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मुश्किल में है कौन किसी का समझो इस राज़ को, लेकर अपना नाम कभी तुम खुदको आवाज़ दो

ये भी गुज़र जायेगा। आप इसे उम्मीद कहें या आशा, हमारे जीवन में इसका एक बहुत ही बड़ा रोल होता है। जैसे अभी इस कठिन दौर में ही देखिये। सबने सरकार से उम्मीद लगा रखी है और ऐसे में जब उम्मीद पर कोई खरा न उतरे तो दुख होता है।

ये तो बात हुई सरकार की। लेकिन हम अपने आसपास, अपने परिवार, रिश्तेदारों में ही देखिये। सब कुछ न कुछ उम्मीद ही लगाये बैठे रहते हैं। जब बात ऑफिस की या आपके सहयोगियों की आती है तो ये उम्मीद दूसरे तरह की होती हैं और अगर कोई खरा नहीं उतरता तो बुरा भी लगता है और अपने भविष्य की चिंता भी।

पिछले दिनों मेरे एक पुराने सहयोगी से बात हो रही थी नौकरी के बारे में। ऐसे ही बात निकली कैसे लोग अपनी ज़रूरत में समय आपको भगवान बना लेते हैं और मतलब निकलने पर आपकी कोई पूछ नहीं होती। ये सिर्फ़ नौकरी पर ही लागू नहीं होता मैंने निजी जीवन में ऐसे कई उदाहरण देखे हैं। इससे संबंधित मैंने अपना अनुभव साझा भी किया उनके साथ। बात खत्म हो गयी लगती थी।

लेकिन पिछले दो दिनों से डिप्रेशन के विषय में बहुत सारी कहानियां पढ़ी। ये मनगढ़ंत नहीं बल्कि लोगों की भुगती हुई बातें थीं। आज फ़ेसबुक पर नज़र पड़ गयी और मैंने एक पोस्ट पढ़ना शुरू किया। जैसे जैसे पढ़ता गया लगा मेरे ही जैसे कोई और या कहूँ तो लगा मेरी आपबीती कोई और सुना रहा था। सिर्फ़ जगह, किरदार और इस समस्या से उनके निपटने का अंदाज़ अलग था। उनके साथ ये सब उनके नये संपादक महोदय कर रहे थे और मैं एक संपादक कंपनी के मैनेजमेंट के हाथों ये सब झेल रहा था।

इस बारे में मैंने चलते फ़िरते जिक्र किया है लेक़िन मुझे पता नहीं क्यों इस बारे में बात करना अच्छा नहीं लगा। आज जब उनकी कहानी पढ़ी तो लगा अपनी बात भी बतानी चाहिये क्योंकि कई बार हम ऐसे ही बहुत सी बातें किसी भी कारण से नहीं करते हैं। लेक़िन अब लगता है बात करनी चाहिये, बतानी चाहिये और वो बातें ख़ासकर जो सिर्फ़ और सिर्फ़ अच्छाइयों के बारे में न हों।

चक्र की शुरुआत

साल 2014 बहुत ही बढ़िया रहा। टीम ने बेहतरीन काम किया था। चुनाव का कवरेज बढ़िया रहा। कुल मिलाकर एक अच्छे दौर की शुरुआत थी।आनेवाले दो साल भी ठीक ठाक ही गुज़रे। ठीक ठाक ऐसे की जब आप अच्छा काम करके एक मक़ाम पर पहुँच जाते हैं तो आपसे उम्मीद बढ़ जाती है। आप भी एक नशे में रहते हैं और जोश खरोश से लगे रहते हैं। ये जो प्रेशर है ये आपकी ज़िंदगी का हिस्सा बन जाता है और साथ में दे देता है आपको कई बीमारियों की सौग़ात बिल्कुल मुफ्त। आप उस समय एक अलग दुनिया में होते हैं। पैसा भी होता, नाम भी और शोहरत भी। मेरी टीम हार जगह अव्वल आ रही थी। लेक़िन इसके यहाँ तक पहुंचने की मैंने एक कीमत अदा करी थी जिसका खुलासा 2016 में डॉक्टर ने किया।

मुझे याद है इस समय मेरी टीम में कई नये सदस्यों का आना हुआ। हमने और अच्छा काम किया। मुझे बाक़ी टीम से बात करने को कहा जाता की अपना फॉर्मूला उनके साथ साझा करूं। लेक़िन मेरे पास कोई फॉर्मूला नहीं था। मेरे पास सिर्फ़ टीम थी और उनपर विश्वास की कुछ भी हो सकता है। मेरी टीम में इतना विश्वास देख मेरे एक वरिष्ठ ने चेताया भी की ये कोई तुम्हारे साथ नहीं देंगे। तुम पीठ दिखाओगे और ये तुम्हारी बुराई शुरू कर देंगे। मुझे इससे कोई ख़ास फर्क़ नहीं पड़ता था (ये झूठ है ये मुझे बाद में समझ आया).

