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कल भी आज भी कल भी, इन यादों का सफ़र तो रुके न कभी

आज भारत में रेडियो के प्रसारण की वर्षगाँठ पर कुछ बातें रेडियो की

बचपन औऱ उसके आगे के भी कई वर्ष रेडियो सुनते हुये बीते। उस समय मनोरंजन का एकमात्र साधन यही हुआ करता था। फिल्में भी थीं लेक़िन कुछ चुनिंदा फिल्में ही देखी जाती थीं। रेडियो से बहुत सी यादें जुड़ी हुई हैं। आज ये मानने में कुछ मुश्किल ज़रूर हो सकती है लेक़िन एक समय था जब पूरी दिनचर्या रेडियो के इर्दगिर्द घुमा करती थी। चूँकि रेडियो के जो भी कार्यक्रम आते थे उनका एक निश्चित समय होता था तो आपके भी सभी काम उस समय सारिणी से जुड़े रहते थे।

मेरे दादाजी का जो रूटीन था वो इसका एक अच्छा उदाहरण है। उनका रात का खाने का समय एक कार्यक्रम \’हवामहल\’ के साथ जुड़ा था। इस कार्यक्रम में नाटिका सुनाई जाती है औऱ इसके तुरन्त बाद आता है समय समाचारों का। खाना खाते खाते दादाजी नाटिका का आनंद लेते औऱ उसके बाद समाचार सुनते। इस कार्यक्रम के शुरुआत में जो धुन बजती है ये वही है जो मैं दादाजी के समय सुनता था। आज जब सुनो तो एक जुड़ाव सा लगता है इस धुन से।

जब हमारा स्कूल जाने का समय हुआ तो विविध भारती सुबह से सुनते। सुबह 7.30 बजे संगीत सरिता कार्यक्रम आता जिसमें किसी राग पर आधारित फिल्मी गाना औऱ उस राग से जुड़ी बारीकियों के बारे में बताते। इसके बाद 7.45 से आठ बजे तक तीन या चार फ़िल्मी गाने औऱ फ़िर सुबह के समाचार।

कभी स्कूल जाने में देरी होती तो वो भी गाने का नंबर बता कर बताया जाता। मसलन तीसरा गाना चल रहा है मतलब आज तो स्कूल में सज़ा मिलने की संभावना ज़्यादा है। ख़ैर विविध भारती का ये साथ तब तक रहा जब तक स्कूल सुबह का रहा। जब दोपहर की शिफ़्ट शुरू हुई तो विविध भारती सुनने का समय भी बदल गया। अग़र मुझे ठीक ठीक याद है तो सुबह दस बजे सभा समाप्त औऱ बारह बजे फ़िर से शुरू। लेक़िन तबतक अपना स्कूल शुरू हो चुका रहता। स्कूल बदला तो औऱ सुबह जाना पड़ता तो सुबह का रेडियो छूट सा ही गया था।

सुबह का जो एक और कार्यक्रम याद में रहा वो था मुकेश जी की आवाज़ में रामचरित मानस। इसका प्रसारण सुबह 6.10 पर होता था तो अक़्सर छूट ही जाता था लेक़िन जब कभी सुबह जल्दी होती तो ज़रूर सुनते। जैसे ही वो मंगल भवन बोलते लगता बस सुनते रहो।

https://youtu.be/ndamULt4n6c

दोपहर को ज़्यादा सुनने को नहीं मिलता। कभी छुट्टी के दिन ऐसा मौक़ा मिलता तो दो कार्यक्रम ही याद आते – भूले बिसरे गीत औऱ लोकसंगीत। दूसरा कार्यक्रम लोक गीतों का रहता जिसे दादी बड़े चाव से सुनती। जो अच्छी बात थी उस समय रेडियो के बारे में वो थी सभी के लिये कुछ न कुछ कार्यक्रम रहता।

शाम को विविध भारती की सभा शुरू होने से पहले भोपाल के स्थानीय प्रसारण सुनते। एक जानकारी से भरा कार्यक्रम आता \’युववाणी\’। हमारे घर से लगे दूसरे ब्लॉक में सचिन भागवत दादा रहते थे औऱ वो उस कार्यक्रम का संचालन करते तो इस तरह से इसको सुनने का सिलसिला शुरू हुआ। एक बार तो उन्होंने अपने कार्यक्रम में मुझे भी बुला लिया। ये याद नहीं क्या ज्ञान दिया था मैंने लेक़िन उसके बाद कभी मौका नहीं मिला रेडियो स्टेशन जाने का। पिताजी प्रदेश के समाचार जानने के लिये कभी कभार शाम को प्रादेशिक समाचार भी सुनते।

