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रविवारीय: वक़्त रहता नहीं कहीं रूककर, इसकी आदत भी आदमी सी है

आज सुबह सुबह यूँ ही, गाना सुनने का नहीं बल्कि देखने का मन हुआ। अगर आप यूट्यूब पर गाने देखते हैं तो आपको पता होगा पहली बार आप जो देखना चाहते हैं वो ढूँढते हैं उसके बाद सामने से ही सुझाव आने लगते हैं।

मुझे जब सुझाव में क़यामत से क़यामत तक का गीत \’ऐ मेरे हमसफ़र\’ दिखाई दिया तो अपने आपको रोक नहीं सका सुबह सुबह ऐसा मधुर गीत सुनने से। गाने की शुरुआत में दो चीज़ें दिखायीं गयीं जिनका अब इस्तेमाल कम होने लगा है। आमिर खान के सामने घड़ी है क्योंकि संगीत में घड़ी की टिक टिक है। जूही चावला इस गाने से ऐन पहले आमिर से एक दुकान में मिलती हैं जो उन्हें सही वक्त का इंतज़ार करने को कहते हैं।

जूही चावला जब घर पहुँचती हैं तो वो सीधे अपने कमरे में जाती हैं औऱ दीवार पर टंगे कैलेंडर पर पेन से उस दिन पर निशान लगाती हैं जब तक उन्हें इंतज़ार करना है। ये पोस्ट का श्रेय जुहीजी को कम औऱ उस कैलेंडर को ज़्यादा। 

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आज से क़रीब 10-12 साल पहले तक ऐसा होता था की साल ख़त्म होने को आता औऱ नये कैलेंडर के लिये ढूँढाई शुरू। कैलेंडर से ज़्यादा उनकी जो ये मुहैया करा सकें। सरकारी कैलेंडर तो मिल ही जाते थे सरकारी डायरी के साथ। लेक़िन तलाश होती कुछ अच्छे, कुछ नये तरह के कैलेंडर की। जिनसे मिलना जुलना था तो वो सरकारी कैलेंडर वाले ही थे। जब हमारे पास ज़्यादा हो जाते तो वो आगे बढ़ा दिये जाते।

सरकारी डायरी में ढ़ेर सारी जानकारी रहती जो उस समय लगता था किसी काम की नहीं है। प्रदेश से संबंधित सारे आँकड़े औऱ सभी से संपर्क साधने के लिये फ़ोन नंबर। लेक़िन लिखने की जगह कम रहती औऱ शनिवार, रविवार जो छुट्टी के दिन रहते सरकार के लिये उस दिन तो औऱ कम जगह। मतलब कुल मिलाकर इन डायरीयों की ज़्यादा पूछ परख नहीं थी।

बिज़नेस से जुड़े कम लोगों को जानते थे। फ़िर बचते दुकानदार जिनके यहाँ से सामान आता था। उनके कैलेंडर बड़े सादा हुआ करते थे लेक़िन सब रख लेते थे। निजी क्षेत्र में जो नौकरी करते उनके कैलेंडर की मांग सबसे ज़्यादा रहती। क्योंकि कंपनी पैसा खर्च करके अच्छे कैलेंडर छपवाती, इसलिये ये बहुत ही सीमित संख्या में मिलते कर्मचारियों को। किस को देना है ये बड़ा कठिन प्रश्न होता। लेक़िन तब भी कहीं न कहीं से हर साल कुछ अच्छे कैलेंडर मिल ही जाते।

किसी बड़ी कंपनी की दुकान से आपको ये कैलेंडर अगर किस्मत से मिला तो उसकी कीमत चुकानी पड़ती – एक बढ़िया सा बिल बनवाकर। अगर ऐसी किसी दुकान के आप नियमित ग्राहक हैं तो आपके लिये ये ख़रीदारी ज़रूरी नहीं है। आपके पिछले ख़र्चे की बदौलत आपको कैलेंडर मिल ही जायेगा।

जब पत्रकारिता में कदम रखा तो कई जगह से डायरी, कैलेंडर मिलने लगे। कई बार तो ऑफिस में ही किसी सहयोगी को भेंट दे देते। आख़िर आप कितनी डायरी लिखेंगे? कई बार तो ये भी हुआ की आपके नाम से कुछ आया लेक़िन आप तक कुछ पहुँचता नहीं।

ये कैलेंडर हमारी ज़िंदगी का इतना अभिन्न अंग है। आज वो दीवाल पर भले ही टंगा नहीं हो औऱ हमारे मोबाइल में आ गया हो लेक़िन तब भी एक कैलेंडर आज भी ज़रूर रहता है, वो है पंचांग। सरकारी घर में तो डाइनिंग रूम में इसकी एक नियत जगह थी जहाँ हर साल ये दीवाल की शोभा बढ़ाता। जब कभी तारीख़ देखने की बात होती तो अपने आप नज़र वहीं चली जाती।

महीना बदलने पर कैलेंडर में भी बदलाव होता। जहाँ बाकी अच्छी अच्छी तस्वीरों वाले कैलेंडर में नई तस्वीर होती, पंचांग में ऐसा कुछ नहीं होता। इसमें सब कुछ वैसा ही होता बस नये तीज, त्यौहार औऱ ढ़ेर सारी जानकारी उनके लिये जो इनको मानते हैं या पालन करते हैं। जब तक घर पर रहे तो इन सबकी ज़रूरत नहीं पड़ी, लेक़िन जब बाहर निकले औऱ उसके बाद जब श्रीमतीजी का आगमन हुआ तबसे ये पंचांग भी ज़रूरी चीज़ों में शुमार हो गया है।

