कोरोनकाल औऱ अस्पताल की बातें तो अब ख़त्म हो गयी हैं लेक़िन एक बात साझा करना रह गई।
जब घर से अप्रैल में अस्पताल में भर्ती होने के लिये चले थे तो तैयारी सब थी। मतलब साबुन से लेकर कपड़े धोने का सब सामान साथ में था। अब कोई होटल तो था नहीं की कपड़े धुलने को दे दिये औऱ आराम से बैठ गये। और कुछ पता भी नहीं था की कितने दिन का प्रवास होगा।
लेक़िन पहुँचने के अगले दिन से ऑक्सिजन मास्क लग गया औऱ उसको कभी भी न हटाने की ताक़ीद भी मिल गयी थी। वाशरूम की सवारी वाली बात आपको बता ही चुका हूँ। तो ऐसे हालात में नहाने का या कपडे धोने का सवाल ही नहीं उठता। शुरू में घर से लाये हुये कपड़ों से काम चल गया लेक़िन कुछ दिन बाद कपड़ों की ज़रूरत महसूस हुई। मगर मजबूरी का भी ऐसा आलम था कि क्या कहें। सोसाइटी सील हो चुकी थी औऱ घर पर बाक़ी सब पॉजिटिव। तो सामान आने की कोई संभावना भी नहीं थी।
इसी बीच हमारी भी ICU में एंट्री हो गयी थी और वहाँ एक राहत वाला काम भी हुआ। एक दिन सुबह सुबह स्पंज के लिये जब कोई आया तो साथ कपड़े भी लाया। लेक़िन जिस राहत को मैंने महसूस किया था वो ज़्यादा देर नहीं मिली। जो अस्पताल से कपड़े मिले वो छोटे निकले। पायजामा तो फ़िर भी ठीक ही था (मतलब किसी तरह पहन लिया गया था), वो जो शर्ट दी थी मेरे पेट की बरसों की मेहनत वाली गोलाई पर फ़िट नहीं बैठ रही थी। अस्पताल का स्टॉफ शायद खाते पीते लोगों को ध्यान में रख कर कपडे नहीं बनाते।
तो शर्ट को वापस कर अपनी टीशर्ट से काम चलाया। लेक़िन पायजामा की तकलीफ़ आखिरी दिन तक बनी रही। सुबह सुबह स्टाफ से अपने नाप का पायजामा मांगना एक रूटीन हो गया था। कभी अगर न मिले तो उससे छोटे साइज वाले से काम चलाना पड़ता। उससे जो हालात उत्पन्न होते वो यहाँ बताना मुनासिब नहीं है।
पायजामे के बाद मशक्कत वाला काम होता था उसको बाँधा कैसे जाये। हाँथ में तो कैनुला लगा होता तो ज़्यादा कुछ कर नहीं सकते तो किसी तरह इस काम को धीरे धीरे अंजाम देते। ये समझ से परे है कि इलास्टिक क्यों नहीं लगाते जिससे इन सब परेशानियों से बचा जा सके।
ख़ैर अस्पताल में कोई इतना ध्यान भी नहीं देता है, लेक़िन चूँकि ज़्यादातर महिला स्टाफ होता था तो लगता था कपड़े ठीक हों। शुरुआत के दिनों में जब जनरल वार्ड में था तो एक सरदारजी एवं उनकी पत्नी भी इलाज के लिये भर्ती थे। उस दंपत्ति को लगता हॉस्पिटल से विशेष व्यवस्था के तहत कपड़े उपलब्ध हो रहे थे। दोनों हमेशा एक जैसे कपडे पहनते।
मेरा तो ये सुझाव भी था का की वो फ़्री साइज वाला पजामा रखें जिससे हृष्टपुष्ट लोगों को कोई परेशानी न हो। एक बार तो ये भी लगा की लुंगी जैसा कुछ पहन को दिया जाना चाहिये। मुझे लुंगी औऱ धोती पहनना बड़ा अच्छा लगता लेक़िन उसे संभालना नहीं आता। तो वर्षों पहले सुबह जब सोकर उठे तो ऐसा भी हुआ है की लुंगी कहीं पीछे रह गयी औऱ हम कहीं औऱ। ये दक्षिण भारत की फिल्मों में तो जिस आसानी से किरदार लुंगी पहनकर सब काम (बाइक भी चला लेते हैं), देखकर आश्चर्य ही होता है। वैसे अब संभालना आ गया है लेक़िन बाइक चलाने जैसा नहीं। पता चला बाइक पर बैठे तो सही लेकिन लुंगी हवा से बातें करने लगी और…
