रविवारीय: तेरी एक निग़ाह की बात है, मेरी ज़िंदगी का सवाल है

आप सभी ने कभी न कभी वो साबुन वाला विज्ञापन ‘मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता नहीं चलता’ ज़रूर देखा होगा। इसकी एक लाइन है जो वर्षों से चली आ रही है। असल जीवन में मुझे ये विज्ञापन औऱ इसकी ये लाइन तब याद आती है जब…

मेरे साथ अक्सर तो नहीं लेक़िन कई बार हुआ है की मेरे अनुज को मेरा बड़ा भाई बताया गया है। जब भी ऐसा होता तो विज्ञापन की याद आती है। हाल ही में ये घटना एक बार औऱ हो गयी जब साल के अंत में हमारा गोवा जाना हुआ। होटल के रिसेप्शन से मैंने कुछ बात करी थी। उसके बाद भाई पहुँचे तो उनसे बोला आपके छोटे भाई आये थे अभी। पहले तो भाई को समझ में नहीं आता उनका छोटा भाई कौन आ गया। लेक़िन अब वो मुस्कुरा कर गर्दन हिला देते हैं।

इसके पहले आपको लगे इसमें किसी साबुन का योगदान है, तो मैं बता दूँ ऐसा कुछ नहीं है। आज जो ये बडे छोटे वाली बात निकली है दरअसल इसकी वजह हैं मेरी एक पुरानी सहयोगी जो इस समय शायद अपने जीवन के सबसे कठिन दौर से गुज़र रही हैं।

कुछ दिनों पहले उनसे फ़ोन पर बात हुई थी तो वो कहने लगीं, औऱ कुछ भी हो जाये घर का बड़ा नहीं होना चाहिये। बहुत सारी ज़िम्मेदारी होती हैं उनके कंधों पर जो बड़े होते हैं। ये ज़िम्मेदारी कुछ तो उनको इसलिये मिलती हैं क्योंकि वो बड़े हैं औऱ कुछ इसलिये उनको उठानी पड़ती हैं क्योंकि वो बड़े हैं।

परिवार में जो बच्चे बड़े रहते हैं वो समय से पहले ही बड़े हो जाते हैं अपने बड़े होने के कारण। थोड़ा पेचीदा सा लगता है लेक़िन अपने आसपास देखिये। घर में अगर दो बच्चे हैं तो जो बड़ा होता है उसको शुरू से ही यही समझाईश सुनने को मिलती है, \’तुम बड़ी/बड़े हो\’।

ज़्यादातर जितने भी बड़े लोगों को में जानता हूँ वो सभी थोड़े ज़्यादा संजीदा होते हैं। वहीं उसी घर के छोटे जो होते हैं वो ज़्यादा मस्तीखोर, चंचल। बहुत कम घर/परिवार में बड़ों को ऐसा करते देखा है। कभी कभार शायद, लेक़िन ज़्यादातर वो एक गंभीर मुद्रा में रहते हैं।

हिंदी फ़िल्मों को ही देख लीजिये। यादों की बारात के धर्मेंद्र हों या अमर अकबर एंथोनी के विनोद खन्ना। सभी तीनों भाइयों में बड़े भाई थे और सभी गंभीर। फ़िल्म में उनके जो छोटे भाई थे वो ज़्यादा चुलबुले थे।

फ़िल्मों में अगर बड़े भाई की बात करें तो ‘जो जीता वही सिकन्दर’ में भी बड़े भाई को थोड़ा गंभीर। सबका ख़्याल रखने वाला, ज़िम्मेदार। पूरी फ़िल्म में आमिर ख़ान एक के बाद एक मुसीबत में पड़ते रहते हैं औऱ मामिक सिंह उनको बचाते रहते हैं। लेक़िन एक जगह फ़िल्म में मामिक को अपना गंभीर होना छोड़ गाने में क़मर हिलानी पड़ी।

वैसे तो मामिक लगभग सभी गानों में हैं, लेक़िन बाक़ी कलाकारों के जैसे वो उछल कूद नहीं कर रहे हैं। लेक़िन ‘शहर की परियों के पीछे‘ गाने में मामिक आमिर के साथ नाचते हुये दिखाये गये हैं। आप अगर वो गाना देखें तो आपको भी मामिक थोड़े असहज दिखाई देंगे। इसके पीछे का कारण भी फ़राह खान ने बताया। दरअसल फ़िल्म में दो कोरियोग्राफर थे। पहले सरोज खान थीं औऱ बाद में उनकी जगह आईं फ़राह खान। तो सरोज खान ने ये गाना निर्देशित किया था। बक़ौल फ़राह “अगर वो ये गाना करती

फ़िल्मों से असल जीवन में वापस आते हैं। जिन सहयोगी के बारे में बता रहा था, वो घर में बड़ी हैं औऱ इस कठिन समय में सभी को संभालने का काम उन्हें करना है। अक़्सर ये होता है की कई बार सबको संभालते संभालते हम ख़ुद भी संभल जाते हैं। वैसे मेरे जीवन में ऐसे मौक़े जब भी आये हैं तो मेरे मुक़ाबले मेरे अनुज ने कहीं ज़्यादा संभाला है। मुझे संभलने में एक लंबा समय लगता है तो भाई ये ज़िम्मा उठा लेते हैं औऱ मुझे समय देते हैं।

