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करोगे याद तो हर बात याद आयेगी…

यात्राओं का मेंरे जीवन में एक बहुत एहम स्थान है और शायद आप सभी के जीवन में भी ऐसा ही कुछ होगा। जो भी खट्टे मीठे अनुभव हुये वो जीवन का बड़ा पाठ पढ़ा गये। जैसे हिंदी में लिखना शुरू करना 2017 में दिल्ली से भोपाल की ट्रैन यात्रा के दौरान हुआ। लेक़िन उसके पहले की कई सारी यात्राओं के बारे में भी लिख चुका हूँ।

2020 में कोरोना के चलते कोई यात्रा नहीं हो पाई। माता पिता के विवाह की स्वर्णिम सालगिरह, जिसका हमने बहुत बेसब्री से इंतजार किया, वो भी सबने ज़ूम पर ही मनाई। उस समय इसका आभास नहीं था की लगभग तीन महीने बाद यात्रा करनी ही पड़ेगी।

किसी भी यात्रा पर जब आप जाते हैं तो उसका उद्देश्य पहले से पता होता है। तैयारी भी उसी तरह की होती है। जैसे जब मैं पहली बार 17 घंटे की फ्लाइट में बैठा था तो ये पता था सुबह जब आँख खुलेगी तो विमान न्यूयॉर्क में होगा। उसके बाद काम और घूमने की लिस्ट भी थी। मतलब एक एजेंडा सा तैयार था और वैसी ही मनोस्थिति।

जब सितंबर 18 को छोटे भाई ने फ़ोन करके यशस्विता की बिगड़ती हालत औऱ डॉक्टरों के कुछ न कर पाने की स्थिति बताई तो जो भी डर थे सब सामने आ गये थे। भाई का साल की शुरुआत में ही तबादला हुआ था और विशाल के बाद उसने ही अस्पताल में यशस्विता के साथ सबसे अधिक समय व्यतीत किया। इस दौरान उसने अपना दफ़्तर भी संभाला, शिफ्टिंग भी करी और कोरोना का असर भी देखा। यशस्विता के अंतिम दिनों में भाई की पत्नी ने भी बहुत ही समर्पित रह कर सेवा करी।

तो जिस यात्रा का मैं ज़िक्र कर रहा था वो अंततः करनी ही पड़ी। इस यात्रा में क्या कुछ होने वाला था इसकी मुझे और बाकी सब को ख़बर थी। जब अक्टूबर 3 की रात ये हुआ तो…

उस क्षण के पहले मुझे लगता था की मैं इस बात के लिये तैयार हूँ की मेरी छोटी बहन हमारे साथ नहीं होगी। मैं बाक़ी लोगों को समझाईश देने की कोशिश भी करता। लेक़िन उनके बहाने मैं शायद अपने आप को ही समझा रहा था। बहरहाल जब ये सच्चाई सामने आई तो इसे पचा पाना बड़ा मुश्किल हो गया। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। जितना भी ज्ञान अर्जित किया था लगता है सब व्यर्थ क्योंकि अपने आपको समझा ही नही पा रहे। किसी भी तरह से इसको स्वीकार नहीं कर पा रहे थे।

ये समझ में नहीं आ रहा था आगे क्या होगा? कैसे यशस्विता के पति, बच्चे अपना आगे का जीवन बितायेंगे। हमारे माता पिता का दुःख भी बहुत बड़ा था। पिछली अक्टूबर से वो यशस्विता के साथ ही थे और माता जी ने कोरोनकाल में जब उनकी मदद करने के लिये कोई नहीं था तब स्वयं ही बच्चों की सहायता से सब मैनेज किया।

पूरे कोरोनकाल के दौरान यशस्विता, उनके पति और छोटे भाई ने अस्पतालों के अनगिनत चक्कर लगाये। यशस्विता आखिरी बार जिस अस्पताल में भर्ती हुईं वो एक कोविड सेन्टर था। कैंसर के कारण शरीर की प्रतिरोधक क्षमता वैसे ही कम हो जाती है। उसपर बढ़ते हुये कैंसर के कारण शरीर भी बेहद कमज़ोर। लेक़िन इन तीनों ने बहुत सावधानी बरती।

