ख़ुशी तो मिलती है जब, मिले किसी का प्यार

कहते हैं पालतू जानवर आपके जीवन में बहुत सी परेशानियों को दूर करता है। बचपन से बहुत से परिवारों के पास जानवर देखे थे। लेक़िन उनसे बड़ा डर भी लगता। पिताजी के परिवार में भी एक दो पालतू जानवर रहे घर में। लेक़िन वो सब हम लोगों के जन्म से पहले।

धर्मेंद्र जी की शुरुआत वाली फिल्में बहुत ही बढ़िया थीं। लेक़िन जबसे वो एक्शन हीरो बने और शोले आदि जैसी फिल्में करीं तबसे उन्होनें कुत्तों के ऊपर बड़ी मेहरबानी दिखाई। आज जब ये लिख रहा हूँ तो कुत्ता/ कुत्ते लिखने में थोड़ा सा संकोच सा हो रहा है। उनसे पहले अंग्रेजों ने भारतीय और कुत्तों के आने जाने पर बैन लगा रखा था।

बचपन की यादें

हमारे पहले पड़ोसी के पास भी एक पालतू कुत्ता था लेक़िन उसकी बहुत ज़्यादा कारस्तानी याद नहीं है। उसी घर में कुछ समय बाद जो परिवार रहने आया उसने कुछ वर्षों पश्चात एक जर्मन शेफर्ड को अपने घर का सदस्य बनाया। उसके अलग ही जलवे थे और उसने कोहराम मचा रखा था। मजाल है कोई उनका गेट खोल के अंदर घुस पाये।

फेसबुक या ट्विटर पर आपको अक्सर ऐसे वीडियो देखने को मिल जाते हैं जिनमे पालतू जानवर के कभी मज़ेदार तो कभी बहुत ही प्यारे प्यारे वीडियो देखने को मिल जाते हैं। जैसे पिछले दिनों दो तीन पालतू गाय के वीडियो देखने को मिले जिनमे मालिक ने परेशान होने का नाटक किया और गौ माता ने दूर से देखकर दौड़ लगा दी अपने सेवक को बचाने के लिये। बेज़ुबान जानवर के प्यार का एक और अनोखा उदाहरण है।

बचपने में ही हम एक परिवार के यहाँ एक जन्मदिन मनाने गये थे। उनके पास शायद दो या तीन पालतू कुत्ते थे। लेक़िन वो उनको बिल्कुल अपने बच्चों के जैसे ही रखती। उनके बढ़िया कपड़े भी बनवाये थे। ये सब हमने पहली बार देखा था तो इसलिये बड़ा अजीब सा लगा। लेक़िन अब तो लोग अपने पालतू पशुओं के जन्मदिन भी धूमधाम से मनाते हैं। उसमें उन पशुओं के अन्य पशु दोस्त भी अपने अपने मालिकों के साथ शिरकत करते हैं।

आपका दोस्त

आज पालतू जानवर पर इसलिये लिख रहा हूँ क्योंकि पिछले दिनों सुशांत सिंह राजपूत के पालतू कुत्ते फ़ज के बारे में पढ़ा था की पटना में कैसे वो जब भी दरवाज़े खुलता है तो देखता है इस उम्मीद में की सुशांत वापस आ गये। दूसरा मुझे सुबह सुबह कई लोग दिखते हैं जो अपने पालतू जानवर को घुमाने निकलते हैं और वो सड़क पर घूमने वाले मोहल्ले के कुत्तों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं।

एक अधेड़ उम्र दंपत्ति अपने कुत्ते के साथ जब रहते हैं तो उसकी बड़ी हिफ़ाज़त करते हैं। मोहल्ले के कुत्ते अगर पीछे लग जाएं तो वो ऐसे झिड़कते हैं कि अगर इंसान हो तो वापस न आये। लेक़िन ये जानवर तो बस प्यार की उम्मीद लगाये बैठे रहते हैं। आप उनको थपथपा दीजिये और वो आपके दोस्त बन जाते हैं।

