पहली लाइन में क्लियर कर दूँ। ये उस दिल के मामले की बात नहीं हो रही है जिसपर काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है बल्कि ये बात है और गहरे कनेक्शन की।
जब घर से बाहर निकले नौकरी करने के लिये तो शुरुआती समय तो काम समझने और अकेले रहने के तामझाम में ही निकल जाता। तामझाम से मेरा मतलब है अपने रहने, खाने आदि का इंतज़ाम करने में निकल जाता। जो छुट्टी मिलती उसके काम बिल्कुल निर्धारित होते। कपड़े धुलना, उनका प्रेस करवाना और सोना। उस समय गाने देखने से ज़्यादा सुनने का चलन था तो रेडियो चलता रहता और काम भी।
इन सबके बीच अगर घर की याद आये तो एसटीडी बूथ पर पहुंच जाइए औऱ 11 बजे का इंतजार करिये जब कॉल करने में सबसे कम पैसे लगते। उसके बाद सरकार ने तरस खाकर ये समय बदला। आज जब फ़ोन कॉल फ्री हो गया है और आप जितनी चाहें उतनी बात कर सकते हैं। लेक़िन एक समय था जब नज़र सामने चलते काउंटर पर होती थी और उँगली तुरंत डिसकनेक्ट करने को तैयार।
इन सबके बीच घर की याद बीच रोड पर आ जाती या इस बात का एहसास करा जाती की आप घर से दूर हैं, जब आपको उस प्रदेश/शहर के नंबर प्लेट की गाड़ियों के बीच एक नंबर अपने प्रदेश का दिखाई दे जाय। औऱ चूँकि आपकी नज़रें उन नंबरों को अच्छे से पहचानती हैं तो वो नज़र भी फ़ौरन आ जाते हैं। मुझे नहीं पता ऐसा आप लोगों के साथ हुआ है या नहीं लेक़िन मेरे साथ ज़रूर हुआ है।
आदमी स्वभाव से लालची ही है। तो प्रदेश का नंबर ठीक है लेक़िन अपने शहर का देखने को मिल जाये तो लगता उस गाड़ी वाले को रोककर उससे कुछ गप्प गोष्ठी भी करली जाये। क्या पता कुछ जान पहचान भी निकल जाये। हालांकि ऐसा कभी किया नहीं लेक़िन इच्छा ज़रूर हुई।
पहले जो गाड़ियों के नंबर हुआ करते थे उनमें ऐसा करना थोड़ा मुश्किल होता था लेक़िन जब नया सिस्टम आया जिसमें राज्य के बाद शहर का कोड होता है तो अब शहर जानना आसान हो गया है। मतलब वाहन चालक आपके शहर से है ये नंबर प्लेट बता देती है। अब तो एप्प भी है जिसमें आपको गाड़ी की पूरी जानकारी भी मिल सकती है। कहाँ तो नंबर प्लेट से कनेक्शन ढूंढ रहे थे और कहाँ अब मालिक का नाम पता भी मिल जाता है। वैसे मैं तबकी बात कर रहा हूँ जब ये व्हाट्सएप या वीडियो कॉल या फ़ेसबुक कुछ भी नहीं होता था। लेक़िन लोगों की नेटवर्किंग ज़बरदस्त। लोगों ने अपने प्रदेश, शहर आदि के लोगों को ढूंढ भी लिया और वो नियमित मिलते भी।
ये दिल का कनेक्शन तब और खींचता है जब आप कहीं बाहर गये हों। मतलब घर से और दूर विदेश में। उस समय कोई भारत से मिल जाये तो अच्छा, उस पर अपनी बोली, प्रदेश और शहर का हो तो लगता है दुआ कबूल हो गई औऱ घर पर खाने के लिये बुला ले तो…
पिछले दिनों कमला हैरिस के उपराष्ट्रपति बनने पर कुछ ऐसा ही देखने को मिला। सबने ढूंढ ढूंढ कर उनके भारतीय कनेक्शन निकाले औऱ उसके बाद बस ऐसा माहौल बना जैसे कोई भारतीय बन गया हो। लेक़िन सच्चाई कुछ और ही है। वैसे भी इस राजनीतिक टिप्पणी से भटकने की संभावना ही ज़्यादा है।
तो विदेश यात्रा पर ये दिल हिंदुस्तानी हो जाता है औऱ एक दो दिन के अंदर ही भारतीय खाने की तलब लगने लगती है। अच्छा बुरा जैसा मिले बस खाना अपना हो। उस समय ये जज़्बात फूट फूट के बाहर निकलते हैं। अब भारत वापस आ जाते हैं। यहाँ भी ऐसा ही होता है। जैसे जिस शहर से आप आये हैं वहाँ का अगर कुछ खानपान मिलने लगे तो सबको पता चल जाता है।
मैं तो कुछ ऐसे लोगों को भी जनता हूँ जो शहर, प्रदेश घूमने के बाद भी वही नंबर रखते हैं क्योंकि ये नंबर प्लेट से उनका दिल का कनेक्शन होता है। आज ये विषय दरअसल कौन बनेगा करोड़पति की देन है। एक प्रतियोगी ने मध्यप्रदेश में अपने किसी संबंधी को कॉल करके मदद माँगी थी। टीवी स्क्रीन पर इंदौर देखा तो एक अलग सी फीलिंग आयी। हालाँकि इंदौर शायद बहुत कम जाना हुआ है लेक़िन है तो अपना शहर।
वैसे अब ऐसा नंबर प्लेट देखकर प्यार कम उमड़ता है क्योंकि जैसे जैसे समझ आती जा रही है ये पता चल रहा है की ये सब सोच का कमाल है। आप कई बार सिर्फ़ शरीर से कहीं होते हैं लेक़िन मन से कहीं और। मतलब घर की यादों को अब महसूस करते हैं और रूहानी तौर पर वहीं पहुँच भी जाते हैं। लेक़िन फ़िर भी कभी कभी ऐसा हो जाता है।
वैसे ये फीलिंग आप नीचे धरती पर हों या हवाई जहाज में या अंतरिक्ष में। पहले और एकमात्र भारतीय अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा से भी जब इंदिरा गांधी ने पूछा कि ऊपर से भारत कैसा दिखता है तो उनका जवाब – सारे जहाँ से अच्छा।
यही तो है दिल का कनेक्शन।