आंखों में चलते फ़िरते रोज़ मिले पिया बावरे

किताबों का अपना एक जादू होता है। ये लेखक की ख़ूबी ही रहती है की वो शब्दों का ऐसा ताना बाना बुनते हैं की आप बस पन्ने पलटते रह जाते हैं किरदारों की दुनिया में खोये हुये। आपने ऐसी कई किताबें ज़रूर पढ़ी होंगी जिनकी कहानी, क़िरदार आप पर गहरी छाप छोड़ते हैं।

मेरी शुरुआती किताबें अंग्रेज़ी की रहीं। जब थोड़े बड़े हुये तो हिंदी साहित्य की समझ आना शुरू हुआ। दादाजी कर्नल रंजीत की किताबें पढ़ा करते थे। नाम इसलिये याद है क्योंकि उन्हीं के साथ लाइब्रेरी जाना होता और वो क़िताब बदल कर लाते। हमें इसके लिये एक टॉफ़ी मिला करती थी। मुझे याद नहीं मैंने कर्नल रंजीत पढ़ी हो और आज जब लिख रहा हूँ तो उन किताबों के कवर याद आ रहे हैं।

हिंदी के महान लेखक स्कूल में पढ़ाये जाते थे। लेक़िन वो बहुत ही अजीब सी पढाई होती थी। मतलब लेखक की जीवनी याद करो औऱ उनकी कुछ प्रमुख कृतियों के नाम याद करो। किसी भी विषय को पढ़ाने का एक तरीक़ा होता है। जब आप साहित्य या किसी कहानी पढ़ रहे हों तो उसको भी ऐसे ही पढ़ना जैसे किसी समाचार को पढ़ रहे हों तो ये तो लेखक के साथ ज़्यादती है।

उदाहरण के लिये आप मजरूह सुल्तानपुरी साहब का लिखा हुआ माई री और इस पीढ़ी के बादशाह का तेरी मम्मी की जय दोनों में ज़मीन आसमान का अंतर है। अब जिन्होनें पहले वाले को नहीं सुना हो और दूसरे को ही सुना हो तो उनको फ़र्क़ समझ नहीं आयेगा। लेक़िन जो दोनों को जानते हैं उन्हें शायद मजरूह के शब्दों की गहराई समझ आयेगी।

स्कूली दिनों में हिंदी साहित्य की ये गहराई तो समझने का अवसर भी नहीं मिला और न ऐसे शिक्षक जो अपने इस ज्ञान को साझा करने के इछुक हों। अभी भी बहुत ज़्यादा समझ नहीं आयी लेक़िन कोई कभी क़िताब बता देता है या ज़्यादा मेहरबान रहा तो किताब ही दे देता है। तो बस ऐसे ही पढ़ते रहते हैं।

मेरा पास बहुत दिनों तक अमृता प्रीतम जी की रसीदी टिकट रखी थी जो मेरी मित्र ने मुझे दी थी। एक दिन ऐसे ही उठा कर पढ़नी शुरू करदी। उसके बाद उनकी और किताबें पढ़ने की इच्छा हुई। लेक़िन बात कुछ आगे बढ़ी नहीं। ऐसे ही प्रेमचंद जी की आप बीती भी इस लिस्ट में शामिल है। जितनी सरल भाषा में और जितनी गहरी बात वो कह जाते हैं वैसे कम ही लोग लिख पाते हैं।

शायद ये भाषा की सरलता ही है जो किसी लेखक और पाठक के बीच की दूरी कम कर देती हैं। मैंने ऐसी क्लिष्ट हिंदी अभी तक नहीं पढ़ी है। हाँ ऐसी किताबें ज़रूर पढ़ी हैं जो लगता है किसी प्रयोग के इरादे से लिखी गयी हों। कुछ समझ में आती हैं कुछ बाउंसर।

अंग्रेज़ी में मैंने अरुंधति रॉय की बुकर पुरस्कार से सम्मानित \’गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स\’ को मैं कई प्रयासों के बाद भी नहीं पढ़ पाया। किताब पढ़ना मानो माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने जैसा था। हारकर क़िताब को उसकी जगह रख दी औऱ तबसे वो वहीं शोभा बढ़ा रही है।

लेखक शब्दों के जादूगर होते हैं इसका एक और उदाहरण पढ़ने को मिला उषा प्रियंवदा जी की लिखी \’पचपन खंबे लाल दीवारें\’ में पढ़ने को मिलता है। जब वो लिखती हैं कि सर्दी की धूप परदों से छनकर आ रही थी तो आप सचमुच सुषमा और नील को कमरे में बैठे हुये देख सकते हैं औऱ धूप उनके बदन को छू रही है।

कई बार ये किताबों की बनाई दुनिया असल दुनिया से अपनी कमियों के बावजूद, कहीं बेहतर लगती है। उसके पात्र जाने पहचाने से लगते हैं – जैसे हैरी पॉटर। क़माल के होते हैं ये लेखक।

जो समझा ये उसी की मची धूम

पिताजी गाड़ी में जब काम करवाने जाते तो सुबह से निकल जाते और शाम होने पर लौटते। वो गाड़ी मरम्मत के लिये छोडने के सख़्त ख़िलाफ़ थे। उन दिनों आज की जैसी सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी की फ़ोन कर दिया औऱ घर पर कोई गाड़ी लेने आ जायेगा। अगर होती भी तब भी इसकी संभावना कम ही होती।

लेक़िन ये सिर्फ़ गाड़ियों के साथ ही नहीं था। अगर कोई बिजली का काम करने आया है तो उसके पास खड़े रहो और उसको किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो वो देना। मतलब अग़र कोई काम हो रहा है तो आप उसको देखें। हम लोग पिताजी से हमेशा इस बात पर बहस करते की आपको काम करनेवालों से कुछ ज़्यादा ही लगाव है। आम बोलचाल में \’चाय पानी\’ के पैसे पिताजी ने नहीं दिये लेक़िन उनको चाय-नाश्ता करवाते। उस समय हम मुँह बनाते लेक़िन आज लगता है उन कामकरने वालों को इज़्ज़त देना ऐसे ही सीखा।

आज इनका ज़िक्र इसलिये क्योंकि पिछले दिनों घर पर कुछ मरम्मत का काम करने के लिये कोई आया। आदत से मजबूर मैं उसके पास ही खड़े होकर उसका काम करता देख रहा था। लेक़िन शायद उस बंदे के साथ ऐसा नहीं होता था। मतलब शहरों में जैसे होता है कि जब कोई ऐसे काम के लिये आता है तो उसको क्या ठीक करना है वो बता कर उसको काम करने दिया जाता है और आप अपने मोबाइल पर वापस एक्शन में।

जो शख़्स काम करने आया था वो बार बार पीछे मुड़कर देखता की क्या मैं वहीं खड़ा हूँ। पहले तो मुझे भी ठीक नहीं लगा औऱ एक बार ख़्याल आया कि मैं भी मोबाइल पर अपनी व्यस्तता दिखाऊँ। लेक़िन वहीं खड़ा रहा। शायद उस काम करनेवाले शख़्स को भी अंदाज़ा हो गया था क्योंकि उसके बाद वो अपने काम में मसरूफ़ हो गया।

वापस गाड़ी पर आते हैं। जब गाड़ी बदली तो लगा पिताजी का ये गैरेज पर दिन भर बिताना बंद हो जायेगा। अब तो कंपनी वाले स्वयं फ़ोन करते हैं और पूछ भी लेते हैं कि गाड़ी लेने किसी को भेजें। लेक़िन पिताजी को अपने सामने गाड़ी ठीक होते हुये देखना अच्छा लगता है। तो वो अपने सामने ही काम कराते। इसका उन्होंने एक दूसरा तोड़ भी निकाल लिया औऱ वर्कशॉप के एक मैकेनिक से बातों बातों में पूछ लिया अगर वो घर पर गाड़ी ठीक करेगा।

अब जब भी घर पर ठीक करने लायक कोई ख़राबी होती तो उसको फ़ोन करते और वो अपनी सहूलियत से आकर काम करते। जब मैंने जीवन की पहली गाड़ी ख़रीदी और उसकी सर्विसिंग करवाने गया तो मुझे याद आया काली कार की मरम्मत के वो दिन और वो दिन भर बैठे रहना औऱ इंतज़ार करना।

उन दिनों सबके पास लैंडलाइन फोन भी नहीं होते थे तो पहले से अपॉइंटमेंट लेने जैसा कोई कार्यक्रम नहीं होता। आप कब आने वाले हैं ये आप दुकान पर जाकर बताते और अग़र कोई और गाड़ी नहीं होती तो आपकी बुकिंग कन्फर्म होती। मैने ज़्यादा तो नहीं लेक़िन 4-5 बार पिताजी के साथ इस काम में साथ दिया। गाड़ी ठीक करने वाले भी सब एकदम तसल्ली से काम करते। कहीं कोई दौड़ाभागी नहीं। आज तो जिधर देखिये सब अति व्यस्त दिखते हैं।

हमारे यहाँ बच्चे अगर पढ़ाई में अच्छे नंबर नहीं लाता है तो उसको क्या ताना देते हैं? अच्छे से पढ़ो नहीं तो मेकैनिक का काम करने को भी नहीं मिलेगा। वैसे तो सब कहते रहते हैं कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। लेक़िन छोटे छोटे शब्दों में नीचे लिखा रहता है नियम व शर्तें लागू। हम ये सब काम, मतलब जिनके लिये हम एक फ़ोन करते हैं औऱ बंदा हाज़िर, उनको हम ज़रा भी इज़्ज़त नहीं देते। लेक़िन विदेश में यही काम करवाने के लिये एक मोटी रक़म ख़र्च करनी पड़ती है। इसलिये आपने देखा होगा वो अपने घर की पुताई भी स्वयं करते हैं औऱ बाक़ी अन्य काम भी।

लॉक डाउन में अगर लॉक डाउन हटने के बाद सबसे ज़्यादा इंतज़ार हो रहा है तो वो है कामवाली बाई के लौटने का। जबतक मैं व्हाट्सएप पर था तो लगभग सभी ग्रुप में इस पर या तो चर्चा चल रही होती या इसपर कुछ हल्का फुल्का हँसी मज़ाक चलता रहता। लॉक डाउन की शुरुआत वाला वो वीडियो शायद सबने देखा होगा जिसमें एक गृहणी कार में अपने यहाँ काम करनेवाली महिला को लेकर आती है औऱ उनकी इस पर उस सोसाइटी की सिक्युरिटी और बाकी लोगों से गर्मागर्म बहस हो जाती है। आज भी सब एक दूसरे से यही पूछ रहे हैं कि घर कब आओगे।

गाड़ी से बाई और बाई से वापस गाड़ी ऐसा ही लगता है जैसे फ़िल्म पड़ोसन में एक चतुरनार बड़ी होशियार में मेहमूद जी बोलते हैं ये फ़िर गड़बड़ किया, ये फ़िर भटकाया। तो वापस विषय पर। अब जो गाड़ियाँ ठीक होती हैं तो आपको नहीं पता होता कौन इसको देख रहा है। एक सुपरवाइजर आपको समय समय पर संदेश भेजता रहता है और जब काम ख़त्म तो आप गाड़ी ले जाइये। कई बार तो ऐसा भी हुआ की एक सर्विस से दूसरी सर्विस के बीच में नंबर वही रहता लेक़िन सुपरवाइजर बदल जाते। वो ठीक करने वाले के साथ चाय पीने का मौसम अब नहीं रहा।

