8 जुलाई 1987 को जब गुलज़ार साहब की फ़िल्म इजाज़त रिलीज़ हुई थी तब तो शायद पता भी नहीं होगा फ़िल्म के बारे में। शायद गुलज़ार साहब को भी थोड़ा बहुत जानना शुरू किया होगा। मैंने शायद इसलिये लगा दिया की ठीक ठीक याद नहीं है फ़िल्म के बारे में और गुलज़ार साहब के बारे में भी। इतना ज़रूर पता है फ़िल्म सिनेमाघर में नहीं देखी थी लेक़िन छोटे पर्दे पर ही देखी।
तैंतीस साल पहले इस फ़िल्म में लिव-इन रिश्ते दिखाये गये थे। मतलब जब एक साल बाद 1988 हम क़यामत से क़यामत तक में आमिर खान और जूही चावला की प्यार की जंग देख रहे थे उससे भी एक साल पहले ये फ़िल्म एक बहुत ही अलग बात कर रही थी। हाँ इस फ़िल्म QSQT से जुड़ा सब बिल्कुल साफ़ साफ़ याद है।
रियल ज़िन्दगी में आते आते इस तरह की ज़िंदगी को और ज़्यादा समय लग गया। मुझे अभी भी याद नहीं इस फ़िल्म का संगीत कैसे सुनने को मिला। टीवी और रेडियो ही एकमात्र ज़रिया हुआ करते थे तो दोनों में से किसी एक के ज़रिये ये हुआ होगा।
फ़िल्म का कैसेट ज़रूर याद है। फ़िल्म में कुल चार गाने थे और सभी आशा भोंसले के गाये हुये। कहानी तीन किरदारों की लेक़िन दोनो महिला चरित्र को तो गाने मिले लेकिन एकमात्र पुरुष क़िरदार को एक भी गाना नहीं मिला। ये गुलज़ार साहब ही कर सकते थे। कैसेट में फ़िल्म के डायलाग भी थे औऱ इससे सीखने को मिला एक नया शब्द।
शब्द है माज़ी। जैसे रेखा नसीरूद्दीन शाह से अपनी क़माल की आवाज़ में पूछती हैं, माज़ी औऱ नसीर साहब जवाब देते हैं, माज़ी मतलब past, जो बीत गया उसे बीत जाने दो उसे रोक के मत रखो। अगर आप डायलॉग सुन लें तो आपको फ़िल्म की कहानी पता चल जाती है। जैसा की गुलज़ार की फिल्मों में होता है, ये मानवीय संवेदनाओं से भरी हुई है। इसमें कौन सा क़िरदार ग़लत है ये सोचना मुश्किल हो जाता है।
फ़िल्म का एक और डायलॉग जो नसीरुद्दीन शाह का है और माज़ी वाले डायलॉग से ही जुड़ा है। सुधा को वो माया के बारे में कहते हैं, \”मैं माया से प्यार करता था – ये सच है। और उसे भूलने की कोशिश कर रहा हूँ – ये सही है। लेक़िन इसमें तुम मेरी मदद नहीं करोगी तो बड़ी मुश्किल होगी क्योंकि मुझसे ज़्यादा तो वो तुम्हें याद रहती है।\”
कहने को दो लाइन ही हैं लेक़िन उनके क्या गहरे अर्थ हैं। जो सच है और जो सही है। शायद ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा भी।
जब फ़िल्म पहली बार देखी तो इससे जुड़ी हर चीज़ से जैसे इश्क़ हो गया। गीत संगीत से पहले ही हो रखा था। देखने के बाद सभी कलाकारों से, थोड़ा ज़्यादा रेखा से, एक जुड़ाव सा हो गया। उस समय जब हम समाज की एक अलग तस्वीर देख रहे थे, तब इस फ़िल्म ने एक नया नज़रिया, नई सोच पेश करी।
फ़िल्म के गीत कैसे बने, कैसे आर डी बर्मन ने मेरा कुछ सामान का मज़ाक उड़ाया था धुन बनाने से पहले, इनके बारे में बहुत चर्चा हुई। लेक़िन एक और कारण था शायद रेखा को बाकी से ज़्यादा पसंद करने का। इस फ़िल्म में उनके किरदार का नाम था सुधा। शायद उन्ही दिनों धर्मवीर भारती जी की गुनाहों का देवता पढ़ी थी और शायद इस नाम की उनकी नायिका का जादू सर चढ़ कर बोल रहा था। लेक़िन अभी भी फ़िल्म के गाने देखते हैं तो रेखा से नज़र नहीं हटती।
मेरा कुछ सामान के बोल हैं ही कुछ इस तरह के की पहली बार सुनने में सबको समझ में भी नहीं आते। मुझे भी नहीं समझ आया होगा की आख़िर कवि कहना क्या चाहता है। लेक़िन आप फ़िल्म देखिये तो समझ आने लगता है। बहरहाल, मुझे इसके गाने बेहद पसंद हैं तो ऐसे ही एक रात सुन रहा था। उन दिनों घर में एक रिशेतदार भी आये हुये थे। उन्होंने काफ़ी देरतक चुपचाप सुना और आख़िर बोल ही पड़े – इतना माँग रही है तो बंदा सामान लौटा क्यूँ नहीं देता?
फ़िल्म के इसी गाने के लिये गुलज़ार साहब और आशा जी को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इन 33 सालों में फ़िल्म से, इसके संगीत से, इसके किरदारों से इश्क़ और गहरा हो गया है। हिंदी फिल्मों में अब पहले जैसी बात तो रही नहीं। न पहले जैसा प्यार रहा न पहले जैसे कलाकार। लव स्टोरी के नाम पर क्या क्या परोसा जा रहा है वो सबके सामने है। औऱ दूसरी तरफ़ है इजाज़त।
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