लेक़िन उसी सड़क पर एक कन्या भी अपना जर्मन शेफर्ड घुमाती हैं औऱ वो इन सभी आवारा कुत्तों को प्यार करती है। जैसे ही वो दिखती है, सब उसके आसपास घूमने लगते हैं। हाँ, उस दिन उन्हें निराशा होती है जब कन्या की जगह उसके पिताजी ये ज़िम्मेदारी निभाते हैं।

जिस सोसाइटी में मैं इन दिनों रहता हूँ वहाँ एक पढ़े लिखे परिवार के लोग अपने प्रिय पालतू पशु को सोसाइटी में खुला छोड़ देते और वो जगह जगह अपने आने का प्रमाण छोड़ देता। वो तो जब इसके ऊपर हंगामा हुआ तो ये कार्यक्रम बंद हुआ। वैसे जितने भी लोग सुबह अपने पशु को इसके लिये बाहर निकलते हैं वो सभी सार्वजनिक स्थल पर यही करते हैं। ये सभी पढ़े लिखे लोग हैं लेक़िन उनको इस तरह गंदगी फैलाते हुये दुख ही होता है। हम पढ़े लिखे लोग ही अगर अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सजग रहें तो काफ़ी सारी समस्याओं से निजात पा सकते हैं।

जब विदेश जाने का मौक़ा मिला तो देखा वहाँ आप अपने पालतू जानवर को लेकर कहीं भी जा सकते हैं। मॉल में, ट्रैन में, मेट्रो में बग़ैर किसी रोकटोक के। हाँ साफसफाई की ज़िम्मेदारी मालिकों की है तो किसी को क्या तकलीफ़ हो सकती है। ब्रिटेन जाने का मौक़ा नहीं मिला तो पता नहीं वहाँ क्या स्थिति है क्योंकि उन्हें भारतीयों और कुत्तों से बहुत परेशानी थी। अब शायद दोनो से प्यार हो गया हो।

और फ़िर एक दिन…

जैसा मैंने बताया, हमारे घर में ऐसा कोई पालतू पशु नहीं था लेक़िन बड़ी इच्छा थी। भोपाल में मेरे मित्र विनोद ने एक दिन फ़ोन करके बोला वो दो बच्चे लाये हैं और मैं एक को ले जाऊं। मुझे उनके घर से अपने घर की यात्रा याद नहीं, लेक़िन उसके आने के बाद माताजी ने खूब ख़ातिर करी हमारी। उन्होंने बोल दिया अगर पालना है उसके सब काम करने को भी तैयार रहो। घर में बाकी लोग भी इसके पक्ष में नहीं थे। शाम तक होते होते एक रिश्तेदार को बुलाया गया औऱ उसको उनके सुपुर्द कर दिया गया।

ये कुत्तों के डर का एक और मज़ेदार किस्सा है। जिस कॉलोनी में हम रहते हैं वहाँ एक दो घरों में पालतू कुत्ते हैं और अक्सर बच्चों की बॉल अगर बाहर चली जाती है तो वो मुँह में दबाकर भाग जाते हैं।

ख़ैर उस शाम गेंद का कुछ लेना देना नहीं था। जिसकी इन दिनों सबसे ज़्यादा पूछपरख है – जी वही कामवाली। उस दिन शायद उसने दर्शन नहीं दिये थे तो पूछने के लिये एक तीन सदस्यीय मंडल ने भेंट करने का कार्यक्रम बनाया। सब कुछ व्यवस्थित चल रहा था की अचानक से गेट खुला और घर से कुत्तों ने बाहर दौड़ लगा दी। उसके बाद दौड़ लग गयी, लोग गिर पड़े और उन पालतू जानवरों की मलकिन ने किसी तरह सब संभाला। हाँ इस सब में वो किसी के हाथ पर चढ़ गयीं।

जब कुत्तों ने आज़ादी की दौड़ लगाई तो दल के दो सदस्यों ने भी मदद की पुकार लगाई। जिसके चलते हमारे घर से कुछ सदस्यों ने ये सारा दृश्य लाइव देखा था। अच्छा वो जो दो प्यारे बेज़ुबान प्राणी कौन थे? एक था पग जो आपको काट नहीं सकता और दूसरा जो शायद काट सकता था लेक़िन काटा नहीं।

