पिछले लगभग बीस वर्षों से अपने शहर से नाता टूट सा गया है।
कभी शहर की गलियों में ऐसे ही घूमने निकल जाओ तो समय जैसे ठहर सा जाता है। आता जाता हर शख़्स जाना पहचाना लगता है। पिछली बार जब भोपाल गया था तो घर से निकलना बहुत ज़्यादा तो नहीं हुआ लेकिन जब कहीं जाना हुआ हर शक्ल कुछ जानी पहचानी सी लगी। एक दो को तो बस नाम लेकर पुकारने ही वाला था। बस ज़ुबान पर नाम आते आते रुक गया।
कुछ को तो मैने आंखों से ओझल होने तक देखा। इस उम्मीद में की शायद वो दिलवाले दुल्हनियां की काजोल की तरह पलट कर शाहरुख ख़ान को देख लें। अब यहां मामला गड़बड़ हो गया। मतलब ये उम्मीद थोड़ी ज़्यादा हो गई थी। खुद की काया दो राज के बराबर हो गई होगी लेकिन उम्मीद ये की कोई काजोल हमको पहचान ले। वैसे सामने वाले भी अब सिमरन कहां।
इसके पहले की बात बिगड़े, ये बता देना उचित होगा परिचित सिर्फ़ महिला नहीं बल्कि पुरुष भी लग रहे थे। पिछले लगभग बीस वर्षों से अपने शहर से नाता टूट सा गया है। हर बार जाना होता है तो कुछ कड़ी ढूंढते रहते हैं। इसी तलाश में समय निकल जाता है और वहां से मायानगरी वापस। यहां वो कड़ियां कभी बनी ही नहीं, या ये कहूं की मैंने इसमें कभी कोई रुचि नहीं दिखाई।
विदेश में जो लोग जाकर बसते हैं उनकी मनस्थिति क्या होती है? जब ये निश्चित हो जाता है अब यही शहर, देश उनका रहेगा तब उनके लिए कितना आसान या मुश्किल होता है? क्या जब कभी वो देस वापस आते हैं तो कुछ पहचाने हुए चेहरे खोजते रहते हैं? क्या अपने नए देस में वो जाना पहचाना ढूंढ़ते हैं?
रेल यात्रा के दौरान पढ़ने की आदत पता नहीं कबसे शुरू हुई, लेक़िन आज भी जारी है। पहले जब ऐसी किसी यात्रा पर निकलते तो घर से कुछ भी पढ़ने के लिये नहीं लेते थे। स्टेशन पहुँचने के बाद सीधे किताब की दुकान पर औऱ वहाँ से एक दो नई मैग्ज़ीन खरीद लेते औऱ उनके सहारे सफ़र कट जाता। कभी कभार अख़बार भी खरीद लेते। अगर रविवार की यात्रा रहती तो बस यही प्रयास होता की स्टेशन पर उस दिन के कुछ अख़बार मिल जायें। रेल की यात्रा औऱ उसके बाद घर पर भी पढ़ना हो जाता। रविवार को अखबारों में वैसे भी कुछ ज़्यादा ही पढ़ने की सामग्री रहती है।
जबसे रेल से यात्रा शुरू करी है, कुछ स्टेशन जहाँ।पर ज़्यादा आना जाना होता है, वहाँ पर तो पता रहता है किताब कहाँ मिलेगी। कई बार अग़र ट्रेन का प्लेटफार्म किताब की दुकान के प्लेटफार्म से अलग होता है तो पहले किताब खरीदते उसके बाद ट्रेन वाले प्लेटफार्म पर। बीच यात्रा में अगर कहीं ट्रेन ज़्यादा देर के लिये रुकने वाली हो तो वहाँ भी किताब की दुकान देख लेते। कई स्टेशन पर तो चलती फ़िरती किताब की दुकान होती तो इधर उधर भागने से बच जाते। कई स्टेशन पर हर प्लेटफार्म पर ये सुविधा रहती।