अस्पताल में शुरू के चार दिन तो ठीक रहे लेक़िन जब ICU में शिफ़्ट करने के बात हुई तब लगा मामला कुछ गंभीर है। ख़ैर अब औऱ कोई चारा तो था नहीं तो अपनी जो भी हिम्मत बची हुई थी उसको सहेजकर रखा औऱ कोरोना से अपनी लड़ाई का दूसरा औऱ निर्णायक दौर शुरू किया।
अपने आसपास के मरीज़ों को कोरोना से हारते हुये देख तो नहीं रहा था लेक़िन ये पता ज़रूर चल जाता था। बाहर के ख़राब हालात की पूरी तो नहीं थोड़ी थोड़ी जानकारी थी। मोबाइल पास ज़रूर था लेक़िन उसको इस्तेमाल करना एक कष्ट वाला काम था। कभी कभार ऐसे विचार जब आये की क्या कोई ऐसा काम जो करना रह गया? वैसे तो इसकी लिस्ट बहुत लंबी बन सकती है, लेक़िन मेरी लिस्ट में सिर्फ़ एक चीज़ थी उस समय – जीवन में जो कुछ भी मिला उसके लिये धन्यवाद, उन अनगिनत लोगों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना जिन्होंने किसी भी रूप में मदद करी या कुछ सीखा कर गये।
पढ़े-लिखे मूर्ख
जब घर वापस आया तो बाहर मेरे अस्पताल में रहने के दौरान कोरोना से परिवार में क्या घटित हुआ इसके बारे में थोड़ा सा पता चला। उस समय तक स्थिति संभली तो नहीं थी लेक़िन थोड़ी बेहतर हुई थी। लेक़िन तब भी रोज़ ही सुनते किसी जान पहचान वाले ने अपने क़रीबी को खोया है। ये सिलसिला अभी भी चल रहा है लेक़िन ईश्वर की कृपा से अब ऐसी खबरें कभीकभार सुनने को मिल रही हैं।
घर में क़ैद शाम अक़्सर बालकनी से बाहर चल रही दुनिया देखकर गुज़र जाती। लेक़िन बाहर का नज़ारा देखकर दुःख भी होता और गुस्सा भी आती। लोग कोरोना जब बहुत तेज़ी से फैल रहा था तब भी ऐसे घूम रहे थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। पति पत्नी, बच्चे, नौजवान सबने जैसे सच्चाई से मुँह मोड़ लिया हो। सबसे ज़्यादा हैरानी औऱ दुःखी होने वाली बात थी कि जो भी इस कार्य में लिप्त थे वो सभी पढ़े लिखे थे। उनको कोरोना के कहर के बारे में भी निश्चित रूप से पता होगा। इसके बाद वो इतने लापरवाह कैसे हो सकते हैं?
चूँकि मैंने कोरोना के कहर को बहुत क़रीब से देखा था औऱ परिवार-जान पहचान वाले कई लोगों की जान कोरोना से गयी थी, तो ख़राब भी लगता। कई लोग ये कहते कोरोना जैसा कुछ नहीं है या बार बार बोलने के बाद भी मास्क नहीं पहनते, तो मन करता उनको कुछ घंटों के लिये ICU वार्ड में छोड़ दिया जाये। मुझे अभी भी समझ में नहीं आया की इतना सब होने के बाद लोग बिना किसी चिंता के बारात निकालकर शादी भी कर रहे औऱ रिश्तेदारों के कोरोना के चलते शादी में शरीक़ नहीं होने पर लड़ाई भी। अग़र पढ़ाई लिखाई के बाद भी लोगों की समझ ऐसी है तो इसका क्या फ़ायदा?
डर के आगे क्या है?
ये बात सही है कि हम डर कर नहीं रह सकते, लेक़िन हम जानबूझकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी भी तो नहीं मार सकते। जब भोपाल गैस काँड हुआ था तब बहुत छोटे थे औऱ जिन इलाकों में मिथाइल आइसोसाइनाइट ने क़हर बरपाया था वहाँ हमारे जान-पहचान वाले नहीं रहते थे। वो तो जब पत्रकारिता शुरू की औऱ उन इलाकों में गये तब पता चला लोगों ने क्या खोया। इस बार सब कुछ देखा भी, समझ भी आया। लेक़िन क्या हमने इससे जो भी सीखा है इसको याद रखेंगे?
