कोरोना से सीख: नये के साथ पुराना, यही जीवन का तानाबाना

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बीमारी कोई भी हो वो आपको शारीरिक और मानसिक दोनों ही रूप से प्रभावित करती है। कई बार इसका असर जल्दी चला जाता है तो कभी कुछ ज़्यादा दिनों तक रह जाता है। कई लोगों को कोरोना बस छू कर निकल गया और कई लंबे समय तक इससे परेशान रहे। आगे बढ़ने से पहले थोड़ा सा पीछे चलते हैं।

पापा जी मोबाइल का इस्तेमाल तो करते हैं लेक़िन बहुत ही सीमित रूप में। जैसे फ़ोन में नंबर ढूँढना एक मुश्किल काम है। आज भी उनके पास फ़ोन नंबर की लिस्ट की एक फ़ाइल है जिसमें सभी जरूरी नंबर हैं। किसी को फ़ोन लगाना होता है तो इस फ़ाइल की मदद ली जाती है। अब कोरोना के अपने अनुभव की शृंखला में यहाँ ये फ़ोन की लिस्ट कैसे आ गयी?

यहाँ मैं इसका ज़िक्र इसलिये कर रहा हूँ कि जब मैं अस्पताल में एडमिट हो गया तो मेरा फोन और उसमें के नंबर सब मेरे पास रह गये। वैसे तो श्रीमतीजी के पास सभी करीबी रिश्तेदारों के नंबर थे, लेक़िन मेरे दो बहुत ही क़रीबी सहयोगी जिनको वो जानती हैं और मुलाक़ात भी है औऱ जिन्होंने मेरे इलाज में एक बहुत बड़ी भूमिका निभायी, उनके नंबर नहीं थे।

ये नंबर न होना इसका एक पहलू था। दूसरा और परेशान करने वाला पहलू जिसका ज़िक्र मैंने पहली किश्त में किया था वो था बढ़ते कोविड केस के चलते हमारी सोसाइटी का सील होना। इसका मतलब आना जाना बंद। जो कोई ज़रूरी सेवाओं से जुड़े थे वही आ जा सकते थे। हमारे घर में दो पॉजिटिव केस थे तो घर भी सील तो नहीं लेक़िन आने जाने पर रोक। मतलब कुल मिलाकर अच्छी परीक्षा ली जा रही थी और जैसा मैंने बताया तैयारी बिल्कुल नहीं थी। आप कह सकते हैं कोरोना वायरस ने सिलेबस के बाहर का सवाल पूछ लिया था। एक तो मेरे पढ़ाई से वैसे ही ज़्यादा अच्छे संबंध नहीं रहे औऱ इस बार तो कुछ बहुत ही अजब गजब हो रहा था।

ख़ैर थोड़ी देर के बाद ही सही नम्बरों का आदान प्रदान हुआ औऱ मेरे इलाज का सिलसिला आगे बढ़ा। मैं जितने भी दिन अस्पताल में रहा मुझसे मिलने कोई नहीं आया। घर में सभी कोविड से ग्रस्त तो किसी के भी आने का प्रश्न ही नहीं उठता। अस्पताल में एक कर्मी ने हारकर एक दिन पूछ ही लिया घर से कोई मिलने नहीं आता आपके?

जो एकमात्र पहचान वाली शक्ल दिखी थी वो थी नईम शेख़ की। नईम अस्पताल में भर्ती होने के चार दिन बाद मेरी दवाई के सिलसिले में आये थे। नईम जो कुछ दस दिन पहले ही पिता बने थे, दौड़भाग कर दवाई का इंतज़ाम कर रहे थे। इस दवाई के इंतज़ाम में परिवार के बाक़ी सदस्य औऱ पुराने पारिवारिक मित्र भी लगे हुये थे लेक़िन मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं थी औऱ मेरा ICU का सफ़र शुरू हो रहा था।

जब अस्पताल से छुट्टी मिली तो मैंने एक टेलीफ़ोन नंबरों की लिस्ट बनानी शुरू करी। फ़िलहाल ये काम चल रहा है। लिखने में मेहनत भी लगती है औऱ कुछ याद भी रह जाता है। फ़ोन में नंबर हो और आप शेयर कर सकें तो इससे अच्छी कोई बात नहीं। लेक़िन जब नंबर ही न हो तो?