बसों में यात्रा कम ही हुई हैं। लेक़िन जितनी भी बस यात्रा हुई हैं उसमें पढ़ने का काम थोड़ा मुश्किल भी लगा। हाँ बस स्टैंड पर भी कभी किसी को छोड़ने जाते तो वहाँ भी क़िताब की दुकान ज़रूर देख आते। बस स्टैंड पर खानेपीने की दुकाने ज़्यादा होती थीं औऱ किताबों की केवल एक।
जब हवाई यात्रा का शुभारंभ हुआ तो बहुत सी नई बातें हुईं इस पढ़ने पढ़ाने के मामले में। हर हवाईअड्डे पर आपको अख़बार रखे मिल जायेंगे। आप अपनी पसंद का उठा लें औऱ अपनी यात्रा के पहले, दौरान औऱ बाद में इसको पढ़ते रहें। इसके अलावा आपको उड़नखटोले में भी एक मैग्ज़ीन मिल जाती है पढ़ने के लिये। ये सभी पढ़ने की सामग्री बिल्कुल मुफ़्त।
लगभग सभी बड़े हवाईअड्डे पर एकाध बड़ी सी किताबों की दुकान भी रहती। वहाँ से भी आप कोई नॉवेल या मैग्ज़ीन ख़रीद सकते हैं। अब अगर कभी हवाई यात्रा करना होता है तो पढ़ने की सामग्री की कोई ख़ास चिंता नहीं रहती। कई राजधानी ट्रैन में भी मुफ़्त में अख़बार मिलते हैं।
कोविड के चलते एक लंबे अरसे के बाद ट्रेन से यात्रा का प्रोग्राम बना। चूँकि मुझे मुम्बई छत्रपति शिवाजी महाराज स्टेशन की जानकारी है तो मैं उस दिन का इंतज़ार कर रहा था जब एक बार फ़िर किताबों से मिलना होगा। स्टेशन समय से पहले पहुँचे तो क़दम दुकान की तरफ़ चल पड़े। मग़र ये क्या। उस जगह पर तो खानेपीने की नई दुकान खुल गई थी। आसपास देखा शायद दुकान कहीं औऱ खुल गई हो। लेक़िन क़िताबों की दुकान का कोई अता पता नहीं था।
जब आख़री बार इस स्टेशन से यात्रा करी थी तब यहीं से क़िताब, अख़बार ख़रीदे थे। ये कब हुआ था ये भी याद नहीं। कोविड के कारण लोगों का पढ़ना अब मोबाइल पर बढ़ गया था औऱ मैं ये बात सभी को बताता था। मुझे इस बात का अंदाज़ा ही नहीं था कि इस बदली हुई आदत का खामियाज़ा इन किताबों की दुकानों को चुकाना पड़ेगा।
बाक़ी यात्रियों की तरह मुझे सफ़र के दौरान भी मोबाइल में ही व्यस्त रहना अच्छा नहीं लगता। हाँ अगर कुछ लिखने का काम करना हो तो मोबाइल देख लेते हैं। लेक़िन अब तो लोग मोबाइल/टेबलेट पर फ़िल्में डाऊनलोड करके रखते हैं ताक़ि सफ़र के दौरान उनके मनोरंजन में कोई रुकावट पैदा न हो।
अब कुछ दिनों बाद फ़िर से एक रेल यात्रा का प्रोग्राम बना है। इस बार फ़िर इन्तज़ार रहेगा क़िताबों से मुलाक़ात का।
पिछले दिनों परिवार में एक शादी में शामिल होने का मौक़ा मिला। ख़ास बात इस बार ये थी की शादी के बहाने अयोध्या जाने का मौक़ा मिल रहा था। इस लिहाज़ से ये तो तय था की यात्रा यादगार होगी और यादगार बनी भी। जब किसी और के यहां शादी में जाओ तब लगता है लोग क्या क्या कारण से शादी को याद रखते हैं। उन्हीं मापदंडों के अनुरूप शादी तो यादगार बन गई। लेकिन यात्रा का जो अनुभव रहा, विशेषकर मुंबई वापस लौटने में, वो आपसे साझा कर रहा हूं।