तो आज की कोरोनकाल की सीख वाली किश्त के अंतिम भाग में सभी का धन्यवाद। किसी कार्यक्रम में अगर आप गये हों धन्यवाद ज्ञापन सबसे अंतिम काम होता है। आजकल इसको बीच में भी जगह मिल जाती है क्योंकि जिन लोगों के सहयोग से वो कार्यक्रम सम्पन्न हुआ उनके बारे में जानने की किसी को उत्सुकता नहीं रहती औऱ लोग बस बाहर निकलने की जल्दी में रहते हैं। तो मुझे अस्पताल के बिस्तर पर लेटकर यही लगता की \’बाहर\’ निकलने से पहले अग़र एक काम करना है तो जीवन के लिये धन्यवाद, उसमें जो कुछ भी मिला उसके लिये धन्यवाद ज़रूर करना चाहिये। ये एक काम अक़्सर हम टाल ही देते हैं।
ये धन्यवाद उन सभी का जो इसको पढ़ रहे हैं। शायद मैं आपको जानता हूँ, शायद हम कभी मिले हों, शायद कभी बात हुई हो या शायद अब हम सम्पर्क में न हों, शायद इसमें से कुछ भी नहीं। शायद मेरी लेखनी के ज़रिये हम जुड़े हों। आप सभी का आभार। जीवन आपके अनुभव का निचोड़ ही है तो इसमें आपके योगदान के लिये धन्यवाद।
औऱ मेरी प्रिय पम्मी। तुम्हारी लड़ाई को बहुत क़रीब से देखा है औऱ तुम्हारा वही जज़्बा अस्पताल में हिम्मत भी देता रहा। तुम्हारी अनगिनत मीठी यादों के लिये धन्यवाद। ❤️❤️❤️
आज वापस कोरोना से सीख पर क्योंकि कई बार ऐसा होता है की समय निकलते औऱ सीख भूलते देर नहीं लगती। तो इससे पहले की जो सीख हैं वो इस भीड़भाड़ में कहीं खो जायें, उन्हें संभाल कर रख दें। वैसे तो मेरा प्रयास है की ये सीख ताउम्र साथ रहें लेक़िन हूँ तो आख़िर इंसान ही।
क़दम क़दम बढ़ाये जा
तो इस सफ़र में जनरल वार्ड से ICU तक का माजरा आपको बताया है। अब बारी है स्पेशल वार्ड की जहाँ की सीख आपके साथ साझा कर रहा हूँ। बचपन से हमें ये सिखाया जाता है की किसी भी काम में महारत हासिल करनी हो तो उसकी रोज़ाना या नियमित प्रैक्टिस करो (गणित इसका अपवाद रही है मेरे लिये)। फ़िर चाहे वो संगीत हो या खेल या पढ़ाई। औऱ ये सही भी है। जैसे शुरू में जब साईकल चलाना सीखा तो ज़्यादा चलाने पर पैर दर्द होते लेक़िन फ़िर आदत हो गयी। कुछ ऐसा ही हुआ जब मॉर्निंग वॉक शुरू किया आदत तो थी नहीं तो बस दो दिन के बाद जब एक दिन आलस किया तो…!
