही सबसे बड़ा सुकून था।
ये भी गुज़र जायेगा। आप इसे उम्मीद कहें या आशा, हमारे जीवन में इसका एक बहुत ही बड़ा रोल होता है। जैसे अभी इस कठिन दौर में ही देखिये। सबने सरकार से उम्मीद लगा रखी है और ऐसे में जब उम्मीद पर कोई खरा न उतरे तो दुख होता है।
ये तो बात हुई सरकार की। लेकिन हम अपने आसपास, अपने परिवार, रिश्तेदारों में ही देखिये। सब कुछ न कुछ उम्मीद ही लगाये बैठे रहते हैं। जब बात ऑफिस की या आपके सहयोगियों की आती है तो ये उम्मीद दूसरे तरह की होती हैं और अगर कोई खरा नहीं उतरता तो बुरा भी लगता है और अपने भविष्य की चिंता भी।
पिछले दिनों मेरे एक पुराने सहयोगी से बात हो रही थी नौकरी के बारे में। ऐसे ही बात निकली कैसे लोग अपनी ज़रूरत में समय आपको भगवान बना लेते हैं और मतलब निकलने पर आपकी कोई पूछ नहीं होती। ये सिर्फ़ नौकरी पर ही लागू नहीं होता मैंने निजी जीवन में ऐसे कई उदाहरण देखे हैं। इससे संबंधित मैंने अपना अनुभव साझा भी किया उनके साथ। बात खत्म हो गयी लगती थी।
लेकिन पिछले दो दिनों से डिप्रेशन के विषय में बहुत सारी कहानियां पढ़ी। ये मनगढ़ंत नहीं बल्कि लोगों की भुगती हुई बातें थीं। आज फ़ेसबुक पर नज़र पड़ गयी और मैंने एक पोस्ट पढ़ना शुरू किया। जैसे जैसे पढ़ता गया लगा मेरे ही जैसे कोई और या कहूँ तो लगा मेरी आपबीती कोई और सुना रहा था। सिर्फ़ जगह, किरदार और इस समस्या से उनके निपटने का अंदाज़ अलग था। उनके साथ ये सब उनके नये संपादक महोदय कर रहे थे और मैं एक संपादक कंपनी के मैनेजमेंट के हाथों ये सब झेल रहा था।
इस बारे में मैंने चलते फ़िरते जिक्र किया है लेक़िन मुझे पता नहीं क्यों इस बारे में बात करना अच्छा नहीं लगा। आज जब उनकी कहानी पढ़ी तो लगा अपनी बात भी बतानी चाहिये क्योंकि कई बार हम ऐसे ही बहुत सी बातें किसी भी कारण से नहीं करते हैं। लेक़िन अब लगता है बात करनी चाहिये, बतानी चाहिये और वो बातें ख़ासकर जो सिर्फ़ और सिर्फ़ अच्छाइयों के बारे में न हों।
चक्र की शुरुआत
साल 2014 बहुत ही बढ़िया रहा। टीम ने बेहतरीन काम किया था। चुनाव का कवरेज बढ़िया रहा। कुल मिलाकर एक अच्छे दौर की शुरुआत थी।आनेवाले दो साल भी ठीक ठाक ही गुज़रे। ठीक ठाक ऐसे की जब आप अच्छा काम करके एक मक़ाम पर पहुँच जाते हैं तो आपसे उम्मीद बढ़ जाती है। आप भी एक नशे में रहते हैं और जोश खरोश से लगे रहते हैं। ये जो प्रेशर है ये आपकी ज़िंदगी का हिस्सा बन जाता है और साथ में दे देता है आपको कई बीमारियों की सौग़ात बिल्कुल मुफ्त। आप उस समय एक अलग दुनिया में होते हैं। पैसा भी होता, नाम भी और शोहरत भी। मेरी टीम हार जगह अव्वल आ रही थी। लेक़िन इसके यहाँ तक पहुंचने की मैंने एक कीमत अदा करी थी जिसका खुलासा 2016 में डॉक्टर ने किया।
मुझे याद है इस समय मेरी टीम में कई नये सदस्यों का आना हुआ। हमने और अच्छा काम किया। मुझे बाक़ी टीम से बात करने को कहा जाता की अपना फॉर्मूला उनके साथ साझा करूं। लेक़िन मेरे पास कोई फॉर्मूला नहीं था। मेरे पास सिर्फ़ टीम थी और उनपर विश्वास की कुछ भी हो सकता है। मेरी टीम में इतना विश्वास देख मेरे एक वरिष्ठ ने चेताया भी की ये कोई तुम्हारे साथ नहीं देंगे। तुम पीठ दिखाओगे और ये तुम्हारी बुराई शुरू कर देंगे। मुझे इससे कोई ख़ास फर्क़ नहीं पड़ता था (ये झूठ है ये मुझे बाद में समझ आया).
ख़ैर 2016 में कंपनी बदलाव के दौर से गुज़र रही थी। सीनियर मैनेजमेंट के सभी लोगों ने नौकरी छोड़ दी थी और नये लोगों की तलाश शुरू थी। ये जो नये महानुभाव आये ये दरअसल इसी कंपनी के पुराने मुलाज़िम थे और इन्हें अब एक वरिष्ठ अधिकारी बनाकर लाया जा रहा था। मैं इनके साथ पहले काम कर चुका था जब ये पहले कंपनी का हिस्सा थे। जब पता चला कौन होगा नया बंदा तो लगा अच्छा है। मैं कितना ग़लत था ये आनेवाले दिनों में मुझे पता चला।
बदले बदले से मेरे सरकार नज़र आते हैं
इन महानुभाव के आने के बाद बदलाव धीरे धीरे होने लगे। चूँकि मेरी टीम सबसे बड़ी थी तो शुरआत हुई कुछ और सीनियर लोगों को रखने से। मुझसे कहा गया की ये मेरे सहयोगी ही होंगे और टीम अच्छे से मैनेज हो पायेगी। इन्होंने जेफ़ बेजोज़ की पिज़्ज़ा थ्योरी का भी उदाहरण दिया। इस तरह से पहले सहयोगी आ गये। अच्छा इन सबके लिये जो भर्ती हो रही थी उसमें मेरा कोई रोल नहीं था। मतलब वो लोग जो मेरे साथ काम करनेवाले थे उनका इंटरव्यू मैंने लिया ही नहीं। न मुझे उनके बारे में कोई जानकारी दी गयी।
इसके बाद दूसरे सज्जन की भर्ती की बात होने लगी। इन के साथ महानुभाव ने पहले काम किया था। चूँकि किसी कारण से उन्हें भी वो नौकरी छोड़नी पड़ी तो महानुभाव कि मानवता जगी हुई थी। इनको भी रख लिया गया। अब जो इनके पहले सज्जन थे वो ये दूसरे महापुरुष के आने से काफी विचलित थे। वो रोज़ मुझे सुबह सुबह फ़ोन करके इन महापुरुष की गाथाएं सुनाते।
ख़ैर। अब दोनों आ गये थे तो काम का बंटवारा होना था। पहले सज्जन को एक भाषा दे दी गई और दूसरे महापुरुष को राष्ट्रीय भाषा का दायित्व दिया गया। बस एक ही मुश्किल थी – महापुरुष ने इस भाषा में कभी कुछ किया नहीं था। लेकिन ये पूरा ट्रेलर था और फ़िल्म अभी बाकी थी। मुझे बहुत कुछ समझ आ रहा था और ये स्क्रिप्ट में क्या होने वाला है ये भी।
जब महानुभाव से मिलता तो पूछता मेरे लिये कोई काम नहीं बचा है। वो कहते बाकी दो भाषायें हैं उनके बारे में सोचो और स्पेशल प्रोजेक्ट पर ध्यान दो। तुम संपादक हो। इन सबमें क्यों ध्यान दे रहे हो। तुम स्ट्रेटेजी बनाओ। धीरे धीरे खेल का अंदाज़ा हो रहा था।
प्लान B
अगर पहले मेरे पास 20 काम थे तो 18 मुझसे ले लिये गये और दो रहने दिये। अब काम करना है तो करना है तो जो बाक़ी दो बचे थे उसमें भी अच्छा काम हो गया और सबकी अपेक्षाओं के विपरीत परिणाम रहे।