बड़े शहरों में जिस तरह डिजिटल लेन देन का चलन बढ़ा है उसके चलते अब कैश रखने की आदत लगभग ख़त्म सी हो गई है। पिछले तीन वर्षों में जो भी यात्रा हुईं वो भोपाल या दिल्ली तक ही सीमित रहीं तो यही लेन देन का ज़रिया भी बना रहा। जिस तरह से सब जगह ये डिजिटल चल रहा था, उससे अयोध्या को लेकर भी बहुत आशान्वित थे। ये थी पहली भूल जो मुंबई वापसी के दिन बड़ी खटकी।
ऐसा नहीं है की रामजी की नगरी में डिजिटल नहीं चलता। शादी वाले दिन केश कर्तनालय में रूप सज्जा के लिए यही तरीका काम आया। विवाह के अगले दिन लखनऊ से दोपहर का उड़नखटोला पकड़कर मुंबई वापस आना था। इस १३५ किलोमीटर के सफ़र में तीन गाड़ियां बदलनी थी। जहां रुके थे वहां से टैक्सी स्टैंड, फ़िर टैक्सी से लखनऊ और आखिरी चरण था लखनऊ शहर से हवाई अड्डा। कैश के नाम पर बमुश्किल ₹१०० थे।
पहले चरण में ही गलती का एहसास हो गया था। जब बड़े शहर में ओला, उबर लोगों को परेशान करती हैं तो हम तो अयोध्या में थे जहां ये चलती नहीं है। क़िस्मत अच्छी हुई तो कोई लखनऊ से आई गाड़ी आपको मिल जायेगी। नहीं तो आप एप्प को देखते रहें और वो आपको झूठी आशा देती रहेगी।
अच्छी बात ये हुई की नज़दीक ही एक ई-रिक्शा मिल गया। बैठने से पहले पूछा नहीं और जब उतरने की बारी आई तो चालक ने डिजिटल तरीके से पैसे लेने से साफ़ इंकार कर दिया। मेरे साथ एक और सज्जन भी लखनऊ जा रहे थे। बेंगलुरू में रहते हुए वो भी मेरी तरह डिजिटल लेन देन में ही यकीं रखते हैं लेकिन अच्छी बात ये थी उनके पास एक ₹५०० का नोट था। अब समस्या थी छुट्टे पैसे की। चालक महोदय ने दस मिनिट इधर उधर पूछा और अंत में अपनी शर्ट और पतलून की सभी जेबों को खालीकर दस-बीस रुपए कम ही सही, पैसे दिए। बाद में ये विचार आया की अगर उन सज्जन के पास ₹ २००० का नोट होता तो।
अब दूसरे चरण में जब टैक्सी मिली तो वहां फ़िर वही कड़क नोट की मांग। जब उन्हें बोला नहीं है लेकिन बहुत जल्दी लखनऊ पहुंचना है तो उन्होंने कहा आप पूरी गाड़ी बुक कर लें। मैंने पूछा पैसा कहां से आयेगा? तो उन्होंने उसका उपाय भी सूझा दिया। नज़दीक के पेट्रोल पंप से स्कैन कर पैसे ले लिए और इस तरह लखनऊ का सफ़र शुरू हुआ।
अंतिम चरण का ड्रामा अभी बाक़ी था। जब टैक्सी से उतरे तो ऑटो वाले लाइन से खड़े थे। लेकिन समस्या जस की तस। डिजिटल पैसा नहीं लेंगे। वो तो भला हो उस ऑटो ड्राइवर का जिसने अपने अन्य चालक भाइयों से पूछा और अंततः एक चालक को डिजिटल लेन देन में कोई आपत्ति नहीं थी।
अब नजरें घड़ी पर और सामने दिखने वाले साइन बोर्ड पर थी जो ये बताता आप हवाई अड्डे पहुंच गए हैं। मैं तो ये मान बैठा था की अब उड़नखटोले को नीचे से उड़ते हुए ही देखूंगा। दूसरी फ्लाइट देखना भी शुरू कर दिया था।
