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जाड़ों की नर्म धूप और…

पिछले कुछ दिनों से सभी जगह ठंड ने अपने पैर जमा लिये हैं। मुम्बई में भी मौसम कुछ रूमानी सा ही रहा है पिछले कुछ दिनों से। उत्तर भारत जैसी कड़ाके की सर्दी तो नहीं लेक़िन मुम्बई वालों के हिसाब से यही काफी है सबके गर्म कपड़ों के ढ़ेर को बाहर निकालने के लिये।

हर मौसम की अपनी एक ख़ासियत होती है। सर्दियों के अपने आनंद हैं। आज की इस पोस्ट का श्रेय जाता है मेरे फेसबुक मित्र चारुदत्त आचार्य जी को। उन्होंने एक पोस्ट करी थी सर्दियों में स्नान के बारे में और कैसे पानी बचाते हुये ये स्नान होता था और उसका अंतिम चरण। आप इस पोस्ट को यहाँ पढ़ सकते हैं।

आज जो शहरों में लगभग सभी घरों में जो गीजर होता है, उसका इस्तेमाल 1980-90 के दशक में इतना आम नहीं था। सर्दियाँ आते ही गरम पानी की भी ज़रूरत होती स्नान के लिये। चूँकि गैस सिलिंडर उन दिनों इतनी जल्दी जल्दी नहीं मिलते थे तो पानी गर्म करने के लिये दो ही विकल्प रहते – या तो घासलेट (केरोसिन) से चलने वाला स्टोव या लकड़ी या कोयले से चूल्हा जलाया जाये।

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केरोसिन के साथ भी समय पर मिलने की समस्या होती। राशन की दुकान पर आने के पहले ही ख़त्म हो जाने का बोर्ड लग जाता। स्टोव जलाना भी एक मशक्क़त वाला काम हुआ करता था। थोड़ी थोड़ी देर में जैसे चूल्हे की आग को देखते रहना पड़ता वैसे ही स्टोव को भी पंप करते रहना पड़ता था।

लेक़िन कोयला आसानी से मिलता था। सुबह सुबह ठेले पर जैसे सब्ज़ी वाले निकलते वैसे ही कोयले वाले भी निकलते। कोयला स्टॉक कर लीजिये और सर्दियों की सुबह लग जाइये इस काम पर। अगर कोयला भी नहीं मिले तो लकड़ी का जुगाड़ करिये क्योंकि ठंडे पानी से नहाने का अवार्ड अभी भी नहीं मिलता। वैसे कई लोगों को जानता हूँ जो हर मौसम ठंडे पानी से ही स्नान करते हैं।

बहरहाल, बहुत लंबे समय तक पानी ऐसे ही गर्म होता रहा। हमारे सरकारी घर में जो पड़ोसी थे उनके यहाँ पानी गर्म करने का अलग यंत्र था। उसकी तस्वीर नीचे लगी है। बस रोज़ सुबह जिस समय हमारे यहाँ आग लगा कर चूल्हा जलाने की मशक्कत चालू रहती उनके यहाँ इस यंत्र को आंगन में रखा जाता और पानी गर्म करने की प्रक्रिया शुरू।

पानी की समस्या तो नहीं थी लेक़िन जैसा चारुदत्त जी ने कहा गर्म पानी का सप्लाई बहुत ही सीमित मात्रा में होता। मतलब जितनी बड़ी पतीली उतना ही पानी। तो आज जो शॉवर के नीचे या टब के अंदर समय न पता चलने वाला जैसा स्नान संभव नहीं होता। और उस स्नान का अंत एकदम वैसा जैसा की वर्णन किया गया है – बाल्टी उठा कर सिर पर पानी डालने की प्रक्रिया।

जैसे गीजर जीवन में लेट आया वैसे ही प्लास्टिक भी। तो उस समय जो बाल्टी हुआ करती थी वो भी लोहे की। मतलब उसका भी वज़न रहता। बस वो 3 Iditos वाला सीन, सिर के ऊपर बाल्टी, नहीं हुआ।

जब गीजर आया तो वो ड्रम गीजर था। मतलब जो आजकल के स्टोरेज गीजर होते हैं वैसा ही लेक़िन दीवाल पर नहीं टंगा होता। मतलब अब गर्म पानी की सप्लाई में कोई रोकटोक नही। जब तक सरकारी घर में रहे तब तक इसका ही आसरा रहा। जब स्वयं के घर में गये तो थोड़ा सॉफिस्टिकेटेड से हो गए। मतलब अब सबके बाथरूम में अलग गीजर।

गीजर से जुड़ा एक मज़ेदार वाकया भी है। किसी रिश्तेदार के यहाँ सर्दियों में गये थे। उनके यहाँ एक गीजर था जिसकी सप्लाई सभी जगह थी। लेक़िन समस्या ये थी की अगर कहीं और भी गर्म पानी का इस्तेमाल हो रहा होगा तो आपको नहीं मिलेगा या कम मात्रा में मिलेगा। ये बात तब मालूम पड़ी जब शॉवर के नीचे खड़े हुये।

मॉरल ऑफ द स्टोरी: सर्दी हो या गर्मी हर मौसम के मज़े लीजिये। हर मौसम के ज़ायके का भी जब तक मज़ा ले सकते हैं, ज़रूर से लें। जैसे सर्दियों में गाजर का हलवा और छौंका मटर।

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