कई ऐसे भी घर के बड़े देखें हैं जो ये भूल जाते हैं कि वो बड़े हैं। अपने छोटों की ग़लतियों के बारे में ख़ामोश रहना ही अपना बड़प्पन समझते हैं। कई बड़े अपना सारा दुख, परेशानी अपने तक ही सीमित रखते हैं। चूँकि वो बड़े हैं तो वो इनके बारे में सबसे बात नहीं कर सकते। सलाह मशविरा बड़ों से, लाड़ प्यार छोटों से।

मुझे कई बार बड़े होने में औऱ किसी संस्था या टीम के लीडर होने में बड़ी समानताएं दिखाई देती हैं। जब आप ऐसी किसी पोस्ट पर आ जाते हैं तो आपको कम से कम बोलना होता है औऱ आपके पास बहुत सी ऐसी जानकारी होती है जिसे आप किसी के साथ शेयर नहीं कर सकते। जो एक बड़ा फर्क़ होता है वो ये की कोई अनुज नहीं होता जो आपकी जगह चीजों को संभाल सके। ये सब आपको करना होता है।

जब मुझे टीम की ज़िम्मेदारी मिली तो बड़ी खुशी हुई। कई बार बहुत कड़े फ़ैसले भी लेने पड़े। उस समय आपके साथ कोई नहीं होता है लेक़िन आपको जो भी काम है वो करना पड़ता है। चूँकि आपको सिर्फ़ एक दो नहीं बल्कि पूरी संस्था या टीम के बारे में देखना होता है, तो आपको बहुत से अप्रिय निर्णय भी लेने पड़ सकते हैं। जैसे हर लीडर का काम करने का औऱ चीजों को देखने का अपना एक अंदाज़ होता है, वैसे ही घर के बड़ों का भी अलग अलग अंदाज होता है। यहाँ फ़र्क़ ये होता है की लीडर के ऊपर औऱ भी कोई बड़ा अधिकारी होता है, लेक़िन घर में ये बड़ों पर आकर रुक जाता है। शायद इसलिये बड़े जो हैं बड़े ही बने रहते हैं।

होंडा की एक कार आयी थी जैज़। उस साबुन के तरह इस कार के विज्ञापन की जो लाइन थी Why so serious… तो आप भी आप बड़े हों या छोटे, जीवन का भरपूर आनंद लें। औऱ कभी मामिक के जैसे गलती से ही सही, नाचने का मौक़ा मिले तो दिल खोलकर नाचें।

रविवारीय: वक़्त रहता नहीं कहीं रूककर, इसकी आदत भी आदमी सी है

आज सुबह सुबह यूँ ही, गाना सुनने का नहीं बल्कि देखने का मन हुआ। अगर आप यूट्यूब पर गाने देखते हैं तो आपको पता होगा पहली बार आप जो देखना चाहते हैं वो ढूँढते हैं उसके बाद सामने से ही सुझाव आने लगते हैं।

मुझे जब सुझाव में क़यामत से क़यामत तक का गीत \’ऐ मेरे हमसफ़र\’ दिखाई दिया तो अपने आपको रोक नहीं सका सुबह सुबह ऐसा मधुर गीत सुनने से। गाने की शुरुआत में दो चीज़ें दिखायीं गयीं जिनका अब इस्तेमाल कम होने लगा है। आमिर खान के सामने घड़ी है क्योंकि संगीत में घड़ी की टिक टिक है। जूही चावला इस गाने से ऐन पहले आमिर से एक दुकान में मिलती हैं जो उन्हें सही वक्त का इंतज़ार करने को कहते हैं।

जूही चावला जब घर पहुँचती हैं तो वो सीधे अपने कमरे में जाती हैं औऱ दीवार पर टंगे कैलेंडर पर पेन से उस दिन पर निशान लगाती हैं जब तक उन्हें इंतज़ार करना है। ये पोस्ट का श्रेय जुहीजी को कम औऱ उस कैलेंडर को ज़्यादा। 

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आज से क़रीब 10-12 साल पहले तक ऐसा होता था की साल ख़त्म होने को आता औऱ नये कैलेंडर के लिये ढूँढाई शुरू। कैलेंडर से ज़्यादा उनकी जो ये मुहैया करा सकें। सरकारी कैलेंडर तो मिल ही जाते थे सरकारी डायरी के साथ। लेक़िन तलाश होती कुछ अच्छे, कुछ नये तरह के कैलेंडर की। जिनसे मिलना जुलना था तो वो सरकारी कैलेंडर वाले ही थे। जब हमारे पास ज़्यादा हो जाते तो वो आगे बढ़ा दिये जाते।

सरकारी डायरी में ढ़ेर सारी जानकारी रहती जो उस समय लगता था किसी काम की नहीं है। प्रदेश से संबंधित सारे आँकड़े औऱ सभी से संपर्क साधने के लिये फ़ोन नंबर। लेक़िन लिखने की जगह कम रहती औऱ शनिवार, रविवार जो छुट्टी के दिन रहते सरकार के लिये उस दिन तो औऱ कम जगह। मतलब कुल मिलाकर इन डायरीयों की ज़्यादा पूछ परख नहीं थी।