इस पूरे समय जो अंदर चल रहा था उसको समझ पाना थोडा मुश्किल हो रहा था। टीम का हर एक सदस्य किसी भी भाषा का हो मेरे द्वारा ही चयनित था। इसमें से बहुत बड़ी संख्या में लोगों का पहला जॉब था। अचानक उनसे बात बंद और कभी कभार बातचीत का मौका मिलता। पहले अजीब सा लगा लेक़िन मैंने भी जाने दिया क्योंकि आफिस में मैं किसी कैम्प में नहीं था। शराब पीने का कोई शौक़ नहीं था और अगर कभी पार्टी में दोस्त मिले तो बात अलग। महानुभाव को इन सबकी बहुत आदत थी। उनके साथ चंद लोगों का ग्रुप रहता था और मुझे न उसका हिस्सा बनने की कोई ख्वाहिश थी न कोई मलाल। ये उनके घर के पास रहते थे और लगभग हर हफ़्ते मिलते। मुझे इन सबसे वैसे ही कोफ़्त होती और खोखले लोगों से सख्त परहेज़। लेकिन इनकी अपनी एक दुनिया थी और उसमें ये सब साथ, बहुत खुश और बहुत कामयाब भी।
दिसंबर 2016 में टीम के साथ एक पार्टी थी। ये एक लंबे समय से टल रही पार्टी थी और कभी किसी न किसी के रहने पर टलती जा रही थी। आखिरकार दिन मुक़र्रर हुआ लेक़िन इत्तेफाक ऐसा हुआ की महानुभाव ने उसी दिन दूसरे शहर में मेरी ही दूसरी टीम के साथ पार्टी रखी थी। काम के बंटवारे के चलते उनकी पार्टी में एक बंदा नहीं जा पाया और उनको पता चला की मुम्बई की मेरी टीम पार्टी कर रही है इसके लिये उसको आफिस में रहना होगा।
दूसरे दिन महानुभाव ने मेरी पेशी लगाई। दरअसल वो बहुत समय से किसी मौके की तलाश में थे कि कैसे मुझे रास्ते से हटाया जाये। इस घटना के बाद उनकी ये मंशा उन्हें लगा पूरी होगी। लेकिन बात थोड़ी गड़बड़ ऐसे हो गयी की उनको लगा की पार्टी कंपनी के पैसे से हुई थी। जब मैंने कहा की ये मेरे तरफ़ से दी हुई पार्टी थी तो उन्होंने टीम के सदस्यों के ख़िलाफ़ एक्शन लेने की बात करी। मैने उनसे कहा कि अगर ऐसा है तो मुझसे शुरू करें और अपना त्यागपत्र भेज दिया।
महानुभाव ने उस पर कोई कार्यवाही नहीं करी लेकिन उन्होंने पता ज़रूर लगाया कि जो मैंने कहा था उसमें कितनी सच्चाई थी। बाद में पता चला की इस घटना के कुछ दिनों बाद मेरे त्यागपत्र को मंज़ूर करने की सोची। लेक़िन उन्हें ऐसा नहीं करने की सलाह दी गई। मुझे भी साथ में सलाह दी गयी की मैं अपना त्यागपत्र वापस ले लूँ लेक़िन मैंने ऐसा कुछ नहीं किया।
अभी तो पार्टी शुरू हुई है
अब ऑफिस जाने का मतलब हुआ करता था टाइम पास। काम न के बराबर था। मैनेजमेंट शायद ये सोच रहा था की बंदे को काम ही नहीं देंगे तो झकमारकर खुद ही नौकरी छोड़ देगा। लेकिन हम भी ढीठ ठहरे। निकालना हो तो निकालो हम नहीं जानेवाले।
इसी दौरान कहानी में एक और ट्विस्ट आया। महानुभाव ने अपनी पता नहीं किस कला से विदेश में पोस्टिंग पा ली। मतलब अब कोई औऱ आनेवाला था टार्चर करने के लिये।
जैसा कि हमेशा किसी भी बदलाव के साथ होता है, पहले से ज्ञान दिया गया कुछ भी नहीं बदलेगा। सब वैसे ही चलेगा। लेक़िन मालूम था ये सब बकवास है और आने वाले दिन और मज़ेदार होने वाले हैं। मज़ेदार इसलिये क्योंकि मेरे पास खोने के लिये कुछ बचा नहीं था। 70-80 की टीम में से अब सिर्फ़ शायद दो लोग मेरे साथ काम कर रहे थे। बाक़ी बात करने से कतराते थे। अब था सिर्फ़ इंतज़ार। कब तक मैं या दूसरी पार्टी खेलने का दम रखती थी।
जल्द ही वो दिन भी आ गया। नहीं अभी और ड्रामा बाकी था। नये महाशय ने मेल लिखा पूरी टीम को। बहुत से बदलाव किये गये थे। जिन राष्ट्रीय भाषा वाले महाशय का मैंने ज़िक्र किया है ऊपर, अब वो मेरे बॉस बन गये थे। मुझे उनको रिपोर्ट करना था और अपने काम का लेखा जोखा उनको देना था। जिस वेबसाइट को मैंने शुरू किया, जिसको टीम के साथ नई ऊचांइयों तक पहुंचाया की वो एक ब्रांड बन गयी, उसका मैं संस्थापक संपादक रहा और अब मुझे किसी और को रिपोर्ट करना था। उसको जो कभी मेरे नीचे काम कर रहा था। जुलाई की उस शाम मुझे उतना बुरा तब नहीं लगा जितना तब लगा जब मेरी एक टीम मेंबर मेरे पास आकर रोने लगीं। कहने लगीं आपके साथ ये लोग ठीक नहीं कर रहे। ख़ैर मैंने उनको समझाया लेक़िन उस बहाने शायद अपने आप को भी समझाया। ये बहुत ही कष्ट वाला दिन था।
अपना ढीठ पना तब भी दिखाया और अपने नये बॉस से काम माँग कर किया। काम करने में कोई परहेज तो था नहीं इसलिये जो मिला कर लिया। महाशय ने छोटी मोटी स्टोरीज़ लिखने को दीं और मैंने लिख भी दीं। मुम्बई में बारिश के चलते मैंने ऑफिस जाने में असमर्थता बताई तो दरियादिली दिखाते हुये महाशय ने घर से काम करने की आज्ञा दी।
और फ़िर…
महीने के आख़िरी दिन मुझे कंपनी की HR का फ़ोन आया। नहीं शायद मैसेज था ये पूछने के लिये की मैं आज ऑफिस कब आनेवाला हूँ। मैंने जवाब में उनसे पूछा की क्या कंपनी का सामान लौटाने का समय आ चुका है। उन्होंने कहा हाँ और मुझे अपना त्यागपत्र भेजने को कहा। जिस दिन ये सब चल रहा था ठीक उस दिन मैंने घर शिफ़्ट किया था। नये घर में सामान आ ही रहा था जब ये शुभ समाचार आया।
इस तरह के अंत की मुझे उम्मीद तो नहीं थी। लेक़िन ऑफिस से निकाले जाने वाली ट्रेजेडी से बच गया। 2014-2017 तक का जो ये सफर रहा इसमें शिखर बहुत ज़्यादा रहे। हर सफ़र का अंत होता है तो इसका भी हुआ। बस महानुभाव, महाशय जैसे किरदारों को ये मौका नहीं मिला कि वो मुझे सामने से जाने को कहें और शायद ये मेरी लिये सांत्वना है। मैंने बहुत सारे किस्से सुने हैं कैसे लोगों को लिफ्ट में घुसने नहीं दिया या उनका पंच कार्ड डिसएबल कर दिया। कई दिनों नहीं कई महीनों तक मैं बहुत ही परेशान रहा। क्या वो डिप्रेशन था? मुझे नहीं पता लेक़िन मेरे लिये वो महीने बहुत मुश्किल थे। वो तो मेरे परिवार से संवाद ने इसको बड़ी समस्या नहीं बनने नहीं दिया।
