हम इंसान आदतों के मारे हैं। ये कैसे बन जाती हैं ये हमें पता भी नहीं चलता।
जब कोई एक काम रूटीन से हट जाता है तब समझ आता है की हमें कैसे उसकी आदत सी हो गयी थी। कोरोनकाल के चलते ऐसी कई अच्छी औऱ कुछ बुरी आदतों को मजबूरी में छोड़ना पड़ा।
ऐसी ही एक अजीब सी बात आज सुबह सुबह हुई। घर का दरवाज़ा खोला तो बहुत दिनों से गुम अख़बार भी रखा हुआ था। पिछले क़रीब 17 महीने के बाद से सुबह सुबह अख़बार औऱ चाय का साथ भूल ही गये थे। चाय का आनंद अब ऐसे ही लेते हैं। कुछ दिन अखबार की कमी भी खली लेक़िन लॉक डाउन में रहने के बाद सब आदतें बदल गयी थीं।
बचपन से अख़बार पढ़ने की आदत तो नहीं थी। लेक़िन जब कभी पढ़ने को मिल जाता तो पढ़ ज़रूर लेते। घर में उन दिनों सुबह सुबह \’नईदुनिया\’ आता था। चूँकि पिताजी इंदौर में काफ़ी समय रहे तो इस पेपर को पढ़ने की आदत हो गयी औऱ जब भोपाल आये तब भी यही अख़बार आता रहा। इन दिनों समाचार में छाये दैनिकभास्कर किसी को ख़ास पसंद नहीं आता। \’नईदुनिया\’ में काफ़ी क़माल के लेख पढ़ने तो मिले औऱ ये कहूँ की पत्रकारिता का पहला पाठ भी (अनजाने में ही सही)।
बरसों तक नईदुनिया ही पढ़ते रहे। औऱ जैसा होता है की धीरे धीरे आपको उस समाचार पत्र के लिखने का अंदाज़ औऱ जिस लिपि में वो छपता है, वो सब भाने लगता है। मतलब कम्पलीट पैकेज। हम लोगों की अंग्रेज़ी बेहतर हो इसके लिये पिताजी ने एक अंग्रेजी अख़बार भी लगवाया – टाइम्स ऑफ इंडिया। लेक़िन शुरू में सिर्फ़ पिताजी ही उसको पढ़ने का कष्ट करते। इसी पेपर में आर के लक्ष्मण जी का मशहूर कार्टून भी आता औऱ पापा कहते अगर कोई न भी पढ़े लेक़िन सिर्फ़ उस कार्टून के लिये ही अख़बार पैसा वसूल है।
ख़ैर समय के साथ साथ दोनों अखबारों को अच्छे से पढ़ना शुरू किया। हम तो दो अख़बार से ही घबरा जाते थे लेक़िन मामाजी के यहाँ 4-5 पेपर रोज़ आते थे। सबको पढ़ने का शौक़ भी था। अख़बार के अलावा हमारे यहाँ कई मैगज़ीन भी आती थीं औऱ बाकी किताबों के बारे में पहले ही बता चुका हूँ।
कई बार आदतें आगे काम आती हैं, ये एहसास उस समय हुआ जब पत्रकारिता के क्षेत्र में क़दम रखा। अपना अखबार तो पढ़ते ही थे, साथ में दूसरे अख़बार भी पढ़ते ये जानने के लिये की कहीं कुछ ज़रूरी ख़बर छूट तो नहीं गई। जब पीटीआई पहुँचे तो वहाँ सुबह की शिफ़्ट में एक रिपोर्ट बनाने का काम हुआ करता था। इस रिपोर्ट के आधार पर सभी संपादकगण की मीटिंग होती। किस अख़बार ने हमारी ख़बर ली औऱ क्या छूटा। उस समय के हमारे एक वरिष्ठ संपादक हुआ करते थे अरुण कुमार जी। उनकी ट्रेनिंग क़माल की थी। उन्होंने ये भी सिखाया की स्टोरी को अलग अलग तरीके से कैसे कवर कर सकते हैं।
ये जो ट्रेनिंग मिली उसकी बदौलत आज भी दिमाग़ यही दौड़ता रहता है जब अख़बार पढ़ते हैं। तो उस सुबह अख़बार मिला तो थोड़ा अटपटा सा लगा। बहुत दिनों बाद मिलने के बाद कि ख़ुशी भी नहीं हुई। हाँ अख़बार को हाँथ लगाने के पहले औऱ बाद हाँथ धोने की हिदायत का पालन किया।
कोरोना के चलते बहुत सी आदतें बदल गयी हैं। अख़बार हाँथ में न सही, मोबाइल पर तो मिलता है। तो अब सब कुछ वहीं से। हाँ अब नईदुनिया पढ़ने की आदत छूट गई है क्योंकि अब बहुत सारे अख़बार पढ़ते हैं औऱ पुराने पेपर के मालिक भी बदल गये तो लिख़ने का अंदाज़ भी औऱ लोग भी बदल गये हैं।
नईदुनिया में उस समय रोज़ का कॉमिक्स की एक स्ट्रिप आती थी मॉडेस्टी ब्लेज़। शायद औऱ कुछ भी लेक़िन मॉडेस्टी डेस्टी ब्लेज़ याद है। कहानी पूरी होने पर उसकी कटाई कर के किसी पुरानी कॉपी पर चिपका देने का काम होता। इसके बाद वो कहानी को एक साथ पढ़ने में बड़ा मज़ा आता। आज भी घर में इस काम के कुछ नमूने ज़रूर होंगे। मज़ा तो तब आता जब किसी कारण से कुछ दिन की कटिंग नहीं रख पाये। बस फ़िर जानने वाले जो नईदुनिया के पाठक थे उनसे ये हासिल करी जाती। ऐसे ही औऱ भी कई कटिंग्स रखी जातीं, किसी अच्छे लेख की या किसी अच्छे विचार की। आज भी जो दस्तावेजों का खज़ाना, जिसको श्रीमतीजी कई बार हटाने की चेतावनी दे चुकीं हैं, उसमें शायद कुछ रखा भी हो।
अब इतना लिख़ने के बाद लगता है फ़िर से अख़बार लगा लिया जाये। हाथ में अख़बार औऱ चाय की प्याली हो या अख़बार पढ़ते हुये रेडियो सुनने का जो आनंद है वो डिजिटल में कहाँ।
अख़बार का आपके जीवन में क्या स्थान रहा है? क्या कोरोनकाल में आपका भी अख़बार से नाता टूट गया था? कमेंट कर बतायें।