बोल बच्चन

आपने ये कहावत,

आवश्यकता अविष्कार की जननी है

सुनी होगी। जब लॉक डाउन शुरू हुआ था तब सभी के लिये ये एक नई बात थी। शायद कर्फ्यू देखा हुआ था तो इसका अंदाज़ा था ये क्या होता है। लेक़िन कर्फ्यू बहुत कम पूरे शहर में रहता। वो तो उसी इलाक़े तक सीमित रहता जहाँ कुछ गड़बड़ हो। लेक़िन बाक़ी जगहों पर सब ठीक ठाक रहता।

नया प्यार

क्या आपको कभी किसी से मोहबत हुई है? याद है वो शुरुआती दौर जब बात बस शुरू होती है और आपको उस समय हर नखरा उठाने में भी इश्क़ ही नज़र आता है।

लॉक डाउन उस लिहाज़ से कुछ ऐसा ही अनुभव रहा। सभी चीजें बंद। न कहीं आना न कहीं जाना। सबके लिये मोबाइल फोन जैसे एक जीवन रक्षक घोल की तरह बन गया। बीते चार महीनों में इतने सारे वीडियो कॉल किये औऱ आये हैं जिनका की कोई हिसाब नहीं (वैसे हिसाब मिल सकता है अग़र आप समय दें तो)। उसके बाद शुरू हुआ ज़ूम का दौर। इसकी शुरुआत हुई स्कूल की क्लास से लेक़िन जब पता चला इस एप्प के चीनी होने का तो धीरे धीरे सबने दूसरे इस तरह के प्लेटफॉर्म को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।

इसके बाद शुरू हुआ ज़ूम जैसी नई एप्प की तलाश औऱ एक दो एप्प ने ज़ोर आज़माइश भी करी लेक़िन बात कुछ बनी नहीं। हमारी जुगाड़, जो अब जग प्रसिद्ध है, कुछ क़माल नहीं कर पाई। बड़ा आश्चर्य होता है की हमारे यहाँ कहने को तो बड़ा टैलेंट है, IT में बहुत ही बढ़िया कंपनी हैं लेक़िन न तो हम ज़ूम की टक्कर की कोई एप्प दे पाये न ही हमारे डिजिटल इंडिया के नारे का कोई बड़ा करिश्मा दिखा। हाँ जिओ ने खूब पैसे बटोरे लेक़िन इसका फ़ायदा पहुँचने में अभी वक़्त लगेगा और क्या वो जियो के ग्राहकों के अलावा बाकियों के लिये भी होगी ये आनेवाला वक़्त ही बतायेगा।

इस विषय पर पहले भी लिखा है लेक़िन आज फिर से क्योंकि एक बहुत ही दुखद ट्वीट देखा जिसमें एक आदमी स्ट्रेचर पर पड़ी एक औरत की लाश में जान डालने की कोशिश कर रहा है। ऐसे न जाने कितने वाकये सुने जिसमें लॉक डाउन के चलते लोगों ने क्या क्या नहीं झेला है।

इतने महीनों के बाद भी हमारे पास न तो ऐसी कोई एप्प है न कोई वेबसाइट जो कोरोना के मरीजों के डेटा को पारदर्शी तरीके से दिखाये। जिस जगह मैं रहता हूँ वहाँ के नगर निगम ने अभी पिछले 15 दिनों से अपनी कोरोना वायरस की अपनी प्रेस रिलीज़ को ठीक ठाक किया है। नहीं तो पहले खिचड़ी बनी आती थी।

जैसा मैंने कल अपना ऑनलाइन शॉपिंग का अनुभव बताया था, बहुत सी कंपनी तो अभी भी वही पुराने तरीक़े से आर्डर ले रहीं हैं (फ़ोन करिये और एक एक आइटम के बारे में पूछिये)। इन महीनों में क्या हमारे डिजिटल इंडिया के सौजन्य से कुछ ऐसा बनकर आया जिसे देखकर आपको लगे क्या एप्प है? उल्टा ऐसी कई वेबसाइट/ एप्प की कलई खुल गई जो अपनी सर्विसेज का दम्भ भरती थीं।

हम और हमारे नेता बस बातों के लिये अच्छे हैं। जितने बड़े नेता, उतने बड़े और खोटे बोल। लॉक डाउन शुरू होने के कुछ दिन बाद अपने एक पुराने सहयोगी से बात हुई तो उन्होंने बताया था गावों में इसको कोई नहीं मान रहा है औऱ न भविष्य में ऐसा कुछ होने की संभावना है। आज जब गावों से नये केस थोक के भाव में आ रहे हैं तो उनकी प्रतिक्रिया लेना रह गया।

जब ये शुरू हुआ तो प्रवासी मज़दूरों का मुद्दा ख़ूब चला। सबने अपनी रोटियाँ सेकीं पत्रकारों ने इसी के चलते भारत भ्रमण भी कर लिया। अब उस फुटेज को भुनाया कैसे जाये ये एक जटिल समस्या है। चूँकि हमारे यहाँ जो दिखता है वो बिकता है औऱ अभी तो उन मज़दूरों की किसी को नहीं पड़ी है, तो बस अब उनकी ख़ैर ख़बर लेने वाला कोई नहीं। कहीं मैंने ये भी पढ़ा की बहुत से ऐसे मज़दूर अब वापस अपनी नौकरियों पर आ गए हैं तो उनकी कहानी ख़त्म।

समाज के सबसे बड़े तबके यानी हमारी मिडिल क्लास को तो इस सबसे भूल ही गये हैं। ऐसा लगता है उनको कोई परेशानी हुई ही नहीं है या उनकी परेशानी मायने नहीं रखती। मेरे न जाने कितने जाननेवालों की नौकरी भी चली गई और नई मिलने की संभावना निकट भविष्य में क्षीण हैं लेक़िन मजाल है कोई इस पर कुछ दिखाये। सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं।

एक तीर, दो शिकार

इस लॉक डाउन ने हमारे देश की दो सबसे बड़ी प्राथमिकताओं पर ही सवाल लगा दिये है। पहली तो जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था जो आज उस वेंटिलेटर पर है जिसकी बिजली कभी भी बंद हो सकती है। चाहे वो मुम्बई जैसा बड़ा शहर हो या बिहार जैसा पिछड़ा राज्य। सभी जगह ईलाज के बुरे हाल हैं।

ये नेताजी उस समय का हिसाब माँग तो रहे हैं लेक़िन ये नहीं बता रहे इन्होंने अपने समय में क्या किया।

दूसरी है हमारी शिक्षा व्यवस्था। शहरों में सरकारी स्कूलों की हालत बेहद ख़राब वैसे ही है। लेक़िन इस महामारी के चलते ये भी पता चला की एक ही शहर में आपको ग़ैर सरकारी स्कूल मिलेंगे जो इन तीन महीनों में काफ़ी हद तक डिजिटल क्लास चला पाये लेक़िन सरकारी स्कूलों में या तो शिक्षक के डिजिटल रेडी न होने के कारण या विद्यार्थियों के पास मोबाइल के न होने के कारण ये नहीं हो पाया।

अभी जब रोज़ लगभग 50 हज़ार केस आ रहे हैं तो हमारे नेताजी स्कूलों को फ़िर से खोलने पर काम कर रहे हैं। चलिये खोल दीजिये स्कूल लेक़िन उसके बाद अगर केस बढ़ते हैं तो क्या आपके पास उसकी तैयारी है? उस समय तो आप ये दोष किसी अफ़सर के ऊपर मढ़ देंगे।

समाधान

ऐसा नहीं है की इस विशाल देश में सिर्फ़ समस्याओं का ढ़ेर है। बहुत से समाधान भी हैं लेक़िन उन समाधानों के प्रति हम अपनी राय उस पर बनाते हैं कि वहाँ किस की सरकार है, उनके बाक़ी राज्यों, केंद्र से कैसे संबंध हैं। इस सब में जब ईगो, अहम या अना बीच में आती है तो अच्छे काम भी बुरे दिखने लगते हैं। जैसे केरल ने शुरू से इस लड़ाई में बहुत अच्छी तैयारी रखी औऱ बहुत बढ़िया काम भी किया। लेक़िन जैसे किसी संयुक्त परिवार में होता है एक बहु का अच्छा काम न तो बाक़ी बहुओं को भाता है और न तो सास को।

डिजिटल की मेरे सफ़र की सबसे बड़ी सीख यही रही की आगे बढ़ना है तो लीडर को देखो। उसका अनुसरण करो (कॉपी नहीं) औऱ फ़िर उसमें से अपना रास्ता बनाओ। बाक़ी राज्यों को केरल से ज़मीनी औऱ तकनीकी ज्ञान को अपने राज्य में लागू करना था। लेक़िन ऐसा करते तो उनकी तथाकथित दुकानों का नुकसान होता। तो बस अब कहीं अमरीका की डिज़ाइन है तो कहीं बहुत ही घटिया देसी डिज़ाइन।

ये सही है की ऐसी कोई स्थिति होगी इसके बारे में कभी किसी ने सोचा नहीं था। लेक़िन जब ऐसी स्थिति हो गयी तब हमने क्या किया? आज हमारे पास अभी तक की सबसे बेहतरीन टेक्नोलॉजी है, सबसे अच्छे सिस्टम हैं लेक़िन उसके बाद भी अगर हम कुछ नहीं कर पाते हैं तो इसके लिये कौन ज़िम्मेदार है? क्या तीन महीने में कुछ बहुत ही तूफ़ानी सा काम हो जायेगा ये सोच ही ग़लत है?

लेक़िन जब ये सब ख़त्म हो जायेगा तब हम सब ऐसे आगे बढ़ जायेंगे जैसे ये एक बुरा सपना था। लेक़िन भारत की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस महामारी के झटके कई वर्षों तक महसूस करेगा।

https://youtu.be/3oYBJHlCCGA

अठन्नी सी ज़िन्दगी, ये ज़िन्दगी

आज शुरुआत गुलज़ार साहब की एक रचना के चंद शब्दों के साथ। फ़िल्म इजाज़त और गाना वही मेरा कुछ सामान। लेक़िन इस बार बात उस ख़त की जो टेलीग्राम के रूप में महिंदर और सुधा तक पहुँचता है। लिखा माया ने है और वो सामान वापस करने का ज़िक्र कर रही हैं एक कविता के ज़रिये।

एक दफ़ा वो याद है तुम्हें,

बिन बत्ती जब साईकल का चालान हुआ था,

हमने कैसे भूखे प्यासे बेचारों सी एक्टिंग की थी,

हवलदार ने उल्टा एक अठन्नी देकर भेज दिया था,

एक चवन्नी मेरी थी,

वो भिजवा दो

नहीं मैं इसे एक और गुलज़ार या इजाज़त वाली पोस्ट नहीं बनने दूँगा। वैसे रस्मे मौसम भी है, मौका भी है औऱ दस्तूर भी।

आपने कभी वो ऑनलाइन सेल में कुछ खरीदा है? जिसमें सेल शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो जाती। थोड़ी देर बाद वो कंपनी बड़े घमंड के साथ सोशल मीडिया पर आती और बताती कितने सेकंड में उनका माल बिक गया। इन सेल में मेरी किस्मत बहुत नहीं चली (अपने लिये) लेक़िन बाक़ी लोगों के लिये मुझे एक दो बार कामयाबी ज़रूर मिली।

कोरोना के चलते मुझे इस सेल वाले अनुभव की फ़िर से याद आयी जब रात में राशन पानी लेने के लिये वेबसाइट के खुलने का इंतज़ार कर रहे थे। आसपास की सभी दुकानें बंद और वो सभी डिलीवरी करने वाली एप्प ने भी हमारे इलाके से कन्नी काट रखी थी। एक वेबसाइट तो 20 में से चार वो चीज़ें ही डिलीवर करने को तैयार थी जिनके बिना काम चल सकता था।