जब हवाई अड्डे के नज़दीक पहुंचे तो ऑटो चालक जिसके लिए मन से सिर्फ़ दुआ निकल रही थी, उसने यू टर्न लिया और बोला पहुँच गए। मैंने कहा भाई अंदर तक तो छोड़ दो। महाशय बोले हम अंदर नहीं जायेंगे। हवाई अड्डा मुश्किल से ३०० मीटर दूर था। लेकिन इस भीमकाय शरीर को तो किसी तरह ले जाते, साथ में श्रीमती जी ने एक सूटकेस भी दिया था। उसके साथ दौड़ लगाना मुश्किल ही नहीं बहुत मुश्किल था। उसपर मई महीने की दोपहर।
किसी तरह पहुंचे तो वहां हवाई अड्डे में अंदर जाने के लिए लंबी लाइन लगी हुई थी। थोड़े अदब से वहां के कर्मचारी और बाक़ी यात्रियों से गुज़ारिश करी और सबने जाने दिया। मुझे अभी भी यही लग रहा था काउंटर पर जो भी होगा वो अफ़सोस जताते हुए कहेगा आप की फ्लाइट तो उड़ने को तैयार है।
मगर ये हुआ नहीं।
एयर इंडिया के स्टाफ को देखते ही मैने कहा मुंबई। उन्होंने कहा आइए। बस वही अजय देवगन वाली फीलिंग आ रही थी। आइए आपका इंतज़ार था। ताबड़तोड़ सूटकेस लिया गया, वज़न तौला गया और मुझे सिक्योरिटी के लिए जाने को कहा।
बस एक समस्या थी। मेरे पास बोर्डिंग पास का प्रिंटआउट नहीं था। लेकिन उन्होंने कहा ई टिकट चलेगा। ये मेरे लिए पहली बार था। मुझे लग रहा था सिक्योरिटी वापस भेजेगा। लेकिन नहीं। उन्होंने तो मेरी टिकट स्कैन करने में मदद करी। आगे खड़े यात्रियों से फ़िर दरख्वास्त करी। सिक्यूरिट के उस तरफ़ भी एयर इंडिया की एक कर्मचारी मुझे पार करवाने में मदद के लिए तैयार थीं।
अगले दो मिनिट में बस में बैठे थे हवाई जहाज में जाने के लिए। साथ में मेरे जैसे चार लेट लतीफ़ और थे। जब अंदर पहुंचे तो बाक़ी सभी यात्री जो शायद पिछले दस पंद्रह मिनट से बैठे थे, हम लोगों को देख रहे थे। मारे खुशी के बस नाचना ही बाकी रह गया था। मगर जब एक दिन पहले बारात में साली साहिबाओं के इसरार से नहीं मटके तो अब क्या ख़ाक कमरा हिलाते (कमर के लिए गुलज़ार साहब ने कहा है ।
परिचारिका ने भी पसीने से लथपथ यात्री पर रहम खाते हुए पानी पिलाया। जब उड़ गए तब स्वादिष्ट भोजन भी कराया। एयर इंडिया के सभी कर्मचारियों को सलाम!
इस पूरे प्रकरण से सीख या सीखें
— किसी नई जगह जा रहें हों तो कैश ज़रूर साथ में रखें
– जहां जा रहे हों वहां अपनी वाहन की ज़रूरत पहले से बता दें ताकि कुछ इंतज़ाम किया जा सके
– फ्लाइट में वेब-चेकिन ज़रूर से करवाएं। एयरपोर्ट में अंदर जाने के बाद मेरे बोर्डिंग पास के कारण सारे काम जल्दी जल्दी हो गए।
सबसे बडी सीख़: जब मौक़ा मिले लोगों की मदद करिए। आप किसी की मदद करेंगे, कोई और आपकी मदद करेगा। मेरी पूरी यात्रा में किसी न किसी ने मदद करी जिसके चलते फ्लाइट पकड़ पाये। और लोगों का शुक्रिया, धन्यवाद भी करते रहिए।
कुल मिलाकर यात्रा विवाह से ज़्यादा बाकी अनुभव के चलते यादगार बन गई।वैसे अयोध्या और इससे पहले भोपाल प्रवास के दौरान बहुत से लोगों से मिलना हुआ जो मेरे ब्लॉग के नियमित पाठक भी हैं। अगर आप लिखते हों और कोई पढ़ता है – ये जानकर अच्छा लगता है। उसपर ये भी सुनने को मिल जाये की अच्छा लिखते हो तो जलेबी संग रबड़ी वाली बात हो जाती है।
