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बड़े होकर भी बनाये रखें बचपना

बचपन से मुझे हवाई जहाज देखने और उनके बारे में जानकारी इकट्ठा करने का बड़ा शौक़ था। जो छोटे छोटे मॉडल होते थे उनको भी में उतनी ही कौतूहलता से देखता जितना कि एक सामने खड़े हुए विमान को। परिवार में दो रिश्तेदार विमान सेवा का उपयोग करते और जब भी संभव हो में एयरपोर्ट जाने की भरपूर कोशिश करता। जितना करीब से देखने को मिल जाये उतना ही मन आनंदित हो उठता।

आसमान में उड़ते हुए छोटे से हवाई जहाज को खोज निकलना एक मजेदार खेल है जो में आज भी खेलता हूँ। कहीं न कहीं हम जब बड़े हो जाते (उम्र में) तो हमारे व्यवहार में भी वो उम्र छलकने लगती है। लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि हमें अपना बचपना बनाये रखना चाहिए।

आज जब मुम्बई से दिल्ली वापसी के लिए एयरपोर्ट पर बैठा फ्लाइट का इंतज़ार कर रहा था तो अपनी पहली फ्लाइट याद आ गयी जो मुम्बई के एयरपोर्ट से ही थी। मैं अपने जीवन में पहली बार प्लेन में चढ़ा 2003 के अक्टूबर महीने में। वो छोटी सी फ्लाइट एक समाज सेवी संस्था द्वारा आयोजित की गई थी ज़रूरतमंद बच्चों के लिए। मुम्बई से शुरू और मुम्बई पर खत्म।

पहली फ्लाइट होने के कारण तो याद है ही, लेकिन इसलिए भी याद है कि मुंबई की गर्मी में एयरपोर्ट के अंदर की ठंडक श्रीनगर का एहसास करा रही थी। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी ठंड में कर्मचारी काम कैसे करते हैं। असलियत पता चली की मैं बहुत तेज़ बुखार से पीड़ित था और अगले कुछ दिन घर पर आराम कर गुज़ारे।

जब तक प्लेन में बैठे नहीं थे तब तक बड़ा आश्चर्य होता कि ये उड़ते कैसे हैं। रही सही कसर फिल्मों ने पूरी करदी। फिल्मों ने हमारी सोचने की शक्ति को भ्रष्ट कर दिया है। लेकिन आप आज अगर एयरपोर्ट जाएँगे तो देखेंगे समाज के हर तबके के लोग हवाई यात्रा का आनद ले रहे हैं।

लेकिन बर्ताव में ट्रेन या प्लेन के यात्रियों में कोई फर्क नहीं है। आज जब फ्लाइट लेट हुई तो यात्री एयरलाइन स्टाफ़ से लड़ने पहुंच गए और थोड़ी दिन बाद थक हार कर वापस पहुँच गए अपनी सीट पर। हाँ अब बहस थोड़ी अच्छे स्तर की होती है।
लेकिन उस बहस का क्या जिसके कोई मायने तो नहीं हैं लेकिन उसको करने में मज़ा भो बहुत आता है?

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