इसके कुछ दिनों बाद ही मुझे विपश्यना के कोर्स करने का मौका मिल गया और शायद संभलने का मौका भी। लेक़िन अंदर ही अंदर ये बात खाती रहती की सब अच्छा चल रहा था और कितना कुछ करने को था। मुझे ये भी समझ में नहीं आ रहा था क्यों मैंने सब इतनी आसानी से जाने दिया? क्यों मैंने लड़ाई नही लड़ी। लेक़िन कुछ लोगों के चलते सब ख़त्म हो गया। और उस टीम का क्या? उन्हें ढ़ेर सारी शुभकामनाएं। मुझे मेरा सबक मिल गया। लेक़िन अभी एक औऱ सबक मिलना बाकी था।
आज ढ़ेर सारा ज्ञान प्राप्त हुआ, हो रहा है। कोई अनहोनी घटना होती है और सब जैसे मौके का इंतज़ार कर रहे होते हैं। सोशल मीडिया, व्हाट्सएप आज मानसिक तनाव से कैसे बचें इससे भरा हुआ है। और सही भी है। सुशांत सिंह राजपूत का इस तरह अपने जीवन का अंत कर लेना एक बार फ़िर से हमारे मानसिक स्वास्थ्य के प्रति नज़रिये पर प्रश्न लगता है।
हमलोग बाहरी दिखाई देने वाली बातों पर ध्यान देते हैं। अगर हमें सब सही लगता है तो हम मान लेते हैं कि सब ठीक ठाक है। ये उन लोगों केलिये ठीक है जो आपको ठीक से जानते नहीं। लेक़िन उन लोगों को भी समझ न आये जो आपके क़रीबी हैं तो या तो आप अच्छे कलाकार हैं या आपको जानने वाले बेवकूफ। अगर ऊपरी परत खुरच कर देखी जाये तो शायद अंदर की बात पता चले। लेक़िन हम लोग चूँकि मानसिक स्वास्थ्य के बारे में कम जानते हैं, तो सेक्स के जैसे इस विषय पर बात नहीं करते या कतराते हैं। ये अलग बात है की सेक्स के विषय में हमें लगता है हम काफ़ी कुछ जानते हैं लेक़िन वहाँ भी ज्ञान आधा अधूरा ही रहता है। अगर हम किसी विषय के बारे में ग़लत क़िताब पढ़ेंगे तो हमारा ज्ञान सही कैसे होगा?
आज से क़रीब बीस वर्ष पहले मेरे एक रिशेतदार अपने काम के चलते या यूँ कहें अपने कुछ काम के न होने के बाद डिप्रेशन का शिकार हो गए। उस समय पहली बार ये शब्द सुना था लेक़िन बहुत ज़्यादा जानकारी नहीं मिली (ये भी कोई बात करने का विषय है)। उन्होनें कई मानसिक रोग विशेषज्ञ को दिखाया और ठीक हो गए। लेकिन इस विषय पर बात करना मना नहीं था तो खुल कर बात भी नहीं हुई।
सरकारी घर के समीप एक मानसिक रोग विशेषज्ञ रहते थे। जानते हैं लोग उन्हें क्या कह कर बुलाते थे? पागलों का डॉक्टर। अब जब इस कार्य को कर रहे डॉक्टर को इज़्ज़त नहीं मिलती तो मरीजों को कैसे मिलेगी? और फ़िर हमारा समाज। यहाँ आप पर लेबल लग गया तो निकालना मुश्किल होता है। ऐसे में कौन ये कहेगा की उन्हें कोई मानसिक परेशानी/बीमारी है? दरअसल हमनें बीमारी के अंग भी निर्धारित कर लिये हैं। फलाँ, फलाँ अंग में हो तो ये बीमारी मानी जायेगी। आपका दिमाग़ इस लिस्ट में नहीं है न ही आपके गुप्तांग।
सुशांत सिंह राजपूत शायद एक या दो फिल्मों से जुड़े लोगों में से थे जिन्हें मैं ट्विटर पर फॉलो कर रहा था। उसके पीछे एकमात्र कारण ये था की वो बहुत ही अलग अलग विषय पर ट्वीट करते थे। इस पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री में शायद वो आख़िरी शक़्स थे जिनसे मुझे ऐसे किसी कदम की उम्मीद होगी। मेरे लिये और मेरे जैसे कइयों के लिये सुशांत सिंह की ट्वीट ही उनके बारे में बताती थी। लेक़िन जो उनके क़रीब थे उनको तो ये मालूम होगा की सुशांत सिंह किस परेशानी का सामना कर रहे थे।
My 50 DREAMS & counting…! 😉 ———————— 1. Learn how to Fly a Plane ✈️ 2. Train for IronMan triathlon 🏃🏻♂️ 3. Play a Cricket Match left-handed 🏏 4. Learn Morse Code _.. 5. Help kids learn about Space. 🌌 6. Play tennis with a Champion 🎾 7. Do a Four Clap 👏 Push-Up ! (1/6) … pic.twitter.com/8HDqlTNmb6
उनके ट्वीट पढ़ कर लगता सुशांत सिंह ज़िन्दगी से भरे हुये हैं। उन्होंने अपनी एक 50 कामों की लिस्ट शेयर करी थी जो उन्होंने करने की ठानी थी। उसमें से कुछ तो उन्होंने कर भी लिये थे। उनकी रुचि फ़िल्म से इतर भी थी इसलिये भी उनके बारे में पढ़ना अच्छा लगता है। नहीं तो अक्सर जो जिस फील्ड में होता है उसी के बारे में बोलता रहता है।
चीजें अभी भी नहीं बदली हैं। फ़िल्म लव यू ज़िन्दगी में आलिया भट्ट अपने परिवार को जब बताती हैं अपनी मानसिक अवस्था के बारे में तब वो एक तरह का शॉक देती हैं अपने परिवार को। क़माल की बात ये है की आलिया भट्ट और दीपिका पादुकोण ने खुलकर अपने डिप्रेशन के बारे में बात करी लेक़िन सुशांत सिंह नहीं कर पाये।
फ़िल्म इंडस्ट्री से लोग थोक के भाव निकल कर आ रहे हैं जो इस बारे में टिप्पणी कर रहे हैं। लेक़िन अग़र सुशांत इतने लंबे समय से डिप्रेशन से लड़ रहे थे तो क्यों इंडस्ट्री ने उनका साथ नहीं दिया? क्यों परिवार ने भी उनका साथ नहीं दिया? अमूमन ऐसी कोई आ अवस्था हो तो परिवार को उसके साथ होना चाहिये था।
मेरा ये मानना है हम सब आज के इस दौर में डिप्रेशन से पीड़ित हैं। कइयों का ये बहुत ही शुरुआत के दौर में ही ख़त्म हो जाता है और कइयों का एडवांस स्तर का होता है। परिवार और दोस्तों के चलते ये आगे नहीं बढ़ता और व्यक्ति ठीक हो जाता है। जो आज बड़ी बड़ी बातें कर रहे हैं अगर वो पहले ही जग जाते तो शायद सुशांत हमारे बीच होते। मुझे दुख है सुशांत जैसे व्यक्ति जिन्होंने कई बुरे दिन भी देखे होंगे उन्होंने हार मानली।
ऐसा कितनी बार होता है जब हम किसी से मिलते हैं, किसी जगह जाते हैं या कोई फ़िल्म देखते हैं, लेकिन हम सबकी राय अलग अलग होती हैं। जैसे मैं किसी से मिला तो मुझे वो व्यक्ति बहुत अच्छा लगा लेक़िन कोई और उस व्यक्ति से मिला तो उसकी राय बिल्कुल विपरीत।
जब बात फ़िल्म की आती है तो ऐसा अक्सर होता है की आपको कोई फ़िल्म बिल्कुल बकवास लगी हो लेक़िन आपको ऐसे कई लोग मिल जायेंगे जिन्हें वो अब तक कि सबसे बेहतरीन फ़िल्म लगी हो। राय में 19-20 का अंतर समझ में आता है लेक़िन यहाँ तो बिल्कुल ही अलग राय है, बिल्कुल उल्टी राय है। तो अब ऐसे में क्या किया जाये? फ़िल्म देखी जाये या लोगों की राय मानकर छोड़ दी जाये?