बिज़नेस से जुड़े कम लोगों को जानते थे। फ़िर बचते दुकानदार जिनके यहाँ से सामान आता था। उनके कैलेंडर बड़े सादा हुआ करते थे लेक़िन सब रख लेते थे। निजी क्षेत्र में जो नौकरी करते उनके कैलेंडर की मांग सबसे ज़्यादा रहती। क्योंकि कंपनी पैसा खर्च करके अच्छे कैलेंडर छपवाती, इसलिये ये बहुत ही सीमित संख्या में मिलते कर्मचारियों को। किस को देना है ये बड़ा कठिन प्रश्न होता। लेक़िन तब भी कहीं न कहीं से हर साल कुछ अच्छे कैलेंडर मिल ही जाते।

किसी बड़ी कंपनी की दुकान से आपको ये कैलेंडर अगर किस्मत से मिला तो उसकी कीमत चुकानी पड़ती – एक बढ़िया सा बिल बनवाकर। अगर ऐसी किसी दुकान के आप नियमित ग्राहक हैं तो आपके लिये ये ख़रीदारी ज़रूरी नहीं है। आपके पिछले ख़र्चे की बदौलत आपको कैलेंडर मिल ही जायेगा।

जब पत्रकारिता में कदम रखा तो कई जगह से डायरी, कैलेंडर मिलने लगे। कई बार तो ऑफिस में ही किसी सहयोगी को भेंट दे देते। आख़िर आप कितनी डायरी लिखेंगे? कई बार तो ये भी हुआ की आपके नाम से कुछ आया लेक़िन आप तक कुछ पहुँचता नहीं।

ये कैलेंडर हमारी ज़िंदगी का इतना अभिन्न अंग है। आज वो दीवाल पर भले ही टंगा नहीं हो औऱ हमारे मोबाइल में आ गया हो लेक़िन तब भी एक कैलेंडर आज भी ज़रूर रहता है, वो है पंचांग। सरकारी घर में तो डाइनिंग रूम में इसकी एक नियत जगह थी जहाँ हर साल ये दीवाल की शोभा बढ़ाता। जब कभी तारीख़ देखने की बात होती तो अपने आप नज़र वहीं चली जाती।

महीना बदलने पर कैलेंडर में भी बदलाव होता। जहाँ बाकी अच्छी अच्छी तस्वीरों वाले कैलेंडर में नई तस्वीर होती, पंचांग में ऐसा कुछ नहीं होता। इसमें सब कुछ वैसा ही होता बस नये तीज, त्यौहार औऱ ढ़ेर सारी जानकारी उनके लिये जो इनको मानते हैं या पालन करते हैं। जब तक घर पर रहे तो इन सबकी ज़रूरत नहीं पड़ी, लेक़िन जब बाहर निकले औऱ उसके बाद जब श्रीमतीजी का आगमन हुआ तबसे ये पंचांग भी ज़रूरी चीज़ों में शुमार हो गया है।

मुम्बई आये तो उस पंचांग को ढूँढा जिसको देखने की आदत थी। एक दुकान पर मिल भी गया। लेक़िन जब कुछ दिनों बाद ध्यान से देखा तो मामला कुछ ठीक नहीं लगा। ज़रा बारीकी से पड़ताल करी तो पता चला रंग, स्टाइल सब कॉपी तो किया है लेक़िन असली नहीं है। तबसे हर साल कोशिश रहती है की अगर दीवाली पर घर जाना हो तो नया पंचांग साथ में लेते आयें। पिछले साल ये संभव नहीं हुआ। मुंबई में खोजबीन करके मिल ही गया।

ऐसा नहीं है की महाराष्ट्र में पंचांग नहीं है। लेक़िन हम मनुष्य आदतों के ग़ुलाम हैं। तो बस साल दर साल उसी पुराने पंचांग की तलाश में रहते हैं। घर में अब कैलेंडर के नाम पर बस यही एक चीज़ है। बाक़ी मोबाइल आदि सभी जगह तो कैलेंडर है। इसकी अच्छी बात ये है की एक ही कैलन्डर में आप कुछ नोट करें औऱ हर उस यंत्र में आपको ये देखने को मिल जाता है।

पंचांग में दूध का हिसाब रखने का भी एक हिस्सा है। ये शायद वर्षों से नहीं बदला गया है। ये दूध का हिसाब भी सुबह शाम का है। मुझे याद नहीं हमारे यहाँ दोनों समय दूध आता हो। लेक़िन शायद कहीं अब भी सुबह शाम ऐसा होता हो इसके चलते अभी तक यही हिसाब चल रहा है। एक छोटी सी जगह है जहाँ आप को कुछ याद रखना हो तो लिख सकते हैं। किसी का जन्मदिन या औऱ कोई महत्वपूर्ण कार्य जैसे आपकी रसोई में गैस सिलिंडर की बदली कब हुई। या आपकी कामवाली कब नहीं आयी या कब से काम शुरू किया आदि आदि।

