आज शुरुआत गुलज़ार साहब की एक रचना के चंद शब्दों के साथ। फ़िल्म इजाज़त और गाना वही मेरा कुछ सामान। लेक़िन इस बार बात उस ख़त की जो टेलीग्राम के रूप में महिंदर और सुधा तक पहुँचता है। लिखा माया ने है और वो सामान वापस करने का ज़िक्र कर रही हैं एक कविता के ज़रिये।
एक दफ़ा वो याद है तुम्हें,
बिन बत्ती जब साईकल का चालान हुआ था,
हमने कैसे भूखे प्यासे बेचारों सी एक्टिंग की थी,
हवलदार ने उल्टा एक अठन्नी देकर भेज दिया था,
एक चवन्नी मेरी थी,
वो भिजवा दो
नहीं मैं इसे एक और गुलज़ार या इजाज़त वाली पोस्ट नहीं बनने दूँगा। वैसे रस्मे मौसम भी है, मौका भी है औऱ दस्तूर भी।
आपने कभी वो ऑनलाइन सेल में कुछ खरीदा है? जिसमें सेल शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो जाती। थोड़ी देर बाद वो कंपनी बड़े घमंड के साथ सोशल मीडिया पर आती और बताती कितने सेकंड में उनका माल बिक गया। इन सेल में मेरी किस्मत बहुत नहीं चली (अपने लिये) लेक़िन बाक़ी लोगों के लिये मुझे एक दो बार कामयाबी ज़रूर मिली।
कोरोना के चलते मुझे इस सेल वाले अनुभव की फ़िर से याद आयी जब रात में राशन पानी लेने के लिये वेबसाइट के खुलने का इंतज़ार कर रहे थे। आसपास की सभी दुकानें बंद और वो सभी डिलीवरी करने वाली एप्प ने भी हमारे इलाके से कन्नी काट रखी थी। एक वेबसाइट तो 20 में से चार वो चीज़ें ही डिलीवर करने को तैयार थी जिनके बिना काम चल सकता था।
रात के लगभग 12 बजे जब साइट ने आर्डर लेना शुरू किया तो बस किसी तरह आर्डर जल्दी से हो जाये इसका ही प्रयास कर रहे थे। जल्दी इसलिये की अगर 10 चीज़ें आर्डर करी हैं तो कमी के चलते उसमें ही 5 ही आपके घर पहुँचती हैं। ऐसा पहले भी होता रहा है की पूरा सामान नहीं आया हो। लेक़िन इन दिनों लालच बढ़ गया है और दूसरा ये की बाहर निकलने पर क्या मिले क्या न मिले इसका कोई भरोसा नहीं है।
बहरहाल सभी प्रयासों के बाद सामान का आर्डर नहीं हुआ। एक दो बार पैसा भरने तक पहुँचे भी लेक़िन उसके आगे टायें टायें फिस्स। सभी डिलीवरी स्लॉट भर गये थे। सेल में फ़ोन या एक रुपये में फ़िटनेस बैंड मिलने का इतना दुख नहीं हुआ जितना इस आर्डर के न होने पर हुआ था।
आँखों से नींद कोसों दूर थी औऱ उस कंपनी के लोगों को ज्ञान देने की भी इच्छा थी। ढेर सारा की वो हम ग्राहकों से इतना बेचारा जैसा व्यवहार क्यों करती हैं। इसी उधेड़बुन में एक बार फ़िर वेबसाइट पर पहुंचा और एक औऱ प्रयास किया। ये क्या? बड़ी आसानी से एक के बाद एक रुकावटें पार करते हुये आख़िरी पड़ाव यानी भुगतान तक पहुँच गये। विश्वास नहीं हो रहा था और लग रहा था जैसे सिग्नल की लाइट लाल होती है वैसे ही किसी भी समय ये हो सकता था।
लेक़िन उस रात कोई तो मेहरबान था। क्योंकि अंततः आर्डर करने में सफलता मिली औऱ जब कंपनी से इसका संदेश आ गया तो उस समय की फीलिंग आप बस समझ जाइये। लेक़िन साथ ही उस शख़्स के लिये भी बुरा लगा जिसने प्रयास किये होंगे लेक़िन समय सीमा के चलते शायद वो ऐसा नहीं कर पाये।
इस पूरे घटनाक्रम से यही सीख मिली कि जब आपको लगने लगे सब ख़त्म हो चुका है, एक बार औऱ प्रयास कर लीजिये। शायद कुछ हो जाये। वैसे हमारे ऐसे अनुभव काली कार के साथ बहुत हुये हैं। चूँकि चलती कम थी तो बैटरी की हमेशा साँस फूली रहती। हूं लोगों को कभी घर के अंदर नहीं तो बाहर सड़क पर उसको धक्का देना होता। और कुछ नख़रे दिखाने के बाद जब कार स्टार्ट होती तो उससे मधुर आवाज़ कोई नहीं होती।
ऐसा ही एक अनुभव पिछले वर्ष हुआ था अगस्त के महीने में। सपरिवार भोपाल जाने का कार्यक्रम था और टिकट भी करवा लिये थे। लेक़िन मुम्बई में हमेशा बनती रहने वाली सड़कों के चक्कर में स्टेशन पहुँचे तक गार्ड साहब वाला डिब्बा और उसमें से वो हरा सिग्नल दिख रहा था। मायूस से चेहरे लेकर ऐसे ही टिकट काउंटर पर जाकर पूछा शाम की दूसरी ट्रेन के बारे में औऱ… तीन घंटे बाद वाली ट्रेन में कन्फर्म टिकट मिल गया।
सीख वही ऊपर वाली। प्रयास करते रहिये।
अब इसमें गुलज़ार साहब का क्या योगदान? जी वो चिल्लर की बात जो माया देवी कर रहीं थी, बस वैसी ही ज़िन्दगी लगती है जब ऐसा कुछ होता है।
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