अस्पताल में कुछ ग्यारह दिनों से ज़मीन पर चलने का काम नहीं किया था। कभी कभार बिस्तर से उठकर खड़े हो जाते जब बेडशीट बदली जाती नहीं तो जहाँ जाना होता वो भी एक ड्रिल होती। मतलब ऑक्सिजन सिलिंडर मंगाया जाता औऱ साथ में व्हीलचेयर भी। बस वही सवारी होती कहीं भी जाने के लिये। लेक़िन उसका भी उपयोग वार्ड बदलते समय या शुरुआती दिनों में वॉशरूम के लिये हुआ। चलना नहीं हुआ।
जब स्पेशल वार्ड में आये तो सबसे पहली ख़ुशी यही थी कि ICU से बाहर निकले लेक़िन आगे की राह कोई आसान नहीं थी। पहले ही दिन वहाँ के जो ब्रदर थे नाईट डयूटी पर उन्होंने बड़े प्यार से बात करी औऱ मेरे हाथ में जो सूजन आ गयी थी उसका ख़ास ध्यान भी रखा। नींद का थोड़ा सा मसला था तो काफ़ी देर तक जागता रहा औऱ उस दौरान ब्रदर औऱ उनके साथ जो नर्स थी, दोनों को सारी रात मरीजों का ख़्याल रखते देखा। वो मेरे वार्ड के सभी छह मरीजों के साथ एक और वार्ड की ज़िम्मेदारी बहुत ही अच्छे से उठा रहे थे।
ICU छोड़ने के एक दिन पहले से खाना अपने हाथ से खाने लगे थे औऱ यही सिलसिला यहाँ भी चला। हाँथ में IV कैनुला लगी हो तो थोड़ी मुश्किल ज़रूर होती लेक़िन कभी दायें से तो कभी बायें हाँथ से खा कर काम हो जाता था। अच्छा वो अस्पताल की कर्मी जिनके बारे में मैंने ज़िक्र किया था वो दो दिन से ICU में भी नहीं दिखीं औऱ नये वार्ड में भी उनका आना नहीं हुआ। लेक़िन उनसे मिलना हुआ।
चलते चलते
तो जिस वजह से मुझे ICU से निकलने का मौक़ा मिला था वो थी हालत में सुधार। अब दो दिनों में सेहत में थोड़ा औऱ सुधार हुआ था तो मुझे रात में अगर वॉशरूम जाना हो तो बिना किसी सहायक के जाने की परमिशन मिल गयी। लेक़िन ब्रदर की सख़्त हिदायत थी कि दरवाज़ा बंद न करूं। और जब वापस बेड पर आऊँ तो ऑक्सिजन लेवल चेक होता की पूरे चहलकदमी के कार्यक्रम से क्या असर पड़ा। चूँकि छोटा सा छह बिस्तर वाला वार्ड था तो इतना चलना भी नहीं होता था।
मेरे बेड से बाहर जो कॉरिडोर था वहाँ दिन में कई मरीज़ चहलकदमी करते दिखते। तीसरे दिन मैंने पूछ ही लिया कि क्या मैं भी वॉक कर सकता हूँ औऱ डयूटी पर जो डॉक्टर थीं उन्होंने कहा ठीक है आपका एक वॉक टेस्ट करते हैं। ये जो 6 minute वॉक टेस्ट आजकल चल रहा है, उस चिड़िया का नाम पहली बार उस दिन सुना था। उन्होंने कहा शाम को करते हैं औऱ मैं तैयार हो गया। अपनी वॉशरूम वाली चहलक़दमी से जो खुशफहमी पाल रखी थी शाम को उसकी ख़ुद मैंने ही धज्जियाँ उड़ा दीं। वॉक टेस्ट हुआ जिसमें मुझे कोई ख़ासी ऊपरी परेशानी नहीं तो हुई लेक़िन जब ऑक्सीजन लेवल नापा गया तो सब गड़बड़। हाँ रेखा की फ़िल्म घर का गाना आजकल पावँ ज़मी पर नहीं पड़ते मेरे ज़रूर याद आया। कमज़ोरी के चलते ये गाना आगे भी कई दिनों तक याद आया जब भी चलना होता।
डॉक्टर ने फ़िर समझाया की आपके फेफड़े (lungs) का काम अभी पूरी तरह ठीक नहीं हुआ है औऱ चलने के बाद आपको साँस लेने में तक़लीफ़ हो सकती है। ऑक्सीजन जो अब दिन में कई बार हटा भी दी जाती थी वो वापस लगा दी गयी। उन्होंने बोला अभी आपको कुछ दिन औऱ रहना पड़ेगा। इसके बाद तो लक्ष्य यही था की इस टेस्ट में अच्छे नम्बरों से पास होना है। बस तो फ़िर मैंने उसी दिन से तीन चार बार 2 मिनिट चलना शुरू किया वार्ड के अंदर ही। अगले दिन समय 4 मिनिट का औऱ उसके बाद 5 मिनिट। इसके साथ मैंने बिस्तर पर बैठे बैठे थोड़ा थोड़ा प्राणायाम भी शुरू किया।