ज़्यादातर कैलेंडर जो होते हैं वो छह पेज के होते हैं जिसमें दोनों तरफ़ एक एक महीना होता। लेक़िन पंचांग में ऐसा कुछ नहीं होता। यहाँ हर महीने का एक पेज होता है। तो उसके पीछे क्या खाली जगह होती है? इसका पता मुझे तब चला जब मुझे नये महीने के शुरू होने पर कैलेंडर में भी बदलने को कहा गया।

पंचांग में तो जानकारी की भरमार होती है ये बात तब पता चली जब इसको पलट कर देखा। वार्षिक राशिफल से लेकर घरेलू नुस्खे, अच्छी आदतें कैसे बनाये औऱ पता नहीं क्या क्या। अगर आपने नहीं देखा हो तो ज़रूर देखें। पढ़ने का काफ़ी माल मसाला है।

कुछ वर्षों से अभिनेत्रियों औऱ अभिनेताओं का एक कैलेंडर काफ़ी चर्चा में रहता है। कैलेंडर का भी एक बड़ा लॉन्च प्रोग्राम होता है जिसमें वो कैसे बना इसकी भी पूरी कहानी होती है। अगर आपको ये कैलेंडर चाहिये तो अच्छी ख़ासी रक़म देनी पड़ती है। उसी तरह एक स्विमसूट कैलेंडर भी काफ़ी चला था। बाद में कंपनी के मालिक अपनी लंगोट बचा कर इधर उधर भागते फिरते रहे हैं। औऱ फ़िलहाल इस कैलेंडर पर भी पर्दा डल गया है।1

हम लोगों के लिये कैलेंडर मतलब सरकारी, या खिलाड़ियों का या फिल्मी हस्तियों का। इसके आगे क्या? ये पता तब चला जब एक परिचित के घर गये। किसी कारण से जिस कमरे में बैठे थे उसका दरवाज़ा  बंद हुआ औऱ उसके बाद परिचित थोड़े से असहज औऱ बाक़ी लोगों के चहरे पर हँसी। हुआ यूँ की दरवाज़े के पीछे एक कन्या का बड़ा सा पोस्टर कैलेंडर लगा था। लेक़िन कम से कम कपड़ों में उसकी फ़ोटो से आप की नज़र साल के बारह महीनों तक जाये, तो।

बहरहाल जूही चावला वाला कैलेंडर बढ़िया है कुछ छोटी छोटी बातों को याद रखने के लिये। इतने बड़े कैलेंडर को देखने के बाद आपको भी वक़्त रुका रुका सा लगेगा लेक़िन… वक़्त रहता नहीं कहीं रुककर, इसकी आदत भी आदमी सी है

अंत में आपसे फ़िर वही गुज़ारिश। इसको पढ़ें औऱ अच्छा लगा हो तो सबको बतायें। बुरा कुछ हो तो सिर्फ़ मुझे।

बस नग़मे तेरे प्यार के गाते जायें

सर्दियों का मौसम हो और चाय की बात न हो तो कुछ अधूरा सा लगता है। मुम्बई में पिछले कुछ दिनों से अच्छी ठंड पड़ रही है। उत्तर भारत या पूर्वी भाग में जैसी ठंड है उसके मुकाबले में तो कुछ नहीं है, लेक़िन हम मुम्बई में रहने वालों के लिये ये भी काफ़ी होती है।

गोवा (पिछली दो पोस्ट में ये गोआ रहा लेक़िन इस बार सही पकड़ लिया) जहाँ की ख़ुमारी अभी तक नहीं गयी, वहाँ के पीने पिलाने के बारे में मैंने पिछले साल लिखा था। लेक़िन अब कोई ख़ानदानी पियक्कड़ तो हैं नहीं कि सुबह से शुरू हो जायें। सुबह तो चाहिये चाय। औऱ वहीं से शुरू होती है मशक्क़त। वैसे भी घर से बाहर निकलते ही ये चयास आपको कई तरह के अनुभव भी कराती है। क्योंकि गोवा में चाय पी तो जाती है लेक़िन बाक़ी पेय पदार्थों से थोड़ी कम।

जब हम दस ग्यारह बजे नाश्ता करने पहुँचते तो आस पास की टेबल पर पीने का कार्यक्रम शुरू हो चुका रहता था। हम लोग सुबह से लहरों के साथ समय बिताने के बाद से चाय की जुगाड़ में रहते। हर शहर का अपना एक मिज़ाज होता है। गोवा का भी है। यहाँ शामें औऱ रातें बड़ी ख़ूबसूरत होती हैं। लहरों के साथ समय कैसे गुज़रता है पता नहीं चलता शायद इसीके चलते यहाँ सुबह थोड़ी देर से होती है।

वैसे होटल में मशीन वाली चाय, कॉफ़ी दोनों मिलते थे लेक़िन दिन में एक से ज़्यादा बार नहीं पी सकते थे। उसमें अगर बाक़ी सभी तरह की चाय होती तो बदल बदल कर पी जा सकती थी। एक ही जैसी चाय जिसको पीने की इच्छा नहीं हो तो आप कितना पी सकते हैं? ख़ैर एक दिन बाद बाज़ार से टी बैग लाये गये ताक़ि कुछ चाय जैसा