सबक़

हमारे पत्रकारिता में कहा जाता है कुत्ते ने आदमी को काटा ये कोई न्यूज़ नहीं है। हाँ आदमी ने कुत्ते को काटा ये समाचार है। दिल्ली पहुंचने के कुछ दिनों बाद इसका नमूना भी मिल गया। नहीं किसी ने किसी को नहीं काटा, लेक़िन कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके सीताराम केसरी के निधन के बाद उनकी पालतू पशु रुचि ने भी प्राण त्याग दिये थे। जब ये ख़बर ये फ़ाइल हो रही थी तो मुझे नहीं पता था अगले दिन ये हर अख़बार में होगी। लेक़िन मुझे अभी बहुत कुछ सीखना बाक़ी था, है।

अभिनेता आमिर ख़ान ने भी एक विवादास्पद बयान दिया था कुछ वर्षों पहले जब उन्होंने कहा था शाहरुख उनके पैरों में बैठा है। लेक़िन बाद में उन्होंने बताया की शाहरुख उनके पंचगनी के नए बंगले के मालिक के कुत्ते का नाम है।

अग़र आपके पास कोई पालतू जानवर है तो अपने अनुभव बतायें और कैसे उसके आने से आपके जीवन में बदलाव आया। ख़ुश रहें।

गुँजन सक्सेना: कहाँ जा रहे थे, कहाँ आ गये हम

अब जैसा होता आया है, आज कुछ और लिखने का मन था लेक़िन जो लिखा जा रहा है वो कुछ और है। ये मौसम का जादू है कहता लेक़िन ऐसा नहीं है। अब हर चीज़ का ठीकरा मौसम के ऊपर फोड़ना भी ठीक नहीं है।

फ़िल्में देखना और उनके बारे में लिखना (बिना लीपा पोती के) शायद इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। लेक़िन अब फिल्में बड़ी स्क्रीन से छोटी स्क्रीन पर आ गयी हैं तो वो मज़ा भी नहीं आता और शायद कुछ खास अच्छी फिल्में पिछले महीनों में देखने को मिली भी नहीं हैं। रही बात लिखने की तो उसका स्क्रीन से कोई लेना देना नहीं है।

आज गुंजन सक्सेना – द कारगिल गर्ल देखने का मन बना ही लिया। वैसे फ़िल्म की रिलीज़ वाले दिन नेटफ्लिक्स या प्राइम पर देखने का ये पहला मौका था। शाम को शायद फ़ुर्सत भी थी तो फ़िल्म लगा दी। इस फ़िल्म से वैसे मुझे कोई उम्मीद नहीं थी। नेपोटिस्म की जो बहस चल रही है उससे इसका कोई लेना देना नहीं है।

क्या है

फ़िल्म एक वायु सेना की अफ़सर की असल जिंदगी पर बनी है। इन दिनों सबको जैसे ऐसे किरदारों की तलाश रहती है। पुरुष किरदारों के ऊपर तो ऐसी कई फिल्में बनी हैं लेक़िन महिला किरदार का नंबर अब लगना शुरू हुआ है। शकुंतला देवी के बाद गुंजन सक्सेना। इससे पहले भी बनी हैं लेक़िन अब तो जैसे बायोपिक का मौसम है। यहाँ मौसम को दोष दिया जा सकता है।

वैसे अच्छा हुआ निर्माता करण जौहर ने फ़िल्म को सिनेमा हॉल में रिलीज़ करने का प्लान त्याग दिया औऱ नेटफ्लिक्स को अपनी लाइब्रेरी सौंप दी है। ये जो असली ज़िन्दगी के किरदार होते हैं ये या तो आपको प्रेरणा देते हैं या आप उनके जीवन से कुछ सीखते हैं, उनके बारे में कुछ नया जानते हैं। चूँकि आपको उस क़िरदार के बारे में सब मालूम है तो देखना ये रहता है क्या और कैसे दिखाया जायेगा।