ख़ैर 2016 में कंपनी बदलाव के दौर से गुज़र रही थी। सीनियर मैनेजमेंट के सभी लोगों ने नौकरी छोड़ दी थी और नये लोगों की तलाश शुरू थी। ये जो नये महानुभाव आये ये दरअसल इसी कंपनी के पुराने मुलाज़िम थे और इन्हें अब एक वरिष्ठ अधिकारी बनाकर लाया जा रहा था। मैं इनके साथ पहले काम कर चुका था जब ये पहले कंपनी का हिस्सा थे। जब पता चला कौन होगा नया बंदा तो लगा अच्छा है। मैं कितना ग़लत था ये आनेवाले दिनों में मुझे पता चला।

बदले बदले से मेरे सरकार नज़र आते हैं

इन महानुभाव के आने के बाद बदलाव धीरे धीरे होने लगे। चूँकि मेरी टीम सबसे बड़ी थी तो शुरआत हुई कुछ और सीनियर लोगों को रखने से। मुझसे कहा गया की ये मेरे सहयोगी ही होंगे और टीम अच्छे से मैनेज हो पायेगी। इन्होंने जेफ़ बेजोज़ की पिज़्ज़ा थ्योरी का भी उदाहरण दिया। इस तरह से पहले सहयोगी आ गये। अच्छा इन सबके लिये जो भर्ती हो रही थी उसमें मेरा कोई रोल नहीं था। मतलब वो लोग जो मेरे साथ काम करनेवाले थे उनका इंटरव्यू मैंने लिया ही नहीं। न मुझे उनके बारे में कोई जानकारी दी गयी।

इसके बाद दूसरे सज्जन की भर्ती की बात होने लगी। इन के साथ महानुभाव ने पहले काम किया था। चूँकि किसी कारण से उन्हें भी वो नौकरी छोड़नी पड़ी तो महानुभाव कि मानवता जगी हुई थी। इनको भी रख लिया गया। अब जो इनके पहले सज्जन थे वो ये दूसरे महापुरुष के आने से काफी विचलित थे। वो रोज़ मुझे सुबह सुबह फ़ोन करके इन महापुरुष की गाथाएं सुनाते।

ख़ैर। अब दोनों आ गये थे तो काम का बंटवारा होना था। पहले सज्जन को एक भाषा दे दी गई और दूसरे महापुरुष को राष्ट्रीय भाषा का दायित्व दिया गया। बस एक ही मुश्किल थी – महापुरुष ने इस भाषा में कभी कुछ किया नहीं था। लेकिन ये पूरा ट्रेलर था और फ़िल्म अभी बाकी थी। मुझे बहुत कुछ समझ आ रहा था और ये स्क्रिप्ट में क्या होने वाला है ये भी।

जब महानुभाव से मिलता तो पूछता मेरे लिये कोई काम नहीं बचा है। वो कहते बाकी दो भाषायें हैं उनके बारे में सोचो और स्पेशल प्रोजेक्ट पर ध्यान दो। तुम संपादक हो। इन सबमें क्यों ध्यान दे रहे हो। तुम स्ट्रेटेजी बनाओ। धीरे धीरे खेल का अंदाज़ा हो रहा था।

प्लान B

अगर पहले मेरे पास 20 काम थे तो 18 मुझसे ले लिये गये और दो रहने दिये। अब काम करना है तो करना है तो जो बाक़ी दो बचे थे उसमें भी अच्छा काम हो गया और सबकी अपेक्षाओं के विपरीत परिणाम रहे।

