यादों के झरोखे से: जब देव आनंद की वजह से शम्मी कपूर बने रॉकी

फ़िल्मों में अक़्सर ये होता रहता है कि निर्माता निर्देशक फ़िल्म किसी कलाकार को लेकर शुरू करते हैं लेक़िन फ़िर किन्हीं कारणों से बात नहीं बनती। फ़िर नये कलाकार के साथ काम शुरू होता है। पिछले हफ़्ते रिलीज़ हुई \’सरदार उधम\’ भी ऐसी ही एक फ़िल्म थी। निर्देशक शूजीत सरकार ने फ़िल्म की कल्पना तो इऱफान ख़ान के साथ करी थी लेक़िन उनकी बीमारी औऱ बाद में असामयिक निधन के बाद विक्की कौशल के हिस्से में ये फ़िल्म आयी। फ़िल्म है बहुत ही शानदार। अगर नहीं देखी है तो समय निकाल कर देखियेगा।

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हम आतें हैं इस पोस्ट पर वापस। यादों के झरोखों से आज देख रहें हैं हिंदी फ़िल्म जगत की एक ऐसी फ़िल्म जिसने सिनेमा का रंगढंग औऱ संगीत-नृत्य सब बदल डाला। आज नासिर हुसैन साहब की फ़िल्म \’तीसरी मंज़िल\’ को रिलीज़ हुये 55 साल हो गये। 1966 में रिलीज़ हुई इस बेहतरीन सस्पेंस फ़िल्म के गाने आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं। औऱ अब तो ये जानते हुये भी की ख़ूनी ____ हैं इसको देखने का मज़ा कम नहीं होता। (ख़ूनी का नाम इसलिये नहीं लिखा क्योंकि अग़र किसी ने फ़िल्म नहीं देखी हो तो। वैसे आपको नोटिस बोर्ड पर फ़िल्म का सस्पेंस लिख कर लगाने वाला किस्सा तो बता ही चुका हूँ। आप इसे यहाँ पढ़ सकते हैं।

नासिर हुसैन ने ये फ़िल्म दरअसल देव आनंद के साथ बनाने का प्लान बनाया था। देव आनंद के भाई विजय आनंद भी नासिर हुसैन के प्रोडक्शन हाउस में काम कर रहे थे औऱ उनको राजेश खन्ना-आशा पारिख के साथ बहारों के सपने बनाने का ज़िम्मा दिया गया था।

फ़िल्म की कहानी का आईडिया जो नासिर हुसैन ने एक सीन में सुनाया था वो कुछ इस तरह था। दो सहेलियाँ दिल्ली से देहरादून जा रही हैं औऱ गाड़ी में पेट्रोल भरवा रहीं हैं पेट्रोल पंप पर। नायिका की बहन की मौत ही गयी तीसरी मंज़िल से गिरकर लेक़िन उसको लगता है वो क़त्ल था। वो बात कर रही हैं क़ातिल के बारे में। सहेली नायिका से पूछती है उसको पहचानोगी कैसे? नायिका बोलती है सुना है वो काला चश्मा पहनता है। उसी पेट्रोल पंप पर अपनी मोटरसाइकिल में पेट्रोल भरवाता हुआ युवक उनकी बात सुनकर अपना काला चश्मा उतार कर जेब में रख लेता है।

विजय आनंद ने हुसैन से पूछा आगे क्या होता है? वो कहते हैं पता नहीं। आनंद तब कहते हैं इसपर काम करते हैं औऱ इस तरह जन्म हुआ तीसरी मंजिल का।

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देव आनंद तीसरी मंज़िल के फोटो शूट के दौरान

सबकुछ ठीक ठाक चल रहा था। देव आनंद ने बाकायदा फ़िल्म के लिये फ़ोटो शूट भी कराया था जिसमें वो ड्रम बजाते हुये दिख रहे हैं। लेक़िन बीच में आगयी अभिनेत्री साधना जी की सगाई। साधना का इस फ़िल्म से कोई लेना देना नहीं थी। फ़िल्म की अभिनेत्री तो आशा पारिख ही रहने वाली थीं।

हुआ कुछ ऐसा की साधना जी की सगाई में नासिर हुसैन औऱ देव आनंद के बीच कहासुनी हो गयी। दोनों ही महानुभाव ने नशे की हालत में एक दूसरे को काफ़ी कुछ सुनाया। दरअसल नासिर हुसैन ने देव आनंद को ये कहते हुये सुन लिया की नासिर ने उनके भाई विजय आनंद को एक छोटे बजट की ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म (बहारों की मंज़िल) वो भी पता नहीं किसी राजेश खन्ना नामक अभिनेता के साथ बनाने को दी है। लेक़िन वो ख़ुद तीसरी मंजिल जैसी बड़ी, रंगीन फ़िल्म निर्देशित कर रहे हैं।

नासिर हुसैन इतने आहत हुये की उन्होंने अगले दिन विजय आनंद को तीसरी मंजिल का निर्देशक बना दिया औऱ स्वयं बहारों की मंज़िल का निर्देशन का ज़िम्मा उठाया। इसके साथ ही उन्होंने एक औऱ बड़ा काम कर दिया। उन्होंने देव आनंद को तीसरी मंज़िल से बाहर का रास्ता दिखा दिया। जब उनकी जगह किसको लिया जाये पर विचार हुआ तो शम्मी कपूर साहब का नाम आया। जब शम्मी कपूर को ये पता चला की देव आनंद को हटा कर उनको इस फ़िल्म में लिया जा रहा है तो उन्होंने इस शर्त पर काम करना स्वीकार किया की देव आनंद ये कह दें की उन्हें कपूर के इस फ़िल्म में काम करने से कोई आपत्ति नहीं है।