गाँधी फ़िल्म इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। फ़िल्म गाँधीजी के बारे में थी, बहुत सी बातें हमने पढ़ी हुई थीं। लेक़िन आज भी इस फ़िल्म को मैं देख सकता हूँ। धोनी भी एक बहुत अच्छी फ़िल्म बनी थी। इसका बहुत बड़ा श्रेय सुशांत सिंह राजपूत को जाता है जिन्होंने किरदार में जान फूंक दी थी।

अब ये कारगिल से गाँधी मतलब फ़िर से घोड़ा चतुर, घोड़ा चतुर।

गुंजन सक्सेना भारतीय वायुसेना की पहली महिला अफ़सर थीं। उनका एक संघर्ष रहा अफ़सर बनने से पहले और बाद भी। हालाँकि वायुसेना ने अपनी नकारात्मक चर्चा पर आपत्ति जताई है। उनके अनुसार महिला अफसर के साथ ऐसा सलूक बिल्कुल नहीं होता जैसा फ़िल्म में दिखाया गया है। अगर ऐसी बात है तो उन्होंने फ़िल्म के रिलीज़ होने का इंतज़ार क्यूँ किया ये समझ से परे है।फ़िल्म के ट्रेलर से ही ये समझ में आ गया था की वायुसेना के गुणगान नहीं होने वाले हैं।गुंजन सक्सेना के बारे में एक और ख़ास बात थी कारगिल युद्ध में उनका भाग लेना। ये वाला भाग बहुत अच्छा बन सकता था। लेक़िन ये बहुत ही कमज़ोर था। शायद कलाकारों के चलते।

अभिनय

शायद फ़िल्म की कहानी सुनने में अच्छी लगती हो लेक़िन बनते बनते वो कुछ और ही बन गयी। स्क्रिप्ट पर निश्चित रूप से कुछ और काम करने की ज़रूरत दिखी। लेक़िन अगर स्क्रिप्ट अगर यही रख भी लेते तो फ़िल्म के मुख्य कलाकार ने बहुत निराश किया। जहान्वी कपूर की ये तीसरी फ़िल्म है। मैंने उनकी ये पहली पूरी फ़िल्म देखी है। उनके अभिनय में वो दम नहीं दिखा जो इस तरह के क़िरदार के लिये ज़रूरी है। कहने वाले कहेंगे अभी वो नईं हैं इसलिये जल्दी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना नहीं चाहिये। तो कितनी फिल्मों तक उनको ये छूट मिलनी चाहिये?

पंकज त्रिपाठी जी का मैं ख़ुद एक बहुत बड़ा फैन रहा हूँ। लेक़िन गुंजन सक्सेना के पिता के रूप में वो जँचे नहीं। वो एक पिता के रूप में बहुत बढ़िया हैं लेक़िन वो एक फ़ौजी पिता हैं और फौजी पिता का क़िरदार असल ज़िन्दगी में थोड़ा अलग तो होता। लेक़िन उनको देखकर लगा वो वही बरेली की बर्फी वाले पिता थे जिनका घर बदल दिया और पौशाक भी।

अगर आदिल हुसैन साहब ये क़िरदार निभाते तो शायद और बेहतर होता। जहान्वी के क़िरदार के लिये सान्या मल्होत्रा या फ़ातिमा सना शेख़ भी अच्छे विकल्प हो सकते थे। इनके अलावा भी कई और नाम हैं लेक़िन इनकी हालिया फ़िल्म के चलते नाम याद रहा। लेक़िन करण जौहर तो जहान्वी को ही लेते। तो इसपर माथापच्ची करने का कोई मतलब नहीं है।

