कल जगजीत सिंह के जन्मदिन पर लिखने का विचार आया, जैसा किसी न किसी के बारे में रोज़ आता है, लेकिन उनके गीत, ग़ज़ल सुनने में इतना खो गये की विचार ही त्याग दिया।
आप सभी ने जगजीत सिंह को सुना तो होगा ही। मेरा उनसे मिलना बिल्कुल सही समय पर हुआ – मतलब जब मैं स्कूल में पढ़ रहा था। बहुत से उनके शेर समझ में नहीं आते थे लेकिन उनकी आवाज़ ने दिल में जगह बना ली थी। कॉलेज पहुँचते पहुँचते इश्क़-मुश्क का किताबी ज्ञान हो गया था तो जगजीत सिंह साहब की आवाज़ में दिल की दास्ताँ कुछ और भाने लगी।
भोपाल में उनके काफी सारे प्रोग्राम होते लेकिन मेरा कभी जाना नहीं हुआ। उनको एक बार देखा था चित्रा सिंह जी के साथ मुम्बई में जब हम दोनों एक ही होटल में दो अलग अलग कार्यक्रम के लिये गए थे। उस समय सेलफोन तो हुआ नहीं करते थे (मतलब अपने पहुँच के बाहर थे) तो सेल्फी का सवाल नहीं था। बस उनका वो मुस्कुराता हुआ चेहरा याद है।
जगजीत सिंह साहब को इसलिये और ज़्यादा चाहता हूँ क्योंकि उनके ज़रिये मेरी मुलाक़ात हुई ग़ालिब से। नाम सुना था लेकिन कलाम नहीं। गुलज़ार के मिर्ज़ा ग़ालिब सीरियल देखिये तो लगता है जैसे जगजीत सिंह की आवाज़ बनी ही थी ग़ालिब सुनाने के लिए।
ज़िंदगी के अलग अलग मुकाम पर जगजीत सिंह जी ने बहुत साथ दिया है। उस समय बाकी भी कई सारे ग़ज़ल गायक थे लेकिन जगजीत सिंह ग़ज़ल के मामले में पहला प्यार की तरह रहे। उन दिनों एक और सीरियल आया था सैलाब जिसमें भी जगजीत सिंह की गायी हुई ग़ज़ल थी – अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं।
ये ग़ज़ल सीरियल में किरदारों की ज़िंदगी में चल रहे कशमकश को बयां करती। सचिन खेड़ेकर और रेणुका शहाणे मुख्य भूमिका में थे और सीरियल शायद 30-35 एपिसोड में ख़त्म हो गया था। उस पूरे सीरियल को जगजीत सिंह साहब की इस एक ग़ज़ल ने बाँध रखा था।
वैसे तो मुझे उनकी सभी ग़ज़लें पसंद हैं लेकिन प्यार का मौसम है तो फ़िलहाल के लिये जब इश्क़ तुम्हे हो जायेगा।
वाशी में एक होटल है \’चिनाब\’ जो सिर्फ और सिर्फ जगजीत सिंह साहब की ग़ज़लें ही सुनाता है। मतलब पूरा माहौल रहता है। मौका मिले तो रात में तब्दील होती शाम के साथ खाट पर आराम से पसरे हुए लुत्फ़ उठायें जगजीत सिंह की मखमली आवाज़ का।
सालगिरह मुबारक ग़ज़ल सम्राट।