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शम्मी कपूर फ़िल्म की शूटिंग के दौरान

देव आनंद ने अपनी स्वीकृति दे दी औऱ नतीजा है ये तस्वीर। लेक़िन ये सब NOC (नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट) के बाद ऐसा नहीं हुआ कि फ़िल्म शुरू हो गयी। नासिर हुसैन के पास कहानी औऱ कलाकार दोनों थे लेक़िन उनकी फ़िल्म में संगीत का बहुत एहम रोल होता है। उन्हें तलाश थी एक संगीतकार की। किसी कारण से वो ओ पी नय्यर, जो उनकी पिछली फ़िल्म फ़िर वही दिल लाया हूँ के संगीतकार थे, उनको वो दोहराना नहीं चाहते थे।

शम्मी कपूर जब फ़िल्म का हिस्सा बने तो उन्होंने संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन का नाम सुझाया औऱ कोशिश करी की वो फ़िल्म का संगीत दें। लेक़िन इसी बीच आये आर डी बर्मन। अब बर्मन दा का नाम कहाँ से आया इसके बारे में कई तरह की बातें हैं। ऐसा माना जाता है गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी साहब, जिन्होंने राहुल के पिता एस डी बर्मन के साथ कई फिल्मों में काम किया था, उन्होंने उनका नाम सुझाया। नासिर हुसैन ने मजरूह के कहने पर मुलाकात करी। ख़ुद आर डी बर्मन ने भी मजरूह सुल्तानपुरी साहब को इसका श्रेय दिया है।

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शम्मी कपूर को इसका भरोसा नहीं था की आर डी बर्मन फ़िल्म के लिये सही संगीतकार हैं। लेक़िन जब उन्होंने धुनें सुनी तो वो नाचने लगे औऱ वहीं से शुरू हुआ बर्मन दा, नासिर हुसैन एवं मजरूह सुल्तानपुरी का कारवां। फ़िलहाल बात तीसरी मंजिल की चल रही है तो कारवां की बातें फ़िर कभी।

जब फ़िल्म बन रही थी उसी दौरान शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली का निधन हो गया। फ़िल्म का सेट लगा हुआ था लेक़िन नासिर हुसैन साहब ने इंतज़ार करना बेहतर समझा। कुछ दिनों के बाद भी शम्मी कपूर काम करने को तैयार नहीं थे। विजय आनंद घर से उनको ज़बरदस्ती सेट पर लेकर आ गये। लेक़िन शम्मी कपूर बहुत दुःखी थे औऱ उन्होंने बोला उनसे ये नहीं होगा। विजय आनंद ने कहा एक बार करके देखते हैं अगर नहीं होता है तो काम रोक देंगे।

उस समय तुमने मुझे देखा होकर मेहरबां गाने की शूटिंग चल रही थी। फ़िल्म में ये गाना एक ऐसे मोड़ पर आता है जब नायक को लगता है नायिका को उनसे मोहब्बत हो गयी है औऱ इसी ख़ुशी में वो ये गाना गा रहे हैं। लेक़िन असल में बात कुछ औऱ ही थी। ख़ैर, शम्मी जी तैयार हुये औऱ शूटिंग शुरू हुई। सब कुछ ठीक हुआ औऱ जैसे ही शॉट ख़त्म हुआ सब ने तालियाँ बजायी। लेक़िन विजय आनंद को कुछ कमी लगी तो उन्होंने शम्मी कपूर से कहा एक टेक औऱ करते हैं।

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इतने समय बाद शम्मी कपूर वापस आये थे औऱ काम शुरू ही किया था। सबको लगा आज कुछ गड़बड़ होगी। लेक़िन जब शम्मी जी ने रिटेक की बात सुनी तो वापस पहुँच गये शॉट देने। सबने राहत की साँस ली। थोड़े आश्चर्य की बात है की इतनी बड़ी हिट फिल्म देने के बाद नासिर हुसैन औऱ शम्मी कपूर ने इसके बाद दोबारा साथ में काम नहीं किया।

तीसरी मंज़िल के बाद विजय आनंद ने भी कभी नासिर हुसैन के साथ दोबारा काम नहीं किया। नासिर हुसैन ने भी इस फ़िल्म के बाद बाहर के किसी निर्देशक के साथ काम नहीं किया। अपने बैनर तले सभी फ़िल्मों का निर्देशन उन्होंने स्वयं किया। जब उन्होंने निर्देशन बंद किया तो उनके बेटे मंसूर खान ने ये काम संभाला। उसके बाद से अब ये प्रोडक्शन हाउस बंद ही है।

तीसरी मंजिल वो आख़िरी नासिर हुसैन की फ़िल्म थी जिसके सभी गाने मोहम्मद रफ़ी साहब ने गाये थे। दोनों ने साथ में काम जारी रखा लेक़िन अब किशोर कुमार का आगमन हो चुका था। वैसे रफ़ी साहब को नासिर हुसैन की हम किसी से कम नहीं फ़िल्म के गीत \”क्या हुआ तेरा वादा\’ के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।

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तीसरी मंज़िल से जुड़ी एक औऱ बात। ये जो तस्वीर है ये है सलमान खान के पिता सलीम खान। लेखक बनने से पहले उन्होंने कुछ फिल्मों में काम किया था उसमें से एक थी तीसरी मंज़िल। शम्मी कपूर आशा पारेख औऱ हेलन, जिनके साथ उन्होंने बाद में विवाह किया, को आप फ़िल्म के पहले गाने \’ओ हसीना ज़ुल्फोंवाली\’ में देख सकते हैं।