इस पूरे समय जो अंदर चल रहा था उसको समझ पाना थोडा मुश्किल हो रहा था। टीम का हर एक सदस्य किसी भी भाषा का हो मेरे द्वारा ही चयनित था। इसमें से बहुत बड़ी संख्या में लोगों का पहला जॉब था। अचानक उनसे बात बंद और कभी कभार बातचीत का मौका मिलता। पहले अजीब सा लगा लेक़िन मैंने भी जाने दिया क्योंकि आफिस में मैं किसी कैम्प में नहीं था। शराब पीने का कोई शौक़ नहीं था और अगर कभी पार्टी में दोस्त मिले तो बात अलग। महानुभाव को इन सबकी बहुत आदत थी। उनके साथ चंद लोगों का ग्रुप रहता था और मुझे न उसका हिस्सा बनने की कोई ख्वाहिश थी न कोई मलाल। ये उनके घर के पास रहते थे और लगभग हर हफ़्ते मिलते। मुझे इन सबसे वैसे ही कोफ़्त होती और खोखले लोगों से सख्त परहेज़। लेकिन इनकी अपनी एक दुनिया थी और उसमें ये सब साथ, बहुत खुश और बहुत कामयाब भी।

दिसंबर 2016 में टीम के साथ एक पार्टी थी। ये एक लंबे समय से टल रही पार्टी थी और कभी किसी न किसी के रहने पर टलती जा रही थी। आखिरकार दिन मुक़र्रर हुआ लेक़िन इत्तेफाक ऐसा हुआ की महानुभाव ने उसी दिन दूसरे शहर में मेरी ही दूसरी टीम के साथ पार्टी रखी थी। काम के बंटवारे के चलते उनकी पार्टी में एक बंदा नहीं जा पाया और उनको पता चला की मुम्बई की मेरी टीम पार्टी कर रही है इसके लिये उसको आफिस में रहना होगा।

दूसरे दिन महानुभाव ने मेरी पेशी लगाई। दरअसल वो बहुत समय से किसी मौके की तलाश में थे कि कैसे मुझे रास्ते से हटाया जाये। इस घटना के बाद उनकी ये मंशा उन्हें लगा पूरी होगी। लेकिन बात थोड़ी गड़बड़ ऐसे हो गयी की उनको लगा की पार्टी कंपनी के पैसे से हुई थी। जब मैंने कहा की ये मेरे तरफ़ से दी हुई पार्टी थी तो उन्होंने टीम के सदस्यों के ख़िलाफ़ एक्शन लेने की बात करी। मैने उनसे कहा कि अगर ऐसा है तो मुझसे शुरू करें और अपना त्यागपत्र भेज दिया।

महानुभाव ने उस पर कोई कार्यवाही नहीं करी लेकिन उन्होंने पता ज़रूर लगाया कि जो मैंने कहा था उसमें कितनी सच्चाई थी। बाद में पता चला की इस घटना के कुछ दिनों बाद मेरे त्यागपत्र को मंज़ूर करने की सोची। लेक़िन उन्हें ऐसा नहीं करने की सलाह दी गई। मुझे भी साथ में सलाह दी गयी की मैं अपना त्यागपत्र वापस ले लूँ लेक़िन मैंने ऐसा कुछ नहीं किया।

अभी तो पार्टी शुरू हुई है

अब ऑफिस जाने का मतलब हुआ करता था टाइम पास। काम न के बराबर था। मैनेजमेंट शायद ये सोच रहा था की बंदे को काम ही नहीं देंगे तो झकमारकर खुद ही नौकरी छोड़ देगा। लेकिन हम भी ढीठ ठहरे। निकालना हो तो निकालो हम नहीं जानेवाले।

इसी दौरान कहानी में एक और ट्विस्ट आया। महानुभाव ने अपनी पता नहीं किस कला से विदेश में पोस्टिंग पा ली। मतलब अब कोई औऱ आनेवाला था टार्चर करने के लिये।

जैसा कि हमेशा किसी भी बदलाव के साथ होता है, पहले से ज्ञान दिया गया कुछ भी नहीं बदलेगा। सब वैसे ही चलेगा। लेक़िन मालूम था ये सब बकवास है और आने वाले दिन और मज़ेदार होने वाले हैं। मज़ेदार इसलिये क्योंकि मेरे पास खोने के लिये कुछ बचा नहीं था। 70-80 की टीम में से अब सिर्फ़ शायद दो लोग मेरे साथ काम कर रहे थे। बाक़ी बात करने से कतराते थे। अब था सिर्फ़ इंतज़ार। कब तक मैं या दूसरी पार्टी खेलने का दम रखती थी।