अब हम चाय के शौकीनों के साथ भी मसले रहते। जैसे चाय अगर ताज़ी बनी हुई हो तो उसका ज़्यादा मज़ा आता है औऱ अग़र सामने ही बन रही हो तो उसमें अपने हिसाब से कम या बिना शक़्कर वाली चाय अलग से मिल जाती है। लेक़िन पहले दिन ऐसा कुछ मिला नहीं। पहले से तैयार चाय मिली जो यही कहकर बेची गयी कि अभी अभी बनी है।

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समुद्र के किनारे जो रेत रहती है, ख़ासकर वो जो सूखी रेत रहती है, उसपर चलने में ढ़ेर सारी मशक्कत करनी पड़ती है। वहीं अग़र आप सागर किनारे चलें तो गीली रेत के कारण चलना आसान होता है। चूँकि जिस जगह हम रुके थे वहाँ से बीच मुश्किल से दो मिनट की दूरी पर था तो कमरे से बिना किसी चरणपादुका के ही निकल जाते। अब वो हाँथ में चरणपादुका के साथ तस्वीर किसी भी तरह से खूबसूरत नहीं लगती। एक बार किसी ने उतार कर दी औऱ घूमने लगे। थोड़ी देर बाद बड़ी लहर आई तो चरणपादुका वापस लेकर बस निकल ही गयी थी कि नज़र पड़ गयी। तो अपनी सहूलियत के लिये बस ऐसे ही कमरे से निकल जाते।

वापस चाय की यात्रा पर आतें हैं। तो दूसरे दिन पहले दिन के अनुभव के बाद सुबह सुबह सागर किनारे ये निर्णय लिया की आज कहीं औऱ चाय पी जाये। बस फ़िर क्या था, निकल पड़े प्याले की तलाश में। गोवा के बारे में जैसा मैंने पहले भी कहा था, ओढ़ने पहनने पर कोई ज़्यादा ध्यान नहीं रहता। तो जब हम निकले चाय की तलाश में तो पैरों में कुछ नहीं पहना था। जब तक सागर किनारे रहे कुछ फ़र्क नहीं पड़ा। जब सड़क पर पहुँचे तो यही लगा गोवा पहुँचकर हम भी मिलिंद सोमन हो गये। काश उनके जैसे फिट भी होते। लेक़िन हमने शुरुआत उनकी दूसरी आदत से करी – नंगे पैर घूमना। हम गोवा की गलियों में चाय ढूंढ़ते हुये औऱ उसके काफ़ी देर बाद भी ऐसे ही घूमते रहे।

वैसे उस दिन बढ़िया चाय मिली भी। जो ताज़ी बनी हुई थी साथ ही कुछ बढ़िया नाश्ता भी। उसके बाद भी ऐसे ही, बिना चरणपादुका के, नाश्ता करने भी पहुँच गये। वो तो अच्छा हुआ की उस होटल में कोई ड्रेस कोड नहीं था, अन्यथा हम भी ख़बर बन गये होते।

रविवारीय: वाह री दुनिया, तेरे जलवे हैं निराले

नये साल को शुरू हुये एक हफ़्ता भी हो गया औऱ लगता है अभी कल की ही बात है जब हम गोआ में नये साल का स्वागत कर रहे थे। कहाँ 2021 के गुज़रने का इंतज़ार कर रहे थे औऱ कहाँ 2022 ही हफ़्ते भर पुराना हो गया है।

जब साल ख़त्म हो रहा था तब से मैं यही सोच रहा था 2021 का अपना अनुभव लिखूँ। लेक़िन अचानक गोआ का कार्यक्रम बन गया औऱ लिखने का कार्यक्रम पीछे रह गया। जो साल की आखिरी पोस्ट मैं लिख पाया वो भी जैसे तैसे हो ही गया। जब 31 दिसम्बर की ढेरों फ़ोटो देखीं तो ज़्यादातर में फ़ोन पर ही कुछ करता हुआ दिख रहा हूँ। दरअसल वो बस लिखने का प्रयास ही कर रहा था। उस बीच में खाना औऱ पीना दोनों भी चल रहा था।

ख़ैर, जब वापस लौटने का कार्यक्रम बना तो मैंने बस से आने का कार्यक्रम बनाया। अपने जीवन में मैंने सबसे कम बस से यात्रायें करीं हैं। जब भी ये यात्रायें हुईं तो वो सरकारी बस से ही हुई औऱ उन्हीं जगहों पर जाना हुआ जहाँ रेलगाड़ी से जाना संभव नहीं था। अब हमारी सरकारी बसों के बारे में जितना लिखा जाये वो कम ही है। हमारे देश की एक बड़ी जनता के लिये बस ही सस्ता औऱ सुलभ यात्रा का साधन रहा है लेक़िन सुविधाओं में विकास उतना तेज़ी से नहीं हुआ। हाँ, निजी बस सर्विस ज़रूर शुरू हो गईं लेक़िन ये यात्रायें कितनी आरामदायक हो गईं हैं, इसका अनुभव मुझे करना था। शायद एकाध बार ही वीडियो कोच बस में यात्रा करी है औऱ उसकी भी कोई ज़्यादा याद नहीं है।

