वर्ष 1983 में रिलीज़ हुई हिंदी फिल्मों पर अगर नज़र डालें तो उस साल मेनस्ट्रीम औऱ आर्ट फिल्में या मुख्य धारा औऱ समानांतर सिनेमा की कई यादगार फिल्में रिलीज़ हुई थीं।
अगर आप उस वर्ष की दस सबसे ज़्यादा कमाई वाली फिल्मों की लिस्ट देखेंगे तो लगेगा उस वक़्त लोगों को क्या हो गया था। जब मैंने ये लिस्ट देखी तो मुझे हँसी भी आई औऱ आश्चर्य भी हुआ। उस वर्ष की जो दस सर्वाधिक कमाई वाली फिल्में थीं उनकी लिस्ट कुछ इस तरह है:
- हिम्मतवाला
- बेताब
- हीरो
- कुली
- अंधा कानून
- मवाली
- नौकर बीवी का
- जस्टिस चौधरी
- महान
- जानी दोस्त
आगे बढ़ने से पहले इस लिस्ट की बात कर लेते हैं क्योंकि उसके बाद इसका नंबर नहीं आयेगा। तो इस 10 कि लिस्ट में से आपने कौन कौन सी फिल्में देखी हैं? मैंने इनमें से आजतक सिर्फ़ चार फिल्में ही देखी हैं – बेताब, हीरो, कुली औऱ नौकर बीवी का। जितेंद्र कुछ ख़ास पसंद नहीं थे औऱ ऐसा ही कुछ अमिताभ बच्चन के साथ भी था। कुली मेरे ख़्याल से इसलिये देखी होगी क्योंकि इस फ़िल्म के दौरान बच्चन साहब घायल हुये थे तो सबकी उत्सुकता रही होगी। नौकर बीवी का शायद इसलिये की ये कॉमेडी फिल्म थी। ये दोनों ही फिल्में सिनेमाघर में देखी थीं। हीरो औऱ बेताब तो काफ़ी समय बाद छोटे पर्दे पर देखी थी। वैसे नौकर बीवी का एक गाना \’क्या नाम है तेरा\’ काफ़ी सुना गया था औऱ आज भी भूले बिसरे सुन लेते हैं। इसकी भी एक कहानी है लेक़िन उसका वक़्त जब आयेगा तब आएगा। फ़िलहाल आप भी देखिये औऱ सुनिये औऱ आगे पढ़ते भी रहिये। :–)
तो ये दस फिल्में आपको ये बिल्कुल भी नहीं बताती उस साल की जो क़माल की फिल्में आयीं थीं उनके बारे में। कारण भी साफ़ है – सफलता का पैमाना जब सिर्फ़ बॉक्सऑफिस पर कमाई हो तो आप क्या कर सकते हैं। लेकिन इसी वर्ष 1983 में आईं थीं कुछ ऐसी फिल्में जिनका नाम हमेशा के लिये सिनेमा के चाहने वालों की ज़ुबान पर चढ़ गया औऱ इतिहास के पन्नों पर उनका नाम भी हमेशा के लिये दर्ज़ हो गया।
अर्द्धसत्य, कथा, सदमा, मासूम, मंडी, रज़िया सुल्तान, वो सात दिन औऱ… जाने भी दो यारों। इन आठ में से सिर्फ़ रज़िया सुल्तान ही नहीं देखी है। बाक़ी सातों देखी है औऱ जाने भी दो यारों को तो इतनी बार देखा है की अब तो गिनती भी याद नहीं। अब ये फ़िल्म एक क्लासिक बन गयी है औऱ 1983 में आज ही के दिन, अगस्त 12 को ये रिलीज़ हुई थी। क्या इस फ़िल्म को भोपाल के किसी सिनेमाघर में रिलीज़ किया गया था, ये रिसर्च का विषय हो सकता है। ऐसा इसलिये अगर आप दस पैसा कमाने वाली फिल्मों पर नज़र डालें तो जाने भी दो यारों के कलाकार अलग नज़र आते हैं। उसपर से फ़िल्म में न कोई गीत संगीत न कोई ऐसी अदाकारा जिसे देखने लोग आयें।