इसी गाने से जुड़ी एक बात के साथ इस पोस्ट का अंत करता हूँ। फ़िल्म के रिलीज़ होने के बाद एक सज्जन ने गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी से इस गाने के बोल को लेकर सवाल किया की, \’मजरूह साहब क्या आप ये कहना चाहते हैं उस एक हसीना की ही ज़ुल्फ़ें हैं? क्या बाक़ी हसीनाओं के बाल नहीं हैं? क्या वो गंजी हैं?\’

अग़र फ़िल्म देखने के इच्छुक हों तो यूट्यूब पर देख सकते हैं। लेक़िन संभाल कर। देखना शुरू करेंगे तो उठना मुश्किल होगा। फ़िल्म की शुरुआत ही ऐसी है की आप जानना चाहते हैं आगे क्या होगा। खाने पीने की तैयारी के साथ मज़ा लें तीसरी मंजिल का।

रविवारीय: रुक जाना नहीं तू कहीं हार के

पिछले दिनों कौन बनेगा करोड़पति में Scam वेब सिरीज़ में हर्षद मेहता का रोल करने वाले प्रतीक गाँधी एवं जानेमाने अभिनेता पंकज त्रिपाठी आये थे। Scam सीरीज़ पिछले साल अक्टूबर के महीने में ही रिलीज़ हुई थी। सबको प्रतीक गाँधी का काम इतना पसंद आया की वो रातों रात एक स्टार बन गये औऱ उनको बहुत सा अच्छा काम करने को मिला औऱ अब शायद आगे भी मिलता रहेगा।

जब में वो गरबा वाली पोस्ट लिख रहा था तो सलमान ख़ान की 2018 में निर्मित फ़िल्म लवयात्री का एक गाना देख रहा था ढ़ोलीडा। फ़िल्म सलमान खान ने अपने बहनोई आयुष शर्मा के लिये बनाई थी। मैंने फ़िल्म नहीं देखी है तो जब गाना देखा तो थोड़ी हैरत हुई, बहुत गुस्सा भी आया। गाने में कुछ सेकंड के लिये प्रतीक गाँधी भी दिखे। पहले तो विश्वास नहीं हुआ इसलिये दोबारा देखा। थे तो प्रतीक गाँधी ही। पूरे गाने में वो बाकी एक्स्ट्रा के तरह काम कर रहे थे क्योंकि सारा ध्यान तो बहनोई साहब पर था।

वापस आते हैं केबीसी की रात पर। अमिताभ बच्चन ने जब उनसे उनके रातों रात सफ़ल होने के बारे में पूछा तो प्रतीक ने बहुत ही सरलता से कहा,

\”लोगों के लिये ये रातों रात होगा। मेरे लिये ये रात चौदह साल लंबी थी।\”

प्रतीक गाँधी

जब वो गाना देख रहा तब मुझे यही ख़्याल आ रहा था, प्रतीक तब भी हर्षद मेहता के क़िरदार जैसी प्रतिभा के धनी थे। ज़रूरत थी उनकी उस प्रतिभा में किसी के विश्वास की। ज़रूरत थी उस मौक़े की। जब वो मौक़ा मिला तो प्रतीक ने धो डाला औऱ ऐसा धोया है की वो अब एक मिसाल बन गए हैं।

उस फ़िल्म के बाद आयुष शर्मा की नई फ़िल्म (साले साहब ने फ़िर से पैसा ख़र्च किया है) भी तैयार है। लेक़िन उन्हीं के साथ उस फ़िल्म में छोटा सा रोल करने वाले प्रतीक गाँधी आज मीलों आगे निकल गये हैं।

ऐसी बहुत सी घटनायें हैं। हैरी पॉटर की लेखिका की क़िताब बारह जगह से वापस लौटाई गई थी। सलमान ख़ान का पैसा है वो आयुष शर्मा पर लगायें या नूतन की पोती पर। प्रतीक गाँधी जैसे प्रतिभावान कलाकार को हंसल मेहता जैसा जोहरी मिल ही जाता है।

आप बस अपना काम करते रहें। उसी लगन, निष्ठा के साथ जैसे प्रतीक गाँधी करते रहे अपने छोटे छोटे रोल में।

यादों के मौसम 4

यादों के मौसम की पिछली कड़ी यादों के मौसम 3

माँ और प्रीति किसी तरह जय को उठाकर घर के अंदर लाये और माँ ने उसे पीने के लिये ग्लूकोज़ का पानी दिया और प्रीति से कहा की वो बगल वाले मिश्रा जी के घर से पापा को बैंक फ़ोन कर फौरन घर आने को कहे।

शाम का समय था तो अगल बगल के घर के बच्चे बाहर ही खेल रहे थे और उन्होंने जय को गिरते हुये और प्रीति को माँ को मदद के लिये बुलाते हुये सुन लिया था। उन्होंने अपने अपने घरों में ये बता भी दिया था तो उनमें से कुछ की माताजी जय के घर के बाहर ही खड़ी थीं जब प्रीति बाहर मिश्रा जी के घर जाने को निकली। श्रीमती मिश्रा ने ही सबसे पहले पूछा जय के बारे में। प्रीति ने घटना का संक्षिप्त विवरण दे दिया और उनसे कहा कि \”आंटी पापा को बैंक फ़ोन लगाना था\”। उन्होंने उसको अपने घर ले जाते हुये पूछा, \”जय कुछ कमज़ोर लग रहा है। क्या पढ़ाई का टेंशन है?\”। प्रीति ने सिर्फ पता नहीं कहके पीछा छुड़ाना चाहा। लेकिन श्रीमती मिश्रा को तो जैसे एक मौका मिल गया था। वैसे उनसे सब दूर ही भागते थे। क्योंकि एक बार वो शुरू हो जायें तो बस किसी को बचाने के लिये आना ही पड़ता है।