लेक़िन ये जानकारी साझा करने का काम सिर्फ़ टेलीफोन लिस्ट तक सीमित न रखें। अगर आपके बच्चे बड़े होगये हैं तो उनके साथ अपने बैंक एकाउंट से संबंधित जानकारी भी साझा करें, साथ ही अपना अगर हेल्थ इंश्योरेंस कराया है तो उसके बारे में भी जानकारी दें। जैसा की इस कोरोनाकाल में हुआ, कई घरों में पति, पत्नी दोनों ही अस्पताल में भर्ती रहे। ऐसे में बच्चों के पास जानकारी हो तो अच्छा है। एक औऱ ज़रूरी सीख ये थी सबको सभी काम के बारे में पता हो – मोबाइल से खाना कैसे ऑर्डर करने से लेकर बैंक का एटीएम कैसे ऑपरेट करते हैं। हैं बहुत छोटी छोटी बातें लेक़िन जानना बेहद ज़रूरी। आप परिवार से शायद प्यार के कारण सभी काम करते हैं या घर के बाकी सदस्य भी आप के होने पर इन चीजों के बारे में नहीं जानना चाहते। लेक़िन कभी उनको ये काम करना पड़ जाये और आप बताने की स्थिति में न हों, तो उनको पता होना चाहिये।

सीख: अपने ख़ास सहयोगियों के नंबर साझा ज़रूर करें। अगर कोई पुरानी डायरी हो तो वहाँ सभी ज़रूरी नंबर लिख कर रखिये और समय समय पर अपडेट भी करते रहें तो न बैटरी ख़त्म होने का डर न फ़ोन के नुकसान की चिंता। साथ ही घर के सभी सदस्यों के पास भी ये नंबर रहेंगे।

कोरोना ने पिछले दिनों ऐसा कहर ढाया है जिससे उबरने में समय लगेगा।  हमने अपने परिवार, रिश्तेदारों या जानने वालों को खोया है औऱ कई ख़ुद भी इस बीमारी से ग्रस्त हुये और ठीक भी हुये। सबके अपने अनुभव हैं इस समय के जो इतिहास में अब हमेशा के लिये दर्ज हो गया हैं। जो अब हमारे साथ नहीं हैं उन सभी को सादर नमन।

कोरोना से सीख: अनजाने में हौसलाफजाई औऱ हर हाल में मस्तमौला

कोरोना से सीख: स्थिति कैसी भी हो, सोच सकारात्मक रखें

सकारात्मक सोच पर ही बात आगे बढ़ाते हैं क्योंकि इस पर मुझे बहुत मदद मिली और वो भी बिल्कुल अनचाहे (लेक़िन बहुत ही कीमती ज्ञान)। पहली किश्त में मैंने भोजन वाली बात औऱ मेरे साथ वार्ड शेयर करने वाले एक वरिष्ठ नागरिक की सीख के बारे में बताया था, इस बार बिल्कुल उल्टा हुआ। एक वरिष्ठ नागरिक को उनके पुत्र सीख दे रहे थे।

ICU में मेरे बगल के बेड पर जो सज्जन भर्ती थे उनकी तबियत थोड़ी ऊपर नीचे चल रही थी। कभी तो सब ठीक रहता औऱ कभी थोड़ी चिंता की हालत रहती। रोज़ शाम को जब मिलने का समय रहता तो उनके पुत्र मिलने आते और उनसे बात करते। वो उन्हें बार बार समझाते और उन सज्जन के साथ मैं भी चुपचाप उनके पुत्र की हौसला बढ़ाने वाली बातें सुनता। इन सभी बातों का निश्चित रूप से मुझे भी लाभ हुआ क्योंकि मोबाइल बहुत सीमित समय के लिये इस्तेमाल कर पाता औऱ मिलने जुलने वाला कोई आना नहीं था (घर पर भी कोविड के मरीज़ थे)। तो अंकल जी के बाद शायद मुझे उनके पुत्रों का इंतज़ार रहता।