स्कूल के समय एक चलन था रोज़ाना एक सुविचार सबके साथ साझा करना। कई बार ये पूरे स्कूल के साथ होता तो कभी आपकी कक्षा के सहपाठियों के साथ। इससे इतर एक और काम करते – इन अच्छे विचारों को लिख कर कक्षा में टांगने का काम करते। स्कूल में एक स्थान भी नियत था जहां रोज़ ऐसा ही कोई सुविचार बोर्ड पर लिखा होता जो आने-जाने वाले सभी को दिखाई देता। इसको पढ़ना भी अच्छा लगता और देखना भी।
वैसे ये सुविचार वाला विचार ही कमाल का है। अब तो वॉट्सएप पर ख़ूब सारे ग्रुप हैं जो अलग अलग तरह के सुविचार शेयर करते हैं। कुछ बहुत ही ज़्यादा गहरे सुविचार भी होते हैं और कुछ मज़ेदार। कुछ संगीत के साथ भी होते हैं। मतलब हर तरह के विकल्प होते हैं। ज्यादातर ये संदेश एक ग्रुप से दूसरे ग्रुप में प्रेषित करे जाते हैं। कई लोग थोड़ी ज़्यादा मेहनत करते हैं और इसको अपना स्टेटस भी बना देते हैं।
पिछले दिनों दिवाली के उपलक्ष्य में भोपाल जाना हुआ। मुंबई से जब निकलते हैं तो ढेर सारे प्रोग्राम बनते हैं। इनसे मिलेंगे, उनसे बात करेंगे। कुछ खाने पीने का कार्यक्रम भी बन जाता है। लेकिन घर पहुंच कर सब कार्यक्रम धरे के धरे रह जाते हैं। इसके पीछे दो मुख्य कारण रहते हैं। एक तो घर में ही कुछ न कुछ काम चलते रहते हैं और दूसरा घर पर माता पिता के साथ समय बिताने की इच्छा। कहीं जाना होता तो प्रयास रहता सब लोग साथ में ही जायें। बाक़ी फ़िर त्यौहार के चलते कुछ न कुछ काम लगा ही रहता।
बहरहाल दिवाली पर सब इक्कठा हुए और सबने त्यौहार अच्छे से मनाया। इसी दौरान शायद मैंने फेसबुक पर एक पोस्ट पढ़ी जिसमें कहा गया क्या अब ड्राइंग रूम को हटाने का समय आ गया है। तर्क ये दिया गया की अब सब सोशल मीडिया पर ही त्यौहार की शुभकामनायें दे देते हैं। घर पर आना जाना अब उतना नहीं होता। मैंने जब ये पोस्ट पढ़ी थी तब इसके बारे में इतना सोच विचार नहीं किया था।
लेकिन कुछ दिनों के बाद वही फेसबुक वाली पोस्ट फ़िर से दिखाई दी। ऐसा अक्सर होता है सोशल मीडिया पर कोई पोस्ट देखी – पढ़ी और कुछ दिनों बाद अलग अलग वॉट्सएप ग्रुप में इसका आदान प्रदान चल रहा होता है। जिसकी ये पोस्ट होती है उनका नाम सब जगह से गायब होता है। वैसा ही कुछ इस पोस्ट के साथ भी हुआ। मुझे बिल्कुल नहीं पता इसके मूल रचनाकर कौन हैं।
वापस आते हैं पोस्ट में व्यक्त किए गए विचार के पास। तो पोस्ट का सार जैसा मैंने पहले बताया ड्राइंग रूम की अब क्या ज़रूरत जब सब मिलना मिलाना सोशल मीडिया पर ही हो रहा है। इस पोस्ट पर बहुत से लोगों ने अपने विचार रखे। ज्यादातर लोग इससे सहमत दिखे। कुछ ने इसको कोविड और उसके बाद मोबाइल पर इस कम मिलने का दोष मढ़ा। कुछ समझदार लोगों ने बाकी सबसे पूछ लिया आप कितने लोगों से मिलने गए थे जो आपके यहां लोगों के नहीं आने पर इतने व्यथित हो रहे हैं?