जय को क्या हुआ था ये बिना जाने ही उन्होंने उसके खाने-पीने की आदतों और बेसमय सोने को इसका ज़िम्मेदार ठहरा दिया। जब मिश्रा जी के घर पहुँचे तो उनका छोटा बेटा अमित घर पर ही था। प्रीति को नमस्ते करते हुये उसने पूछा \”दीदी कुछ ज़रूरत हो तो मैं चलता हूँ।\” प्रीति ने कुछ जवाब नहीं दिया और फ़ोन का रिसीवर उठा कर वो बैंक का नंबर डायल करने लगी। अमित प्रीति को देख रहा था और प्रीति अपने पिताजी को जय का हाल बता रही थी। बात करते करते उसके आँसू निकलने लगे। अमित की माँ चौके में थी। अमित ने आगे बढ़कर प्रीति के कंधे पर हाँथ रखते हुये कहा, \”दीदी जय भैया ठीक हो जायेंगे\”। इतना सुनने के बाद प्रीति का रोना बढ़ गया। अमित ने माँ को आवाज़ देकर बुलाया तो श्रीमती मिश्रा एक गिलास पानी और कुछ बिस्कुट लेकर ड्राइंग रूम में ही आ रहीं थी। उन्होंने भी प्रीति को समझाया।

जय को पहले से बेहतर लग रहा था लेकिन बहुत कमज़ोरी लग रही थी। प्रीति आयी तो उसने पास के डॉ खोना के क्लीनिक चलने को कहा। \”वहाँ तक कैसे जाओगे\”, माँ ने पूछा। उन्होंने प्रीति को जय के पास बैठने के लिये कहा और खुद डॉ खोना के क्लीनिक चली गईं। वहाँ चार पांच मरीज़ पहले से थे। जय की माँ, सरोज सिंह, ने कंपाउंडर से पूछा कि क्या डॉ साहब उनके बेटे को घर पर देख लेंगे। उसको बहुत कमज़ोरी है और यहाँ तक चल कर आना थोड़ा मुश्किल है। कंपाउंडर ने उन्हें इंतज़ार करने को कहा। डॉ साहब से पूछकर उसने कहा की आजायेंगे लेकिन मरीजों को देखने के बाद।

कंपाउंडर के जवाब से थोड़ी निश्चिंत जय की माँ जब घर पहुँची तो जय ड्राइंग रूम में नहीं था। हैरान-परेशान प्रीति उनके पर्स में कुछ ढूंढ रही थी। माँ को देख उसने कहा, \”पापा मिश्रा अंकल की कार से भैया को सरकारी अस्पताल ले गये हैं। हम को भी वहीं चलना है। आप पैसे रख लेना, पापा ने कहा है\”।

कल के लिये आज को न खोना

जब महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ औऱ पांडव विजयी हुये तो श्रीकृष्ण गांधारी से मिलने गये। युद्ध में अपने पुत्रों की मृत्यु से दुःखी गांधारी ने श्रीकृष्ण को श्राप दिया था की जैसे उनके सामने उनके कुल का अंत हुआ था वैसे ही श्रीकृष्ण के सामने यदुवंश का भी ऐसे ही अंत होगा।

श्रीकृष्ण को तो इस बारे में सब ज्ञात था लेक़िन श्रीराधा ने जब स्वपन में ये प्रसंग देखा तो वो तहत विचलित हुईं। वो किसी भी तरह से आगे जो ये होने वाला था उसको रोकने का प्रयास करने लगीं। उन्होंने उस व्यक्ति को भी ढूंढ निकाला जिसके तीर से वासुदेव के प्राण निकलने वाले थे। राधा ने जरा नामक उस व्यक्ति को स्वर्ण आभूषण भी दिये ताकि वो अपना जीवन आराम से व्यतीत कर सके औऱ शिकार करके जीवनयापन की आवश्यकता ही न पड़े।

श्रीकृष्ण ये सभी बातें जानते थे औऱ वो अपने तरीक़े से राधा को ये समझाने का प्रयास भी कर रहे थे की कोई कुछ भी करले जो नियत है वो होकर ही रहेगा। अंततः श्रीराधा को ये बात समझ आ जाती है की जिस पीड़ा से वो डर रही हैं वो एक चक्र है। अगर एक पुष्प खिला है तो उसका मुरझाना निश्चित है। जब इस बात का उन्हें ज्ञान हो जाता है तो उनका बस एक ही लक्ष्य रहता, जो भी समय है उसको श्रीकृष्ण के साथ अच्छे से व्यतीत करें।

यही हमारे जीवन का भी लक्ष्य होना चाहिये। हर दिन को ऐसे बितायें जैसे बस आज की ही दिन है। कल पर टालना छोड़ें।

गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है

हमारे बड़े जो हैं अपने अनुभव से बहुत सी बातें हमें सिखाते हैं। सामने बैठा कर ज्ञान देने वाली बातों की बात नहीं कर रहा हूँ लेक़िन छोटी छोटी बातें जो हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में होती रहती हैं उनसे मिलने वाली सीख की बात कर रहा हूँ। जो सामने बैठा कर ज्ञान मिलता है वो तो कभी कभार होता है औऱ कुछ ख़ास मौकों पर या किसी व्यक्तिविशेष के संदर्भ में होता है।

पिताजी शिक्षक रहे हैं तो उन्होंने पढ़ाई/परीक्षा की बहुत सी बातें बतायीं जैसे पेपर मिलने पर उसको पूरा पढ़ें या लिखने के बाद दोबारा पढ़ ज़रूर लें। परीक्षा के पहले सारा सामान जैसे पेन, पेंसिल आदि जाँच लें। इसके अलावा पढ़ाई के लिये वो हमेशा कहते लिखने का अभ्यास बहुत ज़रूरी है। बार बार लिखो इससे चीज़ें याद रहती हैं।