आपके आसपास ICU में मरीज़ रहते हों औऱ  कुछ न कुछ चलता रहता हो तो ये सकारात्मक बातें बहुत बड़ा टॉनिक हो जाती हैं। ICU के बाहर अपने रोज़ मर्रा के जीवन में भी ऐसे परिवारजन, रिश्तेदार और दोस्त हों तो आपके लिये बहुत मदद हो जाती है। वैसे तो हम सभी सकारात्मक सोच रखते हैं, लेक़िन शायद अपने अंदर। वो जो आजकल एक नई श्रेणी के वक्ता या कहें एक नया व्यवसाय बन गया है मोटिवेशनल स्पीकर वाला, उन अंकल के बेटे उन सब से कहीं बेहतर। कम समय में वो अंकल (और साथ में मुझे भी) नये हौसले से भर देते। मैं हमेशा उन अनजान लोगों का ऋणी रहूँगा।

सकारात्मक सोच का एक बिल्कुल दूसरा रूप देखने को मिला जब ICU से दूसरे वार्ड में शिफ़्ट हुआ। वैसे तो हमेशा अपग्रेड होना ही अच्छा लगता है लेक़िन ये वो डाउनग्रेड था जिसका मुझे इंतज़ार था। इस वार्ड में रोज़ एक युवा, जिसने शायद अभी स्कूल ख़त्म ही किया हो, बार बार आता। लेक़िन वो अपने काम से काम रखता। मतलब वार्ड में कुछ भी चल रहा हो ये महाशय की एंट्री होती और ये सीधे जाकर सेनेटाइजर से अपने हाथों को साफ़ करते और उसके बाद वो अपना कुछ काम करते। इस पूरे समय उनका ध्यान सेनेटाइजर औऱ अपनी कुछ परेशानी पर रहता। जैसे एक दिन शायद उनकी चप्पल काट रही थी तो को पहले अपने पैर पर कुछ लगाया फ़िर अपनी चप्पल पर टेप लगाते रहे। वो इस बात से बिल्कुल भी परेशान नहीं कि वो अस्पताल के एक वार्ड में हैं जहाँ मरीज़ हैं या डॉक्टर भी आते जाते रहते हैं। इस बंदे के जज़्बे को भी सलाम!

तो पहले भोजन का ज्ञान और फ़िर बीमारी से लड़ने का हौसला बढ़ाने वाली बातें और सकारात्मक सोच। इन सबका निचोड़ यही की मन के हारे हार, मन के जीते जीत। जो अगली सीख मिली वो थी कुछ पुरानी आदतें को छोड़ना नहीं चाहिये।

कोरोना से सीख: स्थिति कैसी भी हो, सोच सकारात्मक रखें

कुछ दिन पहले सकारत्मकता पर एक फेसबुक पोस्ट पढ़ी थी। दरअसल वो सकारात्मक रहिये के ज़रिए एक कटाक्ष था आजकल जो हालात चल रहे हैं। मैंने पढ़ने के बाद उस पोस्ट की लिंक भी नहीं रखी औऱ ढूंढने पर भी नहीं मिली। ख़ैर ये पोस्ट उस पोस्ट के न मिलने के बारे में तो नहीं है, हाँ सकारात्मकता के बारे में ज़रूर है।

ये कोरोना से लड़ाई का मेरा व्यक्तिगत अनुभव है औऱ इसकी कोई कहानी नहीं है। तो अस्पताल में 17 दिन, जिसमें एक हफ़्ता ICU, में बिताने के बाद, जब कहा गया आप घर जा सकते हैं तो ये पूरा सफ़र याद आ गया। अस्पताल से निकलते वक़्त कम और घर पर जब 10 दिनों के लिये फ़िर कमरा बंद अर्थात क्वारंटाइन हुये तब। लिखना हो नहीं पाया तो अब आपके साथ साझा कर रहा हूँ।

