रेल यात्रा के दौरान पढ़ने की आदत पता नहीं कबसे शुरू हुई, लेक़िन आज भी जारी है। पहले जब ऐसी किसी यात्रा पर निकलते तो घर से कुछ भी पढ़ने के लिये नहीं लेते थे। स्टेशन पहुँचने के बाद सीधे किताब की दुकान पर औऱ वहाँ से एक दो नई मैग्ज़ीन खरीद लेते औऱ उनके सहारे सफ़र कट जाता। कभी कभार अख़बार भी खरीद लेते। अगर रविवार की यात्रा रहती तो बस यही प्रयास होता की स्टेशन पर उस दिन के कुछ अख़बार मिल जायें। रेल की यात्रा औऱ उसके बाद घर पर भी पढ़ना हो जाता। रविवार को अखबारों में वैसे भी कुछ ज़्यादा ही पढ़ने की सामग्री रहती है।
जबसे रेल से यात्रा शुरू करी है, कुछ स्टेशन जहाँ।पर ज़्यादा आना जाना होता है, वहाँ पर तो पता रहता है किताब कहाँ मिलेगी। कई बार अग़र ट्रेन का प्लेटफार्म किताब की दुकान के प्लेटफार्म से अलग होता है तो पहले किताब खरीदते उसके बाद ट्रेन वाले प्लेटफार्म पर। बीच यात्रा में अगर कहीं ट्रेन ज़्यादा देर के लिये रुकने वाली हो तो वहाँ भी किताब की दुकान देख लेते। कई स्टेशन पर तो चलती फ़िरती किताब की दुकान होती तो इधर उधर भागने से बच जाते। कई स्टेशन पर हर प्लेटफार्म पर ये सुविधा रहती।
बसों में यात्रा कम ही हुई हैं। लेक़िन जितनी भी बस यात्रा हुई हैं उसमें पढ़ने का काम थोड़ा मुश्किल भी लगा। हाँ बस स्टैंड पर भी कभी किसी को छोड़ने जाते तो वहाँ भी क़िताब की दुकान ज़रूर देख आते। बस स्टैंड पर खानेपीने की दुकाने ज़्यादा होती थीं औऱ किताबों की केवल एक।
जब हवाई यात्रा का शुभारंभ हुआ तो बहुत सी नई बातें हुईं इस पढ़ने पढ़ाने के मामले में। हर हवाईअड्डे पर आपको अख़बार रखे मिल जायेंगे। आप अपनी पसंद का उठा लें औऱ अपनी यात्रा के पहले, दौरान औऱ बाद में इसको पढ़ते रहें। इसके अलावा आपको उड़नखटोले में भी एक मैग्ज़ीन मिल जाती है पढ़ने के लिये। ये सभी पढ़ने की सामग्री बिल्कुल मुफ़्त।

लगभग सभी बड़े हवाईअड्डे पर एकाध बड़ी सी किताबों की दुकान भी रहती। वहाँ से भी आप कोई नॉवेल या मैग्ज़ीन ख़रीद सकते हैं। अब अगर कभी हवाई यात्रा करना होता है तो पढ़ने की सामग्री की कोई ख़ास चिंता नहीं रहती। कई राजधानी ट्रैन में भी मुफ़्त में अख़बार मिलते हैं।
कोविड के चलते एक लंबे अरसे के बाद ट्रेन से यात्रा का प्रोग्राम बना। चूँकि मुझे मुम्बई छत्रपति शिवाजी महाराज स्टेशन की जानकारी है तो मैं उस दिन का इंतज़ार कर रहा था जब एक बार फ़िर किताबों से मिलना होगा। स्टेशन समय से पहले पहुँचे तो क़दम दुकान की तरफ़ चल पड़े। मग़र ये क्या। उस जगह पर तो खानेपीने की नई दुकान खुल गई थी। आसपास देखा शायद दुकान कहीं औऱ खुल गई हो। लेक़िन क़िताबों की दुकान का कोई अता पता नहीं था।
जब आख़री बार इस स्टेशन से यात्रा करी थी तब यहीं से क़िताब, अख़बार ख़रीदे थे। ये कब हुआ था ये भी याद नहीं। कोविड के कारण लोगों का पढ़ना अब मोबाइल पर बढ़ गया था औऱ मैं ये बात सभी को बताता था। मुझे इस बात का अंदाज़ा ही नहीं था कि इस बदली हुई आदत का खामियाज़ा इन किताबों की दुकानों को चुकाना पड़ेगा।
बाक़ी यात्रियों की तरह मुझे सफ़र के दौरान भी मोबाइल में ही व्यस्त रहना अच्छा नहीं लगता। हाँ अगर कुछ लिखने का काम करना हो तो मोबाइल देख लेते हैं। लेक़िन अब तो लोग मोबाइल/टेबलेट पर फ़िल्में डाऊनलोड करके रखते हैं ताक़ि सफ़र के दौरान उनके मनोरंजन में कोई रुकावट पैदा न हो।
अब कुछ दिनों बाद फ़िर से एक रेल यात्रा का प्रोग्राम बना है। इस बार फ़िर इन्तज़ार रहेगा क़िताबों से मुलाक़ात का।