आज इनका ज़िक्र क्योंकि एक लेख पढ़ रहा था। युवाओं के लिये था। अब अड़तालीस साल वाला भी युवा होता है यही मान कर मैंने भी पढ़ डाला। तो उसमें यही बताया गया की अगर आपका कोई लक्ष्य है तो आप उसको लिखें औऱ अपनी आँखों के सामने रखें जिससे आपको याद रहे की आप क्या पाना चाहते हैं। लक्ष्य लिखने से थोड़ी आपके विचारों में भी क्लैरिटी आती है। मैंने बहुत उपयुक्त शब्द ढूंढा लेक़िन क्लैरिटी से अच्छा कुछ नहीं मिला।

इसी तरह जब कहीं बाहर जाना होता तो पिताजी काफ़ी समय पहले घर से निकल जाते औऱ भले ही स्टेशन पर एक घंटा या ज़्यादा इंतज़ार करना पड़े, वो जो आखिर में भाग दौड़ होती है उससे बच जाते हैं औऱ प्लेटफॉर्म पर कुछ पल सुकून से बिताने को मिल जाते हैं। साथ ही पढ़ने के लिये कोई किताब देखने का समय भी मिल जाता है।

हर बार समय पर या समय से पहले पहुँच ही जाते थे लेक़िन एक बार समय से काफ़ी पहले निकलने के बाद भी कुछ ऐसा हुआ… आपकी कभी ट्रैन, फ्लाइट या बस छूटी है? माता-पिता एक बार मुम्बई आये थे। उनकी वापसी की ट्रेन शाम की थी तो तय समय से काफ़ी पहले हम लोग स्टेशन पर जाने को तैयार थे। क्योंकि मुम्बई में ही पहले कुछ रिश्तेदारों की ट्रेन छूट चुकी थी तो कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे। इसलिये टैक्सी भी बुक कर ली। लेक़िन ऐन समय पर बड़ी टैक्सी नहीं मिली तो दो छोटी टैक्सी बुक करी। एक में माता पिता के साथ मैं बैठा औऱ दूसरी में श्रीमतीजी एवं बच्चे। अब ये भी हमारे यहाँ एक आदत सी बन गयी है। हमारे मतलब हिंदुस्तान में जहाँ जाने वाले दो लोग औऱ विदा करने वाले दस। पिछले दिनों जब कुछ शहरों में प्लेटफार्म टिकट के दाम बढ़े तो काफ़ी हंगामा भी हुआ।

हम मुद्दे पर वापस आते हैं। जैसा महानगरों में होता है, सड़कों पर बारह महीने काम होता है। जब बात करोड़ों की हो तो काम भले ही न हो रहा हो, दिखना चाहिये हो रहा है। तो हमारे रास्ते में भी ऐसा ही कुछ हुआ जिसके चलते लंबा जाम लगा हुआ था। ट्रैफिक रेंग रहा था लेक़िन उम्मीद थी कि समय पर पहुँच जायेंगे। लेक़िन थोड़ी देर बाद ऐसी आशायें ख़त्म होती दिख रही थीं। जब ये पक्का हो गया की ये संभव नहीं हो पायेगा तो ये निर्णय लिया गया कि दूसरे स्टेशन, दादर, जहाँ ट्रैन दस मिनिट बाद पहुँचती है वहाँ जाया जाय। या पहुँचने का प्रयास किया जाये।

वहाँ पहुँचने की उम्मीद ही नहीं यक़ीन भी था। बीच में पिताजी एक दो बार गुस्सा भी हुये लेक़िन ट्रैफिक जाम पर किसी का ज़ोर नहीं था। हम लोग साथ में ये भी बात करते जा रहे थे की अग़र वहाँ भी नहीं पहुँचे तो क्या क्या विकल्प हैं। ख़ैर जब दादर के नज़दीक पहुँचे तो सबने राहत की साँस ली। लेक़िन कहानी में ट्विस्ट बाक़ी था।

ट्विस्ट ये था की जो हमारे ड्राइवर साहब थे उन्होंने वो मोड़ छोड़ दिया जहाँ से दादर स्टेशन बस दो मिनिट की दूरी पर था। समय का मोल तुम क्या जानो ड्राइवर बाबू। उस पर महाशय कहने लगे आपको बताना चाहिये था। अचानक फ़ोन की घंटी बजने लगी। श्रीमतीजी का कॉल था।

अब इतना कुछ चल रहा था उसपर ये कॉल। लेक़िन घर वापस भी आना था औऱ चाय भोजन का भी सवाल था। तो फोन सुनना तो था ही। लेक़िन उधर से जो सुना उसके बाद हँसी छूट गयी। दरअसल श्रीमतीजी औऱ बच्चे जो माता पिता को विदा करने आये थे वो स्टेशन पहुँच चुके थे। लेक़िन मुसाफ़िर अभी भी टैक्सी की सवारी का आनद ले रहे थे।

जब स्टेशन पहुँचे तो सबसे पहले पूछा ट्रैन आ गयी है क्या। जब पता चला की अभी आने वाली है तो सबने दौड़ लगा दी। अब ये जो AC वाले डिब्बे होते हैं ये या तो बिलकुल आगे लगे होते हैं या पीछे। वैसे तो आजकल सभी डिब्बे जुड़े रहते हैं तो आप अंदर ही अंदर भी अपनी सीट तक पहुँच सकते हैं। लेक़िन माता पिता को उनकी सीट पर ही बैठाने का निर्णय लिया। ट्रैन आयी औऱ सामान रखकर वो बैठ भी गये। इस बात को समय काफ़ी समय हो गया है लेक़िन अब ये वाक्या समय पर या समय से पहुँचने के लिये एक उदाहरण बन गया है।