क्या करें

कभी कभार आपके पास जो चाय का प्याला या खाने की थाली आती है जो बस ठीक होती है। अच्छी से बहुत कम और बहुत अच्छी से कोसों दूर। गुँजन सक्सेना फ़िल्म भी कुछ ऐसी ही है। बुरी नहीं है तो अच्छी भी नहीं है। अब ये फ़ैसला आपके ऊपर है की आप अच्छी चाय का इंतज़ार करने को तैयार हैं या सामने जो प्याला है उसको ही नाक मुँह बनाते हुये पीना पसंद करेंगे।

https://youtu.be/mmHUuFcXEpQ

व्रत, पुरुष और समाज

2007 की बात है। अक्टूबर का महीना रहा होगा। वैसे तो शाम को ऑफिस 6 या 6.30 बजे तक छूट जाता था लेक़िन घर पहुँचते पहुँचते 8.30 बज ही जाते थे। उस शाम मैंने जल्दी निकलने की बात करी बॉस से। मेरे पीटीआई के पुराने सहयोगी जो उस संस्था में पहले से कार्यरत थे उन्हें समझ नहीं आया ऐसा मैं क्यों जल्दी जा रहा था। उन्होनें पूछा तो मैंने बताया की आज करवा चौथ है इसलिये जल्दी जाना है। उन्होनें ख़ूब हँसी भी उड़ाई लेक़िन उससे मुझे कोई शिकायत नहीं थी।

आज इस घटना का उल्लेख इसलिये कर रहा हूँ क्योंकि आज हरछठ त्यौहार है। वैसे तो हमारे यहाँ त्योहारों की कोई कमी नहीं है औऱ सावन मास ख़त्म होते ही इनकी शुरुआत हो जाती है। लेक़िन हरछठ या सकट चौथ या करवा चौथ जैसे त्योहारों से मुझे घोर आपत्ति है। क्योंकि बाकी का तो नहीं पता लेक़िन ये तीन त्यौहार सिर्फ़ और सिर्फ़ पुरुषों (बेटों/पतियों) के लिये किये जाते हैं। पहले दो माँ अपने बेटों के लिये करती हैं औऱ आख़िरी वाला पत्नी अपने पत्नियों के लिये।

आप ये बात समझिये की हम एक बहुत ही छोटी उम्र से अपने बच्चों में ये भेदभाव शुरू कर देते हैं। ये बेटे और बेटियों के बीच का भेदभाव। लड़का दुनिया में आता नहीं की माँयें उसके लिये उपवास रखना शुरू कर देतीं हैं। विवाह ऊपरांत पत्नी भी माँ के साथ इस कार्य में जुट जाती है। हमारी बेटियाँ शुरू से ये देख कर ही बड़ी हो रहीं हैं। जब घर पर ही एक बेटी और बेटे के बीच फ़र्क़ दिखेगा तो कैसे दोनो बच्चे अपने आप को समान समझेंगे?

दुख की बात ये है की हमारे समाज के पढ़े लिखे लोग भी इन सब बातों को मानते हैं। एक बेटे की लालसा में लोग न जाने क्या क्या करते हैं लेक़िन वो बेटा नालायक निकल जाये तब भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। बस बेटा होना चाहिये। अगर किसी की दो या तीन बेटियाँ हो जायें तो उसका मज़ाक बनाया जाता है। जिनके बेटे होते हैं वो सीना चौड़ा करके चलते हैं और उन लोगों पर ताना मारते हैं जिनकी बेटीयाँ होती हैं। ये सब उस सोच का नतीजा है जो लड़का और लड़की में भेदभाव करती है। महाभारत क्या है? अगर धृतराष्ट्र अपना पुत्र मोह त्याग देते तो संभवतः महाभारत ही नहीं होती।

फ़िल्म दंगल हमारे समाज को आईना दिखाने का काम करती है। महावीर सिंह फोगाट ने बेटे की चाह में चार बेटीयाँ को इस दुनिया में लाया। क्यूँ? क्योंकि उनकी चाहत थी की उनका बेटा हो और वो कुश्ती में स्वर्ण पदक जीते। उनके इस पदक की चाहत उनकी बेटी ने ही पूरी की। लेक़िन आज भी ऐसे परिवार हैं जो एक बेटे की चाहत में लड़कियों की लाइन लगा देते हैं। उनको समाज में अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिये एक बेटे की सख़्त ज़रूरत महसूस करवाई जाती है। दंगल में ही देख लें जब तीसरी बेटी पैदा होती है तो गाँव के बड़े बुज़ुर्ग सांत्वना देते हैं।