रात के लगभग 12 बजे जब साइट ने आर्डर लेना शुरू किया तो बस किसी तरह आर्डर जल्दी से हो जाये इसका ही प्रयास कर रहे थे। जल्दी इसलिये की अगर 10 चीज़ें आर्डर करी हैं तो कमी के चलते उसमें ही 5 ही आपके घर पहुँचती हैं। ऐसा पहले भी होता रहा है की पूरा सामान नहीं आया हो। लेक़िन इन दिनों लालच बढ़ गया है और दूसरा ये की बाहर निकलने पर क्या मिले क्या न मिले इसका कोई भरोसा नहीं है।

बहरहाल सभी प्रयासों के बाद सामान का आर्डर नहीं हुआ। एक दो बार पैसा भरने तक पहुँचे भी लेक़िन उसके आगे टायें टायें फिस्स। सभी डिलीवरी स्लॉट भर गये थे। सेल में फ़ोन या एक रुपये में फ़िटनेस बैंड मिलने का इतना दुख नहीं हुआ जितना इस आर्डर के न होने पर हुआ था।

आँखों से नींद कोसों दूर थी औऱ उस कंपनी के लोगों को ज्ञान देने की भी इच्छा थी। ढेर सारा की वो हम ग्राहकों से इतना बेचारा जैसा व्यवहार क्यों करती हैं। इसी उधेड़बुन में एक बार फ़िर वेबसाइट पर पहुंचा और एक औऱ प्रयास किया। ये क्या? बड़ी आसानी से एक के बाद एक रुकावटें पार करते हुये आख़िरी पड़ाव यानी भुगतान तक पहुँच गये। विश्वास नहीं हो रहा था और लग रहा था जैसे सिग्नल की लाइट लाल होती है वैसे ही किसी भी समय ये हो सकता था।

लेक़िन उस रात कोई तो मेहरबान था। क्योंकि अंततः आर्डर करने में सफलता मिली औऱ जब कंपनी से इसका संदेश आ गया तो उस समय की फीलिंग आप बस समझ जाइये। लेक़िन साथ ही उस शख़्स के लिये भी बुरा लगा जिसने प्रयास किये होंगे लेक़िन समय सीमा के चलते शायद वो ऐसा नहीं कर पाये।

इस पूरे घटनाक्रम से यही सीख मिली कि जब आपको लगने लगे सब ख़त्म हो चुका है, एक बार औऱ प्रयास कर लीजिये। शायद कुछ हो जाये। वैसे हमारे ऐसे अनुभव काली कार के साथ बहुत हुये हैं। चूँकि चलती कम थी तो बैटरी की हमेशा साँस फूली रहती। हूं लोगों को कभी घर के अंदर नहीं तो बाहर सड़क पर उसको धक्का देना होता। और कुछ नख़रे दिखाने के बाद जब कार स्टार्ट होती तो उससे मधुर आवाज़ कोई नहीं होती।

ऐसा ही एक अनुभव पिछले वर्ष हुआ था अगस्त के महीने में। सपरिवार भोपाल जाने का कार्यक्रम था और टिकट भी करवा लिये थे। लेक़िन मुम्बई में हमेशा बनती रहने वाली सड़कों के चक्कर में स्टेशन पहुँचे तक गार्ड साहब वाला डिब्बा और उसमें से वो हरा सिग्नल दिख रहा था। मायूस से चेहरे लेकर ऐसे ही टिकट काउंटर पर जाकर पूछा शाम की दूसरी ट्रेन के बारे में औऱ… तीन घंटे बाद वाली ट्रेन में कन्फर्म टिकट मिल गया।

सीख वही ऊपर वाली। प्रयास करते रहिये।

अब इसमें गुलज़ार साहब का क्या योगदान? जी वो चिल्लर की बात जो माया देवी कर रहीं थी, बस वैसी ही ज़िन्दगी लगती है जब ऐसा कुछ होता है।

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तेरी दो टकियाँ दी नौकरी वे मेरा लाखों का सावन जाये

मुंबई में और देश के बाक़ी हिस्सों में भी बारिश मुम्बई की बारिश के अपने किस्से कहानियाँ हैंचालू है। वैसे जो शहर खूबसूरत हैं वो हर मौसम में खूबसूरत ही लगते हैं। लेक़िन कुछ ख़ास आनंद कम ही लिया हैमौसम में इन शहरों की खूबसूरती और निदिल्ली की सर्दियां बेहदखर जाती है। चूँकि बात मुम्बई की चल रही है तो वैसे तो इस शहर को कांक्रीट जंगल कहते हैं (है भी), लेक़िन बारिश में ये शहर एक अलग ही शहर लगता है।

आप जो पानी से भरी सड़कें या सबवे समाचारों में देखते हैं वो भी बारिश का एक दूसरा पहलू है। लेक़िन ये तो हर मौसम पर लागू होता है। बारिश की अपनी परेशानी है तो गर्मी की अपनी दिक्कतें हैं। लेक़िन दिक्कतों से परे ये सभी मौसम हर शहर का क़िरदार दिखाते हैं।

भोपाल में रहने का फायदा ये रहा की सभी मौसमों का लुत्फ़ उठाया। गर्मी और सर्दियों में जब कभी सुबह सैर करने का मौक़ा मिलता तो वो एक बहुत ही खूबसूरत अनुभव होता। हालाँकि ऐसा आनंद कम ही लिया हैलेक़िन जब भी लिया दिल खोल के लिया।

भोपाल के बाद नंबर आता है दिल्ली का और मुझे हमेशा से दिल्ली की सर्दियां बेहद पसंद रहीं हैं। उन दिनों रजाई में घुसे रहने के अपने मज़े हैं लेक़िन रजाई से बाहर निकल कर अगर घूमने निकल जाये तो मौसम के अलग मज़े लेने को मिलते हैं। औऱ अगर ऐसे मौसम में सड़क किनारे अग़र अदरक की गरमाराम चाय पीने को मिल जाये तो क्या बात है।

ऐसा नहीं है की मुम्बई की सुबह खूबसूरत नहीं होती हैं लेक़िन बड़े शहरों के अपने मसले हैं। यहाँ सुबह साढ़े चार बजे से लोकल शुरू हो जाती है (फ़िलहाल बंद हैं) तो सड़कों पर गाड़ियाँ भी दौड़ने लगती हैं। छोटे शहरों में या उभरते हुए मिनी मेट्रो में अभी दिन की शुरुआत इतनी जल्दी नहीं होती।

मेरे पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में मेरे इंदौर के एक सहयोगी जो अक्सर भोपाल-इंदौर के बीच अपनी मोटरसाइकिल से सफ़र करते थे, वो कहते थे हर शहर की अपनी नाइटलाइफ़ होती है। अगर किसी शहर का क़िरदार मालूम करना हो तो उसको रात में देखो। भोपाल में ऐसे मौके कम मिले लेक़िन दिल्ली में और उसके बाद मुम्बई में ऐसा कई बार हुआ।

अब ये फ़िरसे मौसम से दिन रात पर भटकना शुरू हो रहा है इसलिये इसको यहीं ख़त्म करते हैं। मुम्बई की बारिश के अपने किस्से कहानियाँ हैं लेक़िन अगर आपको कभी मौक़ा मिले तो ज़रूर देखिये इस शहर को बारिश के मौसम में। बस प्रार्थना इतनी सी है की आप बारिश में कहीं फँसे नहीं।

वैसे बारिश से याद आया हमारी फिल्मों में भी बारिश का एक अलग महत्व है। ढेरों गाने लिखे गये हैं सावन पर। ये नया प्रेम नहीं है। ये दशकों से चलता आ रहा है और आज भी बरकरार है।

किशोर कुमार जी की आवाज़ में रिमझिम गिरे सावन शायद पहला गीत था जिसके बोल मैंने लिखे थे अपने लिये। क्यों तो पता नहीं लेक़िन शायद गाना पसंद ही आया होगा। बारिश के कई गाने हैं जिनमें से ये एक है जिसमें बारिश का ज़िक्र तो ज़रूर है लेक़िन बारिश के अतेपते नहीं है।

ये बात भी पिताजी ने ही बताई की इस गाने को लता मंगेशकर जी ने भी गाया है। ज़्यादातर किशोर कुमार जी वाला ही देखने सुनने को मिलता। जब लता जी की आवाज़ वाला गाना सुना तो बहुत अच्छा लगा। लेक़िन जब इसको देखा तब इस गाने से मोहब्बत सी हो गयी। बारिश के गानों के साथ जो परेशानी है वो है माहौल बनाने की। मतलब आप साज़ो सामान से माहौल बनाते हैं, बारिश दिखाते हैं। लेक़िन अगर आपने ये गाना देखा होगा तो आपको इसमें बारिश से भीगा हुआ शहर दिखेगा।

सरफ़रोश के इस गाने को भी असली बारिश में शूट किया था। शायद इसलिये गाना खूबसूरत बन पड़ा है।

https://youtu.be/RFK0h5nyPZo

इस गाने में ठंडी हवा, काली घटा भी है लेक़िन बारिश का इंतज़ार हो रहा है। औऱ फ़िर जब यही मधुबाला बारिश में भीग कर किशोर कुमार जी के गैराज में अपनी कार की मरम्मत कराने पहुँचती हैं तो एक और खूबसूरत गीत बन जाता है जिसमें बारिश भी एक क़िरदार है लेक़िन उसका सिर्फ़ ज़िक्र है।

मुझे ऐसा लगता है मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने सबसे ज़्यादा बारिश पर गाने लिखे हैं। जब सर्च कर रहा था तब ज़्यादातर गाने उनके ही लिखे हुये मिले। ऐसा ही एक और उनका ही लिखा हुआ बहुत ही प्यारा बारिश का गाना जिसमें बारिश नहीं है, ज़िक्र है।

तो आपका कौनसा पसन्दीदा मौसम है औऱ उस मौसम पर लिखा/फ़िल्माया गाना पसंद है? ज़रूर बतायें। इनाम तो कुछ नहीं, लेक़िन आपके बारे में बहुत कुछ बताता है ये मौसम। क्योंकि ये मौसम का जादू है मितवा…

वो यार है जो ख़ुशबू की तरह, वो जिसकी ज़ुबाँ उर्दू की तरह

कल की पोस्ट में जो कैफ़ियत शब्द का इस्तेमाल किया था इसको पहली बार गुलज़ार साहब की आवाज़ में सुना था। एल्बम था गुलज़ार के चुनिंदा गानों का औऱ उनकी वही भारी भरकम आवाज़ में वो कहते हैं, \”मिसरा ग़ालिब का, कैफ़ियत अपनी अपनी\”।

जब कैसेट पर ये सुना था तब समझ में नहीं आया। उस समय इंटरनेट भी नहीं था लेक़िन उर्दू जानने वाले काफ़ी लोग थे और उनसे मतलब पूछा था। उस समय समझा और आगे बढ़ गए। उन दिनों भाषाओं की इतनी समझ भी नहीं थी। आगे बढ़ने से पहले – मिसरा का मतलब किसी उर्दू, कविता का आधारभूत पहला चरण। कैफ़ियत – के दो माने हैं हाल, समाचार या विवरण।