ऊपर जो नियमित प्रैक्टिस वाली बात को समझने के लिये थोड़ा पीछे चलते हैं। आपको मैंने हमारे पास जो काली कार थी उसके बारे में बताया था। अगर आपने नहीं पढ़ा है तो आप उसे यहाँ पढ़ सकते हैं (काली कार की रंगीन यादें) औऱ रोड पर उसकी शान की सवारी आप यहाँ देख सकते हैं। तो ऑस्टिन नियमित चलती नहीं थी लेक़िन पापा हर थोड़े दिन में कार को गैराज से निकालकर उसे सामने जो जगह थी वहाँ खड़ी कर देते औऱ रात में कार को वापस गैराज में। चूँकि बैटरी डाउन रहती तो कार को धक्का लगाकर ये काम करना होता। पापा से पूछा कि इतनी मशक्कत क्यूँ तो उन्होंने इसका कारण बताया। अस्पताल से लौटने के बाद बालकनी में चाय का आनंद लेते हुये बहुत सी नई चीजों पर गौर करना शुरू किया। जैसे सामने वाली बिल्डिंग में एक शख्स अपनी गाड़ी को रोज़ शाम कवर्ड पार्किंग से निकालकर ओपन पार्किंग में खड़ी करते औऱ उसकी सफ़ाई करते। ये उनका रोज़ का रूटीन है। उनको ऐसा करता देख कर पिताजी का जवाब याद आ गया औऱ उसमे छिपी सीख भी जो कार और हमारे शरीर दोनों के लिये मान्य है। उन्होंने कहा था एक जगह खड़े रहने से कार के टायर खराब होते हैं औऱ उनकी हवा भी निकल जाती है। साथ ही गाड़ी को थोड़ा ही चलाने से भी टायर की पोजीशन बदल जाती है। यही तो हमें शरीर के साथ भी करना है क्योंकि कहा भी तो गया है शरीर भी एक मशीन है औऱ नहीं चलने से जैसे मशीन ख़राब होती है वैसे ही शरीर भी।
लेक़िन तीन दिन की प्रैक्टिस रंग लाई औऱ डिसचार्ज के पहले जो वॉक टेस्ट हुआ उसको ठीक ठाक नंबरों से पास कर लिया। घर आने के बाद से अब प्रणायाम को अपनी दिनचर्या का एक हिस्सा बना लिया है। कई लोगों ने कहा भी की इन साधारण से साँस लेने- छोड़ने की तकनीक से न सिर्फ़ फेफड़े बल्कि पूरे शरीर को फ़ायदा होता है। अपने 17 दिनों के प्रवास से वो समझ में आया जो इतने लंबे समय से समझ नहीं आया था। और वो कर्मी जिन्होंने मुझे खाना खिलाया था वो भी मुझे मिल गयीं जब मैं अस्पताल छोड़ कर निकल रहा था।
मेरे इस पूरे अनुभव से न सिर्फ़ डॉक्टर बल्कि इससे जुड़े अन्य कर्मियों के प्रति आदर औऱ सम्मान कई कई गुना बढ़ गया है। विशेषकर जिन परिस्थितियों में औऱ जितने सीमित साधनों में वो इस कठिन समय में मरीजों का ध्यान रख रहे थे वो काबिलेतारीफ है। औऱ बहुत कम मुझे सीनियर डॉक्टर्स या कर्मी मिले। सब नौजवान लेक़िन क़माल का जज़्बा। धन्यवाद शब्द बहुत छोटा लगता है उनके लिये औऱ शायद जो इस समय उनलोगों ने हम सभी के लिये किया है वो हम कभी भुला भी नहीं पायेंगे। उन सभी के इस सेवाभाव के लिये हमेशा कृतज्ञ रहूँगा।
सीख: आप अपने शरीर को किसी न किसी रूप में कष्ट देते रहें। हमारे बहुत से मेन्टल ब्लॉक होते हैं जिनके चलते हमें लगता है की हम इतना ही कर सकते हैं। जैसे जब कॉलेज जाना शुरू किया तो साईकल ही सवारी थी औऱ कॉलेज आना-जाना 20 किलोमीटर होता लेक़िन दो साल तक ये सफ़र किया रोज़ाना (लगभग)। उसी तरह अपने शरीर को भी आदत डलवाएं। प्राणायाम या जो आपको अच्छा लगे वो व्यायाम करें लेक़िन करें ज़रूर। प्राणायाम हमें विरासत में मिला वो तोहफ़ा है जिसकी क़दर हमने देर से की। इसको करने के कई फ़ायदे हैं जैसे जगह का कोई मसला नहीं औऱ मौसम का कोई बहाना नहीं। औऱ अब तो ये योगा बनकर विश्व में छाया हुआ है। तो किसी भी रूप में व्यायाम को अपने जीवन का हिस्सा बनायें। आपका शरीर आपको धन्यवाद कहेगा।
हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती। कोरोना की कहानियों की श्रृंखला के बीच ये सोना कहाँ से आया? वैसे तो सोना हम भारतीयों का प्रिय है लेक़िन उस विषय पर मेरा ज्ञान बहुत ही सीमित है। तो कहानी आगे बढ़ाते हैं।
अस्पताल से लौटने के बाद टीवी देखना बहुत कम हो गया है। समाचार देखना तो समय की बर्बादी लगता है तो बस कभी कभार हल्के फुल्के कार्यक्रम देख लेते हैं। मनोज बाजपेयी की द फैमिली मैन का दूसरा सीजन बहुत समय से अटकते हुये 4 जून को आ गया। पहला सीजन देखा था तो थोड़ी उत्सुकता थी इस बार क्या होगा। ट्रेलर देखकर लगा की इसको अपना समय दिया जा सकता है। तो बस इस हफ़्ते के कुछ घंटे उसको दे दिये। ये उसी का लेखा जोखा है। सोने वाली बात की गुत्थी आगे सुलझेगी।
किसी भी फ़िल्म, किताब या इन दिनों की वेब सीरीज़ की जान होती है उसकी स्क्रिप्ट। अच्छी स्क्रिप्ट हो औऱ ठीक ठाक कलाकार भी हों तो ये आपको बांधे रख सकते हैं। इस सीरीज़ में तो मनोज बाजपेयी जैसे कई मंझे हुए कलाकार हैं। इस बार दक्षिण से सामंथा अकिनेनी इससे जुड़ीं हैं। वैसे तो प्रयास यही है की बहुत ज़्यादा न बताया जाये लेक़िन अगर आपने अपने सप्ताहांत का सदुपयोग (?) नहीं किया है तो आप मेरी कोई पुरानी ब्लॉग पोस्ट पढ़ सकते हैं।
कहानी
अगर आपने पहला सीज़न देखा है तो आपको पता है मनोज बाजपेयी एक सीक्रेट सर्विस (टास्क) एजेंट हैं। इस बार शुरुआत में वो एक IT कंपनी में काम करते हुऐ दिखाई गये हैं। आपको ये तो पता है की देर सबेर वो वापस अपनी एजेंसी में जायेंगे तो ऐसा हो ही जाता है नहीं तो कहानी कहाँ से आगे बढ़ती? लेक़िन उनका और उनकी पत्नी का संबंध कुछ ठीक नहीं चल रहा है। चूँकि फैमिली मैन है तो परिवार वाला ट्रैक साथ में चलता रहता है औऱ इस बार मनोज बाजपेयी की बेटी का थोड़ा ज़्यादा काम है।
श्रीलंकाई तमिल आतंकवादियों का एक समूह भारतीय औऱ लंका के नेताओं पर हमले की फ़िराक में हैं। कैसे बाजपेयी औऱ उनकी टीम इसको नाकाम करते हैं यही कहानी है। पिछली बार जैसे मिशन कश्मीर में था इस बार दक्षिण भारत में कहानी सेट है। इसके अलावा इसके कुछ क़िरदार लंदन में भी हैं। कुल मिलाकर सीरीज़ बड़ी स्केल पर बनाई गई है।
अभिनय
मनोज बाजपेयी के साथ प्रियामनी, सामंथा अकिनेनी, सीमा बिस्वास, शारिब हाशमी मुख्य भूमिका में हैं। कलाकारों की लिस्ट लंबी है इसलिये कुछ का ही ज़िक्र कर रहे हैं। पहले सीज़न वाले कलाकार अपने क़िरदार में हैं औऱ उसी को आगे बढ़ाते हैं। सामंथा का किरदार बोलता कम है औऱ काम ज़्यादा करता है औऱ उन्होंने जो उन्हें काम दिया गया वो बख़ूबी निभाया है।
निर्देशक
निर्देशक राज और डीके कहानी को हल्की फुल्की रखने के चक्कर में बहुत सारी चीजों को नज़रअंदाज़ करते लगते हैं। औऱ जब लगता है कहानी यहाँ पर ख़त्म होगी तो उसको खींचते से लगते हैं क्योंकि उनको उसको एक बड़े स्केल पर दिखाना है। सीरीज़ का कैमरावर्क अच्छा है लेक़िन क्या सिर्फ़ बढ़िया कैमरे का काम आपको चार घंटे तक बाँधे रख सकता है?