अगर बेटों के लिये न होकर ये सन्तान के लिये किया जाने वाला व्रत होता तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होती। लेक़िन ऐसा नहीं है। फ़ेसबुक पर एक आज सज्जन बोल गये की उनकी माँ ये उपवास करती थीं लेक़िन उनकी पत्नी नहीं करती। लेक़िन उनकी बेटियाँ ये व्रत ज़रूर रखती हैं। उन्होंने शायद ध्यान नहीं दिया होगा की उन्होंने अनजाने में ही सही लेक़िन अपने पत्नी के इस व्रत को न रखने की वजह भी बता दी।

हमारे यहाँ बेटियों को देवी कहा जाता है। उनकी पूजा होती है। लेक़िन पूछ परख सिर्फ़ बेटों की। कौन सा ऐसा व्रत है जो बेटियों के लिये रखा जाता है? वो बेटी, बहु, पत्नी जो वंश को आगे बढ़ाने का काम करती है उसको हम समाज के पुरुष क्या देते हैं?

और दूसरी बात जिससे मुझे आपत्ति है वो बेटी को बेटा बनाने की ज़िद। क्या आप कभी अपने बेटे को बेटी कहते हैं? नहीं? तो फ़िर बेटी को बेटा बनाने पर क्यों तूल जाते हैं? क्यों बेटी के दिमाग में ये बात डालते हैं की आपको एक बेटे की ज़रूरत थी लेक़िन वो नहीं है तो अब तुम्हे उसका रोल भी निभाना पड़ेगा। अलबत्ता अगर आपका बेटा कुछ बेटीयों जैसा व्यवहार करने लगे तो आप तो उसकी क्लास लगा दें।

मेरी माँ ने इस बेटों के व्रत की प्रथा को अपने परिवार के लिये ही सही लेक़िन बदला। उन्होनें ये पहले ही बोल दिया ये दोनों व्रत बच्चों के लिये रखे जायें न की सिर्फ़ पुत्रों के लिये। ये एक बहुत बड़ा बदलाव था लेक़िन क्या बाकी लोग ऐसी सोच रखते हैं? मैं दावे के साथ कह सकता हूँ की बहुत कम ऐसे परिवार होंगे जो पुत्रियों के लिये इस व्रत को रखने की आज्ञा भी देंगे। हम अपने रूढ़िवादी विचारों में इतने जकड़े हुये हैं की \”लोग क्या कहेंगे\”, \”समाज क्या कहेगा\” इस डर से जो सही है वो करने से भी डरते हैं।

और ये एक तरफा चलने वाला ट्रैफिक क्यूँ है? संतान माता पिता की लंबी आयु, उनके स्वस्थ रहने के लिये क्यों कोई व्रत उपवास नहीं रखते? माँ 70 साल की भी हो जाये तब भी अपने 40 से ज़्यादा उम्र के बेटे के लिये ये व्रत रखती है। ये कहाँ तक उचित है? करवा चौथ अगर पति के लिये रखा जाता है तो उस पत्नी के लिये पति उपवास क्यों न रखे जो परिवार का ध्यान रखती है और हमेशा उनकी सेवा में लगी रहती है।

जब उस 2007 की शाम में जल्दी घर आने का प्रयास कर रहा था तो उसका मक़सद अपने को भगवान बना कर पूजा करवाना नहीं था। मैं तो सिर्फ़ काम में हाँथ बटाना चाहता था क्योंकि श्रीमती जी उपवास तो रखेंगी और सारे पकवान भी बनायेंगी। लेक़िन दिनभर निर्जला रहकर शाम को इन पकवानों का स्वाद आता है? इस बार रहकर देख लीजिये।

https://youtu.be/u1vASMbEEQc

जादू नगरी से आया है कोई जादूगर

पिछले कई दिनों से फ़ेसबुक पर प्रेमचंद जी के बारे में कुछ न कुछ पढ़ने को मिल रहा था। तब ये नहीं पता था की उनकी जयंती है 31 जुलाई को। उनके जन्मस्थान के बारे में तो रट ही चुके थे स्कूल में लेक़िन बाक़ी जानकारी याद नहीं रही।

