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त्रासदी ये है कि पूरा देश भोपाल बनने की कगार पर है और हम सो रहे हैं

कुछ दिन पहले दिल्ली और इन दिनों मुम्बई में शहर की हरियाली पर सरकार की नज़र है। इनके नुमाइंदे खुद तो बढ़िया हरियाली से घिरे घरों में रहते हैं और आम आदमी को विकास का हवाला देकर सब कुछ बेचने को तैयार रहते हैं। कुछ गलती हमारी भी है कि हम खुद उदासीन बने रहते हैं और सब सरकार भरोसे छोड़ देते हैं।

आज से 34 साल पहले हम भोपाल के निवासीयों ने भी सरकार के एक फैसले की बहुत बड़ी कीमत दी थी, शायद आज भी दे रहे हैं।

सर्दी के दिन थे और उन दिनों सर्दी भी कुछ ज़्यादा ही होती थी तो खाना खाने के बाद सब सो ही गये थे कि अचानक लगातार घंटी बजने लगी और ज़ोर ज़ोर से दरवाज़ा पीटने की आवाज़ आने लगी। पहले तो समझ नहीं आया इतनी रात में कौन है और क्या हुआ है।

पुराने भोपाल में रहने वाले हमारे रिश्तेदार दरवाज़े पर खड़े थे। सब अस्तव्यस्त हालत में थे, कुछ को साँस लेने में तक़लीफ़ हो रही थी। लेकिन हुआ क्या था ये किसीको नहीं पता था। शुरुआत में उन लोगों को लगा की बहुत बड़ी आग लगी है क्योंकि सब जगह सफेद धुआं था और लोगों के मुँह से झाग निकल रहा था।

जिसको जैसे समझ में आया अपने घर से निकल गया। ताला लगाया तो ठीक नहीं तो पहली चिंता जान बचाने की थी। नवजात शिशुओं को छोड़ माता पिता घर से निकल गए। उस ठिठुरती सर्दी की रात में कोई बिना किसी गरम कपड़े के तो कोई पायजामा बनियान में घर छोड़ कर भागा। पापा के एक छात्र 5-6 किलोमीटर दौड़े फिर रास्ते में एक आदमी गिरा हुआ था। उसकी साईकल उठा कर वो हमारे घर आये थे। लोगों ने बताया सड़क पर भागते हुये के लोग गिर पड़े और फ़िर वहीं उनके प्राण निकल गए।

उन दिनों 24 घंटे के चैनल नहीं हुआ करते थे। टीवी 1982 के एशियन गेम्स में आ गया था लेकिन प्रसारण का समय बहुत ही सीमित था। इसलिये जानकारी के लिये बचता सिर्फ रेडियो और अखबार।

अफवाहों का बाज़ार भी गर्म की गैस फ़िर से रिस सकती है। अनिश्चितता के माहौल के चलते घर के लिये राशन लेने पापा-मम्मी बाज़ार गये थे जहां भगदड़ मच गई। किसी ने बोल दिया फिर से गैस रिस रही है और सामने चौराहे तक आ गयी है। सबका भागना शुरू। सब्जी-फल के ठेले वाला ऐसे ही भाग खड़ा हुआ।

इस हादसे के बारे में आने वाले सालों में कभी मैं भी लिखूंगा इसका कोई इल्म नहीं था। जब भोपाल में नौकरी करना शुरू किया तो भोपाल गैस कांड भी कवर किया। लेकिन धीरे धीरे गैस पीड़ित और उनकी समस्याएं सालाना याद करने वाला एक मौका हो गईं।

कई लोगों ने अगर सही में उनके लिये काम किया तो अधिकतर ने इसमें अपना फायदा देखा। सरकारें आईं और गईं लेकिन गैस पीड़ितों के साथ न्याय नहीं हुआ। ये ज़रूर हुआ कि भोपाल में रहने वाले उन कई लोगों को सरकार से पैसा मिला जो इस हादसे से अछूते रहे।

लेकिन जिस तरीके से सरकार ने यूनियन कार्बाइड से हाथ मिलाया उससे ये बात तो साबित हो गयी कि भारत में जान की कोई कीमत नहीं। आज भी हालात बदले नहीं हैं। भोपाल अगर सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना थी तो अपने आसपास देखिये। महानगर ही नहीं छोटे शहर भी विकास की बलि चढ़ रहे है। अगर समय रहते नहीं चेते तो पूरा भारत ही भोपाल बन जायेगा…बहुत जल्दी।

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