क्यूँ देखें / न देखें
लगभग साढ़े चार घंटे की सीरीज़ है तो अगर आप समय का सदुपयोग करना चाहते हैं तो सोच समझ कर पहल करें। अगर आप देखना चाहते हैं तो ये एक टाइमपास सीरीज़ है जैसी ज़्यादातर सीरीज़ होती हैं। बहुत कुछ पहले सीज़न के जैसा है – गलियों में अपराधी के पीछे भागना। मतलब इसको तो हमारे निर्देशकों ने अब इतना भुना लिया है की अब इसमें कुछ नयापन नहीं दिखता। हाँ आजकल इसकी लंबाई ज़रूर चर्चा का विषय रहता है। लेक़िन अब इसमें वो मज़ा नहीं रहा। बहुत सी वर्तमान स्थिति पर लेखक टिप्पणी ज़रूर करते हैं लेक़िन चूँकि वो सीरीज़ का फ़ोकस नहीं है तो बस बात आई गयी हो जाती है।
एक सीक्वेंस है जिसको देख कर हँसी भी आती औऱ स्क्रिप्ट और डायरेक्टर की सोच पर आश्चर्य कम तरस ज़्यादा होता है। देश के शीर्ष नेता पर हवाई हमले की बात हो रही हो औऱ हमारी हवाई क्षमता का कोई ज़िक्र भी नहीं। औऱ तो औऱ शीर्ष नेताओं की सुरक्षा में लगी एजेंसी या हमारी सेनाओं से भी कोई तालमेल नहीं दिखाया गया है जो बहुत ही हास्यास्पद है। शायद इसलिये की बाजपेयी जी एक एजेंट हैं, एक फाइटर पायलट नहीं। इसलिये उनकी बंदूक के निशाने से ही…
इस सीरीज़ का अगला सीज़न भी बनेगा ऐसा आख़िरी एपिसोड में बता दिया गया है। इस बार निर्देशक ने कहानी अरुणाचल प्रदेश वाले इलाके में सेट करी है तो तैयार हो जाइये वहाँ की खूबसूरती देखने के लिये। औऱ अगर आपको कोई अच्छी सीरीज़ देखने का मन है तो मेरे दो ही सुझाव हैं : दिल्ली क्राइम औऱ स्पेशल ऑप्स। दोनों की स्क्रिप्ट औऱ उसका ट्रीटमेंट क़माल का है। वैसे इस सीरीज़ के लेखकों को गुल्लक भी एक बार देख लेना चाहिये। शायद तीसरे सीज़न में कुछ बात बन जाये।
रही सोने वाली बात – तो ट्रेलर से अपनी उम्मीदें न बांधें औऱ न ये समझें की मनोज बाजपेयी हैं तो बढ़िया होगी। क्योंकि हर चमकती चीज़…
कोरोना से सीख श्रृंखला की बाक़ी ब्लॉग पोस्ट पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें
अस्पताल का सफ़र जब शुरू हुआ तब लगा था कुछ ही दिनों में घर वापस। जिन सज्जन ने खाने की सीख दी थी, जब उन्होंने बताया की अगले दो दिन में उन्हें छुट्टी मिल जायेगी तो लगा मुझे भी जल्द ही घर जाने का मौक़ा मिलेगा। लेक़िन ऐसा कुछ नहीं होने वाला था।
अगले दो दिनों में मुझे ICU में शिफ़्ट किया गया। इसकी जानकारी मुझे घर पर मेरे विश्वस्त सूत्र (श्रीमतीजी) ने पहले दे दी थी। हुआ कुछ ऐसा था की जब नईम दवाई के सिलसिले में अस्पताल आये थे, तब डॉक्टर ने उन्हें मुझे ICU में शिफ़्ट करने की बात करी थी औऱ श्रीमतीजी को भी इस बारे में बताने को कहा था। श्रीमतीजी ICU सुनकर घबड़ा भी गयीं थीं औऱ उन्होंने फ़ौरन मुझे फ़ोन कर ताज़ा जानकारी माँगी। चूँकि मुझे कुछ भी मालूम नहीं था इस बारे में सो मैंने बता दिया। लेक़िन जब फ़ोन रखा तो अस्पताल के कर्मी तैयार थे मुझे ICU में शिफ़्ट करने को।