उनके बारे में ये नहीं पता था की वो मुम्बई भी आये थे। ये तो फेसबुक पर उनका पत्नी को लिखा पत्र किसी ने शेयर किया जिससे ये पता चला की वो लगभग तीन वर्ष मायानगरी में रहे। उनकी लिखी कहानियों पर फ़िल्म तो बनी हैं लेक़िन उन्होंने स्वयं किसी फ़िल्म की कहानी, संवाद या पटकथा लिखी इसका मुझे ज़रा भी ज्ञान नहीं।

उनके मुम्बई से लिखे पत्र पढ़कर मुझे अपने मुम्बई के दिन याद आ गए। जब साल 2000 में मेरा मुंबई तबादला हुआ तो कई मायने में ये एक सपने के सच होने जैसा था। इससे पहले मुम्बई आना हुआ था लेक़िन उस समय छात्र थे तो उसी तरह से देखा था। अब मैं एक नौकरीपेशा युवक था जिसकी ये कर्मभूमि बनने जा रही थी।

प्रेमचंद जी जब बम्बई आये थे तब वो शादीशुदा थे और पिता भी बन चुके थे। मेरे जीवन में इस अवस्था के आने में अभी वक़्त था। हाँ उनके जैसे परिवार की कमी मुझे भी खलती थी लेक़िन नौकरी भी थी। इसलिये जब भी घर की याद आती, भारतीय रेल ज़िंदाबाद। शायद ही कोई महीना निकलता जब भोपाल जाना नहीं होता। इसके लिये मेरे सहयोगियों ने बहुत मज़ाक भी उड़ाया लेक़िन घर के लिये सब मंज़ूर था।

इन्हीं शुरुआती दिनों में पहले मेरे उस समय के मित्र सलिल का आना हुआ और बाद में माता पिता और छोटी बहन भी आये। जिस समय मेरा तबादला हुआ उसी समय मेरी बुआ भी मुम्बई में रहने के लिये आयीं थीं तो कभी कभार उनके पास भी जाने का मौक़ा मिल जाता। कुल मिलाकर घर को इतना ज़्यादा याद नहीं किया। अकेले रहने का मतलब बाकी सभी काम का भी ध्यान रखना होता।

इसलिये जब प्रेमचंद जी ने लिखा की \”लगता है सब छोड़ कर घर वापस आ जाऊं\”, तो ये बात कहीं छू गयी। मुम्बई अगर बहुत कुछ देती है तो थोड़ा कुछ छीन भी लेती है। अब ये आप पर निर्भर करता है आप क्या खोकर क्या पाना चाहते हैं और क्या आप वो क़ीमत देने को तैयार हैं।

अमूमन जैसा लेखकों के बारे में पढ़ा है की वो लिखते समय एकांत पसंद करते हैं, उसके विपरीत प्रेमचंद जी का घर के प्रति, परिवार के सदस्यों के प्रति इतना लगाव कुछ समझ नहीं आया। इसलिये जब उनके जीवन से संबंधित और जानकारी पढ़ी तो पता चला कैसे बाल अवस्था में पहले अपनी माँ और उसके बाद अपनी दादी के निधन के बाद प्रेमचंद अकेले हो गये थे। शायद इसके चलते जब उनका परिवार हुआ तो उसकी कमी उन्हें बहुत ज़्यादा खली।

इसी दिशा में गूगल के ज़रिये पता चला की उनके पुत्र ने अपने पिता के ऊपर एक पुस्तक लिखी है और उनकी पत्नी ने भी। पुत्र अमृत राय ने \”प्रेमचंद – कलम का सिपाही\” लिखी और इसके लिये उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा भी गया। उनकी पत्नी शिवरानी देवी ने \”प्रेमचंद घर में\” शीर्षक से किताब लिखी जो प्रेमचंद की मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई।

मेरी पढ़ने की लिस्ट में फिलहाल ये दोनों किताबें सबसे ऊपर हैं। प्रेमचंद की लिखी कौन सी क़िताब आपको बेहद पसंद है जिसे ज़रूर पढ़ना चाहिये? आप जवाब कमेंट कर बता सकते हैं।