फ़िल्मी बातें
चूँकि बात फिल्मों की चल रही है तो मैं एक उदाहरण देना चाहूँगा। फ़िल्म थी ठग्स ऑफ हिंदुस्तान। आमिर खान की फ़िल्म थी और पहली बार वो अमिताभ बच्चन जी के साथ थे। इसलिए देखने की इच्छा तो बहुत थी। लेक़िन फ़िल्म की रिलीज़ से दो दिन पहले से ऐसी खबरें आनी शुरू हो गईं की फ़िल्म अच्छी नहीं बनी है और बॉक्स ऑफिस पर डूब जायेगी।
फ़िल्म रिलीज़ हुई और पहले दिन सबसे ज़्यादा कमाई वाली हिंदी फिल्म बनी। लेक़िन उसके बाद से कमाई गिरती गयी और फ़िल्म ने बॉक्स ऑफिस पर वो क़माल नहीं दिखाया जो उम्मीद थी। लेक़िन क्या फ़िल्म वाक़ई में इतनी ख़राब थी? लोगों की माने तो ये सही था। फ़िल्म की कमाई भी यही दर्शा रही थी।
मैंने फ़िल्म लगभग ख़ाली सिनेमाघर में देखी थी। लेक़िन फ़िल्म मुझे और मेरे साथ जो बच्चों की फ़ौज गयी थी, सबको अच्छी लगी। लेक़िन एक बहुत बडी जनता ने इन खबरों को माना औऱ फ़िल्म देखने से परहेज़ किया।
एक समय था जब मैं भी फिल्मों के रिव्यु पढ़कर ये निर्णय लेता था कि फ़िल्म देखनी है या नहीं। अब निर्णय रिव्यु से ज़्यादा इस पर निर्भर करता है की कहानी क्या है। अगर ज़रा भी लगता है की फ़िल्म कुछ अच्छी हो सकती है तो फ़िल्म देख लेते है। फ़िल्म ख़राब ही निकल सकती है लेक़िन अगर वो अच्छी हुई तो?
ऐसे ही इस साल की शुरुआत में कोरियन फ़िल्म पैरासाइट आयी थी। जिसे देखो उसकी तारीफ़ के क़सीदे पढ़े जा रहा था। किसी न किसी कारण से फ़िल्म सिनेमाघरों से निकल गयी और मेरा देखना रह गया। उसके बाद फ़िल्म ने ऑस्कर जीते तो नहीं देखने का और दुख हुआ। जब आखिरकार फ़िल्म प्राइम पर देखने का मौका मिला तो समझ ही नही आया कि इसमें ऐसा क्या था की लोग इतना गुणगान कर रहे थे। उसपर से ऑस्कर अवार्ड का ठप्पा भी लग गया था। लेक़िन फ़िल्म मुझे औसत ही लगी। आपने अगर नहीं देखी हो तो देखियेगा। शायद आप की राय अलग हो।
फ़िल्म vs असल जिंदगी
अगर बात फ़िल्म तक सीमित होती तो ठीक था। लेक़िन जब आप लोगों की बात करते हैं तो मामला थोड़ा गड़बड़ हो जाता है। बहुत ही कम बार ऐसा होता है जब सबकी नहीं तो ज़्यादातर लोगों की राय लगभग एक जैसी हो।
फिल्मों से अब आते हैं असली दुनिया में जहाँ लोगों को भी ऐसे ही रफा दफा किया जाता है या उनके गुणगान गाये जाते हैं। दोनों ही स्थितियों में जो याद रखने लायक बात है वो ये की आपकी व्यक्तिगत राय मायने रखती है। सोशल मीडिया पर मैं ऐसे कई लोगों को जनता हूँ जिनके ढ़ेर सारे फॉलोवर्स हैं। सब उन्हें बेहद प्यार करते हैं लेक़िन उनका एक दूसरा चेहरा भी है जो ज़्यादा लोगों ने नहीं देखा है।
शुरुआती दिनों में जो मेरे बॉस थे मेरा उनके साथ काम करने का अनुभव बहुत ही यादगार रहा। लेक़िन मेरे दूसरे सहयोगी की राय मेरे अनुभव से बिल्कुल उलट। उन्होंने मुझे ये बताया भी लेक़िन न तो मैं उनके बुरे अनुभव से या वो मेरे अच्छे अनुभव से राय बदलने वाले थे।
हम अक़्सर जब तक किसी से मिलते नहीं हैं तो उनके बारे में सुन सुनकर अपनी एक धारणा, अच्छी या बुरी, बना लेते हैं। लेक़िन सच्चाई तो तभी पता चलती है जब उनसे मिलते हैं। बहुत बार जैसा सुना होता है इंसान वैसा ही निकलता है। कई बार उल्टा भी होता है। इसके लिये जरूरी है की हम उस व्यक्ति को दूसरे के अनुभवों से न देखें या परखें। हम ये देखें उनका व्यवहार हमारे साथ कैसा है।
लोगों का काम है कहना
एक और फ़िल्मी उदाहरण के साथ समझाना चाहूँगा। फ़िल्म मिली में अमिताभ बच्चन के बारे में तरह तरह की बातें होती हैं जब वो उस सोसाइटी में रहने आते हैं। सब उन्हें अपने नज़रिये से देखते हैं और उनके बारे में धारणा बना लेते है। यहीं तक होता तो ठीक था। लेक़िन यही सब बातें सब करते हैं और उनकी एक विलेन की छवि बन जाती है। लेक़िन जब जया बच्चन उनसे मिलती हैं तो पता चलता है वो कितने संजीदा इंसान हैं।
पिछले दिनों फ़ेसबुक पर किसी ने पूछा की सबसे दर्द भरा गीत कौनसा लगता है। मैंने अपनी पसंद लिखी लेक़िन मुझे एक जवाब मिला कि वही गीत उनके लिये बहुत अच्छी यादें लेकर आता है। गीत वही, शब्द वही लेक़िन बिल्कुल ही अलग अलग भाव महसूस करते हैं।
अग़र सबके अनुभव एक से होते तो सबको शांति, प्यार और पैसा एक जैसा मिलना चाहिये। लेक़िन जिस शेयर मार्केट ने करोड़पति बनाये, उसी शेयर बाजार ने लोगों को कंगाल भी किया है। अगर किसी को किसी धर्म गुरु के द्वारा शांति का रास्ता मिला है तो किसी को लोगों की निस्वार्थ भाव से सेवा करके। सबके अपने अनुभव हैं जो अलग हैं और यही इनकी खूबसूरती भी है।
सुनी सुनाई बातों पर यक़ीन न करें। अपनी धारणा अपने अनुभव के आधार पर बनाये।
हर शहर की अपनी खासियत होती है। मुम्बई में इसकी भरमार है। आज भले ही मुम्बई अलग कारणों से समाचार में छाया हुआ है, लेक़िन इस मायानगरी में कई सारी खूबियां भी हैं और जो भी यहाँ आया है या तो मुम्बई उसके दिल में बस गयी है या ये शहर उसको रास नहीं आया।
जब मैं पहली बार 1996 में आया था तब मुझे शहर के बारे में ज़्यादा पता नहीं चला क्योंकि मैं एक परीक्षा देने आया था और ज़्यादा घूमना नहीं हो पाया। लेक़िन जब पीटीआई दिल्ली से यहाँ भेजा गया तो इसको जानने का सिलसिला शुरू हुआ जो आज भी जारी है।
इसी क्रम में मेरा परिचय हुआ फुटपाथ लाइब्रेरी से। हमारा ऑफिस फ़्लोरा फाउंटेन में था और नज़दीक ही कम से कम तीन ऐसी लाइब्रेरी थीं। मुझे पहले इसकी उपयोगिता समझ में नहीं आयी। लेकिन लोकल ट्रैन से सफ़र करने के बाद समझ में आ गया। मात्र 10 रुपये में कोई भी किताब आपको एक महीने के लिये मिलती है। एक महीने का समय काफ़ी होता है। ऑफिस में कई और लोगों ने भी इस लाइब्रेरी को जॉइन किया था तो आपस में किताबों की अदला बदली भी होती। मैंने इस लाइब्रेरी से बहुत सी किताबें पढ़ी।
भोपाल में ऐसी लाइब्रेरी से परिचय हुआ था जब दादाजी के साथ पास के मार्किट जाते थे। वो वहाँ से अपनी कोई किताब लेते और हमें टॉफी खाने को मिलती। बाद में लाइब्रेरी जो भी मिली वो बड़ी ही व्यवस्थित हुआ करती थीं। ब्रिटिश कॉउंसिल लाइब्रेरी में जाने का अलग ही आनंद था। पूरी लाइब्रेरी एयर कंडिशन्ड और अच्छी बैठने की सुविधा भी।
आज मुझे मुम्बई की फुटपाथ वाली लाइब्रेरी की याद राजेश जी की फ़ोटो देख कर आई। राजेश मुम्बई के अंधेरी, मरोल इलाके में अपनी ये लाइब्रेरी चलाते हैं। मुंबई में रहने वाले और लोकल से सफ़र करने वाले ज़्यादातर लोगों ने कभी न कभी राजेश जी की जैसी लाइब्रेरी का आनंद लिया होगा। ये मोबाइल के पहले की बात है। अब तो सब मोबाइल हाथ में लिये वीडियो देखते।ही नज़र आते हैं।
