साल 2007 ने सही मायनों में पूरी ज़िन्दगी बदल के रख दी। इसकी शुरुआत हुई थी अप्रैल के महीने में जब PTI से मुझे वापस मुम्बई के लिए बुलावा आया। सभी बातें मन के हिसाब से सही थीं तो एक बार फ़िर भोपाल को अलविदा कहने का समय आ चुका था। इस बार सीधे मुम्बई की ओर। जून में PTI जॉइन किया तब नहीं पता था कि एक महीने में क्या कुछ होने वाला है।
जब आपके सामने कोई विपत्ति आती है तो उस समय लगता है इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। लेकिन जब आप उससे बाहर निकलकर कोई दूसरी विपत्ति का सामना करते हैं तब फिर यही लगता है – इससे बडी/बुरी/दुखद बात कुछ नहीं हो सकती। ये एक प्रक्रिया है जो चलती रहती है।
कैंसर के बारे में सुना था। परिवार में मौसी को था लेकिन ज़्यादा मालूम नहीं था क्योंकि उनका निधन तभी हो गया था जब मैं छोटा था। बाकी जो इस बीमारी का डर था उसका पूरा श्रेय हिंदी फिल्मों को जाता है। कुल मिलाकर कैंसर का मतलब मौत ही समझ आया था।
छोटी बहन यशस्विता दोबारा माँ बनने जा रही थी। ये खुशखबरी मई में आई थी। जुलाई आते आते ये खुशी मायूसी में तब्दील हो गई। उनके शरीर में कैंसर पनप रहा था और इसकी पुष्टि टेस्ट के माध्यम से हो गई थी। दिल्ली के डॉक्टर्स ने तो अगले ही दिन एबॉर्शन करवा कर कैंसर के इलाज की समझाईश दी।
भोपाल से मुम्बई आने का कोई प्लान नहीं था। 2005 में जब मुम्बई छोड़ा था तो नही पता था 2007 में वापसी होगी। जो मैंने 2017 में दिल्ली आकर पहली पोस्ट लिखी थी उसमें कहा था ये जीवन एक चक्र है। आज फिर वही बात दोहराता हूँ। जो होता है उसके पीछे कोई न कोई कारण होता है। कई बार कारण जल्द पता चल जाते हैं कई बार समय लग जाता है।
दिल्ली के डॉक्टर्स के ऐसा कहने के बाद ये निर्णय लिया कि मुम्बई के टाटा हॉस्पिटल में भी एक बार दिखाया जाये और फिर कोई निर्णय लिया जाए। इस उम्मीद के साथ कि शायद पहले टेस्ट की रिपोर्ट गलत हो, यशस्विता, बहनोई विशाल और भांजी आरुषि मुम्बई आ गए। मेरी उस समय की PTI की सहकर्मी ललिता वैद्यनाथन ने टाटा हॉस्पिटल में बात कर जल्दी मिलने का समय दिलवाया। लेकिन टाटा के डॉक्टर्स ने भी शरीर में कैंसर की मौजूदगी कन्फर्म करी।
जो पूरा समय एक होने वाली माँ के लिए खुशी खुशी बीतना चाहिए था उसकी जगह चिंता और निराशा ने ले ली थी। सभी एक दूसरे को हिम्मत दे रहे थे। लेकिन चिंता सभी के लिये ये थी कि आगे क्या होगा। इस पूरे समय यशस्विता जो शायद हम सबसे कमज़ोर स्थिति में थीं दरअसल हम सबको हिम्मत दे रही थीं। एक या दो बार ही मेरे सामने मैंने उन्हें कमज़ोर पाया। नहीं तो उनके लड़ने के जज़्बे से हम सबको हिम्मत मिल रही थी।
आज विश्व कैंसर दिवस पर सलाम है टाटा हॉस्पिटल के डॉक्टर्स को जो मरीज़ो की इस लड़ाई में हर संभव सहायता देते है और सलाम है यशस्विता जिन्होंने कैंसर से लड़ते हुए एक पुत्र को जन्म दिया और आज इस बीमारी से लड़ने की प्रेरणा बन गयी हैं।