शाम को विविध भारती सुनने का नियम भी हुआ करता था। शाम सात बजे के समाचार औऱ उसके बाद आता फ़ौजी भाइयों के लिये कार्यक्रम \’जयमाला\’। इसमें हमारे फ़ौजी अपनी फ़रमाइश भेजते जिसको हम लोगों को सुनाया जाता। अपने घर से दूर फौजियों का एक तरह से संदेश अपने परिवार के लिये औऱ पूरा परिवार भी रेडियो के आसपास इकट्ठा होकर साथ में गाना भी सुनते। हफ़्ते का एक दिन किसी एक फ़िल्मी हस्ती के नाम रहता जहाँ वो अपनी पसंद के गाने सुनाते औऱ अपने अनुभव भी बताते।

हमारे घर में दो बड़े पुराने रेडियो थे जो शुरू होने में अपना समय लगाते। एक ट्रांज़िस्टर भी था जिसको लेकर हम बाहर जो खुली जगह थी वहाँ बैठ जाते औऱ गाने सुनते। मुझे याद है ऐसे ही रेडियो सिलोन पर अमीन सायानी साहब का बिनाका गीतमाला सुनना। बाद में ये प्रोग्राम विविध भारती पर भी आया लेक़िन रेडियो सिलोन पर ऊपर नीची होती आवाज़ को सुनने का मज़ा ही कुछ औऱ था। ज़्यादा मज़ा तब आता जब वो गाने की पायदान के बारे में कुछ बताना शुरू करते औऱ आवाज़ गायब औऱ जब तक वापस आते तब तक गाना शुरू। अब उस समय रिपीट तो नहीं होता था तो बस अगले हफ़्ते तक इंतज़ार करिये।

जब समसामयिक विषयों पर औऱ अधिक जानकारी की ज़रूरत पड़ी तो बीबीसी सुनना शुरू किया। बीबीसी लंदन पर हिंदी सेवा की पहले तीन शो हुआ करते थे औऱ बाद में एक औऱ जोड़ दिया गया था। कई बार जो सुनते उसको नोट भी करते। औऱ क्या कमाल के कार्यक्रम होते। आज भले ही टेक्नोलॉजी बहुत अच्छी हो गई है लेक़िन उस समय के कार्यक्रम एक से बढ़कर एक।

टीवी का आगमन तो 1984 में हो गया था लेक़िन उसका चस्का लगने में बहुत वक़्त लगा। इसके पीछे दो कारण थे। एक तो बहुत ही सीमित प्रसारण का समय औऱ दूसरा रेडियो तब भी एक सशक्त माध्यम हुआ करता था।

आज भी गाना सुनने में जो आनंद है वो गाना देखने में नहीं। कोई भी रेडियो कार्यक्रम सुन लीजिये, ये आपकी कल्पना को पंख लगा देता। कोई गाना सिर्फ़ सुना हो तो आप कल्पना करते हैं की उसे किस तरह फ़िल्माया गया होगा। लेक़िन जहाँ आपने उस गाने को देखा तो आपकी पूरी कल्पना पर पानी फ़िर जाता है। दूसरा सबसे बड़ा फ़ायदा है रेडियो का वो है आप को कहीं बैठकर उसको सुनना नहीं होता। आप अपना काम भी करते रहिये औऱ बैकग्राउंड में रेडियो चल रहा है। जैसे फ़िल्म अभिमान के गाने \’मीत न मिला रे मन का\’ में एक महिला गाना सुनते हुये अपने होठों पर लिपिस्टिक लगाती रहती हैं। आप यही काम टीवी देखते हुये करके दिखाइये। फ़िल्म चालबाज़ में रोहिणी हट्टनगड़ी जैसा मेकअप हो जायेगा।

जैसे मुझे अभी भी फ़िल्म क़यामत से क़यामत तक का रेडियो प्रोमो याद है जिसमें जूही चावला का एक डायलॉग था औऱ अमीन सायानी साहब की आवाज़ में फ़िल्म के बारे में कुछ और जानकारी। उसके बाद फ़िल्म का गाना। क्या दिन थे…

रेडियो से जुड़ी एक मज़ेदार घटना भी है। कार्यक्रम के बीच में परिवार नियोजन के विज्ञापन भी आते। एक दिन सभी परिवारजन साथ में बैठे हुये थे औऱ एक ऐसा ही विज्ञापन आ गया। मेरी बुआ के बेटे जो उन दिनों वहीं रहकर परीक्षा की तैयारी कर रहे थे औऱ ये विज्ञापन पहले कई बार सुन ही चुके होंगे, अचानक विज्ञापन के साथ साथ उसकी स्क्रिप्ट बोलने लगे। उस समय परिवार नियोजन तो समझ नहीं आता था लेक़िन ये समझ गये कुछ गड़बड़ बोल गये क्योंकि उसके फ़ौरन बाद वो कमरा छोड़ कर भाग गये थे।

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