राजेश जी ये लाइब्रेरी चलाने के लिये तो बधाई के पात्र हैं ही, उनका ज़िन्दगी के प्रति नज़रिया भी बहुत ही सुंदर है। आज जब सब अपने ही बारे में सोचते रहते हैं, तो राजेश जी की बातें सुनकर लगता है हमें अभी और बहुत कुछ सीखना बाकी है।
जब उनसे पूछा गया वो कितना कमा लेते हैं तो राजेश ने कहा, \”लोग पैसा कमाते हैं ताकि वो उस पर ख़र्च कर सकें जो उनकी खरीदने की इच्छा है।\” किताबों की तरफ़ इशारा करते हुये उन्होंने कहा, \”मुझे जो चाहिये था मैं उससे घिरा हुआ हूँ।\”
लॉक डाउन के दौरान ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले जब लोगों ने सामान होने के बाद भी जमाखोरी करी। ऐसे में बैटर इंडिया वेबसाइट ने जब उनकी कोई मदद करने की पेशकश हुई तो राजेश ने कहा, \”बड़ी संख्या में मज़दूर मर रहे हैं। उनकी मदद करिये। मेरा पास खाने को है और मैं घर पर आराम से हूँ।\”
शायद मेरे लिये भी और आप सभी पाठकों के लिये भी ये पहला अवसर होगा जब बाहर की गर्मी का अंदाज़ा भी नहीं लगा और गर्मी अब विदा लेने को तैयार है। कोरोना के चलते पूरी गर्मी शायद चार बार बाहर निकलना हुआ होगा। हर बार गर्मी के चलते रोड पर कम लोग रहते इस बार कोरोना ने सब को घर पर बिठा कर रखा। बाहर निकलो तो किसी फ़िल्मी सीन की तरह लगता। पूरी रोड सुनसान। कोई गाड़ी नहीं, कोई लोग नहीं। सारी दुकानों के शटर बंद और इक्का दुक्का गाड़ियाँ दिख जायें तो आपकी किस्मत।
पिछले कितने सालों से एक रूटीन से बन गया था की गर्मी की छुट्टी के कुछ दिन भोपाल में बिताये गये। सब इक्कट्ठा होते और बच्चों की धमाचौकड़ी शुरू। भरी दोपहरी में क्रिकेट चालू और शाम होते होते पार्टी का माहौल। न किसी को नींद की चिंता न किसी और काम की।
काम से छुट्टी
वैसे एक काम जो हमने बच्चों के ऊपर लाद दिया वो है कूलर में पानी भरना। ये सुबह और रात की ड्यूटी थी जिसे बच्चे बख़ूबी निभाते भी। दरअसल वो एक रिश्वत होती है – पानी भर दो और फ़िर देर तक खेलने को मिलेगा।
मुझे याद है जब हम इस उम्र में थे तब कूलर वगैरह ऐसी ज़रूरत नहीं हुआ करते थे। जो पहला कूलर जो आया वो एक रूम कूलर था गुलमर्ग के नाम से। जैसा नाम वैसा काम। थोड़ी देर चलने के बाद बढ़िया ठंडक। चूंकि उसकी बॉडी लोहे की थी तो उसके किनारों से बिजली का झटका भी लगता।
पूरे घर में एक कूलर था और सब बस उसकी हवा खाते और अपने अपने गरम कमरे में चले जाते। जब कई वर्षों बाद डेजर्ट कूलर आये तब बाकी कमरों के लिये भी लिये गये। लेक़िन इनकी ठंडक गुलमर्ग के मुकाबले कुछ भी नहीं थी।
कूलर की ठंडक
गर्मियों के हर साल के काम सब फिक्स। पहले कूलर निकालो, उनकी सफ़ाई करो, उनके कूलिंग पैड्स देखों और बदलना हो तो बदलो। अच्छा आप जब कूलिंग पैड कहते हैं तो लगता है कुछ बहुत ही नायाब चीज़ होगी। लेक़िन असल में होता भूसा ही है। हाँ अगर आप कहते ख़स की टट्टी तो सब फ़िल्म चुपके चुपके में धर्मेंद्र के Go गू क्यूँ नहीं होता, बोलने पर जैसे ओम प्रकाश की पत्नी साड़ी के पल्लू से अपनी नाक ढँक लेती हैं, सब कुछ वैसे ही करते।
ख़स की जगह अब कूलिंग पैड आ गए हैं। साथ में ख़स का इत्र भी मिलता है जिसे आप साइड पैनल की घास में डालिये और ठंडक के साथ खुशबू का आनंद लीजिये। एक बार ये इत्र कुछ ज्यादा ही डल गया और उसके बाद सबका ऐसा सिरदर्द हुआ की रात को सोना मुश्किल हो गया।
अब तो कूलर की बॉडी भी प्लास्टिक की आने लगी है तो रखरखाव न के बराबर है। नहीं तो पहले कूलर को हर दो साल में पेंट करते जिससे उसकी बॉडी की उम्र बढ़ाई जा सके। लेकिन अब कूलर आते हैं वो प्लास्टिक का ढाँचा हैं। इनकी उम्र लंबी हो ही नहीं सकती।
जब हम लोग बाहर निकल गये तो पिताजी के जिम्मे ये काम आया और वो अप्रैल से ये तैयारी शुरू कर देते। मई में फौज जो आने वाली है। इस साल फौज ने अपना समय स्क्रीन के सामने गुज़ारा है।
आइसक्रीम वाली गर्मी
एक और काम जो इस साल गर्मियों में नहीं के बराबर हुआ है वो है गन्ने का रस पीना और आइस क्रीम/कुल्फ़ी खाना। कई बार रात में सब भोजन के बाद इक्कट्ठा होते किसी आइसक्रीम की दुकान पर और देर रात जब तक पुलिस की गाड़ी नहीं आती तब तक गप्पें चलती रहती।
और तपती धूप हो या ठंडी शाम, गन्ने के रास का एक गिलास और उसके साथ वो मसाला। मुझे नहीं पता जितनी बेफिक्री से किसी भी दुकान पर रुककर इसका आनंद लिया जाता था वैसे मैं कब कर पाऊँगा। फ़िलहाल उन क्षणों की याद ही मन तृप्त कर रही है। 😇
ये पोस्ट तमाम उन गर्मियों की छुट्टियों पर किये जाने सभी कार्यक्रमों को समर्पित।
When Covid crisis was still in its very early stage and so was lockdown, I was very optimistic India will ride this one too and not only that, India will come out as a better country. After nearly 70 days my optimism has not gone into negative but it has hit a new low.
The initial optimism got a major boost when within days a Pune-based company developed low costing test kits. For me that was a good sign of what future had in store. But there has been little development on that front. Yes we are making lots of PPE suits everyday but that\’s no innovation. Thats a result of facilities lying idle and they being used for making PPE suits. There were tweets that Mahindra group has worked on a desi ventilator and also supplying the same to the government. I hope the company is doing that.
Coming back to first good news to come within days of Covid crisis hitting India. The lady who was part of this testing kit was all over news as she delivered a child only after the kit was launched. But that was the last of that affordable kit I heard. The company executives were on channels discussing their capacity and how it can be ramped up. But there is nothing about the company that is making news these days – specially about affordable test kits when states are demanding more test kits and some like Delhi and Mumbai have suspended tests. The initial estimate of Rs 1,200 per test is not a reality. The tests cost between Rs 2,200 to Rs 4,500.