ऐसा ही एक औऱ वाक्या हुआ था जब श्रीमती जी एवं बच्चों को मायके में एक विवाह में सम्मिलित होने के लिये जाना था। उस समय टैक्सी मिली नहीं औऱ उन दिनों अपनी गाड़ी नहीं थी। एक पड़ोसी की गाड़ी मिल तो गयी लेक़िन उस समय मेरे लाइसेंस का नवीनीकरण होना बाक़ी था। अच्छी बात ये थी की पिताजी साथ में थे। पहले थोड़ी डाँट खाई उसके बाद हम स्टेशन के लिये रवाना हुये। चूँकि बच्चे छोटे थे औऱ सामान भी था इसलिये सीट तक छोड़ने का कार्यक्रम था। स्टेशन पहुँच कर माँ, श्रीमती जी औऱ मैंने फ़िर वही दौड़ लगाई। माँ के पैर में मोच आयी थी लेक़िन बच्चों का हाँथ पकड़कर उन्होंने भी अपना योगदान दिया। लेक़िन इस बार कोच आगे की तरफ़ था। भागते दौड़ते पहुँच ही गये औऱ सवारी को गाड़ी भी मिल गई। अक्सर ये विचार आता है अगर उस दिन गाड़ी छूट गई होती तो क्या होता? 

2019 में जब भोपाल जाना हुआ था तब हमारी ट्रेन छूट गयी। ट्रैफिक के चलते हम जब हमारी टैक्सी स्टेशन में दाख़िल हो रही थी तब ट्रैन सामने से जाती हुई दिखाई दे रही थी। जब तक टैक्सी रुकती तब तक आख़िरी कोच भी निकल चुका था। वो तो दो घंटे बाद वाली ट्रेन में टिकट मिल गया तो भोपाल जाना संभव हुआ। हमारे जीवन में बहुत सी चीजों का योग होता है तभी संभव होता है। इस यात्रा का योग भी बन ही गया।

रात की हथेली पर चाँद जगमगाता है

इन दिनों नवरात्रि की धूम है। बीते दो साल से त्योहारों की रौनक़ कम तो हुई है लेक़िन उत्साह बरकरार है। लोग किसी न किसी तरह त्यौहार मनाने का तरीक़ा ढूंढ ही लेते हैं। अगर सावधानी के साथ मनाया जाये तो बहुत अच्छा।

पिताजी को जो सरकारी मकान मिला था वो बिल्कुल मेन रोड पर था। भोपाल में चलने वाली बसों का एक रूट घर के सामने से ही जाता था। कुल मिलाकर आजकल जो घर देखे जाते हैं, ये भी पास हो, वो भी नज़दीक हो, बस ऐसा ही घर मिला था।

घर के सामने एक कन्या विद्यालय था जो हमारे सामने ही बना था औऱ हम लोगों ने वहाँ बहुत खेला भी (जब तक क्रिकेट से स्कूल में लगे शीशे नहीं टूटने शुरू हुये)। इसी स्कूल से लगा हुआ था लड़कों का स्कूल। लेक़िन दोनों ही स्कूल के आने जाने का रास्ता विपरीत दिशा में था।

ये जो लड़कों का स्कूल था वहाँ अच्छा बड़ा मैदान था औऱ हर साल नवरात्रि में गरबा का कार्यक्रम आयोजित होता। भोपाल शहर का शायद सबसे बड़ा गरबा कार्यक्रम हुआ करता था। सारा शहर मानो गरबा कर रहा हो इतनी भीड़ हो जाती। औऱ यही हमारी मुसीबत का कारण बनता।

घर के सामने जो भी अच्छी ख़ासी जगह थी रात होते होते वो सब गाड़ियों से भर जाती औऱ अगर हम लोग कोई बाहर निकले तो गाड़ी अंदर रखने का कार्यक्रम देर रात तक रुका रहता। हमारे प्यारे देशवासियों की आदत भी कुछ ऐसी ही है। अपने घर के सामने ऐसा कुछ हो तो पता नहीं क्या कर बैठें लेक़िन ख़ुद बिना सोचे समझे यही काम करते रहते हैं।

उन दिनों मेरा भी भोपाल में उसी संस्था से जुड़ाव था जो ये भव्य कार्यक्रम आयोजित करती थी। लेक़िन चूंकि हमारा काम ही शाम को शुरू होता था तो कभी जाने का मौक़ा नहीं मिला। जब श्रीमती जी से विवाह की बात शुरू हुई तो पता चला वो सामने वाले उसी स्कूल में पढ़ती थीं जिसका निर्माण हमारे सामने हुआ था। कई लोगों को लगा शायद मैंने उन्हें स्कूल आते जाते देखा औऱ…

दूसरा रहस्योद्घाटन ये हुआ की जिस गरबा की भीड़ से हम साल दर साल परेशान रहते थे वो उस भीड़ का भी हिस्सा थीं। अलबत्ता उनके ग्रुप की गाड़ियाँ हमारे घर के सामने नहीं खड़ी होती थीं।

जिस दिन हमारी सगाई हुई उन दिनों भी ये महोत्सव चल रहा था। समारोह के पश्चात सब अपने अपने घर चले गये लेक़िन श्रीमती जी औऱ उनके भाई बहन सबका गरबा कार्यक्रम में जाने का बड़ा मन था। लेक़िन सबको डाँट डपट कर समझाया गया औऱ सीधे घर चलने को कहा गया।

