फ़ेसबुक और ट्विटर पर अगर आप भ्रमण पर निकल जाये तो मिनिट घंटे कैसे बन जाते हैं पता ही नहीं चलता। एक क्लिक से दूसरे और फ़िर तीसरे और सिलसिला चल निकला। समय रहते रुकना और वापस यथार्थ में लौटना एक कठिन काम बन जाता है। चूँकि मैं डिजिटल में काम करता हूँ तो ये मेरे कार्यक्षेत्र में आता है। इसलिये काम के लिये ही सही मेरी सर्फिंग चलती रहती है।
पिछले दो दिनों में दो ऐसी पोस्ट पढ़ीं जिनके बारे में लिखने का मन बन गया। आज उस पोस्ट के बारे में जिसमें 90 के दशक उन फिल्मों की लिस्ट थी जो हिट थीं लेक़िन बकवास थीं और एक लिस्ट वो फ़िल्में जो अच्छी तो थीं लेक़िन चली नहीं।
अब जैसा अमूमन होता है, दस साल बाद सबको अक्ल होने का घमंड हो ही जाता है। तो वही लोग जिन्होंने इन फिल्मों को हिट कराया, आज उसको बक़वास कहने लगे। अगर आप आज उन फिल्मों के कलाकारों से पूछेंगे तो वो भी शायद यही कहेंगे आज वो ये फिल्में नहीं करते। लेक़िन दोनो – दर्शक और कलाकार लगभग 20 वर्षों के अनुभव के बाद इस ज्ञान को प्राप्त कर पाये हैं।
ट्विटर पर भी ऐसा ही एक खेला चलता है। अग़र आपको जब आप 15 वर्षीय थे, उसको कोई सलाह देनी होती तो क्या देते? अरे भाई आज तीस साल बाद मैं अपने अकेले को काहे को – पूरे भोपाल शहर को ही ढ़ेर सारी समझाईश दे देता। लेक़िन मेरे जैसे तो लाखों 40-45 साल के भोपाली युवा होंगे जिनके पास ज्ञान का भंडार होगा। अगर 30 साल बाद भी नहीं मिला तो अब निक्कल लो मियां।
ऐसा हमेशा होता है। आप ने बीस साल पहले कुछ निर्णय लिये जो आज शायद गलत लगें। लेक़िन अगर हम अपने हर निर्णय को लेकर ऐसे ही सवाल उठाते रहेंगे तो फ़िर लगेगा हमने कुछ भी सही नहीं किया। जैसे ग्रेजुएशन के बाद मैने कानून पढ़ने का मन बनाया लेक़िन अंततः वो विचार त्याग कर इतिहास में एमए किया।
हम सब वक़्त के साथ समझदार होते जाते हैं। आज भले ही हमें अपना पुराना निर्णय ग़लत लगे लेक़िन उस समय के जो हालात थे और आपके पास जो ऑप्शन थे उसमें से आपको जो सही लगा आपने वो किया। बीस साल बाद चूँकि आपकी समझ बढ़ गयी है तो आप उस वक़्त के निर्णय को ग़लत कैसे कह सकते हैं? भले ही ये बात एक फ़िल्म के बारे में है, लेक़िन उस समय जब आप टिकट खिड़की पर धक्का खा कर वो फ़िल्म देखने जा रहे थे तो कोई तो कारण रहा होगा।
फ़िल्म डर का मैंने किस्सा बताया था। पिछले दिनों डर दोबारा देखने का मौक़ा मिला तो लगा इस फ़िल्म को एडिटिंग की सख्त ज़रूरत है। लेक़िन मैं तब भी ये कहूँगा की फ़िल्म अच्छी है। इसमें मेरे जूही चावला के फैन वाला एंगल आप नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।
फ़िल्मों के हिट या फ्लॉप होने के कई कारण होते हैं। उस समय तो सोशल मीडिया भी नहीं था जो फ़िल्म के हिट या फ्लॉप होने का ज़िम्मा ले ले। नहीं तो आप सोचिये यश चोपड़ा की लम्हे और आमिर खान-सलमान खान की अंदाज़ अपना अपना जैसी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर ढ़ेर हो गयीं लेक़िन कई फूहड़ कॉमेडी वाली फिल्में हिट हो गईं। और यही मेरा इन सभी समझदार व्यक्तियों से सवाल है – आप ने उस समय किन फिल्मों का साथ दिया?
आज की बात करें तो दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की फ़िल्म सोन चिड़िया की बेहद तारीफ़ हुई।सबने इसको साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक बताया। लेक़िन फ़िल्म अपनी लागत भी वसूल नहीं कर पाई। क्या इन समझदार व्यक्तियों ने इस फ़िल्म का साथ दिया या दस साल बाद एक और ऐसे पोल में फ़िर अपनी राय देंगे?
इतने वर्षों में बहुत सी अच्छी फिल्में देखी हैं और ढ़ेर सारी बर्बाद फ़िल्में भी। बहुत से ऐसे निर्णय लिये जो बिल्कुल सही लगे और कुछ ऐसे भी जो उस समय, उन परिस्थितियों के हिसाब से सही थे। आज ऐसे निर्णय को रिव्यु करने का मौक़ा मिले तो कुछ अलग होगा। लेक़िन ये खट्टे मीठे अनुभव ही तो हमको बनाते हैं।
मैं अपने जीवन के कौन से ऐसे अनुभव को निकाल दूँ इतने वर्षों बाद जिससे ये लगे की मैं समझदार हो गया हूँ? अग़र हटाना होगा तो सब कुछ हटेगा क्योंकि ये सभी अनुभव जुड़े हुये हैं। इन सबका निचोड़ है मेरा आज का \’समझदारी\’ वाला व्यक्तित्व और समझदारी से भरी ये पोस्ट!
आपको क्या लगता है जो लोग आज फ़िल्म राजा हिंदुस्तानी को बक़वास क़रार दे रहे हैं, वो फ़िल्म आमिर खान के सशक्त अभिनय को देखने गये थे? लेक़िन उसी आमिर खान और निर्देशक धर्मेश दर्शन की फ़िल्म मेला क्यों नहीं देखने गये? शायद चार साल के अंतराल में समझदारी आने लगी थी?
राम जाने। (आप नीचे 👇जो ये गाना है उसे ज़रूर से सुने। ये एक क्लासिक है और लोगों ने इसके बारे में अपनी राय इतने वर्षों के बाद बदली नहीं है। आप इस बारे में कक्कड़ परिवार के किसी सदस्य या बादशाह से न पूछें)
https://youtu.be/H8Fu_O7y-dg