गुलज़ार ने इसके बाद अपना लिखा जो गाना सुनाया वो था दिल ढूँढता है फ़िर वही फ़ुरसत के रात दिन। इस गाने में सारे मौसम का ज़िक्र है। जाड़ों की बात है तो गर्मियों की रात का भी ज़िक्र है और बर्फ़ीली सर्दियों का भी। इसी गाने का एक दूसरा भाग भी है जो दर्द से भरा है। इस गाने से संबंधित एक बात और जिसकी शिकायत गुलज़ार साहब से है की उन्होंने इसमें बरसात का ज़िक्र क्यूँ नहीं किया? बात कैफ़ियत से शुरू हुई थी और एक गाने में सिमटती जा रही है।

जो मैं अर्ज़ करना चाह रहा था वो ये की किसी भी भाषा का ज्ञान कई स्त्रोतों से मिलता है। कई शब्द सुनकर सीखते हैं और चंद पढ़कर भी। अब जैसे अपशब्द की तो कोई क्लास नहीं होती लेक़िन अपने आसपास आप लोगों को इसका इस्तेमाल करते सुनते हैं और धीरे धीरे ये आपकी भाषा का अंग बन जाता है। पहले तो सिनेमा में भाषा बड़ी अच्छी होती थी लेक़िन अब गालियों का खुलकर प्रयोग होता है और वेब सीरीज़ तो परिवार के साथ न देखने न सुनने लायक बची हैं। अभी ऊपर भटकने से बचने के बात करते करते वापस उसी रस्ते।

जिस तरह के आजकल के गाने बन रहे हैं उससे लोगों की अपशब्दों की डिक्शनरी ही बढ़ रही है। जब सेक्सी शब्द का इस्तेमाल हुआ था तो हंगामा हुआ था। आखिरकार बोल बदलने पड़े थे। अब बादशाह, कक्कड़ परिवार, हनी सिंह ने पूरी पीढ़ी को नई भाषा ज्ञान का ज़िम्मा उठाया है और इसके नतीज़े आपको कोरोना ख़त्म होते दिखेंगे जब ससुराल गेंदा फूल पर छोटे छोटे बच्चे नाचेंगे।

गानों का किसी भाषा को समझने की पहली कड़ी मान सकते हैं। ये कोई फ़िल्म भी हो सकती है लेक़िन किताब नहीं क्योंकि आप उसका अनुवाद पढ़ रहे होते हैं। ग़ालिब को पढ़ा तो नहीं लेक़िन उनको सुना है। सुनकर ही शब्दों के माने जानने की कोशिश भी करी क्योंकि उनके इस्तेमाल किये शब्द भारीभरकम होते हैं। जैसे:

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे

जब पहली बार ये शेर सुना तो कुछ भी समझ में नहीं आया। फ़िर अलग अलग शब्दों के माने समझ कर समझा की ग़ालिब क्या कह रहे हैं।

https://youtu.be/KhWUUPo0pTQ

ऐसा ही एक और बेहद खूबसूरत गीत है फ़िल्म घरौंदा का तुम्हे हो न हो मुझको तो इतना यकीं है । बांग्लादेशी गायिका रुना लैला की आवाज़ में ये गाना दरअसल बयां कितनी मोहब्बत है इसका है लेक़िन सीधे सीधे नहीं बोलकर गुलज़ार साहब नें शब्दों के जाल में एक अलग अंदाज में बताया है। जब शुरू में ये गाना सुना तो लगता वही जो मुखड़ा सुनने पर लगता है। लेक़िन जब अंतरे पर आते हैं तो समझ में आता है की बात कुछ और ही है। ये मुखड़े से अंतरे तक का सफ़र बहुत कठिन रहा लेक़िन मज़ा आया। अगर आप ये गाना देखेंगे तो ये एक दर्द भरा गीत भी नहीं है।

पिछले दिनों एक पुराने सहयोगी ने बताया उर्दू की क्लास के बारे में। तो बस अब उस क्लास से जुड़ने का प्रयास है औऱ एक बरसों से दबी ख्वाइश के पूरे होने का इंतज़ार।

एक आख़िरी गाना जिसके शब्द बचपन से याद रहे। उन दिनों रेडियो ही हुआ करता था तो उसपर कई बार सुना। अब तो जैसे इस गाने के बोल रट से गये हैं और उनके माने भी समझ में आने लगे। हाय हाय ये ज़ालिम ज़माना

दरअसल गाने और उनके संबंध पर चर्चा के बारे में किसी ने एक बहुत ही खूबसूरत बात कही थी जिससे इस पोस्ट का आईडिया पनपा। लेक़िन लिखते लिखते भटक से गये। ख़ैर उस बात का ज़िक्र आगे करेंगे।

ख़ैरियत पूछो, कभी तो कैफ़ियत पूछो

अभी बोर्ड की परीक्षाओं के परिणाम आने शुरू हुये हैं और कई राज्यों के परिणाम आ भी चुके हैं। जैसा की पिछले कई साल से चलन चल रहा है, अब माता पिता अपने बच्चों के परिणाम को अपनी ट्रॉफी समझ कर हर जगह दिखाते फ़िरते हैं।

मुझे लगता है कभी कभी कुछ चीज़ों का न होना बहुत अच्छा होता है। जैसे हमारे समय ये सोशल मीडिया नहीं हुआ करता था। बस घर के सदस्य, कुछ और रिश्तेदारों तक आपके परिणाम की ये ख़बर रहती। बाकी जगह ख़बर फ़ैलते थोड़ा समय लगता और तब तक बात पुरानी हो जाती तो बात होती नहीं।

पिताजी शिक्षक रहे हैं और शायद उन्हें जल्दी ही पता लग गया था की मेरा और पढ़ाई का रिश्ता कैसा होने वाला है। लेक़िन उन्होंने एकाध बार ही नम्बरों के लिये कुछ बोला होगा। इसके बाद भी उन्होंने मुझे हर परीक्षा में सम्मिलित होने के लिये प्रोत्साहित किया। जिसके चलते मेरा पहली बार अकेले मुंबई-शिरडी-पुणे यात्रा का संयोग बना।

पिछले हफ़्ते से सोशल मीडिया और व्हाट्सएप पर माता पिता अपने बच्चों के नंबर बता रहें हैं। कुछेक ने तो बाकायदा मार्कशीट भी डाल दी। बहुत अच्छी बात है की बच्चों की मेहनत रंग लाई। उनको बहुत बहुत बधाई। मैं माता पिता को ऐसा करने से रोकने वाला कौन होता हूँ लेक़िन ये पूरे सर्कस से थोड़ा दुखी हूं।

मेरा माता-पिता से सिर्फ़ एक ही प्रश्न है अगर आपके बच्चे के नंबर कम आते तो भी क्या आप उतने ही उत्साह से ये ख़बर सबको बताते? अगर आप बताते तो आपको मेरा सादर प्रणाम। अगर नहीं तो इस इम्तिहान में आप फेल हो गये हैं।

लेक़िन मुझे बहुत ख़ुशी होती है ऐसे पालकों के बारे में जानकर बड़ी ख़ुशी होती है जो अपनी संतान को नंबर से नहीं आँकते। जो भी परिणाम है वो सबके सामने। अगर बहुत ख़राब आया है तो भी। ऐसे माता पिता की संख्या भी अधिक है जो ऊपर ऊपर तो कह देते हैं उन्हें नम्बरों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता लेक़िन दिल ही दिल में ये मनाते रहते हैं कि इतने प्रतिशत तो आ ही जायें। मेरे मामले में माता पिता का तो पता नहीं लेक़िन मैं तो बस किसी तरह पास होने की उम्मीद ही करता।

अभिनेता अनुपम खेर ने इससे जुड़ा किस्सा सुनाया था। जब वो परीक्षा में फेल हो गये थे तो उनके पिताजी ने उसका जश्न मनाया था। उस दिन से उनका असफ़ल होने का डर जाता रहा। आजकल माता पिता जब नम्बरों को पूरी दुनिया को बताते है (सिर्फ़ अच्छे नंबर आने पर ही) तो वो अनजाने में ही अपने बच्चों के ऊपर और प्रेशर डाल रहे होते हैं।

मैं ऐसे कई बच्चों को जानता हूँ जो एक या दो नंबर कम आने पर बहुत निराश हो जाते हैं क्योंकि घर पर इसके चलते हंगामा होगा। बच्चों के लिये दुःख होता है और माता पिता पर तरस आता है। अच्छे परिणाम से ही क्या आपकी संतान अच्छी मानी जायेगी?

आजकल जितने प्रतिशत बच्चों के आ रहे हैं उसको देख कर लगता है मेरा परिणाम तो नेगेटिव में होना चाहिये। मुझे याद है जब जान पहचान वालों के बच्चे बोर्ड परीक्षा देते थे तो उनका घर पर आना जाना बढ़ जाता था। कारण? वो पिताजी से ये पता करना चाहते थे कि फलाँ विषय की कॉपी कहाँ चेक होने जा रही है और वो ट्रेन का टिकट कटाकर पहुँच जाते। नंबर बढवाये जाते जिससे परिणाम अच्छे आयें। आज वो बच्चे लोग अच्छी पोस्ट पर हैं, कुछ विदेशी नागरिकता लेकर वहाँ पर \’सफलता\’ के झंडे गाड़ रहे हैं। वो यहाँ कैसे पहुँचे ये उन्हें मालूम तो होगा लेक़िन क्या वो इस बारे में कभी सोचते होंगे? शायद।

जैसा मैंने पहले ज़िक्र किया था विदेशी तोहफों के बारे में, ऐसे ही एक सज्जन को परिवार के बहुत से लोगों से कोफ़्त हुआ करती थी। उन लोगों से मिलना, उनका आना जाना सब बिल्कुल नापसंद। लेक़िन जैसे ही ये ग्रुप के लोग धीरे विदेशी धरती को अपनी कर्मभूमि बनाने लगे साहब के रंग भी बदल गये। वही नापसंद लोग उनके पसंदीदा बन गये।

ये मैं इसलिये बता रहा हूँ की आज अगर आपके नंबर कम आये हैं तो निराश मत हों। समय और नज़रिया बदलते देर नहीं लगती। जो आज आपको आपके नंबर के चलते आपको अपमानित महसूस करा रहे हैं वो आपको भविष्य के लिये तैयार ही कर रहे हैं। और कल आपने जब कुछ मक़ाम हासिल कर लिया तो यही लोग आपके गुण गायेंगे।

राह पे रहते हैं, यादों पर बसर करते हैं

साल 2000 में शाहरुख खान की फ़िल्म आयी थी जोश । फ़िल्म में उनके साथ थे चंद्रचूड़ सिंह, शरद कपूर और प्रिया गिल। फ़िल्म की कास्ट को लेकर चर्चा तब शुरू हुई जब ऐश्वर्या राय को फ़िल्म में लिया गया लेक़िन शाहरुख खान की हीरोइन के रूप में नहीं बल्कि बहन के रोल में। जहाँ फ़िल्म के निर्देशक मंसूर खान इस कास्ट को लेकर बहुत आशान्वित थे, जनता के लिये नये कलाकारों को ऐसे रोल में देखना एक नया अनुभव था।

पहले तो दोनों कलाकार इसके लिये मान गए वही बड़ी बात थी। इसके कुछ ही महीनों बाद शाहरुख – ऐश्वर्या के नई फ़िल्म आयी मोहब्बतें जिसमें दोनों एक रोमांटिक रोल में थे। इसके बाद इसी जोड़ी ने संजय लीला भंसाली की देवदास में भी काम किया। लेक़िन जैसी शाहरुख़ की काजोल, जूही या माधुरी के साथ जोड़ी बनी और पसंद भी की गई वैसी उनकी और ऐश्वर्या की जोड़ी नहीं बन पाई। और जो तीन-चार फिल्में साथ में करीं भी तो उसमें रोमांटिक जोड़ी नहीं रही।

