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व्रत, पुरुष और समाज

2007 की बात है। अक्टूबर का महीना रहा होगा। वैसे तो शाम को ऑफिस 6 या 6.30 बजे तक छूट जाता था लेक़िन घर पहुँचते पहुँचते 8.30 बज ही जाते थे। उस शाम मैंने जल्दी निकलने की बात करी बॉस से। मेरे पीटीआई के पुराने सहयोगी जो उस संस्था में पहले से कार्यरत थे उन्हें समझ नहीं आया ऐसा मैं क्यों जल्दी जा रहा था। उन्होनें पूछा तो मैंने बताया की आज करवा चौथ है इसलिये जल्दी जाना है। उन्होनें ख़ूब हँसी भी उड़ाई लेक़िन उससे मुझे कोई शिकायत नहीं थी।

आज इस घटना का उल्लेख इसलिये कर रहा हूँ क्योंकि आज हरछठ त्यौहार है। वैसे तो हमारे यहाँ त्योहारों की कोई कमी नहीं है औऱ सावन मास ख़त्म होते ही इनकी शुरुआत हो जाती है। लेक़िन हरछठ या सकट चौथ या करवा चौथ जैसे त्योहारों से मुझे घोर आपत्ति है। क्योंकि बाकी का तो नहीं पता लेक़िन ये तीन त्यौहार सिर्फ़ और सिर्फ़ पुरुषों (बेटों/पतियों) के लिये किये जाते हैं। पहले दो माँ अपने बेटों के लिये करती हैं औऱ आख़िरी वाला पत्नी अपने पत्नियों के लिये।

आप ये बात समझिये की हम एक बहुत ही छोटी उम्र से अपने बच्चों में ये भेदभाव शुरू कर देते हैं। ये बेटे और बेटियों के बीच का भेदभाव। लड़का दुनिया में आता नहीं की माँयें उसके लिये उपवास रखना शुरू कर देतीं हैं। विवाह ऊपरांत पत्नी भी माँ के साथ इस कार्य में जुट जाती है। हमारी बेटियाँ शुरू से ये देख कर ही बड़ी हो रहीं हैं। जब घर पर ही एक बेटी और बेटे के बीच फ़र्क़ दिखेगा तो कैसे दोनो बच्चे अपने आप को समान समझेंगे?

दुख की बात ये है की हमारे समाज के पढ़े लिखे लोग भी इन सब बातों को मानते हैं। एक बेटे की लालसा में लोग न जाने क्या क्या करते हैं लेक़िन वो बेटा नालायक निकल जाये तब भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। बस बेटा होना चाहिये। अगर किसी की दो या तीन बेटियाँ हो जायें तो उसका मज़ाक बनाया जाता है। जिनके बेटे होते हैं वो सीना चौड़ा करके चलते हैं और उन लोगों पर ताना मारते हैं जिनकी बेटीयाँ होती हैं। ये सब उस सोच का नतीजा है जो लड़का और लड़की में भेदभाव करती है। महाभारत क्या है? अगर धृतराष्ट्र अपना पुत्र मोह त्याग देते तो संभवतः महाभारत ही नहीं होती।

फ़िल्म दंगल हमारे समाज को आईना दिखाने का काम करती है। महावीर सिंह फोगाट ने बेटे की चाह में चार बेटीयाँ को इस दुनिया में लाया। क्यूँ? क्योंकि उनकी चाहत थी की उनका बेटा हो और वो कुश्ती में स्वर्ण पदक जीते। उनके इस पदक की चाहत उनकी बेटी ने ही पूरी की। लेक़िन आज भी ऐसे परिवार हैं जो एक बेटे की चाहत में लड़कियों की लाइन लगा देते हैं। उनको समाज में अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिये एक बेटे की सख़्त ज़रूरत महसूस करवाई जाती है। दंगल में ही देख लें जब तीसरी बेटी पैदा होती है तो गाँव के बड़े बुज़ुर्ग सांत्वना देते हैं।

अगर बेटों के लिये न होकर ये सन्तान के लिये किया जाने वाला व्रत होता तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होती। लेक़िन ऐसा नहीं है। फ़ेसबुक पर एक आज सज्जन बोल गये की उनकी माँ ये उपवास करती थीं लेक़िन उनकी पत्नी नहीं करती। लेक़िन उनकी बेटियाँ ये व्रत ज़रूर रखती हैं। उन्होंने शायद ध्यान नहीं दिया होगा की उन्होंने अनजाने में ही सही लेक़िन अपने पत्नी के इस व्रत को न रखने की वजह भी बता दी।

हमारे यहाँ बेटियों को देवी कहा जाता है। उनकी पूजा होती है। लेक़िन पूछ परख सिर्फ़ बेटों की। कौन सा ऐसा व्रत है जो बेटियों के लिये रखा जाता है? वो बेटी, बहु, पत्नी जो वंश को आगे बढ़ाने का काम करती है उसको हम समाज के पुरुष क्या देते हैं?

और दूसरी बात जिससे मुझे आपत्ति है वो बेटी को बेटा बनाने की ज़िद। क्या आप कभी अपने बेटे को बेटी कहते हैं? नहीं? तो फ़िर बेटी को बेटा बनाने पर क्यों तूल जाते हैं? क्यों बेटी के दिमाग में ये बात डालते हैं की आपको एक बेटे की ज़रूरत थी लेक़िन वो नहीं है तो अब तुम्हे उसका रोल भी निभाना पड़ेगा। अलबत्ता अगर आपका बेटा कुछ बेटीयों जैसा व्यवहार करने लगे तो आप तो उसकी क्लास लगा दें।

मेरी माँ ने इस बेटों के व्रत की प्रथा को अपने परिवार के लिये ही सही लेक़िन बदला। उन्होनें ये पहले ही बोल दिया ये दोनों व्रत बच्चों के लिये रखे जायें न की सिर्फ़ पुत्रों के लिये। ये एक बहुत बड़ा बदलाव था लेक़िन क्या बाकी लोग ऐसी सोच रखते हैं? मैं दावे के साथ कह सकता हूँ की बहुत कम ऐसे परिवार होंगे जो पुत्रियों के लिये इस व्रत को रखने की आज्ञा भी देंगे। हम अपने रूढ़िवादी विचारों में इतने जकड़े हुये हैं की \”लोग क्या कहेंगे\”, \”समाज क्या कहेगा\” इस डर से जो सही है वो करने से भी डरते हैं।

और ये एक तरफा चलने वाला ट्रैफिक क्यूँ है? संतान माता पिता की लंबी आयु, उनके स्वस्थ रहने के लिये क्यों कोई व्रत उपवास नहीं रखते? माँ 70 साल की भी हो जाये तब भी अपने 40 से ज़्यादा उम्र के बेटे के लिये ये व्रत रखती है। ये कहाँ तक उचित है? करवा चौथ अगर पति के लिये रखा जाता है तो उस पत्नी के लिये पति उपवास क्यों न रखे जो परिवार का ध्यान रखती है और हमेशा उनकी सेवा में लगी रहती है।

जब उस 2007 की शाम में जल्दी घर आने का प्रयास कर रहा था तो उसका मक़सद अपने को भगवान बना कर पूजा करवाना नहीं था। मैं तो सिर्फ़ काम में हाँथ बटाना चाहता था क्योंकि श्रीमती जी उपवास तो रखेंगी और सारे पकवान भी बनायेंगी। लेक़िन दिनभर निर्जला रहकर शाम को इन पकवानों का स्वाद आता है? इस बार रहकर देख लीजिये।

https://youtu.be/u1vASMbEEQc

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