लोगों की टीका टिप्पणी ने मुझे भी सोचने पर मजबूर कर दिया। बाकी लोगों से पूछने से पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। मुझे तो अपना ड्राइंग रूम लगभग हर दिन मेहमानों से भरा दिखा। कुछ ड्राइंग रूम की शोभा मैंने अपने बेडौल शरीर से बढ़ाई। इस बात से सहमत हूं की अब आना जाना कम हो गया है। लेकिन परिवार के सभी सदस्यों ने ये प्रयास किया की जहां जाना ज़रूरी है वहां कोई न कोई जाये। जैसे जहां मेरा जाना किसी भी कारण से नहीं हो पाया तो मेरे अनुज ने ये काम कर दिया। जहां हम दोनों का जाना नहीं हो पाया वहां अगली पीढ़ी को ज़िम्मेदारी दे दी। कुल मिलाकर मिल बांटकर सबसे मिलने का प्रयास किया गया। कुछेक ऐसे भी न्योते थे जिनको किसी भी तरह से अस्वीकार ही करना था और ऐसा बहुत अच्छे से किया। लेकिन हर बार से इस बार ज़्यादा लोगों से अलग अलग जगह पर मुलाक़ात हुई, ये भी सच है। कई पुराने लोगों से इसलिए मिलना नहीं हुआ क्योंकि वो या तो शहर मैं नहीं थे या व्यस्त थे। लेकिन कुछ नए लोगों से भी मिलना हुआ।
बहुत से लोगों से फोन से बात भी नहीं हुई न ही किसी वीडियो कॉल पर। बस दीवाली की शुभेच्छा का आदान प्रदान हुआ। जब परिवार में हम बच्चे लोग ही थे तब माता पिता के लिए सबको साथ लेकर जाना शायद ज़्यादा मुश्किल नहीं होता होगा। अब बच्चों के बच्चे हो गए हैं तो सबको साथ में लेकर जाना एक बड़ा काम हो जाता है। और यहीं से मुझे याद आते हैं वो पिताजी के सरकारी घर वाले दिन। जब दो बेडरूम एक गुसलखाने वाले घर में सब आराम से तैयार भी हो जाते थे और मिलना जुलना भी हो जाता था।
हमारे घर में शुरू से लोगों का ख़ूब आना जाना रहा है। मतलब घर के दरवाज़े पर कभी किसी रिश्तेदार की गाड़ी या कभी किसी के दोस्त की गाड़ी या साइकिल खड़ी रहती। मोहल्ले में हमारा घर जाना जाता था वही जिनके यहां बहुत लोग आते हैं’। हम लोगों को भी इस माहौल से कोई परेशानी नहीं थी। अलबत्ता कुछ करीबी रिश्तेदारों को इससे बड़ी आपत्ति थी।
श्रीमती जी की सखी के भांजे से मुलाक़ात हो गई जब ड्राइंग रूम में भाईदूज के टीके का काम चल रहा था। ये मिलने मिलाने के मामले में श्रीमती जी बहुत आगे हैं। मुंबई में अपनी प्रिय सखी से वो महीनों नहीं मिल पाती हैं लेकीन भोपाल के एक हफ़्ते के प्रवास में वो रिश्तेदार, अड़ोसी पड़ोसी सभी से मिलने के बाद अपनी स्कूल की सखियों से भी मिलने का कार्यक्रम बना लेती हैं। ये सब मिलने मिलाने के बाद जब मुंबई वापस पहुंचे तो लगा इतने दिन दौड़ते भागते ही निकल गए। उसपर किसी से किसी कारण से मिलना नहीं हो पाया तो वो ड्राइंग रूम ही हटाने का विचार कर रहे हैं। वैसे ये पूरी तरह आपका निर्णय होना चाहिए। लेकिन अगर कुछ समय पश्चात लोगों का आना हुआ तो उनको कहां बैठाईएगा इस पर भी विचार कर लेते तो अच्छा होता।
बात ये नहीं है की कोई मिलना नहीं चाहता। बस समय के साथ मिलने जुलने वालों की संख्या बढ़ जाती है। समधियाने जुड़ जाते हैं, सहकर्मी बढ़ जाते हैं, आप किसी पर निर्भर हो जाते हैं किसी के यहां जाने के लिए और कई बार आप तैयार होते हैं जाने के लिए और कोई आपके यहां मिलने आ जाता है। जैसे त्यौहार वाले दिन आप भी कहीं निकल नहीं पाते, वैसी ही मजबूरी किसी और के साथ भी तो हो सकती है। जब आपको समय मिले तो आप मिलने निकल जाएँ और जब उनको समय मिलेगा तो वो आपके ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाएंगे। और ये मिलने के लिए त्यौहार का इंतजार क्यूं? जब अपने प्रियजन, इष्ट मित्रों से मिलें वही एक त्यौहार है।
आप सभी को दीवाली एवं नव वर्ष की ढ़ेरों शुभकामनायें।