फ़िल्म दीवार का वो चर्चित सीन तो आपको पता होगा जिसमें अमिताभ बच्चन अपनी माँ के लिये प्रार्थना करने जाते हैं। आज खुश तो बहुत होंगे… वाला डायलाग। बस वैसी ही कुछ हालत हम सबकी थी। जब डॉक्टरों ने जवाब दे दिया तो भगवान का रुख़ किया। जिसने जो बताया वो दान पुण्य किया, उन मंत्रों का जाप किया। मंदिरों में पूजा अर्चना करी, करवाई। लेक़िन जो होनी को मंज़ूर था वही हुआ। एक ईश्वरीय शक्ति में विश्वास के अलावा बाक़ी सब अब ढकोसला ही लगते हैं।

पिछले दिनों pk और देखली तो मन और उचट सा गया है। फ़िल्म में आमिर खान अपने ग्रह पर वापस जाने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं लेक़िन बात कुछ बन नहीं रही है। हताश होकर एक शाम जब वो लौटते हैं तो मूर्तिकार की गली में कई मूर्तियाँ आधी बनी हुई रखी हैं। वो उनसे पूछते हैं की उनकी शंका का समाधान करें। कोई कहता है सोमवार को व्रत रखें, कोई कहता है मंगलवार को रखें। कोई कहता है सुर्यास्त के पहले भोजन करें, कोई कहता है सूरज ढलने के बाद रोज़ा तोड़ें। मंदिर में जूते चप्पल बाहर उतारकर जायें या चर्च में बढ़िया सूटबूट पहन कर।

https://youtu.be/JXJ3rmyBqyg

pk की परेशानी हमारी ही तरह लगी। किसी ने कहा इस मंत्र का जाप, किसी ने कहा फलां वस्तु का दान तो किसीने ग्रह देखकर कहा समय कठिन है लेक़िन अभी ऐसा कुछ नहीं होगा। फ़िर कहीं से कुछ आयुर्वेदिक इलाज का पता चला तो बहुत ही सज्जन व्यक्ति ने ख़ुद बिना पैसे लिये दवाइयाँ भी पहुँचायी। लेक़िन उसका लाभ नहीं हुआ क्योंकि कैंसर बहुत अधिक फ़ैल चुका था।

इस पूरे घटनाक्रम में यशस्विता के बाद जो दूसरे व्यक्ति जो सभी बातों को जानते थे औऱ रोज़ अपनी पत्नी के एक एक दिन का जीवन कम होते हुये देख रहे थे वो हैं उनके पति विशाल। जब पहली बार 2007 में कैंसर का पता चला तो उन्होंने इलाज करवाने के लिये शहर बदल लिया। जब सब ठीक हुआ उसके बाद ही उन्होंने मुम्बई छोडी। इस बार भी जब पता चला तो उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी इलाज में। जहाँ रिपोर्ट भेज सकते थे भेजी। जो टेस्ट करवाना हुआ करवाया ताकि कहीं से कोई उम्मीद की किरण दिखे।

जिन यात्राओं का मैंने ऊपर ज़िक्र किया है उसके अलावा दूसरों की यात्राओं से भी ऐसे ही बहुत कुछ सीखने को मिला है। जैसे यशस्विता को जब अगस्त में डॉक्टरों का जवाब पता चल गया था की धरती पर अब उनकी यात्रा चंद दिनों की बची है तो उन्होंने जो किया जिसका जिक्र मैंने कल किया था, उसके बाद भी अपना जीवन ऐसे जीना जैसे कुछ हुआ ही न हो।

कमाल की हिम्मती हो तुम, पम्मी। ❤️❤️❤️

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