Secret Data
As media student, I do try to understand whats happening in other parts of the world. One thing that struck me was availability of data. For example in United States, worst affected by coronavirus, the data was very transparent and available at: https://coronavirus.jhu.edu/map.html
Similarly, Singapore also had a very open policy on sharing the data with public. All the information about the patients, where they came from and how many more persons caught the virus was available on internet on their website https://covidsitrep.moh.gov.sg/. In the early days there was a website which followed the Singapore model but not to the T. Sadly the website went off the net following some issues with the server and now its gone.
Unfortunately, it will take more time (not yet known how much) from the provider to know what exactly happened and when it can be fixed.
Our team at https://t.co/xqv2zfj9Dn will continue to work passionately for the dashboard. We are all together in this.
There is this government website https://www.mohfw.gov.in/ which gets updated every 24 hours with fresh data at 8 AM. Again its very basic, pathetic representation of data. Please don\’t get me wrong. But everyday you share the numbers without any more info as to how many new cases reported, how many cured etc etc. What I see on the screen is what you see in the pic above.
Data and stories
As a journalist I have found data to be great tool to tell stories but only if its presented in a simple form for the readers to understand. I would be lying if I say that I would not expect a kick ass, transparent, great UI website from the The Ministry of Health and Family Welfare (MoHFW). Why? Because we have the expertise and so much has been said about digital India that I would be wasting my and your time too to talk about it.
Now all the states have different ways of collecting data and presenting. There is no uniformity which is not surprising. But remember my optimism in the early days – I was hoping we will have a uniform data representation. But with different parties in power in different states, it becomes a big ego issue for all. Kerala perhaps has the best dashboard. Very informative and easy navigation. If you haven\’t do checkout their website: https://dashboard.kerala.gov.in/index.php
Kerala state Covid-19 dashboard is most informative dashboards giving out all the necessary data and information.
Maharashtra has copied the Johns Hopkins UI and has only made it data centric. Check out their website here.
Madhya Pradesh government had to face a rather embarassing situation after a hacker exposed flaws in the dashboard. The Shivraj Singh Chauhan government went back to the drawing board and there is no update available as I write this. May be it is available and I need to work on my search skills.
In India, the state of Madhya Pradesh created a #Covid19 dashboard with: – name of quarantined people – their device id and name – os version – app version code – the gps coordinates of their current location – the gps coordinates of their officehttps://t.co/lRKaqGmc8Ppic.twitter.com/EKgdhKqL7p
This piece is not about comparing the dashboards or choose the best. My point is crisis is the best opportunity to learn. What have we learnt? States were fudging data, some hospitals were delaying the data. Why can\’t we have a centralised template which is shared with all the states and all the data collection is uniform. This not only applies to health but to any field where data is collected.
If I am living in Mumbai or Kolkata my driving licence from either of the state transport department should be identical. Just like a passport or (many wont agree) an Aadhaar card. Sometimes I feel this difference actually allows people to fudge the documents and not get caught. But each state during covid-19 collected data as per their local laid down guidelines.
As I was writing this post came the news that West Bengal has come up with guidelines for covid victims. The state allowed families to pay their last respects to the departed soul and many other provisions. Shouldn\’t all states follow the same guidelines? How come a covid victim dying in West Bengal is any different from one dying in Tamil Nadu? Should MoHFW frame these guidelines? If yes, will all the states follow it?
Late Comers
The initial lockdown days were spent trying to order the essentials. The tried and tested and trusted apps suddenly stopped taking orders. If anyone came across any site taking orders it was shared on various groups. Reliance Smart was one such website taking orders. But what a shock when I finally managed to find the site. So the company which has stores all across India had a pathetic site. There was no mobile version of the site and this I realised after I struggled on the mobile device.
The website from a company which had all the money, resources in the world to launch the either an app or a better version of the website within days of Lockdown 1. But the company took its sweet time and the new avatar of Reliance Smart which not takes you to Jio Mart was launched sometime in May.