जल्द ही वो दिन भी आ गया। नहीं अभी और ड्रामा बाकी था। नये महाशय ने मेल लिखा पूरी टीम को। बहुत से बदलाव किये गये थे। जिन राष्ट्रीय भाषा वाले महाशय का मैंने ज़िक्र किया है ऊपर, अब वो मेरे बॉस बन गये थे। मुझे उनको रिपोर्ट करना था और अपने काम का लेखा जोखा उनको देना था। जिस वेबसाइट को मैंने शुरू किया, जिसको टीम के साथ नई ऊचांइयों तक पहुंचाया की वो एक ब्रांड बन गयी, उसका मैं संस्थापक संपादक रहा और अब मुझे किसी और को रिपोर्ट करना था। उसको जो कभी मेरे नीचे काम कर रहा था। जुलाई की उस शाम मुझे उतना बुरा तब नहीं लगा जितना तब लगा जब मेरी एक टीम मेंबर मेरे पास आकर रोने लगीं। कहने लगीं आपके साथ ये लोग ठीक नहीं कर रहे। ख़ैर मैंने उनको समझाया लेक़िन उस बहाने शायद अपने आप को भी समझाया। ये बहुत ही कष्ट वाला दिन था।

अपना ढीठ पना तब भी दिखाया और अपने नये बॉस से काम माँग कर किया। काम करने में कोई परहेज तो था नहीं इसलिये जो मिला कर लिया। महाशय ने छोटी मोटी स्टोरीज़ लिखने को दीं और मैंने लिख भी दीं। मुम्बई में बारिश के चलते मैंने ऑफिस जाने में असमर्थता बताई तो दरियादिली दिखाते हुये महाशय ने घर से काम करने की आज्ञा दी।

और फ़िर…

महीने के आख़िरी दिन मुझे कंपनी की HR का फ़ोन आया। नहीं शायद मैसेज था ये पूछने के लिये की मैं आज ऑफिस कब आनेवाला हूँ। मैंने जवाब में उनसे पूछा की क्या कंपनी का सामान लौटाने का समय आ चुका है। उन्होंने कहा हाँ और मुझे अपना त्यागपत्र भेजने को कहा। जिस दिन ये सब चल रहा था ठीक उस दिन मैंने घर शिफ़्ट किया था। नये घर में सामान आ ही रहा था जब ये शुभ समाचार आया।

इस तरह के अंत की मुझे उम्मीद तो नहीं थी। लेक़िन ऑफिस से निकाले जाने वाली ट्रेजेडी से बच गया। 2014-2017 तक का जो ये सफर रहा इसमें शिखर बहुत ज़्यादा रहे। हर सफ़र का अंत होता है तो इसका भी हुआ। बस महानुभाव, महाशय जैसे किरदारों को ये मौका नहीं मिला कि वो मुझे सामने से जाने को कहें और शायद ये मेरी लिये सांत्वना है। मैंने बहुत सारे किस्से सुने हैं कैसे लोगों को लिफ्ट में घुसने नहीं दिया या उनका पंच कार्ड डिसएबल कर दिया। कई दिनों नहीं कई महीनों तक मैं बहुत ही परेशान रहा। क्या वो डिप्रेशन था? मुझे नहीं पता लेक़िन मेरे लिये वो महीने बहुत मुश्किल थे। वो तो मेरे परिवार से संवाद ने इसको बड़ी समस्या नहीं बनने नहीं दिया।

इसके कुछ दिनों बाद ही मुझे विपश्यना के कोर्स करने का मौका मिल गया और शायद संभलने का मौका भी। लेक़िन अंदर ही अंदर ये बात खाती रहती की सब अच्छा चल रहा था और कितना कुछ करने को था। मुझे ये भी समझ में नहीं आ रहा था क्यों मैंने सब इतनी आसानी से जाने दिया? क्यों मैंने लड़ाई नही लड़ी। लेक़िन कुछ लोगों के चलते सब ख़त्म हो गया। और उस टीम का क्या? उन्हें ढ़ेर सारी शुभकामनाएं। मुझे मेरा सबक मिल गया। लेक़िन अभी एक औऱ सबक मिलना बाकी था।

इस पोस्ट का दूसरा भाग आप यहाँपढ़ सकते हैं।

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