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आया है मुझे फ़िर याद वो ज़ालिम

अक्सर दोस्ती ऐसे होती है की आपकी और आपके दोस्तों की कुछ पसंद मिलती हो। मतलब कोई एक ऐसी चीज़ होती है जो आपको साथ लाती है। वो आपके शौक़, कलाकार या कोई खेल। जैसे हिंदुस्तान में क्रिकेट खेलने वाले दोस्त न सही लेकिन जान पहचान की शुरुआत का ज़रिया तो बन ही जाते हैं।

अंग्रेज़ी का एक शब्द है vibe (वाइब)। मतलब? आप जब किसी से मिलते हैं तो उसका पहला इम्प्रेशन। कुछ लोग आपको पहली ही मुलाक़ात में पसंद आते हैं और कुछ कितनी भी बार मिल लीजिये, उनके बारे में अवधारणा नहीं बदलती। कुछ लोगों से पहली बार मिलकर ही आप को पता लग जाता है की ये कहाँ जानेवाला है या कहीं नहीं जानेवाला है।

फ़ेसबुक जहाँ सभी दोस्त हैं – आपका रिश्ता कुछ भी हो, अगर आप फ़ेसबुक पर हों तो आप फ्रेंड ही हैं। ठीक वैसे ही जैसे पहले फेसबुक पर कोई भी कुछ भी शेयर करे – अच्छा या बुरा आपके पास बस लाइक बटन ही क्लिक करने को था। वो तो पता नहीं किसने मार्क भाई को समझाया तब जाकर कुछ और इमोजी जोड़ी गईं। नहीं तो आप सगाई का ऐलान करें या अलग होने का सब को लाइक ही मिलते थे। ये आप पता करते रहिये की इसमें से किस लाइक का क्या मतलब है।

तो आज फ़ेसबुक की सैर पर देखा तो एक सज्जन ने बड़े प्यार से बताया की वो इन दिनों कौन सी किताब पढ़ रहे हैं। उनके ज़्यादातर दोस्तों ने तो किताब की बड़ाई करी और साथ में ये भी बताया की उस किताब ने उनके जीवन पर क्या प्रभाव डाला है। लेकिन एक दो लोगों ने इसके विपरीत ही राय रखी। एक सज्जन ने तो कई बार ये लिखा की ये एक बकवास किताब है और इसको न पढ़ा जाये तो बेहतर है।

उनका ये कहना था की उन्होंने अपने जीवन के पाँच वर्ष इस किताब को पढ़ कर और उसमें जो लिखा है उसका पालन करने में लगाये लेक़िन उन्हें निराशा ही हाथ लगी। उन्होंने लोगों को ये समझाईश भी दे डाली की इस किताब को छोड़ उन्हें दूसरी किताबें पढ़नी चाहिये।

इस पूरे मामले का ज़िक्र मैं इसलिये कर रहा हूँ की उन सज्जन का ये कहना की ये किताब अच्छी नहीं है हो सकता है उनके लिये बिल्कुल सही हो। लेक़िन क्या वो सबके लिये सही हो सकता है? मैं ये भी मानने के लिये तैयार हूँ की उनकी मंशा अच्छी ही रही होगी।

लेकिन जब बच्चे बडे हो रहे होते हैं तब माता पिता उनको जितना हो सके ज्ञान देते हैं। क्या गर्म है, क्या ठंडा ये बताते हैं लेकिन जब तक बच्चे एक बार गर्म बर्तन को छू नहीं लेते उनकी जिज्ञासा शांत नहीं होती है। ठीक उसी तरह मुझे इनकी समझाईश से परेशानी है। निश्चित ही वो अपने दोस्त का भला चाहते होंगे इसलिये उन्होंने अपना अनुभव साझा किया। लेकिन अगर ऐसे ही चलता होता तो हम आगे कैसे बढ़ेंगे? और हमारे अपने अनुभव न होंगे तो हमारे व्यक्तित्व का विकास कैसे होगा?

हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है हमारी गलतियाँ। छोटी या बड़ी कैसी भी हों वो हमें सीखा ज़रूर जाती हैं। बात तो तब है जब आप अपनी ग़लती माने और उसको सुधारें भी। यही मैं उन सज्जन को भी बताना चाहता हूँ।

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