लेक़िन गोआ से मुम्बई से पहले चलते हैं प्राग। जब ऑफिस की सालाना मीटिंग के लिये प्राग जाना हुआ तो म्युनिक से बस से जाना था। शायद तीन-चार घंटे की यात्रा थी। पहले ही लंबी विमान यात्रा उसके बाद ये बस यात्रा – लगा जैसे सब गड़बड़ हो गया। लेक़िन जब बस बैठे तो एक बड़ी सुखद अनुभूति हुई। एक तो क़माल की रोड हैं उसपर  बडी आरामदायक बस। जो नई बात थी वो थी बस में एक शौचालय। ये पहली बार किसी बस में देखा था। अपने यहाँ तो बस रुकने तक रुकिये या बस रुकवाईये। बीच में जहाँ बस रुकी भी तो वहाँ भी बड़े अच्छे शौचालय थे औऱ एक छोटी सी दुकान जहाँ खाने पीने का सामान मिलता है।

जब गोआ से मुम्बई की स्लीपर कोच में सीट बुक करी तो मैं बड़ा उत्सुक था इस यात्रा को लेकर। मेरा ये मानना है जब तक आपको किसी भी चीज़ का व्यक्तिगत अनुभव न हो तो उसके बारे में कहना या लिखना एक ग़लत बात हो जाती है। कई बार मन में आया की किसी तरह ट्रैन में टिकट जुगाड़ी जाये औऱ आराम से घर पहुंचा जाये। भाई ने भी बोला ट्रेन में मुंबई तक साथ चलने के लिये। लेक़िन रात भर की बात थी तो मैं भी तय कार्यक्रम के अनुसार ही चला।

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अग़र आपने इन बसों में यात्रा न करी हो तो इनकी सीट रेल की बर्थ की तरह ही होती हैं। जगह ठीकठाक रहती है। आपको सोने के लिये थोड़ी मशक्कत करनी पड़ सकती है। क्यूँ? इस पर आगे। तो यात्रा शुरू हुई औऱ सीट पर बैठने या कहें लेटने के बाद उठने के कष्ट के अलावा औऱ कोई परेशानी नहीं हुई। बीच में भोजन के लिये रुके औऱ वापस अपनी सीट पर। बस शायद हर दो घंटे के बाद कहीं रुकती क्योंकि एक बंदा आकर बोलता किसी को अग़र लघुशंका के लिये जाना हो तो चला जाये।

मतलब इस बस में शौचालय नहीं था। शायद कुछ बसों में ये सुविधा अब मिलने लगी है लेक़िन सभी बसों में ये उपलब्ध नहीं है। वैसे स्लीपर कोच की यात्रा बहुत आरामदायक हो सकती है (अगर आपको उठने बैठने में परेशानी न हो तो)। लेक़िन हमारे यहाँ इसके आरामदायक होने में अभी कुछ वर्ष लगेंगे। कारण? यात्रा के आरामदायक होने के लिये दो चीज़ों का होना बहुत ज़रूरी है। एक तो बस का आरामदायक होना औऱ दूसरा सड़कों का अच्छा निर्माण।

गोआ से चले तो कुछ हिस्से तक सड़क बहुत बढ़िया थी। अब किसी अदाकारा के गालों की मिसाल देना तो ठीक नहीं होगा। बस बहुत अच्छी रही शुरू के एकाध घंटे की यात्रा। उसके बाद जब ख़राब सड़क आयी तो उह, आह, आउच वाली स्थिति रही। ख़ैर कुछ देर बाद ख़राब सड़क कब ख़त्म हो गयी औऱ कब नींद लग गयी पता नहीं चला।

थोड़े समय बाद ऐसा आभास हुआ की बस तो चल ही नहीं रही है। शायद इसलिये अच्छी नींद आ रही थी। खिड़की से देखा तो ऐसा नहीं लगा किसी होटल पर रुके हैं क्योंकि ज़्यादातर ड्राइवर चाय पीने के लिये कहीं रुकते हैं। यहाँ तो वो भी गायब। किसी तरह उठकर बाहर आये तो पता चला बस में कुछ ख़राबी है जिसको वो लोग ठीक कर रहे थे। नींद तो आ ही रही थी तो वापस पहुँच गये नींद्रलोक लोक में।

थोड़ी देर बाद फ़िर नींद खुली तो लगा अभी भी बस नहीं चल रही है। नीचे उतरकर पता किया तो बताया इसको ठीक करने कंपनी का मैकेनिक ही आयेगा। पंदह बीस मिनट से शुरुआत होते होते बात आठ घंटे तक खींच गयी। उसके बाद फ़िर यात्रा शुरू हुई तो सुबह के घर पहुँच कर काम शुरू करने का कार्यक्रम धरा का धरा रह गया औऱ ग्रह प्रवेश शाम को ही हो सका।

ऐसी घटनायें मैंने सुन तो रखीं थीं लेक़िन पहली बार अनुभव किया था। इंदौर से बिलासपुर (छत्तीसगढ़) जाने के लिये एक इंदौर-बिलासपुर ट्रैन चलती है। इसमें भोपाल से भी कोच लगता है। अभी का पता नहीं लेक़िन पहले ये ट्रेन बहुत ही लेट लतीफ़ हुआ करती थी। भोपाल से चढ़ने वाले यात्रियों की सुविधा के लिये रेलवे ने उनको कोच में बैठने की इजाज़त से दी। यात्रियों के लिये भी ये सुविधाजनक हो गया। इंदौर से ट्रैन जब आये तब आये, वो आराम से बैठ सकते थे औऱ सो भी सकते थे।