The second company was not a disaster but again took time to realise online is where they were going to get their business from. D-Mart had a not so great UI but the company did not waste too much time in upgrading the website and now its much better version of the website I first visited in April 2020.
Am I still hopeful or has hope given way to despair? Yes because I still believe it was the one big chance to set things in order. I know these are big changes and will take time and may be I am proved wrong. It was the time to think out of the box and come up with solutions to various problems in the country. Two most important systems in the life of any citizen anywhere in world – health and education – both need immediate overhaul. But barring digital classroom which again had very limited access, there was nothing big bang that happened. Wait there was one – digital payments and it was wonderful to see making payments without any human touch was a reality. Will the changes I was expecting reflect in coming years? I would like to hope so.
शास्त्रीय संगीत की समझ बिल्कुल नहीं है बस जो अच्छा लगता है वो सुन लेते हैं। मैंने पहले बताया था कैसे मेरा तबला सीखने का प्रयास विफल रहा उसके बाद सीखने का मन भी नहीं हुआ। लेकिन संगीत तो घर में चलता ही रहता था/है। शास्त्रीय नही तो फ़िल्मी ही सही।
घर में जितने सदस्य सबकी उतनी पसंद। आज के जैसे उस समय तो सबके पास मोबाइल या टेप तो होता नहीं था। एक रेडियो, टेप या टीवी हुआ करता था और सब उसी को देखते सुनते। इसका परिणाम ये हुआ की हर तरह का कार्यक्रम देखने, सुनने को मिला। उसमें से सबने अपनी अपनी पसंद चुन ली। किसी को किशोर कुमार तो किसी को मोहम्मद रफ़ी या कुमार सानू पसंद था। अपने गायक के गाना सुनने को मिल जाये तो लगा लॉटरी जीत ली।
आज जो डिमांड सर्विस है – आपको जब उदित नारायण का कोई गाना देखना हो तो देख लीजिये, उसमें वो मज़ा कभी नहीं आएगा जैसा तब आता था जब आप अपने किसी काम में व्यस्त हों और अचानक आपको बुलाया जाये कोई नया गाना आने पर। अच्छा उसमें भी अगर सलमान का गाना (जो बहन को पसंद है) या अनिल कपूर (जो भाई को पसंद है), अगर मैंने पहले देख लिया तो वो भी एक नोकझोंक का कारण बन जाता था।
अब तो नया गाना आने के पहले से उसके बारे में बताना शुरू कर देते हैं और फ़िल्म रिलीज़ होने के पहले ही गाने देख देख कर बोर हो जाते हैं। नतीजा ये होता है की फ़िल्म में गाना देखने का मज़ा ही ख़त्म हो जाता है।
बात शुरू शास्त्रीय संगीत से हुई थी और पहुंच कहीं और गयी। अब वापस शास्त्रीय संगीत की तरफ़ चलते हैं। उन दिनों दिन के अलग पहर की राग के कैसेट निकले थे। मैंने कुछ ख़रीद लिये और सुने और इससे मेरा परिचय हुआ किशोरी अमोनकर जी से। उनकी आवाज़ में ये राग जयजयवंती बहुत ही सुंदर लगती। जब मुम्बई में उनसे साक्षात मिलने का मौका मिला तो मुझे लगा मानो कोई मनोकामना पूरी हो गयी। लेक़िन शास्त्रीय संगीत के सीमित ज्ञान के चलते मैंने उनसे उस संबंध में कोई बात नहीं करी। बाद में एक सहयोगी ने बताया अच्छा हुआ नहीं पूछा क्योंकि किशोरी ताई वहीं क्लास ले लेती मेरी।
ऐसा नहीं है फ़िल्म संगीत के बारे में बहुत जानकारी है लेक़िन कामचलाऊ से ज़्यादा है। इसके बावजूद जब पार्श्व गायिका साधना सरगम जी (उनकी आवाज़ में जादू है) के एक एल्बम के लांच में गया तो भी बात नहीं कर पाया। उनको साक्षात सुनने को मिला वही बहुत था। भीमसेन जोशी जी के कार्यक्रम के बारे में तो बता ही चुका हूँ।
आज इस यात्रा पर क्यों?
दरअसल दूरदर्शन पर आज देश राग वाला वीडियो देख रहा था। तब लगा की अपने ही देश के कितने सारे शास्त्रीय संगीत के महारथियों के बारे में जानकारी ही नहीं। और ये सिर्फ़ संगीत तक ही सीमित नहीं है। हम अपने ग्रंथों के बारे में ज़्यादा नहीं जानते। वेदों के नाम मालूम है लेकिन उन वेदों में क्या ज्ञान है, कैसे हम इसका लाभ ले सकते हैं उस जानकारी से बहुत से लोग अनजान हैं।
हम बाहर के कई कलाकारों, उनकी अलग अलग विधायों के बारे में तो जानते हैं लेक़िन अपने घर के बारे में अनजान हैं। उस ज्ञान से कोई आपत्ति नहीं है। अच्छी बात है अगर किसी को पता है मोज़ार्ट या बीथोवन के बारे में और आप उनको सुनते हैं। लेकिन अपनी विरासत के बारे में भी कुछ ऐसी ही जिज्ञासा रखें। जानते हैं तो बाकी लोगों के साथ शेयर करें (मेरे साथ भी)।
जो हमें विरासत में मिला है उसमें कोई कमी न करते हुये बल्कि कुछ अपना भी जोड़ते हुये, इसको हमें भी आने वाली पीढ़ियों को सौंपना है। ये जो प्रक्रिया है ये बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि ये निरंतर चलने वाली है।
कई बार हम लोग किसी मुसीबत में होते हैं और किसी मदद की उम्मीद करते हैं। आपको लगता है वो व्यक्ति जिसके लिये आपने क्या क्या नहीं किया वो आपकी मदद ज़रूर करेगा। फ़िर परिस्थियाँ ऐसी बनती हैं कि वो आपकी मदद नहीं कर पाता और आपको दो टूक शब्दों में बता भी देता है की वो कुछ नहीं कर सकता।
इसके विपरीत आप ऐसे किसी व्यक्ति से मिलते हैं जो आपको आश्वासन तो देता रहता है पर करता कुछ नहीं है। लेक़िन तब भी आपका मन ख़राब होता है पहले व्यक्ति से क्योंकि उसने साफ़ मना कर दिया लेक़िन दूसरे व्यक्ति के लिये आप ऐसी कोई भावना नहीं रखते क्योंकि उसने आपके अंदर आशा को जीवित रखा है।
उम्मीद की किरण
दोनों में से कौन सही है? मेरे लिये तो पहला व्यक्ति सही है क्योंकि उसने सच तो कहा। झूठी उम्मीद तो नहीं दिखाई। ये कहने के लिये भी हिम्मत चाहिये विशेषकर तब जब कोई आपसे उम्मीद लगाये बैठा हो। कोई मुझे ये कहे तो दुख तो ज़रूर होगा। लेक़िन वो उस व्यक्ति से लाख गुना बेहतर है जो कहता है चलिये देखते हैं। कई बार दूसरा वाला व्यक्ति भी सही होता है। कैसे?