पिछले दो दिनों से फिल्मी पोस्ट हो रहीं हैं तो आज किसी और विषय पर लिखने का मूड़ था। लेक़िन सुबह मालूम हुआ हरी भाई ज़रिवाला एवं वसंतकुमार शिवशंकर पादुकोण का जन्मदिन है, तो उनके बारे में न लिखता तो ग़लत होता। हिंदी फिल्मों के सबसे उम्दा कलाकारों और निर्देशकों में से एक या शायद एकलौते जिनकी कोई इमेज नहीं रही।

बहुत ही बिरले कलाकार होते हैं जो किसी भी रोल को निभा सकते हैं। हरिभाई अर्थात हमारे प्रिय संजीव कुमार जी ऐसे ही कलाकार रहे हैं। गाँव का क़िरदार हो या शहर बाबू का या पुलिस वाले का। हर रोल में परफ़ेक्ट। हर रोल में उतनी ही मेहनत।

वसंतकुमार शिवशंकर पादुकोण अर्थात गुरुदत्त जी भी ऐसे ही निर्देशक रहें हैं। आज मैं सिर्फ़ संजीव कुमार जी के बारे में लिख रहा हूँ। गुरुदत्त जी के बारे में विस्तार से बाद में।

अग़र वो जया भादुड़ी के साथ अनामिका में रोमांटिक रोल में थे तो परिचय में बाप-बेटी के क़िरदार में और फ़िर शोले में ससुर और बहू के रोल में। लेक़िन दोनों को साथ देखकर आपको कुछ अटपटा नहीं लगेगा। और न ही आपको ये बूढ़े ठाकुर को देखकर लगेगा की वो सिर्फ़ 37 साल के हैं। राखी भी ऐसी ही एक अदाकारा रही हैं जो अमिताभ बच्चन की प्रेयसी बनी तो शक्ति में उन्हीं की माँ का भी रोल किया है।

ये संजीव कुमार का हर तरह के रोल की भूख ही होगी की उन्होंने अपने सीनियर कलाकार शशि कपूर के पिता का रोल यश चोपड़ा की यादगार फ़िल्म त्रिशूल में करना स्वीकार किया।

आजकल हिंदी फिल्मों का हीरो फ़िल्म में बड़ा ज़रूर होता है लेक़िन बूढ़ा नहीं। मुझे हालिया फिल्मों में से दो फिल्में वीरज़ारा और दंगल ही याद आतीं हैं जिसमें क़िरदार जवानी से बुढ़ापे तक का सफ़र तय करता है। संजीव कुमार की शोले हो या आँधी उनका क़िरदार दोनों ही उम्र में दिखा औऱ क्या क़माल का निभाया उन्होंने।

आज के समय में कलाकार कला से ज़्यादा अपनी इमेज की चिंता में रहते हैं। संजीव कुमार की कोई भी फ़िल्म देख लीजिये लगता है जैसे क़िरदार उनके लिये ही लिखा गया था। उनके हर तरह के रोल करना ये सिखाता भी है की जो भी काम मिले उस काम को बखूबी निभाओ। कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता।

उनके दो रोल आँधी और अँगूर दोनों बहुत पसंद हैं। इत्तेफ़ाक़ से दोनो के निर्देशक गुलज़ार साहब हैं। वैसे अग़र आज संजीव कुमार जी होते तो शायद वो औऱ गुलज़ार साहब मिलकर न जाने और कितने क़माल की फ़िल्में करते।

जहाँ आँधी में संगीत का उसके पसंद किये जाने के पीछे बड़ा योगदान है, अंगूर तो सिर्फ़ और सिर्फ़ उनकी एक्टिंग के लिये प्रिय है। वो वाला सीन जिसमें वो गलती से अपने हमशक्ल के घर आ जाते हैं और उसकी पत्नी (मौष्मी चटर्जी) उन्हें अपना पति समझ कर उनसे बात करती है। इस पूरे पाँच मिनट के सीन में संजीव कुमार जी कितने उम्दा कलाकार थे, ये बख़ूबी दिखता है। जिस तरह से वो बताइये से बताओ, बताओ पर आते हैं या बहादुर के बाप बनने की ख़बर पर उनकी प्रतिक्रिया – सब एक्टिंग की मास्टरक्लास है। जब हमारे आज के हीरो जिम से फुर्सत पायें तो कुछ देखें।

जब छोटा था तब से एक पारिवारिक मित्र घर आते थे। जब भी उन्हें देखता लगता है उन्हें कहीं देखा है। वो बिल्कुल संजीव कुमार जी की तरह लगते और जैसे उनके बाल सफ़ेद रहते इनके भी वैसे ही रहते। और वैसा ही चश्मे का फ्रेम।

वैसे तो संजीव कुमार जी के एक से बढ़कर एक गाने हैं, ये मौसम के हिसाब का गाना है और एक बहुत ही कर्णप्रिय गीत है। मौसम, गीत दोनों का आनंद लें।

https://youtu.be/F6FkVPOMtvM

पाके भी तुम्हारी आरज़ू हो, शायद ऐसे ज़िन्दगी हंसी है

8 जुलाई 1987 को जब गुलज़ार साहब की फ़िल्म इजाज़त रिलीज़ हुई थी तब तो शायद पता भी नहीं होगा फ़िल्म के बारे में। शायद गुलज़ार साहब को भी थोड़ा बहुत जानना शुरू किया होगा। मैंने शायद इसलिये लगा दिया की ठीक ठीक याद नहीं है फ़िल्म के बारे में और गुलज़ार साहब के बारे में भी। इतना ज़रूर पता है फ़िल्म सिनेमाघर में नहीं देखी थी लेक़िन छोटे पर्दे पर ही देखी।

तैंतीस साल पहले इस फ़िल्म में लिव-इन रिश्ते दिखाये गये थे। मतलब जब एक साल बाद 1988 हम क़यामत से क़यामत तक में आमिर खान और जूही चावला की प्यार की जंग देख रहे थे उससे भी एक साल पहले ये फ़िल्म एक बहुत ही अलग बात कर रही थी। हाँ इस फ़िल्म QSQT से जुड़ा सब बिल्कुल साफ़ साफ़ याद है।

रियल ज़िन्दगी में आते आते इस तरह की ज़िंदगी को और ज़्यादा समय लग गया। मुझे अभी भी याद नहीं इस फ़िल्म का संगीत कैसे सुनने को मिला। टीवी और रेडियो ही एकमात्र ज़रिया हुआ करते थे तो दोनों में से किसी एक के ज़रिये ये हुआ होगा।

फ़िल्म का कैसेट ज़रूर याद है। फ़िल्म में कुल चार गाने थे और सभी आशा भोंसले के गाये हुये। कहानी तीन किरदारों की लेक़िन दोनो महिला चरित्र को तो गाने मिले लेकिन एकमात्र पुरुष क़िरदार को एक भी गाना नहीं मिला। ये गुलज़ार साहब ही कर सकते थे। कैसेट में फ़िल्म के डायलाग भी थे औऱ इससे सीखने को मिला एक नया शब्द।

शब्द है माज़ी। जैसे रेखा नसीरूद्दीन शाह से अपनी क़माल की आवाज़ में पूछती हैं, माज़ी औऱ नसीर साहब जवाब देते हैं, माज़ी मतलब past, जो बीत गया उसे बीत जाने दो उसे रोक के मत रखो। अगर आप डायलॉग सुन लें तो आपको फ़िल्म की कहानी पता चल जाती है। जैसा की गुलज़ार की फिल्मों में होता है, ये मानवीय संवेदनाओं से भरी हुई है। इसमें कौन सा क़िरदार ग़लत है ये सोचना मुश्किल हो जाता है।

फ़िल्म का एक और डायलॉग जो नसीरुद्दीन शाह का है और माज़ी वाले डायलॉग से ही जुड़ा है। सुधा को वो माया के बारे में कहते हैं, \”मैं माया से प्यार करता था – ये सच है। और उसे भूलने की कोशिश कर रहा हूँ – ये सही है। लेक़िन इसमें तुम मेरी मदद नहीं करोगी तो बड़ी मुश्किल होगी क्योंकि मुझसे ज़्यादा तो वो तुम्हें याद रहती है।\”

कहने को दो लाइन ही हैं लेक़िन उनके क्या गहरे अर्थ हैं। जो सच है और जो सही है। शायद ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा भी।

जब फ़िल्म पहली बार देखी तो इससे जुड़ी हर चीज़ से जैसे इश्क़ हो गया। गीत संगीत से पहले ही हो रखा था। देखने के बाद सभी कलाकारों से, थोड़ा ज़्यादा रेखा से, एक जुड़ाव सा हो गया। उस समय जब हम समाज की एक अलग तस्वीर देख रहे थे, तब इस फ़िल्म ने एक नया नज़रिया, नई सोच पेश करी।

फ़िल्म के गीत कैसे बने, कैसे आर डी बर्मन ने मेरा कुछ सामान का मज़ाक उड़ाया था धुन बनाने से पहले, इनके बारे में बहुत चर्चा हुई। लेक़िन एक और कारण था शायद रेखा को बाकी से ज़्यादा पसंद करने का। इस फ़िल्म में उनके किरदार का नाम था सुधा। शायद उन्ही दिनों धर्मवीर भारती जी की गुनाहों का देवता पढ़ी थी और शायद इस नाम की उनकी नायिका का जादू सर चढ़ कर बोल रहा था। लेक़िन अभी भी फ़िल्म के गाने देखते हैं तो रेखा से नज़र नहीं हटती।

मेरा कुछ सामान के बोल हैं ही कुछ इस तरह के की पहली बार सुनने में सबको समझ में भी नहीं आते। मुझे भी नहीं समझ आया होगा की आख़िर कवि कहना क्या चाहता है। लेक़िन आप फ़िल्म देखिये तो समझ आने लगता है। बहरहाल, मुझे इसके गाने बेहद पसंद हैं तो ऐसे ही एक रात सुन रहा था। उन दिनों घर में एक रिशेतदार भी आये हुये थे। उन्होंने काफ़ी देरतक चुपचाप सुना और आख़िर बोल ही पड़े – इतना माँग रही है तो बंदा सामान लौटा क्यूँ नहीं देता?