मैंने ये फ़िल्म 1983 में शायद नहीं देखी थी। शायद इसलिये क्योंकि फ़िल्म वीसीआर पर देखी थी औऱ उन दिनों इसका लाभ गर्मियों की छुट्टी में ही लिया जाता था। वैसे दीवाली पर भी उस समय लंबी छुट्टी होती थीं इसलिये शायद। उसके बाद से इस फ़िल्म को देखना हर छुट्टी में एक रूटीन सा बन गया था।
उस समय इतनी समझ नहीं थी की फ़िल्म के ज़रिये क्या संदेश दिया जा रहा है या की फ़िल्म हमारे सिस्टम पर कटाक्ष कर रही है। यही मेरे ख़्याल से इस फ़िल्म की ख़ूबी भी है की बहुत ही सीधे, सरल शब्दों में बहुत गहरी बात कर जाती है। फ़िल्म मनोरंजन भी करे औऱ कुछ सवाल भी उठाये – ये उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। ज़्यादातर फिल्में सवाल पूछने से डरती हैं क्योंकि उसके चक्कर में मनोरंजन की बलि न चढ़ जाये। आज ऐसी फिल्मों की संख्या कम है। उल्टा दर्शक अब पूछने लगते हैं भाई फ़िल्म बनाई क्यों थी? सलमान खान की रेस 3 औऱ राधे उसका अच्छा उदाहरण हैं।
विषय से भटकें उसके पहले वापस आते हैं।विनोद, सुधीर, तरनेजा, आहूजा, डिमैलो या शोभा जी ये सब हमारे आसपास के ही क़िरदार लगते हैं। इतने वर्षों में बदला कुछ भी नहीं है। पुल आज भी गिर जाते हैं, फ़िल्म में बिल्डिंग में फ्लोर बढ़ाने का तरीका बताया है, आज तो पूरी की पूरी बिल्डिंग खड़ी हो जाती है औऱ किसी को पता भी नहीं चलता।
इन दिनों बारिश का मौसम है औऱ साल दर साल रोड़ बनाने का करोड़ों का कॉन्ट्रैक्ट दिया जाता है। लेक़िन हर बारिश में ठीक उसी जगह की रोड़ फ़िर ख़राब होती है औऱ फ़िर से बनाई जाती है। ख़ैर इस गंभीर विषय से वापस फ़िल्म पर आते हैं। इस फ़िल्म में एक लाइट स्विच ढूँढने का सीन है। वैसे ही कुछ हमने भी एक बार लाइट जाने के बाद टॉर्च ढूंढी थी। इस किस्से के बारे में बस इससे ज़्यादा कुछ बता नहीं सकते। ;–)
जैसा मैंने बताया, इस फ़िल्म को अब इतनी बार देख चुके हैं की फ़िल्म कंठस्थ हो गयी है। लेक़िन अभी पिछले दिनों जब इसको फ़िर से देखा तो मज़ा वैसा ही आया। क्लाइमेक्स में जो महाभारत का संदर्भ है वो तो क़माल का है। इसका पूरा श्रेय फ़िल्म के लेखकों को जाता है। फ़िल्म के अंत में जब सब आपस में सेटिंग कर विनोद औऱ सुधीर को बलि का बकरा बनाते हैं। बैकग्राउंड में हम होंगे क़ामयाब एक दिन बजने लगता है औऱ मुम्बई के फ़ोर्ट के फुटपाथ पर विनोद औऱ सुधीर को जेल की पौशाक में देखकर आप निराश भी होते हैं औऱ गाना आपको उम्मीद भी जगाता है।
जो दूसरी लिस्ट की फिल्में हैं उसमें से मासूम, सदमा, रज़िया सुल्तान औऱ वो सात दिन का संगीत क़माल का है। इसी साल आयी एक औऱ फ़िल्म जिसका ये गाना दरअसल जीने का फलसफा है।