लेखक ओ हेनरी की कहानी द लास्ट लीफ़ (आखिरी पत्ती) आपने शायद पढ़ी हो या देखी हो। एक बीमार लड़की ने अपनी जीवन की साँसें उसकी खिड़की से दिखने वाले एक पेड़ से जोड़ दी हैं और उसका ऐसा मानना है की जिस दिन आख़िरी पत्ती गिरेगी उस दिन उसका जीवन भी समाप्त हो जायेगा। उसके घर के करीब रहने वाला एक पेंटर जो अपनी मुश्किलों में उलझा हुआ है, उस लड़की की खिड़की पर पत्ती पेंट करता है। जब आखिरी पत्ती गिरती नहीं है तो लड़की की कुछ उम्मीद बंधनी शुरू होती है और कुछ दिनों में वो ठीक हो जाती है।
मेरे जीवन में दो बार ऐसे क्षण आये जब मैंने लोगों से मदद माँगी। दोनों ही बार उन लोगों की संख्या ज़्यादा थी जिन्होंने कुछ किया ही नहीं। उनको मेल लिखा, फ़ोन किया और मैसेज भी। लेक़िन उन्होंने ये भी ज़रूरी नहीं समझा की वो उसका जवाब दें। बात करने की तो नौबत तक नहीं पहुंची।
मानवता सबसे पहले
मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है। लेक़िन अगर हम सामने वाले के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करें तो उससे ज़्यादा ग़लत बात क्या हो सकती है। ज़रूरी नहीं है की जो भी आपके पास मदद के लिये आये आप उसकी मदद कर ही पायें। कई बार सिर्फ़ उनको ज़रूरत होती है किसी की जो उनकी बातें सुने और उनकी हिम्मत बढ़ाये।
जिस कठिन समय से हम सब किसी न किसी रूप में साथ हैं, ऐसे में हमें ही एक दूसरे का साथ देना है। अगर आप किसी को जानते हैं या आपको उनकी परेशानी का अंदाज़ा है तो आप उनसे बात करिये।
बस हमें वो उम्मीद बंधानी है। ये भी गुज़र जायेगा। उन सभी को जिनसे हम मिलते हैं (या आने वाले दिनों में मिलेंगे) या बात करते हैं। अगर कोई आकर आपसे अपनी तक़लीफ़, परेशानी बताता है तो आप ये मानिये वो आप पर विश्वास करता है। उसके विश्वास का मान रखिये और उसको प्रोत्साहित करें कि वो इस मुश्किल में अकेले नहीं है। हर मदद पैसे से नहीं होती। किसी की तकलीफों के बारे सुनना भी मदद ही है।
धीरे धीरे सब सामान्य होता जायेगा और फ़िर एक दिन ऐसा भी आयेगा जब कोरोना सिर्फ़ एक याद बनकर रह जायेगा। लॉक डाउन और उस समय की कहानियाँ अतीत का हिस्सा बनकर रह जायेंगी। हमारे जीवन की सभी घटनाओं के साथ ऐसा ही होता आया है फ़िर वो चाहे कितनी भी अच्छी या कितनी ही दुख देने वाली ही क्यों न हों। लेकिन क्या ये लॉक डाउन इतनी जल्दी यादों में ही सिमट जायेगा?
यही ज़िन्दगी का संदेश है। शो मस्ट गो ऑन (ये तमाशा चलता रहना चाहिये). सभी ने पैदल चलते हुये हमारे श्रमिकों की फ़ोटो या वीडियो देखें हैं। चिलचिलाती गर्मी में माँ सूटकेस खींच रही है और बेटा उस पर सो रहा है या बिटिया पिताजी को सायकल पर बिठा कर गाँव तक पहुंच गई। ऐसी कई घटनाओं से चैनल, वेबसाइटें या समाचार पत्र भरे पडे हैं। इन सभी भाई, बहनों को भी सलाम और उनके जज़्बे को भी नमन। इतनी मुश्किलें झेलकर भी उन्होंने कहीं भी कानून व्यवस्था में कोई अड़चन डाली।
सामने हैं मगर दिखते नहीं
लेक़िन एक तबका जो सामने रहता भी है लेक़िन उसकी समस्याओं की अनदेखी हो जाती है वो है हमारा मध्यम वर्गीय परिवार। हम ऐसे कितने परिवारों को जानते हैं जो शायद श्रमिकों जितनी ही मुश्किलें झेल रहे हैं लेक़िन अपना दर्द बयां नहीं कर रहे? कई लोगों की नौकरी चली गयी है और आगे नौकरी जल्दी मिलने की संभावना भी नहीं के बराबर है। बहुत से लोगों की तनख्वाह कम हो गयी है। लेक़िन उनके बाक़ी खर्चे जैसे बच्चों की पढ़ाई, लोन की किश्त आदि में तो कोई कमी नही हुई है। कई को इन्हीं महीनों में नौकरी मिलना तय हुआ था। लेकिन अब कोई उम्मीद भी नहीं है।
कई प्राइवेट कंपनियों में अप्रैल-मई का समय आपके सालाना बोनस एवं प्रोमोशन का समय होता है। कर्मचारी बस इसी का इंतजार करते रहते हैं की इस बार उन्हें क्या मिल रहा है। पूरे वर्ष वो अपना अच्छे से अच्छा काम करते हैं और साल के आख़िर में उन्हें पता चलता है की उन्हें ये कुछ तो मिलेगा नहीं और नौकरी भी नहीं रहेगी। लेकिन आपको इनकी कहानी सुनने को नहीं मिलेगी। क्योंकि ये तबका इसे अपनी नियति मान चुका है। काम करो, ढ़ेर सारा टैक्स भरो और सुविधा एक नहीं। लेकिन ये तब भी पीछे नहीं हटते। जुटे रहते हैं क्योंकि उनको अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देनी है ताकि वो अच्छी नौकरी पा सकें। यही उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य रहता है।
क्या हल है
तो क्या ग़रीबों को उनके हाल पर छोड़ दें? बिल्कुल नहीं। आप उनको जितनी सुविधाएं देना चाहते हैं दीजिये ताकि उनका जीवन और बेहतर हो और वो भी देश की प्रगति का हिस्सा बने। लेक़िन ज़रा उन लोगों के बारे में भी तो सोचिये जो कर तो भरते रहते हैं लेक़िन उनको सुविधाओं के नाम पर कुछ नहीं मिलता। मैं उनके लिये उनकी छत पर हेलिपैड बनवाने की बात नहीं कर रहा हूँ लेक़िन बुनियादी सुविधाएं। अच्छी सड़क, रहने की साफ सुथरी जगह, अच्छी शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं। इस पूरे कोरोना वायरस वाले घटनाक्रम से ये तो पता चलता है हमारी खामियाँ क्या हैं, कहाँ कुछ सुधारने की गुंजाइश है और कहाँ सब बदलने की। जो इस बार भी हम चूक गये तो…
वो जो चले गये उनके पास एक आसरा है, एक उम्मीद है। जो रह गये उन्हें नहीं पता उनकी जमापूंजी कितने दिनों तक चलेगी और उसके बाद क्या होगा। सच मानिये तो अभी तक हमको इसका आभास भी नहीं है की ये दो महीने कितनों की ज़िंदगी में एक ऐसा तूफ़ान लाया है जिसका असर वर्षों तक दिखेगा।
याद तो वो रह जाता है जो ख़त्म हो जाता है, इस पूरे घटनाक्रम को कई लोग अभी कई वर्षों तक जियेंगे। ये वो सफ़र है जो अभी शुरू भी नहीं हुआ है। निराश होने का विकल्प लेकर ही न चलें। सफ़र (अंग्रेज़ी वाला नहीं) का आनंद लें, मंज़िल की चिंता न करें। प्रयास करें अपने स्तर पर सुधार करने का। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं सोनू सूद। उनसे प्रेरणा लें और जो आप कर सकते हैं वो करें।