फ़िल्म के इसी गाने के लिये गुलज़ार साहब और आशा जी को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इन 33 सालों में फ़िल्म से, इसके संगीत से, इसके किरदारों से इश्क़ और गहरा हो गया है। हिंदी फिल्मों में अब पहले जैसी बात तो रही नहीं। न पहले जैसा प्यार रहा न पहले जैसे कलाकार। लव स्टोरी के नाम पर क्या क्या परोसा जा रहा है वो सबके सामने है। औऱ दूसरी तरफ़ है इजाज़त

https://dai.ly/x3irrbr

कहीं तो प्यारे, किसी किनारे, मिल जाओ तुम अंधेरे उजाले

फ़ेसबुक और ट्विटर पर अगर आप भ्रमण पर निकल जाये तो मिनिट घंटे कैसे बन जाते हैं पता ही नहीं चलता। एक क्लिक से दूसरे और फ़िर तीसरे और सिलसिला चल निकला। समय रहते रुकना और वापस यथार्थ में लौटना एक कठिन काम बन जाता है। चूँकि मैं डिजिटल में काम करता हूँ तो ये मेरे कार्यक्षेत्र में आता है। इसलिये काम के लिये ही सही मेरी सर्फिंग चलती रहती है।

पिछले दो दिनों में दो ऐसी पोस्ट पढ़ीं जिनके बारे में लिखने का मन बन गया। आज उस पोस्ट के बारे में जिसमें 90 के दशक उन फिल्मों की लिस्ट थी जो हिट थीं लेक़िन बकवास थीं और एक लिस्ट वो फ़िल्में जो अच्छी तो थीं लेक़िन चली नहीं।

अब जैसा अमूमन होता है, दस साल बाद सबको अक्ल होने का घमंड हो ही जाता है। तो वही लोग जिन्होंने इन फिल्मों को हिट कराया, आज उसको बक़वास कहने लगे। अगर आप आज उन फिल्मों के कलाकारों से पूछेंगे तो वो भी शायद यही कहेंगे आज वो ये फिल्में नहीं करते। लेक़िन दोनो – दर्शक और कलाकार लगभग 20 वर्षों के अनुभव के बाद इस ज्ञान को प्राप्त कर पाये हैं।

ट्विटर पर भी ऐसा ही एक खेला चलता है। अग़र आपको जब आप 15 वर्षीय थे, उसको कोई सलाह देनी होती तो क्या देते? अरे भाई आज तीस साल बाद मैं अपने अकेले को काहे को – पूरे भोपाल शहर को ही ढ़ेर सारी समझाईश दे देता। लेक़िन मेरे जैसे तो लाखों 40-45 साल के भोपाली युवा होंगे जिनके पास ज्ञान का भंडार होगा। अगर 30 साल बाद भी नहीं मिला तो अब निक्कल लो मियां।

ऐसा हमेशा होता है। आप ने बीस साल पहले कुछ निर्णय लिये जो आज शायद गलत लगें। लेक़िन अगर हम अपने हर निर्णय को लेकर ऐसे ही सवाल उठाते रहेंगे तो फ़िर लगेगा हमने कुछ भी सही नहीं किया। जैसे ग्रेजुएशन के बाद मैने कानून पढ़ने का मन बनाया लेक़िन अंततः वो विचार त्याग कर इतिहास में एमए किया।

हम सब वक़्त के साथ समझदार होते जाते हैं। आज भले ही हमें अपना पुराना निर्णय ग़लत लगे लेक़िन उस समय के जो हालात थे और आपके पास जो ऑप्शन थे उसमें से आपको जो सही लगा आपने वो किया। बीस साल बाद चूँकि आपकी समझ बढ़ गयी है तो आप उस वक़्त के निर्णय को ग़लत कैसे कह सकते हैं? भले ही ये बात एक फ़िल्म के बारे में है, लेक़िन उस समय जब आप टिकट खिड़की पर धक्का खा कर वो फ़िल्म देखने जा रहे थे तो कोई तो कारण रहा होगा।

फ़िल्म डर का मैंने किस्सा बताया था। पिछले दिनों डर दोबारा देखने का मौक़ा मिला तो लगा इस फ़िल्म को एडिटिंग की सख्त ज़रूरत है। लेक़िन मैं तब भी ये कहूँगा की फ़िल्म अच्छी है। इसमें मेरे जूही चावला के फैन वाला एंगल आप नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।

फ़िल्मों के हिट या फ्लॉप होने के कई कारण होते हैं। उस समय तो सोशल मीडिया भी नहीं था जो फ़िल्म के हिट या फ्लॉप होने का ज़िम्मा ले ले। नहीं तो आप सोचिये यश चोपड़ा की लम्हे और आमिर खान-सलमान खान की अंदाज़ अपना अपना जैसी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर ढ़ेर हो गयीं लेक़िन कई फूहड़ कॉमेडी वाली फिल्में हिट हो गईं। और यही मेरा इन सभी समझदार व्यक्तियों से सवाल है – आप ने उस समय किन फिल्मों का साथ दिया?

आज की बात करें तो दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की फ़िल्म सोन चिड़िया की बेहद तारीफ़ हुई।सबने इसको साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक बताया। लेक़िन फ़िल्म अपनी लागत भी वसूल नहीं कर पाई। क्या इन समझदार व्यक्तियों ने इस फ़िल्म का साथ दिया या दस साल बाद एक और ऐसे पोल में फ़िर अपनी राय देंगे?

इतने वर्षों में बहुत सी अच्छी फिल्में देखी हैं और ढ़ेर सारी बर्बाद फ़िल्में भी। बहुत से ऐसे निर्णय लिये जो बिल्कुल सही लगे और कुछ ऐसे भी जो उस समय, उन परिस्थितियों के हिसाब से सही थे। आज ऐसे निर्णय को रिव्यु करने का मौक़ा मिले तो कुछ अलग होगा। लेक़िन ये खट्टे मीठे अनुभव ही तो हमको बनाते हैं।

मैं अपने जीवन के कौन से ऐसे अनुभव को निकाल दूँ इतने वर्षों बाद जिससे ये लगे की मैं समझदार हो गया हूँ? अग़र हटाना होगा तो सब कुछ हटेगा क्योंकि ये सभी अनुभव जुड़े हुये हैं। इन सबका निचोड़ है मेरा आज का \’समझदारी\’ वाला व्यक्तित्व और समझदारी से भरी ये पोस्ट!

आपको क्या लगता है जो लोग आज फ़िल्म राजा हिंदुस्तानी को बक़वास क़रार दे रहे हैं, वो फ़िल्म आमिर खान के सशक्त अभिनय को देखने गये थे? लेक़िन उसी आमिर खान और निर्देशक धर्मेश दर्शन की फ़िल्म मेला क्यों नहीं देखने गये? शायद चार साल के अंतराल में समझदारी आने लगी थी?

राम जाने। (आप नीचे 👇जो ये गाना है उसे ज़रूर से सुने। ये एक क्लासिक है और लोगों ने इसके बारे में अपनी राय इतने वर्षों के बाद बदली नहीं है। आप इस बारे में कक्कड़ परिवार के किसी सदस्य या बादशाह से न पूछें)

https://youtu.be/H8Fu_O7y-dg

माता-पिता ही होते हैं हमारे प्रथम एवं सर्वश्रेष्ठ गुरु

हमारे इस छोटे से जीवन में ऐसे बहुत से लोग मिलते हैं जिनसे हम अच्छे खासे प्रभावित होते हैं और उन्हें अपना गुरु मानने लगते हैं। शिक्षा के दौरान हमारे शिक्षक इस पद पर रहते हैं और बाद में हमारे काम से जुड़े हुए लोग। कुछ ऐसे भी लोग मिल जाते है इस यात्रा में जो बस कहीं से प्रकट हो जाते हैं और कुछ सीख दे कर चले जाते हैं।

इन सबमे सबसे अहम शिक्षक – हमारे माता पिता कहीं छूट से जाते हैं। वो रहते तो हैं हमारे आसपास लेकिन हम उन्हें उस रूप में नहीं देखते और सोचते हैं उन्हें मेरे काम या काम से संबंधित ज़्यादा जानकारी नहीं होगी तो वो मेरी मदद कैसे करेंगे। ऊपरी तौर पर शायद ये सही दिखता है लेकिन हर समस्या भले ही दिखे अलग पर उसका समाधान बहुत मिलता जुलता है।

मसलन अगर आप एक टीम लीड कर रहें हो तो सबको हैंडल करने का आपका तरीका अलग अलग होगा। कोई प्यार से, कोई डाँट से तो कोई मार खाकर। हाँ आखरी वाला उपाय ऑफिस में काम नहीं आएगा तो उसके बारे में न सोचें। लेकिन क्या ये किसी की ज़िंदगी बदल सकता है?

भोपाल के न्यूमार्केट में घूम रहे थे परिवार के साथ कि अचानक भीड़ में से एक युवक आया और बीच बाजार में पिताजी के पैर छूने लगा। सर पहचाना आपने? सर आपने मार मार कर ठीक कर दिया नहीं तो आज पता नहीं कहाँ होता। पिताजी को उसका नाम तो याद नहीं आया क्योंकि उन्होंने इतने लोगो की पिटाई लगाई थी लेकिन खुश थे कि उनकी सख्ती से किसी का जीवन सुधार गया। लेकिन वो एक पल मुझे हमेशा याद रहेगा। और शायद शिक्षक के प्रति जो आदर और सम्मान देख कर ही शिक्षक बनने का खयाल हमेशा से दिल में रहा है।

ऐसा एक बार नहीं कई बार हुआ है जब पिताजी कहीं जाते हैं तो उनके छात्र मिल जाते हैं। पिताजी एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे सेवानिवृत्त होने से पहले और काफी चर्चा थी उनके एक सख्त शिक्षक होने की। आज भी उनसे अच्छा रसायन शास्त्र कोई नहीं पढ़ा सकता। उस समय जब कोचिंग संस्थानों में शिक्षक की बहुत डिमांड थी तब संचालक उनसे कहते थे आप नोट्स दे दीजिए। कुछ किताब लिखने के लिए भी मनाने आते। लेकिन पिताजी सबको मना कर देते। चाहते तो अच्छी मोटी रकम जमा कर सकते थे लेकिन नहीं। उन्हें मुफ्त में पढ़ाना मंज़ूर था लेकिन ये सब नहीं।

जब ये सब सब होता था तब लगता था क्यों नहीं कर लेते ये सब जब सभी लोग ये कर रहे हैं। जवाब कुछ वर्षों बाद मिला। उनसे नहीं लेकिन अपने आसपास हो रहीे घटनाओं से।

ये शायद उनकी इस ईमानदारी का ही नतीजा है कि मेरे अन्दर की ईमानदारी आज भी जिंदा है। फ़िल्म दंगल में आमिर खान अपनी छोटी बेटी से कहते हैं कहीं भी पहुंच जाओ ये मत भूलना की तुम कहाँ से आई हो। अपनी जड़ें मत भूलना। लेकिन ये जीवन की दौड़ में भागते दौड़ते हम ये भूल जाते हैं और याद रखते हैं सिर्फ आज जो हमारे पास है।

माताजी से अच्छा मैनेजमेंट गुरु नहीं हो सकता। घर में अचानक मेहमान आ जायें और खाना खाकर जाएंगे तो आप को समझ नहीं आएगा क्या करें। पर माँ बिना किसी शिकन के मेनू भी तैयार कर लेतीं और सादा खाना परोसकर भी सभी को खुश कर लेतीं।

आजकल तो घर में खाने लोग ऐसे जाते हैं जैसे कभी हम होटल में जाया करते थे। इसको समय का अभाव ही कह सकते हैं क्योंकि रोज़ रोज़ ये बाहर का खाना कोई कैसे खा सकता है ये मुझे नहीं समझ आता। मजबूरी में कुछ दिन चल सकता है लेकिन हर दिन? लेकिन जो ऊपर समय वाली मजबूरी कही है दरअसल वो सच नहीं हो सकती है क्योंकि मेरी टीम में ऐसे लड़के भी हैं जो अकेले हैं और कमाल का खाना बनाते हैं।

किसी भी बालक के पहले गुरु उसके माता-पिता होते हैं। जैसे एक मोबाइल फोन होता है उसमें पहले से एक बेसिक ऑपरेशन के लिये सब होता है और उसको इस्तेमाल करने वाला अपनी जरूरत के हिसाब से उसमें नई एप्प इंस्टॉल करता है। ठीक वैसे ही माता पिता अपने जीवन की जो भी महत्वपूर्ण बातें होती हैं वो हमें देते हैं। आगे जीवन के सफ़र जो मिलते जाते हैं या तो वो नई एप्प हैं या वो पुरानी अप्प अपडेट होती रहती है।