एक बार किसी परिचित का जाना हुआ। उनको स्टेशन पर छोड़कर आ गये क्योंकि ट्रेन का कोई अता पता नहीं था। वो भी आराम से सोने चले गये। जब सुबह गाड़ी के जबलपुर पहुँचने के समय पर उठ कर दरवाज़े पर आये तो उन्हें स्टेशन थोड़ा जाना पहचाना से लगा। औऱ क्यूँ न लगे क्योंकि उनकी ट्रैन या कहें उनका कोच अभी तक भोपाल में ही खड़ा हुआ था।

इस ट्रेन का भोपाल आने का समय भी अल सुबह होता था। लेक़िन जितना इसको जाने में समय लगता, आने में ये बिल्कुल समय पर या उससे भी पहले। सर्दियों की सुबह किसी को स्कूटर पर लेने जाना हो तो आनंद ही आनंद। उसपर ट्रेन के इंतज़ार में अग़र स्टेशन की चाशनी जैसी चाय भी हो तो सुभानअल्लाह। वैसे चाय से गोआ का एक वाक्या भी याद आया लेक़िन उसके लिये थोड़ा इंतज़ार।

ख़ैर, साल के दूसरे ही दिन ख़ूब सारा ज्ञान प्राप्त हुआ। औऱ ये सब अपने ही एक निर्णय के चलते। तो क्या आपको स्लीपर कोच से यात्रा करनी चाहिये? ये इसपर निर्भर करता है आप उम्र के किस पड़ाव पर हैं। औऱ आप अगर जिस जगह जा रहें हैं वहाँ की सड़कों हालत की थोड़ी जानकारी निकाल लें तो बेहतर होगा। यही यात्रा अग़र बैठे बैठे करी गई होती तो? तो शायद ये पोस्ट नहीं होती। ये हम लोगों की यूँ होता तो क्या होता वाली सोच हमेशा कहीँ न कहीं प्रकट हो जाती है। श्रीमतीजी को भी लगा की मैंने फ़ालतू इतनी मुसीबत झेली। लेक़िन सब कुछ होने के बाद तो सभी समझदार हो जाते हैं। देखिये अब अग़र कहीं आसपास जाना होता है तो क्या इस फ़िर से बस यात्रा के लिये मन बनेगा?

आप सभी इस पोस्ट को पढ़ें औऱ आगे भी शेयर करें औऱ थोड़ा कष्ट अपनी उंगलियों को भी दें इस सर्दियों में। एक कमेंट लिख कर बतायें आपकी प्रतिक्रिया। आपकी बस यात्रा का अनुभव। आप तक ये पोस्ट किस तरह पहुँचे ये भी बतायें। क्या एक औऱ … व्हाट्सएप ग्रुप आप को परेशान तो नहीं करेगा? आपके जवाब/बों का इंतज़ार करेगा असीम।

हम हैं नये अंदाज़ क्यूँ हो पुराना

नये वर्ष का स्वागत के तरीक़े में जैसे हम देखते देखते बड़े हुये, उसमें अब काफ़ी बदलाव आया है। ये बदलाव हालिया नहीं है औऱ हमारे समय से ये देखने को मिल रहा है।

जब हम बड़े हो रहे थे तो नये वर्ष से सम्बंधित ऐसी कुछ याद नहीं है। ये 1984 तक की बात होगी। उसके बाद हमारे जीवन में टीवी का प्रवेश हुआ। उसके बाद नये साल का मतलब हुआ करता था परिवार के साथ दूरदर्शन के कार्यक्रम देखना औऱ चूँकि दिसंबर के महीने में गाजर आ जाती थी तो गाजर के हलवे से मुंह मीठा कर साल की बदली मनाना। कभी कभार कुछ रिश्तेदार भी साथ में होते। लेक़िन ऐसा कम ही होता था क्योंकि बहुत रात हो जाती थी औऱ कड़ाके की सर्दी भी हुआ करती है इस समय, तो सब अपने अपने घरों में ये कार्यक्रम मानते।

पहला बदलाव आया जब बाहरवीं के समय साथ पढ़ने वालों ने एक मित्र के घर एक पार्टी का आयोजन किया। मुझे ये मिलना जुलना पसंद वैसे ही कम था। लेक़िन किसी दोस्त के कहने पर मैंने भी हांमी भर दी। कैंपियन स्कूल, जहाँ से मेरी पढ़ाई खत्म हुई, वहाँ काफ़ी बड़े घरों के लड़के भी पढ़ने आते थे, उनकी पार्टी भी कुछ अलग तरह की होती (ये मुझे वहाँ पहुँचने के बाद पता चला)।