ICU के बारे में कुछ मैं पहले भी बता चुका हूँ। जिस समय मैं भर्ती हुआ था उस समय कोरोना का कहर अपनी चरम सीमा पर था। फ़ोन बहुत ज़्यादा देखने को नहीं मिलता या देखना बंद कर दिया था। पारिवारिक जो व्हाट्सएप्प ग्रुप थे वहाँ ज़्यादा कुछ हलचल नहीं थी। वो तो बाहर आकर पता लगा की सभी को वहाँ कोई भी ऐसी ख़बर नहीं शेयर करने को कहा गया था जिसको पढ़कर मुझे आघात लगे। सही कहूँ तो आसपास भी इतना कुछ चल रहा था की मन ख़राब तो था लेक़िन इलाज और कमज़ोरी के चलते बहुत सी बातें जानने के बाद भी कुछ समय लगता उसका असर होने में।
ICU में रहते समय खाने में काफ़ी परेशानी हुई। चूँकि पूरे समय मास्क लगा रहता तो वहाँ पर तैनात डॉक्टर ने स्टॉफ से कहा कि मुझे नाश्ता खाना खिलाने की ज़िम्मेदारी उनकी। उस समय जो भी सामने होता उसको बुलाकर ये काम हो जाता। दो दिन के बाद जब रात को खाना मिला तो कोई था नहीं। एक अस्पताल की कर्मी जिन्हें मैं अपने दाखिले के पहले दिन से देख रहा था वो सामने आ गईं औऱ पूछने लगीं खाना खिलाना है? अगले तीन दिनों तक उन्होंने ही खाना खिलाया और समझाया भी की मुझे अंडा जो नाश्ते में मिलता है, वो खाना चाहिए। जब मैंने बताया मैं वेजेटेरियन हूँ तो उन्होंने बड़ी ही मासूमियत से कहा, \”अभी खा लो। बाहर जाकर किसी भी नदी में स्नान कर अपने भगवान से माफ़ी माँग लेना\”। हालाँकि मेरा नहीं खाने के निर्णय का धार्मिक नहीं है।
अंडा तो मैंने नहीं खाया लेक़िन उनकी सीख याद रखी कि खाना ठीक से खाना। उसके बाद वो दिखी नहीं औऱ अच्छी बात ये हुई की मेरी हालत में सुधार के चलते औऱ एक गंभीर मरीज़ को बेड की ज़रूरत के कारण ICU से दूसरे वार्ड में शिफ़्ट कर दिया।
यहाँ एक वाक्या साझा करना चाहता हूँ। इस बात को लगभग चौदह वर्ष हो गए हैं। मैं रेल से ओडिशा जा रहा था औऱ ट्रैन बीना से पकड़नी थी। भोपाल से बीना पहुँचकर अगली लंबी यात्रा का इंतजार कर रहे थे। लंबे सफ़र के चलते एसी में रिज़र्वेशन करवाया था। लेक़िन जब अपनी सीट पर पहुँचे तो वहाँ कोई औऱ ही विराजमान था और उनके पास बाकायदा टिकट भी था। एक बार तारीख़ वाली ग़लती के कारण पेपर बिछा कर सोना पड़ा था लेक़िन उस वक्त अकेले थे तो कोई परेशानी नहीं थी और था भी रात का सफ़र। इस बार परिवार भी साथ था औऱ सफ़र भी लंबा। लेक़िन अचानक प्रकट हुये टीसी ने कहा आप बगल वाले कोच में जाइये। आपका टिकट अपग्रेड हुआ है। वो पहली औऱ शायद अंतिम बार था जब भारतीय रेल मेहरबान हुई थी। यात्रा औऱ आराम से कटी।
इस घटना का ज़िक्र इसलिये की हमेशा अपग्रेड का अरमान होता है लेक़िन उस रात जब डॉ अश्विनी ने कहा की मुझे डाउनग्रेडेड स्पेशल वार्ड में शिफ़्ट कर रहे हैं तो इस डाउन ग्रेड को सबसे बड़ा अपग्रेड मानकर खुशी ख़ुशी मंज़ूर किया। अब इंतज़ार था कब घर जाने को मिलता। लेक़िन अभी भी समय था। कुछ औऱ बहुत ही प्रतिभावान हॉस्पिटल कर्मियों से मिलना बाक़ी था। कुछ अपने बारे में भी जानना बाक़ी था।