जनवरी की सर्दी जाते जाते औऱ गर्मी के बीच एक मौसम आता है। बसंत की ओर या इश्क़, मोहब्बत वाली फ़रवरी की तरफ़ मेरा इशारा कतई नहीं है। वैसे हमारे समय में वैलेंटाइन डे का इतना कुछ हो हल्ला नहीं था जैसा इन दिनों है। फ़रवरी शुरू होते ही हर जगह बस यही चलता रहता है। जहाँ तक बसंत पंचमी की बात है तो माँ सरस्वती की पूजा औऱ पीला रंग पहनने का काम बिल्कुल होता है।
बहरहाल, जिस मौसम की मैं बात कर रहा हूँ, वो है अपनी नई जिंदगी की तरफ़ एक औऱ कदम बढ़ाने का। अब अग़र फ़लसफ़े की बात करें तो हम रोज़ ही उस दिशा में कदम बढ़ाते रहते हैं। लेक़िन इस बात का एहसास उस समय ज़्यादा होता है जब आप स्कूल छोड़कर कॉलेज की तरफ़ बढ़ते हैं औऱ कॉलेज छोड़ आगे की पढ़ाई या नौकरी की तरफ़।
तो ये जो मौसम है जो सर्दी औऱ गर्मी के बीच में रहता है वो है फेयरवेल का या अपने स्कूल औऱ कॉलेज से बिदाई का। परीक्षा के ऐंन पहले आपकी संस्था से बिदाई।
जब तक स्कूल की पढ़ाई करते रहते हैं तब लगता है कॉलेज कब जाने को मिलेगा। जो आज़ादी दिखती है कुछ भी ओढ़ने पहनने की और क्लास का मूड न हो तो यार दोस्तों के साथ चाय की दुकान पर समय बिताने का या कोई नई फ़िल्म देखने निकल जाना। लेक़िन जब स्कूल छोड़ने से पहले ये बिदाई का क्षण आता है तो पिछले सालों की यादें आंखों के सामने आ जाती हैं।
स्कूल में तो फ़िर भी ये समारोह बहुत ही सलीके से आयोजित होता है। सब इस मौक़े को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। मस्ती, मज़ा, नाच, गाना औऱ फ़िर वो क्षण जब आप स्कूल को अलविदा कहते हैं। स्कूल में जब फेयरवेल हुई तो सब थोड़े भावुक भी हो गये थे। मुझे भी इन चार सालों में लगाव हो गया था लेक़िन बहुत से ऐसे विद्यार्थी थे जिनका बचपन यही से शुरू हुआ था। उनका लगाव कुछ ज़्यादा था औऱ बिछड़ने का ग़म भी।
हमारे समय में इस आयोजन की इतनी तैयारी नहीं हुआ करती थी। मतलब आज के जैसे नये कपड़े औऱ कई जगह तो एक से ज़्यादा पार्टी भी होती हैं। कई बच्चे तो साथ मिलकर अलग पार्टी भी करते हैं इस खास मौक़े पर। शायद हमारे समय में भी ऐसा कुछ हुआ हो लेक़िन मुझे कोई न्यौता नहीं था।
जहाँ तक तैयारी की बात है तो मुझे बिल्कुल भी ध्यान नहीं कुछ विशेष तैयारी करी हो। उस समय जो सबसे अच्छे कपड़े रहे होंगे वही पहन कर गये थे। बहुत से लड़के सूट-पेंट-टाई में भी थे। जैसा मैंने पहले बताया था सरकारी घर के बारे में, हमारे आसपास शिक्षण संस्थाएँ थीं। छात्राओं वाली संस्था ज़्यादा थीं तो जिस दिन उनके यहाँ ये समारोह होता था, बाहर कुछ ज़्यादा ही रौनक़ रहती।
