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जब रविवार सचमुच होता था एक ख़ास दिन

जब हम पढ़ रहे थे तब दूसरे और चौथे शनिवार स्कूल की छुट्टी रहती थी। पिताजी का साप्ताहिक अवकाश रविवार को ही होता था। मतलब रविवार का केवल एक दिन मिलता था जब सब घर पर साथ में रहते थे। लेकिन उन दिनों रविवार का मतलब हुआ करता था ढेर सारा काम। गाड़ियों – स्कूटर, सायकल और हमारी रामप्यारी अर्थात ऑस्टिन – की धुलाई एक ऐसा काम होता था जिसका हम सब इंतज़ार करते थे।

पिताजी ने हमेशा गाड़ी का खयाल रखना सिखाया। हमारे पास था भी एंटीक पीस जिसका रखरखाव प्यार से ही संभव था। गाड़ी चलाने से पहले गाड़ी से दोस्ती का कांसेप्ट। उसको जानिये, उसके मिज़ाज को पहचानिये। गाड़ी तो आप चला ही लेंगे एक दिन लेकिन गाड़ी को समझिये। इसकी शुरुआत होती है जब आप गाड़ी साफ करना शुरू करते हैं। एक रिश्ता सा बन जाता है। ये सब आज लिखने में बड़ा आसान लग रहा है। लेकिन उन दिनों तो लगता था बस गाड़ी चलाने को मिल जाये किसी तरह।

गाड़ी से ये रिश्ते का एहसास मुझे दीवाली पर भोपाल में हुआ। चूंकि कार से ये सफ़र तय किया था तो गाड़ी की सफ़ाई होनी थी। उस दिन जब गाड़ी धो रहा था तब मुझे ध्यान आया कि एक साल से आयी गाड़ी की मैंने ऐसे सफाई करी ही नहीं थी। मतलब करीब से जानने की कोशिश ही नहीं करी। कभी कभार ऐसे ही कपड़े से सफ़ाई कर दी। नहीं तो बस बैठो और निकल पड़ो। कभी कुछ ज़रूरत पड़ जाये तो फ़ोन करदो और काम हो जायेगा।

जब तक नैनो रही साथ में तो उसके साथ ऐसा बर्ताव नहीं किया। लेकिन नई गाड़ी आते ही दिल्ली निकल गये इसलिये गाड़ी चलाने का भी कम अवसर मिला। लेकिन दिल्ली में भी गाड़ी को बहुत याद ज़रूर करता और इसका दुख भी रहता कि नई गाड़ी खड़ी रहती है। यहां आकर उसको थोड़ा बहुत चला कर उस प्यार की खानापूर्ति हो जाती। बस उसको पार्किंग में देख कर खुश हो लेते। श्रीमती जी की लाख ज़िद के बाद भी अभी उन्हें इससे दूर रखने में सफल हूँ। लेकिन जब कार से लंबी यात्रा करनी हो तब लगता है उन्हें भी कार चलाना आ जाये तो कितना अच्छा हो। हम लोगों को कार से घुमने का शौक भी विरासत में मिला है। जिससे याद आया – मैंने आपसे मेरी अभी तक कि सबसे अनोखी कार यात्रा जो थी झीलों की नगरी भोपाल से धरती पर स्वर्ग कश्मीर के बीच – उसके बारे कुछ बताया नहीं है। फिलहाल उसकी सिर्फ एक झलक नीचे। दस साल पुरानी बात है लेकिन यादें ताज़ा हैं।

अगर हम गाड़ी की जगह इन्सान और अपने रिश्ते रखें तो? हम कितना उनको सहेज कर रखते है? क्या वैसे ही जैसे कभी कभार गाड़ी के ऊपर जमी धूल साफ करते हैं वैसे ही अपने रिश्तों के साथ करते हैं? या फिर हमने उनके रखरखाव की ज़िम्मेदारी एक कार साफ करने वाले के जैसे अपने लिये खास मौके छोड़ दिये हैं? समझें क्या कहा जा रहा है बिना कुछ बोले।

पिताजी और ऑस्टीन के बारे में अक्सर लोग कहते कि वो उनसे बात करती हैं। कई बार लगता कि ये सच भी है क्योंकि जब ऑस्टीन किसी से न चल पाती तब पिताजी की एंट्री होती जैसे फिल्मों में हीरो की होती है और कुछ मिनटों में ऑस्टीन भोपाल की सड़कों पर दौड़ रही होती। क्यों न हम भी अपने रिश्ते बनायें कुछ इसी तरह से।

चलिये नया कुछ करते हैं कि श्रेणी में आज अपना फ़ोन उठाइये और किन्ही तीन लोगों को फ़ोन लगायें। कोई पुराने मिलने वाले पारिवारिक मित्र, कोई पुराना दोस्त या रिश्तेदार। शर्त ये की आपका उनसे पिछले तीन महीनों में किसी भी तरह से कोई संपर्क नहीं हुआ हो। जैसा कि उस विज्ञापन में कहते हैं, बात करने से बात बनती है तो बस बात करिये और रिश्तों पर पड़ी धूल को साफ करिये। सिर्फ अपनी कार ही नहीं अपने रिश्तों को भी चमकाते रहिए। बस थोडा समय दीजिये।

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  1. Loved it Bhaiya! So beautifully explained d simple yet cherished childhood days n rituals. Wil b calling three random persons for sure whom I hv not contacted since long. Waiting for more beautiful writeups. Regards.

  2. Bahut acche. Aise hi bachpan ki kahaniyan unki yaadon aur unki seekhon ko naye parivesh mein dhalte rahiye… Har din kuch Naya sikhaiye aur prerit kijiye… Likhte rahiye

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  • जब रविवार सचमुच होता था एक ख़ास दिन – 2 – असीमित असीम November 27, 2018

    […] जो पोस्ट मैंने पहले लिखी थी उसकी पृष्ठभूमि बता दूँ। उस रविवार की […]