हम अपने माता पिता के अनुभव का लाभ ये सोचकर नहीं लेते की उनका ज़माना कुछ और था और आज कुछ और है। हम ये भूल जाते हैं कि अंत में हम जिससे डील कर रहें वो भी एक इंसान ही है। मुझे स्कूली शिक्षा में बहुत ज़्यादा विश्वास न पहले था और अब तो बिल्कुल भी नहीं रहा। लेक़िन मुझे तराशने में सभी का योगदान रहा है, ऐसा मेरा मानना है। मुझे पत्रकारिता के गुर सिखाने वाले कई गुरु, डिजिटल सीखाने वाले भी, भाषाओं का ज्ञान देने वाले और न जाने क्या क्या। लेक़िन जीवन के जिन मूल्यों को लेकर मैं आज भी चल रहा हूँ वो मुझे मेरे पहले गुरु से ही मिले हैं। हाँ अब मैं उन्ही मूल्यों को आधार बनाकर अपने आगे का मार्ग खोज रहा हूँ और इसमें मेरे नये गुरु मेरा साथ दे रहे हैं।

ऐसी है एक शिक्षक बीच मे प्रकट हो गए और आज मैं जो भी कुछ हूँ वो उनकी ही देन है। लेकिन आज उन्होंने हम सबके जीवन में उथल पुथल मचा रखी है।

ये जो थोड़े से हैं पैसे, ख़र्च तुम पर करूँ कैसे

आज फ़िल्म निक़ाह देख रहे थे तब इस पोस्ट को लिखने का ख़्याल आया। इस विषय पर लिखना है ये तो पहले से नोट किया हुआ था। लेक़िन आज फ़िल्म देखकर इसको मूर्तरूप देने का काम हो ही गया।

फ़िल्म एक बहुत ही संजीदा विषय, तलाक़ की बात करती है और फ़िल्म के गाने भी एक से बढ़कर एक। लेक़िन न मैं तलाक़ या फ़िल्म के संगीत के बारे में लिखने वाला हूँ। फ़िल्म में दीपक पाराशर विदेश से लौटकर आते हैं और सबके लिये तोहफ़े लाते हैं। फ़िल्म 1982 की है और उस समय विदेश जाना और वहाँ से तोहफ़े लाना जैसे एक रिवाज़ हुआ करता था। आपका उस तोहफ़े को अपनी ट्रॉफी समझ कर डिस्प्ले करना भी।

हमारे जानने वालों में बमुश्किल एक या दो लोग थे जो विदेश में रहते थे और कभी कभार भारत भी आते। आने की ख़बर पहले से मिलती तो उनके भारत आने के बाद घर पर आने की प्रतीक्षा रहती क्योंकि वो आयेंगे तो कुछ न कुछ ज़रूर लायेंगे। जब हम बड़े हो रहे थे तो उस समय विदेशी माल की बड़ी एहमियत होती।

तो एक बार हमारे वो पारिवारिक मित्र तोहफ़े में एक कटलरी सेट ले आये जिसमें चम्मच, काँटे और छुरी शामिल थे। घर पर अच्छे अच्छे टी सेट या डिनर सेट पहले से थे तो ये कटलरी सेट वाला तोहफ़ा भी उन्हीं के साथ रखा गया। विदेशीमाल था तो उसका इस्तेमाल ख़ास मौके पर, ख़ास लोगों के लिये होता। अच्छा जब ये भारतीय मूल के विदेशी नागरिक सड़क पर खड़े होकर पानी पूरी या किसी होटल में बैठ कर व्यंजन का मज़ा उठाने की बात करते तो वो पूरा अनुभव बड़ा ही रोमांटिक लगने लगता।

ख़ास मौक़े की बात भी इसी फ़िल्म में दिखाई गई है जब सलमा आगा राज बब्बर से मिलने उनके दफ़्तर जाती हैं। वो अपने सहायक को कहते हैं चाय ज़रा अच्छे वाले टी सेट में लायें। ऐसा ही हमें भेंट किया गया कटलरी सेट के साथ होता। अब मुझे ख़ास मेहमान की पहचान समझ नहीं आती तो मेरा तर्क ये रहता कि हम अपने को ही ख़ास मानकर क्यूँ न इसका इस्तेमाल करें। लेक़िन ऐसा कम ही हुआ और शायद इसलिये इतने वर्षों बाद भी उस सेट के एक दो पीस इधर उधर मिल जायेंगे।

एक और गिफ़्ट (तोहफ़े से अब गिफ़्ट हो गया) जिसका सालों साल इस्तेमाल हुआ वो थी दीवाल घड़ी। वैसी दिवाल घडी आजतक देखने को नहीं मिली। उसको किसी न किसी तरह पिताजी ने चलाये रखा। अच्छा हम जब ये कटलरी या घड़ी में खुश होते रहते, पता चलता लोगों ने टीवी, वीसीआर और न जाने क्या क्या विदेशी माल गिफ़्ट करवा लिये स्वयं को। इतना विदेशी माल का बोलबाला था।

इसी से जुड़ी एक और बात बताना चाहूँगा। फेसबुक पर एक पोस्ट पढ़ रहा था जिसकी लेखिका एक रेसिपी बता रही थीं (मुझे देखने से अगर लगता है की मैं सिर्फ़ खाने का शौक़ीन हूँ, तो संभल जाइए। मुझे खाना बनाने का भी शौक़ है और ये लॉक डाउन की देन नहीं है)। उसमें उन्होंने भी ऐसी ही कुछ बात लिखी थी। उन्होंने कहा की वो अच्छा वाला, महँगा वाला तेल जिसे आपने किसी ख़ास रिशेतदार के लिये बचा कर रखा है उसको इस्तेमाल करें क्योंकि आपका वो रिशेतदार आने वाले कुछ समय के लिये नहीं आ पायेगा तो अच्छा होगा की आप उस महँगे तेल में अपने लिये ही कुछ पका लें।

बहरहाल विदेशी तोहफ़े से मामला इधर उधर जा रहा है। तो जब भी कोई विदेश से आता कुछ न कुछ लाता। तोहफ़े से ज़्यादा ये सोच कर अच्छा लगता की उन्होंने हमारे बारे में सोचा (ये बड़े होने के बाद की समझदारी थी। उस समय तो बस ये देखना रहता कि क्या लाये हैं)। एक बार मेरे और छोटे भाई के लिये वीडियो गेम आया। मेरा गेम ऐसा कुछ खास नहीं था लेक़िन भाई का वीडियो गेम बड़ा अच्छा था। इसलिये ये किसी औऱ को भी पसंद आ गया क्योंकि कुछ समय बाद ये गेम घर से ग़ायब ही गया था। हम अभी भी उस शख़्स के बारे में सोचते हैं जिसने ये किया।

अगर आप किसी बड़े शहर में रहते हैं तो आप देखेंगे की किसी त्यौहार या छुट्टी के मौक़े पर जब लोग घर वापस जाते हैं तो अपने सामर्थ्य अनुसार सबके लिये कुछ न कुछ लेकर जाते हैं। जब ट्रेन से जाना होता था तब ऐसे कई लोग दिखते। जब थोड़ी समझ आयी तो हम भी बहन इस पूरे तोहफ़ा वितरण समारोह की नक़ल करते और हँसते। क्योंकि अक़्सर ये एक खानापूर्ति भी लगती। चलो उनके लिये भी कुछ ले लेते हैं। उस तरह से।

अब परिवार के इतने सारे लोग बाहर रहते हैं, या आते जाते रहते हैं की इसका कोई हिसाब नहीं। जब मुझे विदेश जाने का मौक़ा मिला तो ये समझ ही नहीं आये की क्या लिया जाये। और अब ऐसी कोई भी चीज़ नहीं है जो यहाँ नहीं मिलती है। लेक़िन अपनी समझ से कुछ न कुछ ले लिया। क्या लें इसकी परेशानी मुझे मिली एक गिफ़्ट में भी दिखी। विदेश से लौटे एक परिचित ने मुझे एक ऐसी चीज़ भेंट करदी जिसका मेरे जीवन में कोई उपयोग ही नहीं था। उसका वही हश्र हुआ जो दीवाली पर सोनपापड़ी के साथ होता है। फर्क़ सिर्फ़ ये रहा की ये डब्बा वापस नहीं आया।

उपर जो दोनों बातें हैं – एक फ़िल्मी और दूसरी असल ज़िन्दगी की – दोनो से यही ज्ञान मिलता है कि हम ख़ास मौक़े का इंतज़ार न करें। हम अक्सर कई ओढ़ने पहनने की चीजें या खाने पीने की चीजें अच्छे समय के लिये बचाकर देते हैं। वो अच्छा समय कब आयेगा इसका कोई पता नहीं होता है। तो क्यों न अभी जो मौक़ा है उसको ख़ास बनायें। आज बढ़िया ओढ़िये, पहनिये और खाइये कल की कल देखी जायेगी।

आर्या: भरोसा वही तोड़ते हैं जिन पर भरोसा किया जाता है

अगर आपने हॉटस्टार पर आर्या वेबसीरीज़ नहीं देखी है तो आप सुरक्षित हैं। अगर आप देख चुके हैं और आप ये पढ़ रहें हैं तो आप जानते हैं कि आप भी सुरक्षित हैं। कहानी है रईसों की लेक़िन ये इधर उधर \”मुँह नहीं मारते\”। सब घरवाले घरवाली के साथ ही मौज मस्ती करते हैं।

इस वेबसीरीज़ में सबसे उम्रदराज नानाजी और उनके नाती और बीच में बाकी सब – लगे रहते हैं। नानाजी को एक जवान फिजियो से मसाज मिलता रहता है या कहिये दोनो एक दूसरे को मसाज देते रहते हैं। नाती को पार्टी में मिली बारटेंडर से इलू इलू होता है। नातिन अपने फिरंग मौसाजी पर फिदा है। कुल मिलाकर बड़ा आशिक़ मिजाज़ परिवार है।

अब चूँकि रईस हैं तो गालियों का (हिंदी) वाली, बहुत कम इस्तेमाल है। अंग्रेज़ी वाला F तो हर दूसरे वाक्य में सुनने को मिलेगा। अब रईसों के दुख को हैंडल करने के तरीक़े भी अजीब ही हैं। पिता की मौत पर बेटा वापस घर आता है लेकिन कमरे के बजाये स्विमिंग पूल के पास पहुंच जाता है।

चलिये ठीक है। बहुत दुखी है। लेकिन ये क्या। चलते चलते अचानक वो तिरछा होकर पूल में गिर जाता है। चलते चलते होश न होना और पूल में चलते जाना तो देखा था, ये नई चीज़ देखने को मिली। डायरेक्टर साहब ने बहुत ही रिसर्च करके, इम्पैक्ट के लिये ये पूरा सीन लिखा होगा। वैसे पुत्तर को स्विमिंग से या पूल से बहुत प्यार है। वो ज़्यादा समय वहीं बिताता है और उनकी बारटेंडर दोस्त भी एकदम बिंदास होकर पूल में छलांग लगाने से पहले दोबारा नहीं सोचती। बाकी तो जो होता है वो होता है।

एक एपिसोड में सुष्मिता सेन को ख़बर मिलती है परिवार के सदस्य की मौत की। उस समय मैडम बढ़िया फैशन वाली पौशाक पहने रहती हैं (ये पूरी सीरीज़ में देखने को मिलेगा)। उनकी लुक पूरी सीरीज़ में परफ़ेक्ट है और बनाने वालों ने इसका भी तरीक़ा निकाल लिया। उनकी एक सहेली का ब्यूटी पार्लर है और वो वहाँ आती जाती रहती हैं।अभी दुखी सुष्मिता सेन पर वापस। अब वो रईस हैं तो दुःख अलग तरीके से दिखाना है। यूँ ऐसे ही आँसू बहाना बहुत ही मिडिल क्लास है। तो मैडम पूरे कपड़े बदल कर (नहीं ये सब दिखाया नहीं गया है) अपनी वर्जिश वाली ड्रेस पहन कर आती हैं। उसके बाद वो उल्टा लटकती हैं और तब उनके आँसू निकलते हैं।