मुम्बई आये तो उस पंचांग को ढूँढा जिसको देखने की आदत थी। एक दुकान पर मिल भी गया। लेक़िन जब कुछ दिनों बाद ध्यान से देखा तो मामला कुछ ठीक नहीं लगा। ज़रा बारीकी से पड़ताल करी तो पता चला रंग, स्टाइल सब कॉपी तो किया है लेक़िन असली नहीं है। तबसे हर साल कोशिश रहती है की अगर दीवाली पर घर जाना हो तो नया पंचांग साथ में लेते आयें। पिछले साल ये संभव नहीं हुआ। मुंबई में खोजबीन करके मिल ही गया।

ऐसा नहीं है की महाराष्ट्र में पंचांग नहीं है। लेक़िन हम मनुष्य आदतों के ग़ुलाम हैं। तो बस साल दर साल उसी पुराने पंचांग की तलाश में रहते हैं। घर में अब कैलेंडर के नाम पर बस यही एक चीज़ है। बाक़ी मोबाइल आदि सभी जगह तो कैलेंडर है। इसकी अच्छी बात ये है की एक ही कैलन्डर में आप कुछ नोट करें औऱ हर उस यंत्र में आपको ये देखने को मिल जाता है।

पंचांग में दूध का हिसाब रखने का भी एक हिस्सा है। ये शायद वर्षों से नहीं बदला गया है। ये दूध का हिसाब भी सुबह शाम का है। मुझे याद नहीं हमारे यहाँ दोनों समय दूध आता हो। लेक़िन शायद कहीं अब भी सुबह शाम ऐसा होता हो इसके चलते अभी तक यही हिसाब चल रहा है। एक छोटी सी जगह है जहाँ आप को कुछ याद रखना हो तो लिख सकते हैं। किसी का जन्मदिन या औऱ कोई महत्वपूर्ण कार्य जैसे आपकी रसोई में गैस सिलिंडर की बदली कब हुई। या आपकी कामवाली कब नहीं आयी या कब से काम शुरू किया आदि आदि।

ज़्यादातर कैलेंडर जो होते हैं वो छह पेज के होते हैं जिसमें दोनों तरफ़ एक एक महीना होता। लेक़िन पंचांग में ऐसा कुछ नहीं होता। यहाँ हर महीने का एक पेज होता है। तो उसके पीछे क्या खाली जगह होती है? इसका पता मुझे तब चला जब मुझे नये महीने के शुरू होने पर कैलेंडर में भी बदलने को कहा गया।

पंचांग में तो जानकारी की भरमार होती है ये बात तब पता चली जब इसको पलट कर देखा। वार्षिक राशिफल से लेकर घरेलू नुस्खे, अच्छी आदतें कैसे बनाये औऱ पता नहीं क्या क्या। अगर आपने नहीं देखा हो तो ज़रूर देखें। पढ़ने का काफ़ी माल मसाला है।

कुछ वर्षों से अभिनेत्रियों औऱ अभिनेताओं का एक कैलेंडर काफ़ी चर्चा में रहता है। कैलेंडर का भी एक बड़ा लॉन्च प्रोग्राम होता है जिसमें वो कैसे बना इसकी भी पूरी कहानी होती है। अगर आपको ये कैलेंडर चाहिये तो अच्छी ख़ासी रक़म देनी पड़ती है। उसी तरह एक स्विमसूट कैलेंडर भी काफ़ी चला था। बाद में कंपनी के मालिक अपनी लंगोट बचा कर इधर उधर भागते फिरते रहे हैं। औऱ फ़िलहाल इस कैलेंडर पर भी पर्दा डल गया है।1

हम लोगों के लिये कैलेंडर मतलब सरकारी, या खिलाड़ियों का या फिल्मी हस्तियों का। इसके आगे क्या? ये पता तब चला जब एक परिचित के घर गये। किसी कारण से जिस कमरे में बैठे थे उसका दरवाज़ा  बंद हुआ औऱ उसके बाद परिचित थोड़े से असहज औऱ बाक़ी लोगों के चहरे पर हँसी। हुआ यूँ की दरवाज़े के पीछे एक कन्या का बड़ा सा पोस्टर कैलेंडर लगा था। लेक़िन कम से कम कपड़ों में उसकी फ़ोटो से आप की नज़र साल के बारह महीनों तक जाये, तो।

बहरहाल जूही चावला वाला कैलेंडर बढ़िया है कुछ छोटी छोटी बातों को याद रखने के लिये। इतने बड़े कैलेंडर को देखने के बाद आपको भी वक़्त रुका रुका सा लगेगा लेक़िन… वक़्त रहता नहीं कहीं रुककर, इसकी आदत भी आदमी सी है

अंत में आपसे फ़िर वही गुज़ारिश। इसको पढ़ें औऱ अच्छा लगा हो तो सबको बतायें। बुरा कुछ हो तो सिर्फ़ मुझे।

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