जब गरबा क्या होता है ये नहीं मालूम था, उस समय एक बार अहमदाबाद जाना हुआ था। एक गीत \’केसरियो रंग तने लागयो रे गरबो\’ ये सुना था औऱ यही याद भी रह गया है (अगर बोल ग़लत हो तो बतायें)। भोपाल में गुजराती समाज भी ऐसा कार्यक्रम आयोजित करता था लेक़िन सिर्फ़ सदस्यों के लिये। मुम्बई में भी ऐसे कई बड़े कार्यक्रम होते हैं जहाँ कभी जाना नहीं हुआ। गरबा क्वीन फाल्गुनी पाठक से मिलना ज़रूर हुआ था लेक़िन दिल्ली में जब वो अपने एक एल्बम रिलीज़ के सिलसिले में आई थीं।मुम्बई में तो उनके कार्यक्रम को टीवी पर ही देखा है। गरबे की असली धूम तो गुजरात में होती है लेक़िन अमिताभ बच्चन के बार बार कुछ दिन तो गुज़ारो गुजरात में बोलने के बाद भी इसका मौक़ा नहीं लगा है।

जो हमारे समय नवरात्रि का कार्यक्रम होता था वो था झाँकी देखने जाने का। एक दिन परिवार के सब लोगों को कार में भरकर पिताजी पूरे शहर की झाँकी दिखाते। ये सब घुमाने फिराने का कार्यक्रम पिताजी के ज़िम्मे ही आता क्योंकि – एक तो उनको शहर के इलाके बहुत अच्छे से पता हैं औऱ दूसरा ये की वो बिना किसी परेशानी के आराम से घूमने देते हैं। मतलब घूमते समय घड़ी पर नज़र नहीं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण? श्रीमती जी आज भी कहती हैं मार्केट जाना हो तो पापा के साथ जाना चाहिये वो आराम से घूमने देते हैं। हमारे साथ मार्केट जाना तो घंटो का नहीं मिनटों का काम होता है। अभी तक ये गुण नहीं आया है – देखिये आने वाले वर्षों में क्या कुछ बदलता है।

समय के साथ सब बदलता है। ऐसा ही कुछ शादी के लगभग दो साल बाद हुआ। कहाँ पास होने के बाद भी गरबा कार्यक्रम में कभी नहीं गये औऱ कहाँ विवाह उपरांत पूरे एक महीने गुजरात से सिखाने आये गुरुजी से गरबे की ट्रेनिंग ली। हम चारों – ताऊजी के बेटे और भाभी औऱ हम दोनों, शायद बहुत ही गंभीरता से सीख रहे थे। ये अलग बात है कभी गरबा कार्यक्रम में जाने का औऱ अपनी कला दिखाने का मौक़ा नहीं मिला।

तो ये हमारा भोपाल भ्रमण कार्यक्रम का बड़ा इंतज़ार होता। अलग तरह की प्रतिमाओं को देखना, कोई किसी घटना को दर्शा रहा है या कोई किसी प्रसिद्ध मंदिर की झाँकी औऱ सुंदर सी देवीजी की मूर्ति। इन सबकी अब बस यादें ही शेष हैं। अक्सर ये घूमना षष्ठी या सप्तमी के दिन होता क्योंकि कालीबाड़ी भी जाना होता था। नवरात्रि मतलब गरबा – ये वाला कार्यक्रम अभी भी पूरी तरह से नहीं हुआ है। मुम्बई में झाँकी/पंडाल वाला कार्यक्रम सिर्फ़ बंगाली समाज तक सीमित है तो वहाँ जाना हुआ है।

जो हमारा घर था उसके दायें औऱ बायें दोनों तरफ़ दुर्गाजी की झाँकी लगती औऱ सुबह सुबह से दोनों ही पंडाल भजन लगा देते। शुरुआत एक से होती लेक़िन दूसरे कमरे तक पहुंचते पहुंचते भजन भी बदल जाता। क्योंकि पहले वाले की आवाज़ दूसरे के मुक़ाबले कमज़ोर पड़ जाती।

आप नवरात्रि कैसे मानते हैं औऱ इतने वर्षों में क्या बदला ? अपनी यादें साझा करें।

जब भी ये दिल उदास होता है, जाने कौन आसपास होता है

गुलज़ार मेरे पसंदीदा शायरों में से एक हैं औऱ इसके पीछे सिर्फ़ उनके लिखे गाने या ग़ज़ल ही नहीं बल्कि उनकी फिल्मों का भी बहुत बड़ा योगदान है। वैसे आज तो पूरी पोस्ट ही गुलज़ारमय लग रही है। शीर्षक भी उन्हीं का एक गीत है औऱ आगे जो बात होने जा रही वो भी उनका ही लिखा है। आज जिसका ज़िक्र कर रहे हैं वो न तो फ़िल्म है न ही गीत। औऱ जिस शख्स को याद करते हुये ये पोस्ट लिखी जा रही है, वो भी गुलज़ार की बड़ी चाहने वालों में से एक।

गुलज़ार, विशाल भारद्वाज (संगीतकार), भूपेंद्र एवं चित्रा (गायक) ने साथ मिलकर एक एल्बम किया था सनसेट पॉइंट। इस एल्बम में एक से एक क़माल के गीत थे। मगर इसकी ख़ासियत थी गुलज़ार साहब की आवाज़ जिसमें वो एक सूत्रधार की भूमिका में कहानी को आगे बढ़ाते हैं या अगले गाने के लिये एक पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। इसको सुनकर आपकी गाना सुनने की इच्छा औऱ प्रबल होती है। शायद अपने तरह का ये एक पहला प्रयोग था। एल्बम का पूरा नाम था सनसेट पॉइंट – सुरों पर चलता अफ़साना।

