कल जो समाचार सुनने के बारे में लिखा था उसके बारे में कुछ और बातें। जब हम लोग बड़े हो रहे थे तब रेडियो ही एकमात्र मनोरंजन का साधन हुआ करता था। अगर आकाशवाणी और विविध भारती मनोरंजन/समाचार का स्त्रोत हुआ करते तो बहुत से दूसरे रेडियो स्टेशन भी इस का हिस्सा थे।
आज जो बीबीसी देख रहे हैं हम लोग उसकी हिंदी सेवा को सुनकर बड़े हुये हैं। उनकी चार सभाएँ या कहें दिन में चार बार प्रसारण हुआ करता था। सब कार्यक्रम एक से बढ़कर एक। बस तकलीफ़ यही थी की सिग्नल अच्छा नहीं मिले तो कान को ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती। चूँकि सारे कार्यक्रम शॉर्टवेव पर होते थे तो ऐसा कई बार होता। लेक़िन तीन चार फ्रीक्वेंसी पर प्रसारण होता था विकल्प रहता था जब कभी सिग्नल ठीक न हो तो।
हमारे यहाँ शॉर्टवेव पर जो कार्यक्रम बड़े चाव से सुना जाता था वो था अमीन सायानी जी का बिनाका गीतमाला जो रेडियो सीलोन पर आता था। मुझे आज भी याद है जब रात में ट्रांज़िस्टर पर ये कार्यक्रम चलता रहता और हम सब उसके आसपास बैठे रहते और हफ़्ते के गानों के उतार चढ़ाव का किस्सा उनकी दिलकश आवाज़ में सुनते।
इसके बाद ये कार्यक्रम विविध भारती पर भी आया लेक़िन सच कहूँ तो जब तक ये हुआ तब तक काफ़ी कुछ बदल चुका था। शायद इसलिये इसका दूसरा संस्करण बहुत ज़्यादा कामयाब नहीं हुआ। आज जब किसी टीवी चैनल पर ऐसे किसी प्रोग्राम को देखता हूँ तो हँसी आती है – क्योंकि अपने दर्शकों को बांधे रखने के लिये वो तरह तरह के हथकंडे अपनाते हैं।
बीबीसी सुनने का चस्का या कहें शौक़ मुझे मामाजी के ज़रिये मिला। वो शाम को 7.30 बजे वाला कार्यक्रम सुनते और वहीं से ये आदत भी बन गयी। समय के साथ मेरा जुड़ाव बीबीसी के कार्यक्रमों से बढ़ता गया। लेक़िन उस समय ये नहीं पता था एक दिन मेरा जुड़ना इस पेशे से होगा।
औऱ सबसे यादगार दिन बना दिसंबर 3 की वो सुबह जब मैं भोपाल गैस पीड़ितों के एक कार्यक्रम में गया था। ये एक सालाना कार्यक्रम बन गया था जब सभी राजनीतिक दलों के नेतागण, संस्थाओं से जुड़े लोग एक रस्म अदायगी करते थे। मैं कार्यक्रम के शुरू होने का इंतज़ार कर रहा था कि एक सफ़ेद अम्बेसडर कार आकर रुकी और उसमें से बीबीसी के उस समय के भारत के संवाददाता मार्क टली साहब कार से उतरे।
उनको रेडियो पर ज़्यादा सुना था और टीवी पर कम देखा था लेक़िन पहचान गया। उनसे पाँच मिनिट ऐसे ही बात हुई औऱ उसके बाद वो अपने काम में लग गए। उसके बाद उनकी किताब भी पढ़ी और उनके कई कॉलम भी। लेक़िन उनको सुनने में जो मज़ा आता है वो कुछ और ही है।
बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो आपको अपने पद या बड़े होने का एहसास नहीं कराते हों। एक रिश्तेदार महोदय को अपने पद का बड़ा घमंड था। अपने आगे वो बाकी सबको छोटा ही महसूस करते और कराते। ऐसे कोई ऊँचे पद पर तो नहीं थे लेक़िन कमाई करने वाली पोस्ट ज़रूर थी तो उन्होंने पैसे को ही अपना रुतबा बना लिया, समझ लिया।
कभी किसी के यहाँ मिलने जाना हो तो पहले संदेश भिजवाते की वो मिलने आ रहे हैं। मज़ा तो तब आया कि ऐसे ही संदेश वो जिनको भिजवाते थे वो प्रमोट होकर बहुत बड़े ओहदे पर पहुँच गये और अब ये महाशय मिलने का समय माँगते फ़िरते। वो तो पुरानी पहचान के कारण उनको ज़्यादा परेशानी नहीं हुई। लेक़िन सीख ज़रूर मिल गयी।
मामाजी जिनसे बीबीसी सुनने की सीख मिली वो प्रदेश में पुलिस महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुये। लेक़िन न तो हम घरवालों को या बाहर वालों को लगता की वो किसी पुलिस अफ़सर से बात कर रहे हैं। एक बहुत ही साधारण सा जीवन जीने वाले एक बहुत ही असाधारण व्यक्ति थे। ऊपर बताये हुये सज्जन से बिल्कुल उलट।
ऐसी ही यादगार बात हुई थी गुलज़ार साब से फ़ोन पर उनकी भोपाल यात्रा के दौरान। इन दोनों वाक़ये से क्या सीखा?
मॉरल ऑफ द स्टोरी: आप कितने भी बड़े क्यूँ न हो जायें, अपना ज़मीनी रिश्ता कभी मत भूलिये। कभी भी अपने पद का घमंड न करें। वक़्त सभी का बदलता है औऱ इसकी कोई आहट भी नहीं होती। इन दोनों महानुभवों से जब बात हुई तब मैं अपने पत्रकारिता के जीवन की शुरुआत ही कर रहा था। लेक़िन उन्होंने अपना एक सीनियर होने या एक नामी गिरामी गीतकार-लेखक-निर्देशक होने का एहसास नहीं कराया।