सबक 1: हमेशा अच्छा सोचें या Always Think Positive

जिस समय मुझे कोरोना हुआ उसी समय देश के अन्य हिस्सों में भी हालात ख़राब होने लगे। जिस सोसाइटी में रहता हूँ वहाँ भी बहुत केस आये जिसके चलते स्थानीय नगर पालिका ने सोसाइटी सील कर दी। अर्थात अंदर से कोई भी गाड़ी बाहर नहीं जा सकती औऱ वैसे ही कोई बाहर की गाड़ी भी अंदर नहीं आ सकती। सील होने का मतलब दोनों गेट पर बल्लियां लगा दी गयी। अपनी हालत वैसे तो गाड़ी चलाने लायक नहीं थी तो कोई बात नहीं थी लेक़िन जिन समझदार व्यक्तियों ने ये किया था शायद उन्होंने इमरजेंसी में गाड़ी दूर होने के बारे में सोचा नहीं होगा या कोई चलने में असमर्थ हो उसके पास क्या विकल्प है – ये भी नहीं सोचा होगा।

मुझे भी कोई विकल्प नहीं दिख रहा था। कोरोना के चलते कोई चाह कर भी आपकी मदद नहीं कर सकता। ऐसे में मेरे मददगार बने हमारे पुराने पडोसी एवं एक और कोविड पॉजिटिव पेशेंट आशीष जी। उनका पूरा परिवार कोविड की चपेट में आ गया था। परिवार से याद आया हम चार में से तीन लोग पॉज़िटिव थे। उस समय बेड थोड़े मुश्किल से मिल रहे थे लेक़िन आशीष भाई को फ़ोन पर जानकारी मिली औऱ घर के नज़दीक ही हॉस्पिटल में बेड भी मिल गया। जब ये ढूँढाई चल रही थी उस समय सोसाइटी के कुछ और लोग भी अपने स्तर पर पता कर रहे थे। अगर आपको मदद चाहिये तो अपनी सोसाइटी के व्हाट्सएप ग्रुप या आपके जो इतनी सारे बाकी ग्रुप हैं, स्कूल, कॉलेज, ऑफिस वाले, सभी पर अपनी जो ज़रूरत है वो साफ शब्दों में लिख कर पोस्ट करें। इन ग्रुप में अगर बहुत कुछ फ़ालतू चलता है तो बहुत से लोग मदद करने वाले भी होते हैं। औऱ एक मैसेज को फॉरवर्ड ही करना है तो ज़्यादा समय भी नहीं लगेगा। उसके बाद आप बात कीजिये क्योंकि बात करने से ही बात बनती है।

अब यहाँ से ज्ञान की वर्षा शुरू होगी जो तूफ़ानी तो नहीं होगी इतना यकीं दिला सकता हूँ।

जब अस्पताल में भर्ती हुआ तो लगा था एक हफ़्ते में वापस घर चले जायेंगे। पहली सीख अगले ही दिन मिली जब वार्ड में मेरे साथ रहने वाले एक वरिष्ठ नागरिक ने समझाया की खाना नहीं खाने से यहाँ औऱ समय लगेगा। इसलिये अपना खाना ठीक से खाओ। दरअसल उन्होंने रात में मुझे प्लेट में खाना छोड़ते हुये देखा था। उस दिन के बाद से जो भी खाने को मिलता सब बहुत आनंद के साथ खाता। कोई न नुकुर या कोई शिकायत नहीं। इसका श्रेय माँ को जाता है जिन्होंने खाने के बारे में कोई नखरे बचपन से ही नहीं पालने दिये। कोई सब्जी कम पसंद हो सकती है लेक़िन वो थाली में परोसी ज़रूर जायेगी।

वैसे तो मेरा ये मानना है की जो भी थाली में परोसा जाय उसको चुपचाप खा लेना चाहिये। औऱ खाने को लेकर वैसे भी कोई ज़्यादा नखरे नहीं है (मेरा मानना है)। लेक़िन उसके बाद भी मुझे लगभग रोज ही अपने नाश्ते की प्लेट लौटानी पड़ती। इसके बारे में अगली बार।

सीख: जानकारी ज़्यादा लोगों के साथ शेयर करें औऱ आपकी क्या ज़रूरत है उसे भी साफ साफ बतायें। जैसे मुझे बात करने से आशीष भाई का साथ मिला ऐसे आपको भी किसी आशीष की मदद मिलेगी। सोच सकारात्मक रखें।