वैसे सुष्मिता सेन का अभिनय देखकर आपके आँसू ज़रूर निकल सकते हैं। आप ये भी सोच सकते हैं क्यूँ उन्होंने ये सीरीज़ करी और क्यूँ लेखकगण एक सीधीसादी कहानी को संभाल नहीं पाये। एक घिसीपिटी कहानी को घिसापिटा ट्रीटमेंट ही ले डूबा। गाली और सीन की जगह इसमें दारू और सिगरेट को मिली है। सब जब मिलते हैं जाम टकराते रहते हैं, क्या बच्चे क्या बड़े और क्या बूढ़े।

इस सीरीज़ में नारकोटिक्स ऑफिसर समलैंगिक है लेक़िन ये बस कुछ मिनटों में रफा दफा कर दिया जाता है। और अगर इस दौरान आपको झपकी लग गयी हो तो आप इसको मिस कर देंगे। लेक़िन ये कहानी में कोई इतना बड़ा फेरबदल करनेवाला मुद्दा भी नहीं है तो आपने कुछ मिस नहीं किया।

मुझे ये सीरीज़ सुष्मिता सेन और राम माधवानी के लिये देखनी थी। प्रोमो देख कर उम्मीद सी जग गई थी। और हॉटस्टार की \”स्पेशल ऑप्स\” बहुत बढ़िया सीरीज़ थी। लेक़िन माधवानी और बाक़ी लोगों के बस की बात नहीं। समस्या ये है की इस शो का दूसरा भाग भी बनता दिख रहा है।

सुष्मिता सेन के घर में उनकी रसोई संभालने वाली महिला जो लगभग हर एपिसोड में रहीं, उनके बारे में कुछ ज़्यादा बताया नहीं गया। शायद पूरी सीरीज़ में तीन किरदार ही रहे जिसपर लेखकगण मेहरबान नहीं रहे। शायद ये तीनों रईस नहीं थे इसलिये?

ये सीरीज़ मुझे देखने का मौक़ा थोड़ी देर से मिला लेक़िन लगभग नौ घंटे ख़राब हो गए। अब ऐसी वेबसीरीज़ बन ही रही हैं, बनती ही रहेंगी। इनसे बचना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। तो क्या पूरी सीरीज़ में कुछभी अच्छा नहीं है? ज़रूर है। इस सीरीज़ में कई पुराने गाने, बिना बिगाड़े हुये इस्तेमाल हुये है। जैसे अमित कुमार का गाया हुआ बड़े अच्छे लगते हैं। और भी कई गाने हैं। लेकिन अगर आप गाने ही सुनना चाहते हैं तो टीवी बंद करके कहीं और सुन लीजिये। काहे को अपना कीमती समय बर्बाद कर रहे हैं।

सीरीज़ का एक डायलॉग इसको बनाने वालों पर बिल्कुल फिट बैठता है। \”भरोसा वही तोड़ते हैं जिनपे भरोसा होता है।\”

नोट: ये पूरी कहानी मैंने ट्वीट करी थी और अब उसको जोड़ कर यहाँ पेश कर रहा हूँ। जब ज़माना रीसाइक्लिंग का है तो मैंने भी कोशिश करली। अगर आपने ट्वीटर पर नहीं पढ़ी तो आपका नुकसान होने से बच गया।

https://youtu.be/ZYajW2ePmFQ

हर सवाल का जवाब नहीं मिल सकता

अंग्रेज़ी भाषा ही मेरा पढ़ाई का माध्यम रही और उसके बाद नौकरी भी अंग्रेज़ी की सेवा में शुरू की। अब भाषा का ज्ञान होना कोई ग़लत बात नहीं है और अगर ये आपकी आजीविका का साधन बनती है तो और भी अच्छा।

अगर 2017 नवंबर भोपाल यात्रा न की होती तो क्या आज 2020 जून में मैं ये ब्लॉग हिंदी में लिख रहा होता? ये बहुत ही गहरा प्रश्न है जिसका की जवाब ढूँढने लग जायें तो समय बर्बाद ही करेंगे। वैसे हम अक्सर ऐसे ही प्रश्नों में उलझ कर ही अपना समय बर्बाद करते हैं और मिलता है सिफ़र अर्थात 0। जैसा की मैं इस समय कर रहा हूँ।

तो अंग्रेज़ी से वैसे तो मेरा कोई बैर नहीं है। लेकिन अंग्रेजी भाषा में कुछ पेंच हैं जैसा की धर्मेंद्र जी ने फ़िल्म चुपके चुपके में समझाया था। जैसे चाचा, मामा, फूफा सब अंकल में सिमट जाते हैं, बड़ा अटपटा सा लगता है। लेक़िन उसी अंग्रेज़ी में क़माल का शब्द है फ़ैमिली – परिवार। हिंदी में आज से 20 वर्ष पहले परिवार में चाचा, मामा, ताऊ सब आते थे (अभी नहीं आते हैं)। लेक़िन अब न्यूक्लियर फैमिली हो गयी है और रिश्तेदार एक्सटेंड फ़ैमिली। मामा, चाचा के बच्चे कजिन हो गए हैं। मैं जब छोटा था तब सबको अपने परिवार में गिनता, पिताजी के पास एक कार भी नहीं थी लेक़िन रिश्तेदारों की कार भी अपनी गिनता। वो तो जब गैराज खाली रहता तब समझ में आया कि अपनी चीज़ क्या होती है।

ये जो ऊपर इतना समझाने का प्रयास कर रहा हूँ उसकी असल बात तो अब शुरू हो रही है। हर परिवार में सब तरह के स्वभाव वाले लोग होते हैं। यहाँ परिवार से मेरा मतलब है चाचा, मामा, ताऊ – अंग्रेज़ी वाली फैमिली। एक दो लोग होते हैं जिनसे आप बहुत आसानी से बात कर सकते हैं किसी भी बारे में और एक दो लोग होते हैं जिनके होने से आप असहज हो जाते हैं। और नमूने तो भरे होते हैं (उनके बारे में बाद में)।

जैसे मेरे रिश्ते के भाई बहन जो हैं इसमें से कुछ से बहुत नियमित रूप से मुलाक़ात होती रही और कुछ से सालाना वाली। जिनसे नियमित होती रही उनके मुकाबले सालाना वालों से संबंध कहीं बेहतर रहे। और सालाना वालों में से भी कुछ से ही ऐसे संपर्क बने रहे कि आज भी फ़ोन करते समय बात शुरू नहीं करनी पड़ती। इसके अलावा अब एक नीति बना ली है और उसी पर अमल करता हूँ।

भाषा ज्ञान से चलते हैं संस्कार पर क्योंकि आज का विषय यही है। हम अपने बचपन से अपनी अंतिम साँस तक अपने संस्कार के लिये जाने जाते हैं। अब ये संस्कार आप को घर से भी मिल सकते हैं या आप किसी को ये करता देख कर भी इसे अपना लेते हैं। मतलब फलाँ व्यक्ति खडूस है क्योंकि उसका व्यवहार ही वैसा है या फलाँ व्यक्ति को सिर्फ़ पैसों से मतलब है क्योंकि ये उसके संस्कार ही हैं कि उसको पैसे के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। या कोई ऐसा व्यक्ति जो सबसे अच्छे से बात करता है, सबकी मदद करता है लेक़िन लोग उसका सिर्फ़ फायदा ही उठाते हैं। बाक़ी दो श्रेणी के व्यक्तियों की तरह ये आख़िरी श्रेणी वाला व्यक्ति इसके बाद भी अपना स्वभाव तो नहीं बदल सकता। तो वो बहुत सारे अप्रिय अनुभव के बाद भी वही करता है जो उसका दिल कहता है।

हमारे जीवन में हर एक अनुभव का अपना एक महत्व होता है। भले ही वो कितने भी कटु या कितने भी मीठे क्यों न हों, उन अनुभव से हमें सीख ही मिलती है। कोशिश हमारी ये होनी चाहिये कि उन कटु अनुभव का रस हमारे जीवन में न आये और हम अपने अनुभव जैसा अनुभव उस किसी भी व्यक्ति को हमसे मिलने पर न होने दें।

हम सब कुछ जानते नहीं हैं लेक़िन प्रयास करें तो बहुत कुछ जान सकते हैं। इस प्रयास में – अज्ञानता से ज्ञान के इस प्रयास में आप को बस सही लोगों से मदद मांगनी है। जो ये जानते हैं ज्ञान बाँटने से बढ़ता है, वो आगे आकर आपकी मदद करेंगे। सावधान रहना है आपको ऐसे लोगों से, (अ) ज्ञानी व्यक्तियों से, जो अंदर से खोखले हैं और आपको भी उसी और धकेल देंगे। इन महानुभावों को पहचाने और दूर रहें।

Aarya review: Only the domestic help and family pet had no background story in this Khichdi

Any new series and your expectations go up and Aarya was no exception. With big names like Sushmita Sen and Ram Madhvani behind the project and it was billed as Sen\’s comeback.

The promos looked promising and two dialogues from the promo caught my attention. The first was \’Dhande main mard bache hi nahin hain\’ and second was \’Bharosa wohi todte hain Jin Par Bharosa Toda Jaata Hai\’. The writer in me was really looking forward to more such dialoguebaazi in the web series.

Eleven day late, I finally watched the series over two nights. All my initial enthusiasm came crashing down in the opening episode itself. But the optimist me was hoping for a revival in the episodes ahead.

Should I be happy that I delayed the torture by 11 days or sad that I gave in too soon?

The plot
Aarya is about a family where everything that can go wrong is wrong. Again these are all high society families and they have a pharmaceutical business and they deal in drugs as well. A deal, well not exactly a deal, but drug consignment is stolen and this triggers killings and stage is set for Aarya to take over.

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Performance
Its average for all. Sushmita Sen leads the pack and is the biggest disappointment. She has a stock expression and is a complete misfit in the lead character. Everytime she appears on the screen it gives you feeling of watching Sonam Kapoor (minus the little bit of acting Sen manages). She is decked up always.

Chandrachur Singh is bumped off in the second episode itself so he had very little to do. He comes back in bits and pieces in videos. Sikander Kher who has a soft corner for Sen never gets to do much.

Writing
The biggest let down by far. I so wished that was not case but have lost count of series where writing is the main culprit. Almost all the characters have a story running and it gets really messy. You think of any character and they have a story. If it was mentioned in the passing instead of developing another story, the series would have wrapped up in five episodes. But there are so so so many sub plots. The kids have their stories. The grandfather too has one. Why was the grandmother left out? Ditto for the domestic help who is present in all the episodes. May be a lust angle, if not love, involving Sikandar Kher?

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Direction
With a messy script direction becomes a task and it shows. The story drags and you wish someone had focussed on the writing more instead of the shooting technique. Ram Madhvani\’s treatment leaves room for improvement – make it rooms for improvement.

The series was a disaster which was avoidable had the writers tried something new. As with all the series these days, there are love making scenes and surprise, surprise, the young and the old all get to \’perform\’ if you know what I mean. There is hint of gay angle in the story as well but that is just touched upon. I wish the writers did the same with other sub plots as well. The problem is even with a tried and tested formula, the script falls flat on its face. There is a sequel in the offing and I am going to give it a miss (whenever it happens).