आज से ठीक एक बरस पहले हमारा जीवन हमेशा के लिये बदल गया जब मेरी छोटी बहन कैंसर से अपनी लड़ाई हार गई। कहते हैं बदलाव ही जीवन है। हम में से किसी के पास भी इस बदलाव को स्वीकार कर आगे बढ़ने के अलावा औऱ दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था। आप कुछ भी करिये, नहीं मानिये, लेक़िन वो बदलाव हो चुका था। हमेशा के लिये।

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यशस्विता शास्त्री ❤️❤️❤️

365 दिन का लंबा सफ़र पलक झपकते ही ख़त्म हो गया लेक़िन यादों की सुई जैसे अटक सी गयी है। अग़र आपने कभी रिकॉर्ड प्लेयर पर गाने सुने हों तो ठीक वैसे ही। कुछ आगे बढ़ता सा नहीं दिखता लेक़िन 2021 आया भी औऱ अब ख़त्म होने की कगार पर है।

वापस आते हैं आज गुलज़ार साहब कैसे आ गये। इस एल्बम में अपनी भारी भरकम आवाज़ में एक गीत के पहले कहते हैं –

पल भर में सब बदल गया था…

…औऱ कुछ भी नहीं बदला था।

जो बदला था वो तो गुज़र गया।

कुछ ऐसा ही उस रात हुआ था। अपनी आंखों के सामने \’है\’ को \’था\’ होते हुये देखा। पल भर में सब कुछ बदल गया था। सभी ने अपने अपने तरीक़े से अपने आप को समझाया। जब नहीं समझा पाये तो आँखे भीगो लीं। कभी सबके सामने तो कभी अकेले में। हम सब, यशस्विता के परिवारजन, रिश्तेदार, दोस्त सब अपनी अपनी तरह से इस सच्चाई को मानने का प्रयास कर रहे थे। लेक़िन समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा औऱ आज यशस्विता को हमसे बिछड़े हुये एक बरस हो गया। पहली बरसी।

ज़िन्दगी की खूबसूरती भी यही है। ये चलती रहती है। औऱ यही अच्छा भी है। नहीं तो हम सभी कहीं न कहीं अतीत में भटकते ही रहें। सबके पास अपने अपने हिस्से की यादें हैं। कुछ साझा यादें भी हैं औऱ कुछ उनके बताने के बाद हमारी यादों का हिस्सा बन गईं। आज जब यशस्विता को याद करते हैं तो इसमें वो बातें भी होती जो उससे कभी नहीं करी थीं क्योंकि इन्होंने आकार उनके जाने के बाद लिया। जैसे कोई अजीबोगरीब नाम पढ़ो या सुनो तो उसका इस पर क्या कहना होता ये सोच कर एक मुस्कान आ जाती है औऱ फ़िर एक कारवां निकल पड़ता है यादों का। जैसे अमिताभ बच्चन सिलसिला में कहते हैं न ठीक उसी तरह…तुम इस बात पर हैरां होतीं। तुम उस बात पर कितनी हँसती।

जब मैंने लिखना शुरू किया तो अतीत के कई पन्ने खुले औऱ बहुत सी बातों का ज़िक्र भी किया। जब कभी यशस्विता से बात होती औऱ किसी पुरानी बात की पड़ताल करता तो उनका यही सवाल रहता, आज फलां व्यक्ति के बारे में लिख रहे हो क्या। मेरे ब्लॉग की वो एक नियमित पाठक थीं औऱ अपने सुझाव भी देती रहती थीं। जब मैंने एक प्रतियोगिता के लिये पहली बार कहानी लिखी तो लगा इसको आगे बढ़ाना चाहिये। तो ब्लॉग पर कहानी लिखना शुरू किया तो कुछ दिनों तक उनकी कुछ प्रतिक्रिया नहीं मिली। लिखने मैं वैसे भी आलसी हूँ तो दो पोस्ट औऱ शायद तीन ड्राफ्ट (जो लिखे तो लेक़िन पब्लिश नहीं किये) के बाद भूल गये। एक दिन यशस्विता ने फ़ोन कर पूछा कहानी में आगे क्या हुआ? अब लिखने वाले को कोई उसकी लिखी कहानी के बारे में पूछ लें इससे बड़ा प्रोत्साहन क्या हो सकता है, भले ही पाठक घर का ही हो तो भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मैंने उनसे कहा अग़र आगे की कहानी जाननी है तो कमेंट कर के पूछो। न उन्होंने कमेंट किया न वो ड्राफ्ट ही पब्लिश हुये। वैसे उसके बाद उनकी स्वयं की कहानी में इतने ट्विस्ट आये की जय, सुधांशु, कृति औऱ स्मृति की कहानी में क्या ही रुचि होती। ख़ैर।

औऱ वो जो गुलज़ार का गाना जिसका मैंने ज़िक्र किया है ऊपर, उसके बोल कुछ इस तरह से हैं,

तेरे जाने से तो कुछ बदला नहीं,
रात भी आई थी और चाँद भी था,
सांस वैसे ही चलती है हमेशा की तरह,
आँख वैसे ही झपकती है हमेशा की तरह,
थोड़ी सी भीगी हुई रहती है और कुछ भी नहीं,

होंठ खुश्क होते है, और प्यास भी लगती है,
आज कल शाम ही से सर्द हवा चलती है,
बात करने से धुआं उठता है जो दिल का नहीं
तेरे जाने से तो कुछ बदला नहीं
रात भी आई थी और चाँद भी था,
हाँ मगर नींद नहीं …नींद नहीं…

गुलज़ार – सनसेट पॉइंट