in ब्लॉग

कल भी आज भी कल भी, इन यादों का सफ़र तो रुके न कभी 2

रेडियो सी जुड़ी यादें जो साझा करीं थीं उसमें से कुछ छूट से गया था इसलिये इसकी दूसरी क़िस्त।

रेडियो जिंदगी का एक अभिन्न अंग सा रहा एक लंबे समय तक। जब पहली बार मुम्बई आया तब निखिल दादा के पास एक रेडियो था। वो जब दफ़्तर चले जाते तब रेडियो ही दिन भर का साथी रहता। उस समय पहली बार प्राइवेट एफएम रेडियो चैनल को सुना लेक़िन कुछ ख़ास मज़ा नहीं आया। उसका कारण था उस चैनल पर आने वाले अंग्रेज़ी गीत। बहुत ज़्यादा अग्रेज़ी गाने तो सुने नहीं थे, जो एक दो गायक को जानते थे अब दिन भर तो उनके गाने नहीं चल सकते थे। तो बस थोड़ा सा कुछ सुनकर बंद कर देता।

जब काम के सिलसिले में दिल्ली आना हुआ तब तक एक दो एफएम चैनल शुरू हो गये थे। लेक़िन उनके कार्यक्रम कुछ ज़्यादा पसंद नहीं आये। शायद उसका कारण रहा वो नया फॉरमेट जिसमें RJ अपना ज्ञान देता औऱ फ़िर गाने सुनाता। ज़्यादातर गाने भी अधूरे ही सुनाये जाते। अब हम विविधभारती के श्रोता ठहरे औऱ उस समय के गाने भी थोड़े लंबे ही हुआ करते थे। लेक़िन रेडियो पर उसमें कांट छांट होती जिससे मज़ा किरकिरा होता।

जहाँ तक फॉर्मेट का प्रश्न है, वो पसंद आने में समय लगा। उसके बाद भी एक या दो कार्यक्रम ही थे जिसका इंतज़ार रहता। कुछ प्रोग्राम जैसे \’लव गुरु\’ जिसमें दो प्रेमी अपनी दर्द भरी दास्ताँ सुनाते औऱ RJ साहब अपनी मुफ़्त की सलाह देते। ऑटो ड्राइवर्स इस प्रोग्राम को बड़ा पसंद करते। मुझे कैसे मालूम? कभी जब देर रात घर लौटना होता तो यही सुनने को मिलता।

मग़र इन सबके बीच मुम्बई आना हुआ औऱ यहाँ रेडियो पर मिले करण सिंह जो उन दिनों \’यादें\’ नाम का एक प्रोग्राम करते थे। मेरा ये भरसक प्रयास रहता की 9 बजे जब उनका प्रोग्राम शुरू होता उसके पहले घर पहुंच जाऊं ताक़ि सुकून से उन्हें सुन सकूं। उनका कार्यक्रम सबसे अलग औऱ चूँकि शेरोशायरी का मुझे भी शौक़ रहा है, तो उनकी शायरी भी पसंद आती। लेक़िन फ़िर मसरूफ़ियत ऐसी हुई कि करण सिंह साहब भी छूट गये। उन्होनें नया चैनल भी जॉइन कर लिया लेक़िन सुनना मुश्किल होता गया। अब सबको वो पसंद भी नहीं आते।

https://youtu.be/QaeVIxEPHZo

ख़ैर। जब ये एफएम चैनल आये तो विविधभारती भी बदल गया औऱ प्रसारण एफएम पर शुरू हुआ। कार्यक्रम वही रहे लेक़िन प्रसारण की क्वालिटी औऱ बेहतर हो गयी। समय के साथ कुछ कार्यक्रमों में बदलाव भी किये गए औऱ प्रसारण समय भी बदले। अब वो चित्रलोक नहीं रहा क्योंकि अब गाने देखने का चलन हो गया है। औऱ इतनी मेहनत कौन करे – जैसे क़यामत से क़यामत तक के रेडियो प्रमोशन के लिये करी गयी थी। अब तो गाने का वीडियो यूट्यूब पर रिलीज़ कर दीजिये औऱ सब वहीं देख लेंगे।

वैसा ही हाल रहा रेडियो पर कमेंटरी का। आपने कभी रेडियो पर कमेंटरी सुनी है? क्रिकेट या किसी औऱ खेल की? आज तो टीवी पर देखने को मिल जाता है या मोबाइल पर सब कुछ मिल ही जाता है। लेक़िन एक समय था जब कमेंटरी रेडियो पर सुनी जाती थी औऱ उसका अपना ही मज़ा था। अब चूँकि मैदान में कौन खिलाड़ी कहाँ खड़ा है ये समझना मुश्किल होता था तो बाकायदा मैदान के जैसा गोल एक बोर्ड आता था जिस पर ग्राउंड की अलग फील्डिंग पोजीशन इंगित रहती थी। तो जब आपने सुना की शॉर्टलेग पर कैच लपका तो ये बोर्ड आपकी मदद करता।

https://youtu.be/P_t3DjtygSU

टीवी आने के बाद कई बार ये भी किया की मैच देखा टीवी पर और कमेंटरी लगाई रेडियो पर। इतनी बेहतरीन कमेंटरी होती थी। या ये कहें की आदत हो गयी थी। अब तो पुराने।खिलाड़ी ही कमेंट्री करने लगे हैं लेक़िन वो खेल की तकनीक को समझते होंगे। कमेंट्री एक अलग तरह का आर्ट है जिसे निभाना सबके बस की बात नहीं है। अभी जो कमेंट्री करते हैं उनमें से कोई भी ऐसा नहीं जिसे याद रखा जाये।

रेडियो से जुड़ी आपकी क्या यादें हैं? नीचे कमेंट कर बतायें।

Write a Comment

Comment

  • Related Content by Tag