वहाँ काफ़ी सारे स्कूल के मित्र तो थे ही, कुछ औऱ लोग भी थे। दिसंबर की उस आख़िरी रात मैं स्कूटर पर था औऱ सर्दी भी कड़ाके की थी। बहरहाल तैयार होकर, पिताजी का कोट औऱ टाई लगाकर हम भी पहुँचे। अब इस तरह की जो पार्टियाँ होती हैं ये भी मेरे लिये पहला ही अनुभव था। इससे पहले कभी किसी जन्मदिन की पार्टी में जाना हुआ होगा लेक़िन वो एक अलग तरह की पार्टी होती थी।

इस पार्टी में शायद पहली बार शराब या बियर मिलते हुये देखा था। हमारे जान-पहचान में बहुत कम लोगों को ऐसे खुलेआम शराब पीते हुये देखा था। पिताजी के ऐसे कोई शौक़ नहीं थे औऱ न उनके मिलने जुलने वालों में ऐसा होते हुये देखा था। ये सारे कार्यक्रम सबसे छिपते छिपाते हुये करे जाते थे। कई लोगों के बारे में ये जानकारी तो थी लेक़िन सामने पीने का चलन उन दिनों शुरू नहीं हुआ था।

मुझे याद है जब एक परिचित जो की मदिरा का सेवन करते थे, उनके यहाँ उनके पुत्र का विवाह था। उनका बस यही प्रयास था की किसी तरह हम लोगों को शराब पिलाई जाये। उनके कई सारे प्रयास असफल हुये लेक़िन एक दिन वो अपने मिशन में कामयाब हो ही गये। जैसा की होता है, आपको तो लेनी ही पड़ेगी। थोड़ी थोड़ी। लेक़िन उनके प्रयासों को तब धक्का लगा जब उनकी महँगी महँगी शराब से सजे बार में से कुछ न लेते हुये एक घूँट बियर का ले लिया। उसके बाद कई समारोह में जाना हुआ लेक़िन उन्होंने बुलाना छोड़ दिया। जिनको इसका न्यौता मिला उन्होंने बार की भव्यता के बारे में बताया।

इन दिनों पीने पिलाने का चलन बढ़ गया है। किसी शादी में अगर शराब नहीं तो जैसे कुछ कमी सी रह जाती है। अब आज ये पीने पिलाने के विषय में क्यों ज्ञान बाँटा जा रहा है?

पिछले दिनों ऐसे ही अचानक नव वर्ष गोआ में मनाने का कार्यक्रम बन गया। गोआ इससे पहले भी आना हुआ जब ऑफिस की एक ट्रिप हुई थी। अगर आप कभी गोआ नहीं आये हों तो ये एक तरह का कल्चर शॉक साबित होता है। आप किसी भी शहर में रहते हों, जिस खुलेपन से यहाँ जीवन का आंनद लिया जाता है आपको लगेगा आपने अभी तक कुछ नहीं किया है।

जब मैं पहली बार यहाँ आया तो मुझे जितनी आसानी से शराब मिलती है, ये देख कर एक झटका सा लगा था। इसके पीछे कई कारण हैं। भोपाल में शराब की दुकानें औऱ बार देखे थे। दोस्तों के साथ एकाध बार जाना भी हुआ था। जब नौकरी के सिलसिले में पहले दिल्ली औऱ बाद में मुम्बई जाना हुआ तो बहुत सीमित जगहों पर ये पीने पिलाने का कार्यक्रम होता था।मुम्बई में जहाँ मैं रहता हूँ वहाँ तो कोई शराब की दुकान ही नहीं है। अगर आप पीने का शौक़ रखते हैं तो आपको थोड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।

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अब ऊपर जिस तरह के माहौल को मैंने देखा था, उसके बाद गोआ में जिस तरह का चलन या कहें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी। जैसे बाक़ी शहरों में कोल्ड ड्रिंक मिलती है, उतनी आसानी से शराब मिलती है, ये देखकर झटका लगना स्वाभाविक ही है। उसके बाद यहाँ कोई तैयार होकर घूमने का कोई चलन नहीं है। आप कम से कम कपड़ों में अपना काम चला सकते हैं।

एक बार आप गोआ आ जायें तो ज़िंदगी एक बड़ी पार्टी की तरह लगती है। सब बस बिंदास, बेफ़िक्र होकर तीन चार गुज़ारते हैं उसके बाद वही ढ़र्रे वाली ज़िंदगी में वापस। जैसे आज 2021 के आख़िरी दिन जब ये पोस्ट लिख रहा हूँ तो सभी औऱ से गानों का ज़बरदस्त शोर है। इस शोर में 2021 में जो भी हुआ वो तो नहीं दबेगा। 2020 के बाद मेरे जीवन में बहुत सारे बदलाव हुये औऱ जैसे इनको अपना कर 2021 शुरू ही कर रहे थे की कोरोना ने अपने तरीक़े से कुछ ज़िन्दगी के नये फ़लसफ़े सिखाये, पढ़ाये। ये क्लास अभी भी शुरू है।

जिस तरह का 2021 हम सभी के लिये रहा है, गोआ से यही सीख मिलती है पार्टी रोज़ चलती रहनी चाहिये। मतलब पार्टी जैसी सोच। किसी भी बात को ज़्यादा गंभीरता से न लें। हाँ, नशा ज़िन्दगी का हो, कुछ अच्छा करने का, कुछ असीमित करने का। 2022 आप सभी के लिये शुभ हो, इसी कामना के साथ।