वापस तैयारी पर आयें तो दोनों बहनों ने भी माँ की कोई अच्छी सी साड़ी पहन कर ही अपनी फेयरवेल मनाई। हम लोगों के साथ साथ हमारे माता पिता के लिये भी ये एक यादगार क्षण होता है। उनकी संतान जीवन का एक नया अध्याय शुरू करने को तैयार हैं औऱ अपने भविष्य के निर्माण की तरफ़ क़दम बढ़ा रहे हैं।
कॉलेज में आकर सब बदल जाता है। मैं जिस संस्था में गया था वो बहुत बड़ी तो नहीं थी औऱ न ही ज़्यादा भीड़भाड़ वाली। मतलब सब काम आराम से होता था। लेक़िन स्कूल के बाद कॉलेज में जो बदलाव आया वो था अनुशासन औऱ परंपरा। जी बिल्कुल मोहब्बतें वाले अमिताभ बच्चन के जैसे।
स्कूल में तो सभी बाहरवीं के छात्रों के लिये एक ही ऐसा कार्यक्रम होता। लेक़िन कॉलेज में साइंस, आर्ट्स, कॉमर्स औऱ ग्रेजुएट एवं पोस्ट ग्रेजुएट सभी कक्षायें। सभी का फेयरवेल एक साथ कैसे संभव था। वैसे इसका पता भी नहीं चला। वो तो जब सेकंड ईयर में आये तब जनवरी आते आते फाइनल ईयर के लिये इस कार्यक्रम की चर्चा शुरू हुई।
जो तीसरी चीज़ मोहब्बतें में नहीं थी वो थी राजनीति। ये भी स्कूल से अलग मामला था। कॉलेज में छात्र नेता तो थे लेक़िन कभी आमना सामना नहीं हुआ था। इस कार्यक्रम के चलते वो मौका आ ही गया। मेरे साथ के कुछ सहपाठी का इन छात्र नेताओं से संपर्क था। जब फेयरवेल का कार्यक्रम बना तो पता चला दो गुट हैं औऱ उनकी इस कार्यक्रम को लेकर सहमति नहीं बनी।
हम लोगों पर ये दवाब था की कार्यक्रम हो। तो एक दिन नियत किया औऱ जितने लोगों को आना हो या जायें कार्यक्रम होगा। दूसरे गुट को भी जानकारी थी। हम लोगों की मजबूरी थी। उस दिन फिल्मों वाला सीन सामने देखने को मिला। मार पिटाई हुई औऱ सारी तैयारी धरी की धरी रह गयी। बस जो अच्छी बात हुई वो ये की हम लोगों को समोसे औऱ कोल्ड ड्रिंक पीने को मिल गई।
जब हमारी बारी आई तब तक ऐसे आयोजन पर रोक लग गयी थी। हम सब कहीं बाहर मिले औऱ साथ खाना खाया। जब 1988 में क़यामत से क़यामत तक आयी थी तब फेयरवेल का एक अलग माहौल देखने को मिला था। लेक़िन असल ज़िन्दगी में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला। आमिर खान के जैसे सेकंड ईयर वालों का औऱ प्रीवियस के छात्रों का शुक्रिया करने का सपना ही रह गया।
फ़िल्मों में स्कूल कॉलेज तो बहुत दिखाये लेक़िन फेयरवेल वाले कुछ ज़्यादा याद नहीं। एक बी आर चोपड़ा की फ़िल्म थी निक़ाह। उस फ़िल्म में एक बेहद खूबसूरत गीत था बीते हुये लम्हों की कसक साथ तो होगी । गाने के बोल से तो ये फेयरवेल वाला लगता है लेक़िन है ये सालाना होने वाले कार्यक्रम का हिस्सा। इसके अलावा औऱ तो कुछ याद नहीं।
संभव तो कुछ भी है। अग़र वो हमारे सेकंड ईयर के छात्र अगर ये पढ़ रहें हो तो, उनका शुक्रिया। औऱ आपको भी शुक्रिया कहेंगे की आप ये पढ़ रहे हैं। औऱ शुक्रगुजार रहेंगे अगर आप इस पर अपनी विशेष टिप्पणी साझा करें औऱ इसको आगे बढ़ायें। फ़िलहाल ये गाना देखें।